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लेखक- विजय पांडेय/श्वेता पांडेय

सौजन्य- सत्यकथा

रास्ते में उस ने एक पेड़ के नीचे बाइक खड़ी की. फिर रूपा को मालिक से हुई तकरार के बारे में बताया. सुन कर रूपा गंभीर हो गई. वह बोली, ‘‘उन्होंने जो कुछ कहा, वह अपनी जगह सही है. अच्छाखासा काम हाथ से निकल गया.’’

‘‘तुम क्यों परेशान हो रही हो रूपा, काम चला गया तो क्या हुआ. हाथपैर और मेरा हुनर थोड़े ही चला गया है.’’ चंद्रशेखर ने उसे समझाया, ‘‘काम करना है तो कहीं भी कर लेंगे. तुम पर ऐसी दरजनों गाडि़यां और नौकरियां कुरबान.’’

फिर चंद्रशेखर जेब के अंदर हाथ डाल कर बंद मुट्ठी निकाल कर बोला, ‘‘गेस करो रूपा, इस मुट्ठी में क्या है?’’

‘‘मुझे क्या मालूम.’’ वह बोली.

‘‘सोचो न.’’

‘‘टौफी है क्या?’’ रूपा ने पूछा.

‘‘नहीं…और कुछ, बताओ.’’

रूपा ने दिमाग पर जोर डाला. फिर उस ने अनभिज्ञता से कंधे उचकाए. तभी चंद्रशेखर बोला, ‘‘चलो, अपनी आंखें बंद करो…और हाथ आगे बढ़ाओ.’’

रूपा ने आंखें बंद कर के अपनी हथेलियां उस के सामने खोल दीं. तभी चंद्रशेखर ने रूपा की हथेली पर कुछ रख कर कहा, ‘‘अब अपनी आंखें खोलो.’’

रूपा ने आंखें खोलीं. एक अंगूठी थी जो अमेरिकन डायमंड की थी और जगमगा रही थी.

अंगूठी पर पेड़ के पत्तों से छन कर आती हुई सूर्य की किरणें पड़ रही थीं. और रिफ्लेक्ट हो कर सात रंगों की किरणें बिखर रही थीं. अंगूठी देख कर रूपा बहुत खुश हुई.

‘‘कैसा लगा?’’ चंद्रशेखर ने पूछा.

‘‘बहुत सुंदर…बहुत ही प्यारा है.’’

‘‘पहन कर दिखाओ जरा.’’

‘‘जब लाए ही हो तो तुम्हीं पहना दो न.’’ कहती हुई रूपा ने अपना हाथ चंद्रशेखर की ओर बढ़ा दिया. रूपा के हाथ से अंगूठी ले कर रूपा को पहना दी. उस की अंगुली में अंगूठी अच्छी लग रही थी.

सड़क के किनारे गन्ने का एक खेत था. चंद्रशेखर ने उस ओर इशारा किया तो रूपा बोली, ‘‘गन्ना खाना चाहते हो तो जाओ ले आओ.’’

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‘‘ऐसा करते हैं दोनों वहीं खेत में चलते हैं.’’

‘‘नहीं…नहीं मुझे गन्ने के झुरमुटों से डर लगता है. मैं नहीं जाऊंगी.’’

चंद्रशेखर ने जिद की तो रूपा को झुकना पड़ा. फिर दोनों गन्ने के खेत की ओर बढ़े और खेत में भीतर घुस गए. दोचार कदम चलने के बाद रूपा ठिठकी. तो चंद्रशेखर बोला, ‘‘अरे, आओ न… आओ, आती क्यों नहीं. अच्छा सा गन्ना तोडें़गे.’’

डरतीझिझकती रूपा चंद्रशेखर के पीछे चलने लगी. गन्ने के सूखे भूरे पत्ते पैरों में दब कर चर्रमर्र की आवाज कर रहे थे. जब दोनों काफी भीतर घुस गए तब चंद्रशेखर ने अपनी बाइक और सड़क की ओर देखा. लेकिन झुरमुटों की वजह से कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था. अचानक चंद्रशेखर ठिठका. उसे ठिठकते देख कर रूपा भी ठिठक पड़ी.

चंद्रशेखर उस की ओर देखते हुए मुसकराया, ‘‘रूपा, यहां तक चली आई. गन्ना ही खाना होता तो इतनी दूर आने की क्या जरूरत थी. पहले ही न तोड़ लेता.’’

‘‘फिर क्यों आए इतनी दूर? मैं अभी भी नहीं समझी.’’

चंद्रशेखर के होंठों पर शरारत उभर आई. वह रूपा के करीब पहुंचा

और उस के हाथों को अपने हाथ में ले लिया, ‘‘रूपा…’’

चंद्रशेखर ने तर्जनी अंगुली को अंगुली पर रखा तो रूपा बोली, ‘‘ओह… इसलिए मुझे यहां इतनी दूर लाए हो.’’

‘‘हां, तुम तो जानती हो कि वहां तो ऐसा कुछ कर नहीं पाते, जगह भी मुफीद नहीं थी. यहां भला हमें कौन देखेगा.’’ कह कर चंद्रशेखर ने रूपा को अपने बाहुपाश में लेना चाहा. वह कोई ठोस निर्णय ले पाता कि उस ने देखा रूपा उस के पीछे देख रही है.

वह पीछे पलटा तो एक गाय तेजी से दौड़ती आ रही थी. गाय के पीछे से रखवाली करने वाले किसान की हा…हू.. की आवाज उन दोनों के कानों तक पहुंची. रूपा बोली, ‘‘चलो, यहां से. गाय आ रही है. लगता है, किसान गांव के पीछेपीछे आ रहा है.’’

फिर कई गायों का झुंड गन्ने में घुस आया. किसान की आवाज भी करीब आती जा रही थी. फिर रूपा वहां नहीं ठहरी. वह हाथों से गन्ने के पत्तों को अलग करती हुई वहां से भागी. चंद्रशेखर भी हड़बड़ाए अंदाज में बाइक की ओर भागा.

रूपा हांफ रही थी. वह हांफती हुई बोली, ‘‘खा लिए गन्ने? ऊपर से देखो…’’ उस के सैंडिल की पट्टी एक ओर से उखड़ गई थी. पत्तों से हाथपैर अलग छिल गए थे.

रूपा बोली, ‘‘कहां ला कर फंसा दिया.’’

फिर दोनों वहां ठहरे नहीं. बाइक पर बैठ कर चले गए.

इस के बाद दोनों की मेलमुलाकातों की चर्चाएं पहले कानाफूसी में तब्दील हुईं. फिर बेलसोंडा में दोनों की मुलाकात और प्यार की चर्चाएं होने लगीं. यह बात रूपा के पिता सुरेंद्र और मां जमुना के कानों तक भी पहुंची.

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चूंकि लड़की बालिग हो चुकी थी और बगावत पर उतर सकती थी. इसलिए सुरेंद्र ने रूपा को अपनी बड़ी बेटी हेमलता की ससुराल में उस के पास भेज दिया. रूपा हेमलता के यहां 20-25 दिन रह कर पिता के घर आ गई.

इस बीच चंद्रशेखर ट्रक चलाने लगा था. गुजरे हुए समय में रूपा और चंद्रशेखर ने सैकड़ों ख्वाब देखे थे. गांव आने के बाद कुछ समय तक सब कुछ ठीक चलता रहा.

20-25 दिनों की जुदाई के बाद चंद्रशेखर और रूपा की मुलाकात हुई. चंद्रशेखर ने उस से शिकायत की, ‘‘रूपा, तुम अपनी बहन के पास रायपुर जा कर इतनी मशगूल हो गईं कि एक फोन तक नहीं किया.’’

‘‘मेरे पास फोन था ही कहां,’’ रूपा सफाई में बोली.

‘‘क्यों, कहां गया तुम्हारा फोन?’’

‘‘घर वालों ने ले लिया था.’’

‘‘नंबर तो जानती हो. फोन किसी से मांग लेती.’’

‘‘मैं दीदी की देखभाल में थी.’’

‘‘यह क्यों नहीं कहतीं कि मैं याद ही नहीं रहा तुम्हें.’’ चंद्रशेखर ने कहा.

‘‘नहीं…नहीं, ऐसी बात नहीं है. हमारा मिलना और हमारा प्यार गांव वालों की नजरों में आ चुका है. अब ऐसा लगता है कि हमें एकदूसरे से नहीं मिलना चाहिए.’’ रूपा बोली.

‘‘रूपा…तुम मिलने की बात पर अटकी हो, मैं तो तुम से शादी करना चाहता हूं.’’ चंद्रशेखर बोला.

‘‘हमारे चाहने से क्या होगा? घर वालों और समाज की मंजूरी भी जरूरी है.’’ रूपा तनिक चिढ़ गई.

‘‘रूपा, तुम्हारी यह बात गलत है. बताओ, जब तुम ने मुझ से प्यारर किया था तो क्या घर, समाज और परिवार से पूछ कर किया था?’’

‘‘नहीं, उस वक्त मुझ पर घरपरिवार और समाज का दबाव नहीं था. और आज मैं इन तीनों की निगाहों में हूं. मुझ में इतनी ताकत नहीं है कि मैं इन से लड़ कर विद्रोह कर सकूं.’’ रूपा ने कहा.

‘‘यह बात तुम्हें उस वक्त सोचनी चाहिए थी, जब प्यार की डगर पर चंद कदम ही बढ़ी थीं. अब तो हम बहुत दूर निकल आए हैं रूपा. इस का मतलब, तुम मेरा साथ नहीं दोगी?’’

‘‘माना कि हम दोनों साल भर साथ रहे, दोस्त की तरह. लेकिन इस अपनेपन को प्यार का नाम नहीं दिया जा सकता.’’

कुछ पलों तक हैरानगी, बेचारगी से रूपा की ओर देख कर चंद्रशेखर बोला, ‘‘ऐसा मत कहो रूपा. हमारी चाहत को अपनेपन का लबादा मत ओढ़ाओ. मैं ने तुम्हें और खुद को ले कर ढेरों ख्वाब देखे हैं. तुम्हारे विचार जान कर जी चाहता है कि इसी सड़क पर किसी वाहन के नीचे कुचल कर मर जाऊं.’’

वह गहरी सांस ले कर फिर बोला, ‘‘सचमुच मैं बहुत दूर निकल आया हूं तुम्हारे साथ, अब वापस लौटना मुमकिन नहीं.’’

‘‘सड़क पर सिर पटक कर मरना चाहते हो, ऐसा कर के क्या यह जाहिर करना चाह रहे हो कि तुम मेरे बिना जी नहीं सकते?’’ रूपा तीखे शब्दों में बोली.

चंद्रशेखर रूपा की बात सुन कर पहली बार आपे से बाहर होता हुआ बोला, ‘‘मत भूलो रूपा कि जिस सड़क पर मैं स्वयं को फना करने का माद्दा रखता हूं. यहीं इस सड़क पर तुम्हारे साथ भी कर सकता हूं.’’

वह फिर गिड़गिड़ाया, ‘‘प्लीज रूपा, ऐसा मत कहो.’’

‘‘चंद्रशेखर, तुम समझने का प्रयास नहीं कर रहे हो या फिर समझना नहीं चाहते.’’

‘‘रूपा, तुम क्या समझाना चाह रही हो? और मैं क्या नहीं समझ रहा हूं?’’

‘‘तो सुनो, फिर कह रही हूं कि जिसे तुम प्यार समझ रहे हो, वह प्यार नहीं. सिर्फ दोस्ती थी.’’ इस के बाद चंद्रशेखर के होंठों से बेबसी में शब्द निकले, ‘‘रूपा, जिस प्यार को तुम दोस्ती का नाम दे रही हो, इस से अच्छा है कि इसे बेनाम ही रहने दो. मैं देख रहा हूं तुम्हारा व्यवहार बदल रहा है.’’

चंद्रशेखर अभी कुछ और बोलने ही जा रहा था कि रूपा यह कहते हुए वहां से चली गई कि तुम्हें जो समझना है, समझते रहो. इतना मान कर चलो कि अब मैं तुम से कभी नहीं मिलूंगी.

अगले भाग में पढ़ें- चंद्रशेखर ने रूपा पर किया हमला

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