लेखक- पुखराज सोलंकी
गांव से मीलों दूर दिल्ली शहर के इंडस्ट्रीज एरिया की एक फैक्ट्री मे काम कर रहा लीलाधर इस बार शहर आते वक्त अपनी गर्भवती पत्नी रुक्मणी और चार साल की मुनिया से वादा कर के आया था, कि इस बार हमेशा की तुलना में वापस जल्दी ही गांव लौटेगा.
वक्त-वक्त पर पत्नी की खैर खबर के लिए आने वाली आशा दीदी ने भी अप्रैल महिने की ही तारीख़ बताते हुए कहा था कि- 'ऐसे वक्त में तुम्हारा यहां होना बेहद जरूरी है.
'जबाब में लीलाधर बोला- 'मैं तो उससे पहले ही पहुंच जाऊंगा, बस ये मार्च के महीने में काम का कुछ ज्यादा ही दबाव रहता है, जिसके चलते साहब लोग छुट्टी नही देते लेकिन उसके बाद लम्बी छुट्टी पर ही आऊंगा और आते वक्त मुनिया, उसकी मम्मी और नए वाले बाबू के लिए कुछ कपड़े लत्ते भी तो लाने हैं न.'
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लौकडाउन के दौरान उस काट खाने वाले कमरे में छत को घूरते हुए लीलाधर अपने अतीत में खोया यह सब सोच ही रहा था कि कुंडी के खडकने से उसकी तंद्रा टूटी. लुंगी लपेटते हुए दरवाजा खोला तो सामने फैक्ट्री का सुपरवाइजर खड़ा था, वो बाहर खड़े-खड़े ही बोला-
'कुछ जुगाड़ बिठाया कि नहीं गांव जाने का, फैक्ट्री अभी बंद है और मालिक भी किसकिस को खिलाएगा घर से, ये पकड़ पांच सौ रूपये, मालिक ने भेजें है, और आज शाम तक कमरा खाली कर देना, बाकी का हिसाब वापसी पर ही होगा.'
यह सुनकर लीलाधर को एक बार तो ऐसा लगा जैसे इस वायरस ने उसके भविष्य के सपनों को अभी से ही संक्रमित करना शुरू कर दिया हो. अब कोई और चारा नही था, लिहाजा कमरा खाली करना पड़ा. अब जाए तो जाए कहां ना बस ना ट्रेन जेब में पांच का नोट और कुछ पांच-दस के सिक्के, अब अगर यहां रूका तो जो हैं वो भी खर्च हो जाएंगें.