रात के 10 बज रहे थे. जेल में चारों ओर सन्नाटा पसरा हुआ था. कैदियों को उन के बैरकों में भेज दिया गया था और अब तक उन में से ज्यादातर सो गए थे, तो कुछ सोने की तैयारी कर रहे थे. जेल में गश्ती दल के सिपाही गश्त पर निकल गए थे.
इन्हीं सिपाहियों में आशा भी एक थी. जब वह पहरेदारी करते हुए एक बैरक से हो कर गुजरने लगी तो एक कैदी ने उसे धीमी आवाज में पुकारा.
आवाज सुन कर आशा के पैर ठिठके और वह बैरक के लोहे के दरवाजे पर आ खड़ी हुई. लोहे के दरवाजे के उस पार उसे पुकारने वाला कैदी खड़ा था.
‘‘क्या है रमेश, तुम ने मुझे क्यों पुकारा?’’ आशा धीमी आवाज में बोली.
यह पूछते हुए आशा की निगाहें कैदी के दोहरे बदन पर फिसल रही थीं और आंखों में तारीफ के भाव उभरे हुए थे.
‘‘सुन, मुझे बाहर एक संदेश पहुंचाना है,’’ रमेश यादव बोला.
‘‘लगता है, किसी दिन तुम मुझे फंसवा दोगे. तुम नहीं जानते, अगर किसी को इस बात का पता चल गया कि मैं तुम्हारे साथियों को बाहर तुम्हारा संदेशा पहुंचाती हूं तो मेरी अच्छीखासी नौकरी पर बन आएगी.’’
‘‘तुम्हारे साथ ऐसा कुछ नहीं होगा…’’ रमेश यादव बोला, ‘‘फिर मैं तुम्हें इस की कीमत भी तो देता हूं.’’
‘‘तुम क्या समझते हो कि मैं इस कीमत के लालच में तुम्हारा काम करती हूं,’’ आशा ने कहा.
‘‘फिर किसलिए करती हो?’’ कहते हुए रमेश यादव के होंठों पर एक हलकी सी मुसकान उभरी.
‘‘तुम्हारा यह कसरती बदन और खूबसूरत थोबड़ा मुझे पसंद आ गया है इसलिए,’’ कहते हुए आशा मुसकराई.
‘‘तू भी कुछ कम खूबसूरत और मादक नहीं है,’’ रमेश यादव ने उस के हसीन चेहरे और गदराए बदन पर एक नजर डाली.
‘‘मतलब, मैं तुम्हें पसंद हूं?’’
‘‘बहुत…’’ रमेश यादव बोला, ‘‘मैं खुद तुम्हें पाने को बेचैन हूं. पर तू फिक्र न कर. मेरे साथी जल्द ही मुझे यहां से निकाल लेंगे. फिर तो हम खुल कर एकदूसरे से मिल सकेंगे.’’
‘‘न जाने वह दिन कब आएगा,’’ आशा एक सर्द आह भर कर बोली.
‘‘जल्द आएगा…’’ रमेश यादव बोला, ‘‘खैर, मेरा यह संदेश का पुरजा इस पर लिखे पते पर पहुंचा देना.’’
आशा ने एक सतर्क निगाह चारों तरफ डाली, फिर हाथ बढ़ा कर पुरजा थाम लिया और तेजी से आगे बढ़ गई. आगे एक सुनसान जगह पर पहुंच कर उस ने पुरजा खोला तो उस में 100 रुपए का एक नोट रखा था. उस ने नोट अपनी कमीज की जेब के हवाले किया, फिर उस पुरजे को अंदर की जेब में रख कर जेल का चक्कर काटने लगी.
आशा 35 साला गदराए बदन और खूबसूरत चेहरे की थी. 10 सालों से वह पुलिस में थी और 6 महीने पहले रमेश यादव इस जेल में आया था. दोहरे बदन, मोहक चेहरेमोहरे के इस अपराधी ने जब शुरूशुरू में उस से जानपहचान करने की कोशिश की तो आशा थोड़ी हिचकी थी, फिर न जाने ऐसा क्या हुआ कि वह उस से जानपहचान करती चली गई.
शायद कसरती बदन और सलोना चेहरा उसे भा गया था या फिर अपने साथियों को संदेश पहुंचाने के एवज में वह उसे पैसे जो देता था.
रमेश यादव अपने क्षेत्र का एक बदनाम अपराधी था और दुकानदारों और कारोबारियों से रंगदारी वसूलता था. उस के साथी जान से मारने या जख्मी करने से नहीं हिचकते थे.
रमेश यादव का जेल में आनाजाना लगा रहता था. पर, चाहे वह जेल के बाहर रहता या अंदर, हर हाल में उस का धंधा चलता रहता. उस के जेल में रहने की हालत में उस के साथी उस की चिट्ठी ले कर उस के बताए दुकानदार और कारोबारी के पास पहुंचते और उस के डर से दुकानदार या कारोबारी उस के द्वारा मांगी गई रकम उस के साथी को दे देते.
रमेश यादव की ऐसी ही चिट्ठियां आशा उस के साथियों तक पहुंचाने लगी. लेनदेन में दोनों शारीरिक रूप से भी एकदूसरे की ओर खिंचते चले गए थे.
जहां आशा को रमेश का दोहरा बदन ललचाता था, वहीं रमेश आशा के गदराए मादक बदन को अपनी बांहों में समेटने का ख्वाब देखता था.
कुछ सप्ताह बाद आशा का फोन बजा, ‘हैलो.’
‘‘कौन?’’
‘मैं रमेश यादव बोल रहा हूं.’
‘‘अब याद आई है मेरी…’’ आशा अपनी आवाज में नाराजगी घोलते हुए बोली, ‘‘जबकि तुम 10 दिन पहले ही जेल से बाहर आ चुके हो.’’
‘नाराज मत हो यार…’ उधर से रमेश यादव की मनुहार भरी आवाज सुनाई पड़ी, ‘जेल जाने के कारण बहुत सारा काम पैंडिंग पड़ा था, उन्हें निबटाने में उलझ गया था. इन से जैसे ही फुरसत मिली, तुम्हें फोन किया.’
‘‘फोन कैसे किया?’’
‘अरे यार, तुझ से मिलने के लिए मन बेचैन है.’
‘‘बेचैन तो मैं भी हूं.’’
‘फिर तो ऐसा कर, आज शाम
मुझ से मिल. हम दोनों मिल कर अपनीअपनी बेचैनी मिटाएंगे,’ कह कर रमेश यादव हंसा.
‘‘कहां…?’’
‘तू किसी जानीपहचानी जगह पर तो मुझ से मिल नहीं सकती.’
‘‘फिर…?’’
‘मेरे फार्महाउस पर चली आ.’
‘‘पता बोल.’’
रमेश यादव ने पता बतलाया.
‘‘ठीक है, मैं शाम को साढ़े 5 बजे तक वहां पहुंच जाऊंगी.’’
‘अच्छी बात है.’ रमेश यादव बोला.
अपने वादे के अनुसार आशा साढ़े 5 बजे रमेश यादव के फार्महाउस पर पहुंच गई. दरवाजे पर खड़े दरबान ने उसे रमेश यादव के कमरे में पहुंचाया.
आशा को देखते ही रमेश यादव खुशदिली से बोला, ‘‘आओ आशा, मैं तुम्हारा ही इंतजार कर रहा था.’’
आशा सधे हुए कदमों से आगे बढ़ी और आ कर उस बिछावन पर बैठ गई जिस पर रमेश यादव शराब की बोतल खोले बैठा था.
‘‘यकीन करो आशा, तुम्हारे इंतजार में शराब पीने का मजा ही नहीं आ रहा था. अब तुम आ गई हो तो पीने का असली मजा आएगा.’’
‘‘जरूर…’’ आशा उसे कातिल नजरों से देखती हुई बोली, ‘‘मैं तुम्हें अपने हाथों से पिलाऊंगी,’’ कहते हुए आशा ने वहां पड़े शीशे के गिलास में शराब डाली, फिर उसे रमेश यादव की ओर बढ़ाया.
‘‘ऐसे नहीं.’’
‘‘फिर?’’
‘‘पहले तुम अपने होंठों का रस इस में घोलो. यकीन मानो, शराब का नशा दोगुना हो जाएगा.’’
आशा ने गिलास से एक घूंट भरा, फिर गिलास रमेश यादव के होंठों से लगा दिया. एक ही सांस में रमेश यादव ने गिलास खाली किया, फिर वह हसरतभरी नजरों से आशा के गदराए बदन को देखने लगा. ऐसे में जब आशा ने दोबारा गिलास भरा तो वह बोला, ‘‘ऐसे दूरदूर से मत पिला. जरा मेरे करीब आ जा.’’
बदले में आशा अपनी टांगें फैला कर उस की गोद में आ बैठी, फिर गिलास उस के होंठों से लगाया. अब की बार रमेश यादव ने जरा भी जल्दीबाजी नहीं की बल्कि घूंटघूंट शराब चुसकने लगा.
दूसरी ओर रमेश यादव के हाथ आशा के बदन की ऊंचाइयांगहराइयां नाप रहे थे. अपने बदन पर रमेश यादव के बेताब हाथों की छुअन पा कर आशा बेहाल होने लगी. ऐसे में उस ने अपने हाथ का गिलास फर्श पर टिकाया, फिर रमेश यादव को बिछावन पर लिटा कर उस को बेताबी से चूमने लगी.
आशा की इस हरकत से रमेश यादव के तनबदन में वासना के शोले भड़कने लगे और उस ने अपने ऊपर सवार आशा की कमर के इर्दगिर्द अपनी बांहें कस दीं.
इस के बाद तो आशा अकसर रमेश यादव से मिलने लगी. रमेश यादव न सिर्फ भरपूर जिस्मानी सुख देता था, बल्कि उस पर दोनों हाथों से पैसे भी लुटाता था.
आशा तो पहले ही अपने पति से खुश नहीं थी, रमेश यादव जैसा प्रेमी पा कर उस की ओर से आशा और भी लापरवाह हो गई. जेल की नौकरी में पैसा और रिश्वत दोनों मिलते थे, पर इतने नहीं.
अगले भाग में पढ़िए- क्या हुआ आशा और रमेश के नाजायज रिश्ते का… ?