बड़ी औरतों के शिकार कम उम्र के लड़के

योगिता 48 साल की एक बेहद खूबसूरत औरत है. उस का चेहरा देख कर कोई भी उस की असली उम्र का अंदाजा नहीं लगा सकता. अपने पति हरीश की अचानक हुई मौत के बाद से योगिता उस का पूरा कारोबार खुद ही संभाल रही है. कारोबार में योगिता को कोई बेवकूफ नहीं बना सकता. लेकिन उस में एक खास कमजोरी है, कम उम्र के लड़कों से दोस्ती करना. अपने स्टाफ में योगिता ज्यादातर 20 से 25 साल की उम्र के स्मार्ट व खूबसूरत कुंआरों को ही रखती है.

योगिता इस बारे में कहती है कि ऐसे लड़के जोशीले होते हैं. वे ज्यादा मेहनत से काम करते हैं और ईमानदार भी होते हैं. लेकिन खुद उस के स्टाफ के ही लोग दबी जबान में कुछ और ही कहते हैं. इन लोगों का मानना है कि योगिता आजाद तबीयत की औरत है और उसे अलगअलग मर्दों के साथ बिस्तरबाजी करने की आदत है.

इसी तरह नीलम एक मध्यवर्गीय औरत है. उस की उम्र 36 साल है और उस की शादी को तकरीबन 10 साल हो चुके हैं. वह 2 बच्चों की मां भी बन चुकी है, लेकिन अपनी भोली शक्लसूरत के चलते वह अभी भी काफी जवान व खूबसूरत नजर आती है.

नीलम के पति रमेश की पोस्टिंग दूसरे शहर में है, जहां से वह महीने में 1-2 बार ही घर आ पाता है. नीलम और दोनों बच्चे चूंकि घर में अकेले रहते थे, इसलिए रमेश ने एक 19 साल के लड़के सुनील को एक कमरा किराए पर दे दिया. वह स्नातक की पढ़ाई करने के लिए गांव से शहर आया था.

पति की गैरहाजिरी में नीलम अपना ज्यादातर समय सुनील के साथ ही गुजारने लगी. एक रात नीलम की जिस्मानी प्यास इस हद तक बढ़ गई कि उस ने बच्चों के सो जाने के बाद सुनील को अपने कमरे में ही बुला लिया.

सुनील कुछ देर तक तो झिझकता रहा, लेकिन नीलम के मस्त हावभाव आखिरकार उसे पिघलाने में कामयाब हो ही गए. फिर नीलम ने अपना बदन सुनील को सौंप दिया.

इस के बाद तो वे दोनों आएदिन मौका निकाल कर एकदूसरे के साथ सोने लगे. काफी दिनों तक यह सिलसिला चलता रहा, पर सुनील की असावधानी से उन का भांड़ा फूट गया. फिर तो सुनील को काफी बेइज्जत हो कर उस मकान से निकलना पड़ा.

दिनेश ने अपने घर में काम करने के लिए एक 18 साल का पहाड़ी नौकर रामू रखा हुआ था. लेकिन उस के काम से दिनेश खुश नहीं थे. रामू न केवल काम से जी चुराता था, बल्कि दिनेश ने 2-3 बार उसे अपने घर की छोटीमोटी चीजें चुराते हुए भी पकड़ा था.

दिनेश उसे निकालने की सोच रहे थे, लेकिन उस की पत्नी हेमलता ने रोक दिया. आखिरकार एक दिन दफ्तर में अचानक तबीयत खराब होने के चलते दिनेश दोपहर में ही घर आ गया. घर आ कर उस ने अपनी 34 साला बीवी हेमलता को बिना कपड़ों के बिस्तर पर नौकर के साथ सोए हुए देख लिया.

दरअसल, हेमलता दिनेश की दूसरी बीवी थी. अधिक उम्र के पति से जिस्मानी संतुष्टि न मिल पाने के चलते हेमलता ने अपने कम उम्र, लेकिन शरीर से तगड़े नौकर को ही अपना आशिक बना लिया था.

इस तरह की तमाम घटनाएं हमारे समाज की एक कड़वी सचाई बन चुकी हैं, जिस से इनकार नहीं किया जा सकता.

कौन हैं ऐसी औरतें

 अपनी जिस्मानी जरूरतें पूरी करने के लिए ऐसे लड़कों को अपना शिकार बनाने वाली इन औरतों में समाज के हर तबके की औरतें शामिल हैं. इन में एक काफी बड़ा तबका माली रूप से अमीर और ज्यादा पढ़ीलिखी औरतों का है. ऐसी औरतें अपनी जिंदगी को अपनी मरजी से ही गुजारना चाहती हैं.

दूसरी बात यह भी है कि माली रूप से आत्मनिर्भर हो जाने के बाद लड़कियों में अपनी एक अलग सोच पैदा हो जाती है और वे शादी नामक संस्था को फालतू मानने लगती हैं.

जब सारी जरूरतें बगैर शादी किए ही पूरी होने लगें, तो फिर कोई खुद को एक बंधन में क्यों उलझाना चाहेगा? इस के अलावा ऐसी औरतें जवान लड़कों से संबंध कायम करने में सब से आगे हैं, जिन के पतियों के पास धनदौलत की तो कमी नहीं है. लेकिन अपनी बीवियों के लिए समय की कमी है.

इन दोनों के अलावा एक तबका ऐसा भी है, जो कि खुद पहल कर के लड़कों को अपने प्रेमजाल में फंसाने की कोशिश करता है. ये वे औरतें हैं, जो कि किसी मजबूरी के चलते आदमी के साथ का सुख नहीं पातीं.

परिवार में पैसे की कमी के चलते या ऐसी ही किसी दूसरी मजबूरी के चलते जिन लड़कियों की शादी समय से नहीं हो पाती और शरीर की भूख से परेशान हो कर जो मजबूरन किसी आदमी के साथ संबंध बना लेती हैं, उन्हें भी इसी तबके में रखा जा सकता है.

कम उम्र ही क्यों

यह एक सचाई है कि अगर कोई औरत खासकर वह 30-32 साल से ऊपर की है, अपनी इच्छा से किसी पराए मर्द से संबंध बनाने की पहल करती है, तो उस के पीछे खास मकसद जिस्मानी जरूरतों को पूरा करना होता है.

हकीकत यही है कि एक 30-35 साल की खेलीखाई और अनुभवी औरत को पूरा सूख अपने हमउम्र मर्द के साथ ही मिल सकता?है, जिसे बिस्तर के खेल का पूरा अनुभव हो. लेकिन कई औरतें ऐसी भी होती हैं, जो कि अनुभव व सलीके के बजाय केवल तेजी और जोशीलेपन पर कुरबान होती हैं.

स्टेटस सिंबल के लिए

 भारतीय समाज काफी तेजी से बदल रहा है. कभी अमीर लोग खूबसूरत लड़कियों को रखैल बना कर रखते थे, उसी तर्ज पर आजकल अमीर औरतों के बीच सेहतमंद जवान मर्द को बौडीगार्ड के रूप में रखना शान समझा जाने लगा है.

लेकिन वजह चाहे कोई भी हो, अपनी उम्र से छोटे लड़कों के साथ दोस्ती करना और उन के बदन का सुख लूटना ऊपरी तौर पर कितना भी मजेदार नजर आए, लेकिन हकीकत में यह बेहद खतरनाक है.

भारत की लोकतांत्रिक कमजोरी है घूसखोरी

जल संसाधन महकमे के चतुर्थ श्रेणी के एक मुलाजिम नामदेव नागले को अपनी बेटी की शादी के लिए पैसों की जरूरत थी. इस बाबत उन्होंने अपने जीपीएफ के पैसे निकालने के लिए फौर्म भरा. उन्हें 1 लाख 65 हजार रुपए की राशि मंजूर भी हो गई पर अड़ंगा डाल दिया एक क्लर्क रमाशंकर मौर्य ने कि बगैर 4 हजार रुपए की घूस लिए वह यह राशि जारी नहीं करेगा. इस पर नामदेव का बड़बड़ाना लाजिमी था क्योंकि एक महीने बाद मई में उन की बेटी की शादी थी. यह जानते हुए भी कि जीपीएफ का पैसा उन का हक है, वे मन मार कर रिश्वत देने को तैयार हो गए. अप्रैल के पहले हफ्ते में नामदेव नागले ने घूस के एक हजार रुपए एडवांस में दे भी दिए और रमाशंकर के आगे गिड़गिड़ाए कि राशि खाते में आते ही बाकी 3 हजार रुपए भी दे देंगे. पर इस बाबू को तजरबा था कि घूस देने के मामले में लोग इतने ईमानदार नहीं होते कि काम हो जाने के बाद बकाया रकम दे दें, इसलिए वह अंगद के पांव की तरह अड़ गया कि बाकी पैसे दो, तभी भुगतान होगा.

इस पर हैरानपरेशान नामदेव के बेटे राजू ने लोकायुक्त पुलिस में शिकायत कर दी. 6 अप्रैल को रमाशंकर भोपाल के जुबली गेट पर पहुंचा तो लोकायुक्त पुलिस ने उसे राजू से घूस लेते रंगे हाथों धर लिया.

बेअसर खबरें

इस और ऐसी खबरों का कोई असर अब किसी पर पड़ता हो, ऐसा कतई नहीं लगता. देशभर में रोजाना सैकड़ों लोग घूस लेते पकड़े जाते हैं. इस से लगता यह है कि घूसखोरी को एक सामाजिक मंजूरी मिल चुकी है.

किसी भी सरकारी दफ्तर में छोटेबड़े काम के लिए चले जाइए, बगैर घूस दिए कुछ नहीं होता. काम जायज हो या नाजायज, नजराना तो देना ही पड़ता है. जाहिर है हर रोज लाखोंकरोड़ों रुपए सरकारी मुलाजिम घूस खाते हैं और किसी का कुछ खास नहीं बिगड़ता. थोड़ाबहुत हल्ला तब जरूर मचता है जब किसी छोटे मुलाजिम के पास से उस की हैसियत और औकात से ज्यादा जायदाद बरामद होती है.

तब भी लोग पहले की तरह यह नहीं कहते कि घूसखोरी बढ़ रही है, बल्कि इस बात पर हैरानी जताते हैं कि एक चपरासी के पास करोड़ों की जायदाद निकली या फिर 30-35 हजार रुपए महीने की पगार वाले बाबू के घर छापे में इतने किलो सोना, इतनी जमीनें, इतना नकदी और इतनी गाडि़यां मिलीं. क्या जमाना आ गया है.

जमाना धीरेधीरे होते यह आ गया है कि घूसखोरी को लोगों ने तथाकथित भाग्य की तरह स्वीकार लिया है. इस का अब बड़े पैमाने पर कोई विरोध नहीं होता. जाहिर है बातबात पर भड़कने वाले आम लोगों ने घूसखोरों और घूसखोरी के सामने हथियार डाल दिए हैं. लोगों ने घूसखोरी को एक तरह से सरकारी मुलाजिमों का हक मान लिया है. हां, इस की रकम पर जरूर वे मुलाजिमों से चखचख करते हैं, बाजार की जबां में कहें तो मोलभाव करते हैं. बावजूद यह जानने के कि हर महकमे में हरेक काम का दाम फिक्स है. बस, सरकार इस की दरों की लिस्ट नहीं टांग सकती क्योंकि इस में कानून आडे़ आता है.

इन कानूनों को भी कोई नहीं कोसता क्योंकि इन्हीं नियमकायदे व कानूनों की वजह से सरकारी मुलाजिमों को घूस मिलती है. कानून की चौखट पर इंसाफ के लिए सिर रगड़ने लोग जाएं तो वहां भी तारीखों के लिए घूस जरूरी है. पटवारी से अपनी ही जमीन का खसरा नक्शा चाहिए तो घूस, पुलिस में रिपोर्ट लिखानी है तो घूस, अपनी ही जमीन पर मकान बनवाने की इजाजत चाहिए तो नगर पालिका या नगर निगम में घूस, अस्पताल में इलाज चाहिए तो भी घूस, और तो और, सरकार को टैक्स चुकाना हो तो भी घूस देनी पड़ती है.

घूस देना अब अक्लमंदी का दूसरा नाम हो गया है. आम लोग कितने समझदार हो गए हैं, इस का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब भी वे अपने किसी काम के लिए घर से सरकारी दफ्तर जाते हैं तो काम के मुताबिक जेब में रुपए रख कर ले जाते हैं कि कम से कम इतने तो लगेंगे ही.

नौबत तो यहां तक आ गई है कि किसी डर या दूसरी वजह के चलते घूस लेने से मुलाजिम इनकार कर दें तो लोग उस को कोसने लगते हैं कि काइयां है जो काम करने से इस तरह मना कर रहा है. लिहाजा, वे अपनी पेशकश बढ़ाते जाते हैं कि अच्छा हजार की जगह 2 हजार दे दूंगा पर मुफ्त में ईमानधरम और कायदेनियमों से काम हो जाएगा, यह मजाक मत करो.

उधर, लेने वाला मन ही मन झल्लाता है कि एक तो ईमानदारी से काम करें और ऊपर से इन के नखरे भी बरदाश्त करो कि नहीं, घूस तो हम देंगे ही. यानी घूस लेना ही नहीं, बल्कि घूस देना भी लोगों की आदत में शुमार हो चला है. इसलिए घूसखोरी की खबरों से किसी के कान पर जूं तक नहीं रेंगती. उलटे, यह तसल्ली हो जाती है कि घूस के जरिए काम अभी भी हो रहे हैं, इसलिए चिंता की कोई बात नहीं.

अक्लमंद आदमी घूस पर गुस्सा नहीं करता और न ही एतराज जताता. वह मशवरा देता और लेता है कि अजी खामखां परेशान हो रहे हो, जा कर बाबू की टेबल पर हजारपांच सौ रुपए पटक दो, काम चुटकियों में हो जाएगा. ऐसा होता भी है. इस के अलावा घूस देने वाला कह उठता है कि कितना भला आदमी है बेचारा, कुछ ले कर ही सही, काम तो कर दिया. वरना कुछ मुलाजिम तो घूस लेने से ही इनकार कर दिल तोड़ देते हैं.

यहां से आई बीमारी

घूसखोरी का रोजमर्राई जिंदगी का हिस्सा बन जाना हैरत की बात नहीं है. बातबात में मंदिरों और पंडों के जरिए भगवान को घूस देने का तरीका आदमी बचपन से ही सीख जाता है.

जिस देश में सवा रुपए मंदिर में चढ़ा देने से बेटे को नौकरी मिल जाती हो और 11 रुपए की दक्षिणा में बेटी की शादी हो जाती हो, उस देश में घूसखोरी कतई छानबीन का मसौदा नहीं. धर्म ने लोगों को उस की पैदाइश के साथ ही सिखा दिया था कि कोई काम बगैर दिए नहीं होता. जेब में चढ़ाने के लिए पैसा हो, तो कैंसर जैसी लाइलाज बीमारी के ठीक होने में भी घूस चल जाती है पर इस में जरा सी खोट यह है कि ऐसे काम होने की कोई गारंटी नहीं क्योंकि ऊपर वाले के दफ्तर (दरबार) में रोज लाखोंकरोड़ों अर्जियां लगती हैं. अब यह समय की बात है कि वह किस की सुनता है.

सच्चा हिंदुस्तानी वह नहीं है जो फख्र से भारतमाता की जय बोले, बल्कि वह

है जो इस सच से वाकिफ हो कि फख्र घूसखोरी पर किया जाना है. पंडित भी बच्चे का राशिफल मुफ्त में निकाल कर नहीं देता, फिर सरकारी नौकरी हासिल करने के लिए बिना धर्मस्थलों में पैसा चढ़ाने से काम हो जाएगा, यह सोचना भी गुनाह है.

अब कौन शरीफ आदमी भला गुनाह का पाप अपने सिर लेना चाहेगा, इसलिए वह दानपत्र में हलाल और हराम दोनों की कमाई ठूंसता रहता है और बेफिक्र हो जाता है कि अब कुछ नहीं बिगड़ने वाला. ऊपर वाले तक चढ़ावा पहुंचा दिया है.

जहां भगवान और उस के दलाल तक घूसखोर हों वहां सरकारी मुलाजिमों से पाकसाफ होने की उम्मीद करना वाकई उन के साथ ज्यादती है जो दिनभर घूस बटोरते हैं. और फिर वे शाम को घर जातेजाते उस का कुछ हिस्सा मंदिर, मसजिद, चर्च या गुरुद्वारे में दे आते हैं. इस तरह घूस का पैसा भी घूमफिर कर ऊपर वाले तक पहुंच जाता है. इसलिए मानने में ही भलाई है कि सबकुछ ऊपर वाले का है, वह अपनी मरजी से लेता और देता है. इसलिए घूस पर हायहाय करने के बजाय उस की जयजयकार करना बेहतर है.

नामदेव नागले जैसे शिकायती लोग जागरूक नहीं, बल्कि नास्तिक होते हैं. इसलिए रमाशंकर मौर्य जैसे मुलाजिम पकड़े जाते हैं. यह दीगर बात है कि इन में से 80 फीसदी घूस दे कर छूट भी जाते हैं. इस से लोगों में भगवान के लिए भरोसा और बढ़ता है.

धर्म से यह बीमारी सरकारी दफ्तरों तक पसर गई है, इसलिए किसी को अपने कानूनी हक की चिंता नहीं. उलटे लोगों को इस बात की खुशी रहती है कि 51 रुपए के प्रसाद और 51 हजार रुपए के डोनेशन से बच्चों को अच्छे स्कूल में दाखिला मिल गया. बड़ा हो कर जरूर वह भी काबिल अफसर बनेगा यानी ईमानदारी और मेहनत की कमाई को हाथ नहीं लगाएगा. इस तरह घूस, घूस नहीं एक इन्वैस्टमैंट है.

दावे भी बेअसर

आजादी के बाद जब लोकतंत्र वजूद में आया तो मुफ्त की कमाई का एक और जरिया बन गया जिस का नाम रखा गया सरकार. देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को कुरसी संभालते ही समझ आ गया था कि महान भारत के लोग भक्त टाइप के हैं. चढ़ावा उन की नसनस में भरा हुआ है, इसलिए क्यों न इस गंगा का रुख सरकारी दफ्तरों की तरफ मोड़ दिया जाए.

देखते ही देखते मंदिरों के बराबर ही सरकारी दफ्तर भी चढ़ावे से मुटाने लगे. मंदिरों में पंडे थे तो दफ्तरों में बाबू और अफसर थे. एक जगह घूसखोरी का काम खुलेआम श्रद्धा और आस्था से होता था. दूसरी जगह चोरीछिपे टेबल के नीचे से होने लगा. धीरेधीरे इतना खुलापन और बेशर्मी आने लगी कि जज के सामने बैठा बाबू तारीख दे कर लाखों बनाने लगा और इंसाफ करने वाले जज साहब बेचारगी या मरजी से यह गुनाह होते देखते रहे.

दूसरे महकमों में भी यह रिवाज लागू हो गया. बड़े साहब इस पाप की कमाई को हाथ नहीं लगाते, उन्हें शंकराचार्य या महामंडलेश्वर कहने में हर्ज नहीं. छोटा साहब या बाबू पुजारी बन घूस समेटने लगा और बंगले यानी मठ में हिस्सा पहुंचाने लगा. इस सिस्टम में वक्तवक्त पर बदलाव होते रहे जिस पर हल्ला कभी नहीं मचा. जो भी सिस्टम सरकारी मुलाजिमों ने बना दिया, उसे लोगों ने खुशीखुशी अपना लिया.

जब नास्तिकों की तादाद बढ़ने लगी तो सरकारों और नेताओं को चिंता होने लगी. लिहाजा, उन्होंने घूस देने जैसे पुण्य काम को जुर्म घोषित कर दिया. कहा जाने लगा कि घूस लेना और देना दोनों अपराध हैं. इस लिहाज से पूरा देश और सवा अरब की आबादी बगैर कुछ किएधरे मुजरिम हो गई और किसी के मन में पाप का डर नहीं रह गया कि सिर्फ वही पापी है.

इस तरह घूसखोरी को मंजूरी मिल गई पर जब उस की इंतहा हो गई तो अन्ना हजारे जैसे समाजसेवियों ने इस का विरोध भी किया. इस बात पर धरनेप्रदर्शन और आंदोलन हुए तो लोगों को यह खुशफहमी भी हो आई कि अब सचमुच की क्रांति आ रही है जो घूसखोरी बंद करवा कर ही छोड़ेगी.

नोटबंदी से कम नहीं हुई

अन्ना के आंदोलन का असर सिर्फ सियासी हुआ जिस से 2 नए अवतार या देवता नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल पुजने लगे. कांग्रेसी संप्रदाय के मुखिया मनमोहन सिंह को लोगों ने चलता कर दिया. यह बड़ा सुनहरा दौर था जब लोगों को लग रहा था कि अब कोई समस्या नहीं रही.

2014 के लोकसभा चुनावप्रचार में नरेंद्र मोदी भ्रष्टाचार को कोसतेकोसते इस वादे के साथ सत्ता पर काबिज हो गए कि वे घूसखोरी से छुटकारा दिलाएंगे. लोगों ने बेमन से उन पर भरोसा किया और अब पछता रहे हैं कि वे भी वैसे ही निकले क्योंकि दीगर समस्याओं सहित घूसखोरी ज्यों की त्यों है.

नरेंद्र मोदी समझ रहे थे कि लोगों का भरोसा उम्मीद से कम वक्त में उन पर से उठ रहा है तो उन्होंने नोटबंदी लागू कर दी और कहा कि इस से आतंकवाद, भ्रष्टाचार सहित घूसखोरी भी बंद हो जाएगी. इस बाबत उन्होंने पूरा ब्योरा भी पेश किया कि ऐसा कैसे होगा.

लेकिन जिस तरह धर्म की दुकान कभी बंद नहीं होती, वैसे ही घूसखोरी की दुकान भी चल रही है और आज शान से चल रही है. लोगों ने घूस देना और लेना छोड़ा नहीं. बाबुओं की ताकत नोटबंदी से कम नहीं हुई. 8 महीनों में कुछ नहीं हुआ. नोटबंदी का गुबार आ कर गुजर गया पर घूसखोरी का बाजार चमक रहा है.

इस सरकार के पास भी आतंकवाद और नक्सली हिंसा की तरह घूसखोरी का कोई इलाज नहीं है. जो अब तक हुआ, वह नीमहकीमी साबित हुआ. ऐसे में अपनी बेवकूफी पर पछताते लोगों ने

फिर घूसधर्म अपनाने में ही भलाई समझी. अब सबक लेते लोग सालोंसाल घूसखोरी के बारे में चूं भी नहीं करेंगे तो यह उन की गलती भी है और मजबूरी भी जिस के जिम्मेदार एक हद तक वे खुद भी हैं जो अपनी परेशानियों को वादों के ठेकेदारों को बेच कर बेफिक्र हो जाते हैं.

मजदूर ही नहीं खेतिहर भी हैं महिला किसान

महिला किसानों को ले कर आमतौर पर यह सोचा जाता है कि वे केवल खेती में मजदूरी का ही काम करती हैं. असल में यह बात सच नहीं है. आज महिलाएं किसान भी हैं. वे खेत में काम कर के घर की आमदनी बढ़ा रही हैं. बैंक से लोन लेने के साथ ही साथ ट्रैक्टर चलाने, बीज रखने, जैविक खेती करने, खेत में खाद और पानी देने जैसे बहुत सारे काम करती हैं. ऐसी महिला किसानों की अपनी सफल कहानी है, जिस से दूसरी महिला किसान भी प्रेरणा ले रही हैं. जरूरत इस बात की है कि हर गांव में ऐसी महिला किसानों की संख्या बढे़ और खेती की जमीन में उन को भी मर्दों के बराबर हक मिले.

महिलाओं की सब से बड़ी परेशानी यह है कि खेती की जमीन में उन का नाम नहीं होता. इस वजह से बहुत सी सरकारी योजनाओं का लाभ महिला किसानों को नहीं मिल पाता है. खेती की जमीन में महिलाओं का नाम दर्ज कराने के लिए चले ‘आरोह’ अभियान से महिलाओं में एक जागरूकता आई है. आज वे बेहतर तरह सेअपना काम कर रही हैं. तमाम प्रगतिशील महिला किसानों से बात करने पर पता चलता है कि वे किस तरह से अपनी मेहनत के बल पर आगे बढ़ीं.

मुन्नी देवी शाहजहांपुर की रहने वाली हैं. उन के परिवार में 2 बेटे व एक बेटी है. लेकिन घर के हालात कुछ ऐसे बदले कि मुन्नी देवी का परिवार तंगहाली में आ गया. घर में बंटवारा हुआ. पति के हिस्से में जो जमीन आई, उस से गुजारा करना मुश्किल था.

मुन्नी देवी को आश्रम से जुड़ने का मौका मिला. हिम्मत जुटा कर उन्होंने पति से बात कर आश्रम में वर्मी कंपोस्ट बनाने का प्रशिक्षण ले कर बाद में खुद ही खाद बनाने का काम शुरू कर दिया.

आर्थिक उन्नयन के लिए मुन्नी देवी फसलचक्र व फसल प्रबंधन को बेहद जरूरी मानती हैं. 3 बीघे खेत में सब्जी व 5 बीघे खेत में गेहूं 4 बीघे खेत में गन्ने की फसल उगा रही हैं. गन्ने के साथ मूंग, उड़द, मसूर, लहसुन, प्याज, आलू, सरसों वगैरह की सहफसली खेती करती हैं, जिस से परिवार की रसोई के लिए नमक के अलावा बाकी चीजों की जरूरत पूरी कर लेती हैं.

इसलावती देवी अंबेडकरनगर से हैं. उन्होंने कहा कि हम ने मायके में देखा था कि मिर्च की खेती किस तरह होती है और यह लाभप्रद भी है, उसी अनुभव से हम ने मिर्च की खेती शुरू की और आज हम अपने 7 बीघे खेत में सिर्फ सब्जी और मेंथा आयल की फसल उगाते हैं. मिर्च की खेती एक नकदी फसल है. दूसरी सब्जियां भी महंगे दामों में बिक जाती हैं. खेत में हमारा पूरा परिवार कड़ी मेहनत करता है. खेती कोई घाटे का काम नहीं है, अगर खुद किया जाए तो. मैं पिछले साल से अब तक 1 लाख रुपए का मेंथा आयल और 40000 रुपए की मिर्च बेच कर शुद्ध लाभ कमा चुकी हूं. जहां रोज 1000 रुपए की मिर्च, 200 रुपए का दूध बेच लेते हैं, वहीं मेंथा हमारा इमर्जेंसी कैश है. आरोह मंच से जुड़ने के बाद तो जैसे उन के स्वाभिमान में भी बढ़ोतरी हुई है.

कुंता देवी सहारनपुर की एक साहसी, जुझारू व संघर्षशील महिला किसान हैं. 1 दिन जब वे पशुओं के लिए मशीन में चारा काट रही थीं, तो उन का हाथ घास की गठरी के साथ मशीन में चला गया और पूरी बाजू ही कट गई. कुंता ने उसे ही अपना नसीब समझा और सबकुछ चुपचाप सह लिया. लेकिन यहीं कुंता के दुख का अंत नहीं था. उस के देवर व जेठ की बुरी नजर उस पर थी. कुंता का पति मानसिक रोगी था, जिस के कारण कुंता का देवर धर्म सिंह उस का फायदा उठाना चाहता था. वह कुंता पर लगातार दबाव डालने लगा कि पति के साथसाथ वह देवर के साथ भी रहे.

एक दिन जब कुंता पति के साथ अपने खेत में काम कर रही थी, तभी उस का जेठ जय सिंह वहां आया और उस के पति को जबरदस्ती पेड़ से बांध दिया और कुंता के साथ जबरदस्ती करने लगा. लेकिन कुंता बहुत हिम्मतवाली महिला है. उस ने खेत में ही डंडा निकाल कर अपने जेठ को पीटना शुरू कर दिया. उस का जेठ वहां से जान बचा कर भाग गया.

मीरा देवी गोरखपुर की एक लघु सीमांत महिला किसान हैं. आरोह अभियान से पिछले 10 वर्षों से जुड़ी हैं. ग्राम जनकपुर की आरोह महिला मंच की अध्यक्ष भी हैं. आरोह अभियान से जुड़ने के बाद मीरा में जो साहस व हिम्मत आई है, वह एक मिसाल है.

8 साल ही विवाह के हुए थे कि पति की अचानक मौत हो गई. अब मीरा की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे खेती, परिवार व बच्चे कैसे संभाले  इसी  बीच आरोह मंच द्वारा गांव में काम शुरू किया गया, जिस से मीरा जुड़ी.

स्वयं सहायता समूह बना, जिस में मीरा अध्यक्ष के रूप में चुनी गई. समूह की बैठक में भाग लेने से और अन्य गतिविधि जैसे किसान विद्यालय की बैठक, संघ की बैठक वगैरह में जाने के कारण मीरा को अपनी बात कहने का साहस आया.

जगरानी देवी ललितपुर की एक महिला किसान हैं. उन की शहरी आदिवासी पट्टे की जमीन पर वर्षों से दंबगों का कब्जा था, जिस पर इन को कब्जा नहीं मिल रहा था. जब यह आरोह अभियान से जुड़ीं, उस के बाद आरोह अभियान द्वारा जनसुनवाई की गई, जिस में एसडीएम आए तब इन्होंने उन के सामने अपनी समस्या रखी. उस के बाद एसडीएम ने उन्हें कब्जा दिलाया. अब जगरानी देवी अपने खेत में सब्जी की खेती करती हैं और अपनी सब्जी को खुद ही बाजार में बेचती हैं.

एसिड अटैक रोकने में कानून नाकाम

एसिड अटैक रोकने  में कानून नाकाम   देश की राजधानी दिल्ली में अपनी छोटी बहन के साथ जा रही एक लड़की पर द्वारका मोड़ के पास एक लड़के ने एसिड अटैक कर दिया. लड़की ने इस मामले में 2-3 लोगों पर शक जाहिर किया. पुलिस ने सभी 3 आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया.

लड़की के पिता ने बताया, ‘‘मेरी दोनों बेटियां सुबह स्कूल के लिए निकली थीं. कुछ देर बाद मेरी छोटी बेटी भागती हुई आई और उस ने बताया कि 2 लड़के आए और दीदी पर एसिड फेंक कर चले गए.  हर साल देश में एसिड अटैक के 1,000 से ज्यादा मामले सामने आते हैं. आरोपी पकड़े जाते हैं. पुलिस अपना काम करती है. इस के बावजूद लड़की की जिंदगी खराब हो जाती है. एसिड अटैक को ले कर साल 2013 में कानून बना था.

यह भी एसिड की शिकार लड़कियों की पूरी मदद नहीं कर पा रहा है. कानून के तहत एसिड हमलों को अपराध की श्रेणी में ला कर भारतीय दंड संहिता की धारा 326ए और धारा 326बी जोड़ी गई. इन धाराओं के तहत कुसूरवार पाए जाने पर कम से कम  10 साल की जेल की सजा का प्रावधान किया गया है. कुछ मामलों में उम्रकैद का भी प्रावधान रखा गया है.  सुप्रीम कोर्ट ने साल 2013 में एक पीडि़ता की अर्जी पर सुनवाई के दौरान कहा था, ‘एसिड हमला हत्या से भी बुरा है.

इस से पीडि़त की जिंदगी पूरी तरह बरबाद हो जाती है.’ इस के बाद एसिड अटैक के पीडि़तों के इलाज और सुविधाओं के लिए भी नई गाइडलाइंस जारी की गई थीं. सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों की सरकारों को एसिड हमले के शिकार को तुरंत कम से कम 3 लाख रुपए की मदद देने का प्रावधान है. पीडि़ता का मुफ्त इलाज भी सरकार की जिम्मेदारी है.  देखने में यह बेहतर लगता है, पर हकीकत में इस को संभालना बहुत मुश्किल होता है. एसिड की खुली बिक्री पर रोक लगी, इस के बाद भी एसिड मिल रहा है.

साल 2018 से साल 2020 के बीच देश में महिलाओं पर एसिड हमलों के 386 मामले दर्ज किए गए थे. इन में से केवल 62 मामलों के आरोपियों को कुसूरवार पाया गया था. एसिड अटैक की शिकार अपना मुकदमा सही से नहीं लड़ पाती हैं. उन के पास अच्छा वकील करने के लिए पैसे नहीं होते हैं. एसिड अटैक की शिकार अंशु बताती हैं, ‘‘एसिड अटैक के बाद जिंदगी बेहद मुश्किल हो जाती है. इलाज में लाखों रुपए खर्च होते हैं. सरकार से मिलने वाली मदद लेना बेहद मुश्किल होता है. वह मदद इतनी नहीं होती कि सही तरह से इलाज हो सके.  ‘‘इस के बाद जिंदगी में किसी का साथ नहीं मिलता. एसिड अटैक की शिकार लड़कियों के लिए सरकार को पुख्ता कदम उठाने चाहिए.’’

इन 6 पाइंट्स से जानिए खुले में शौच का असली शिकार कौन

डकैत समस्या के चलते कभी दुनियाभर में कुख्यात रहे ग्वालियर व चंबल संभागों के इलाकों की हालत यह हो गई है कि यहां के लोग अब लाइसैंसी हथियारों का इस्तेमाल डकैती डालने या खुद के बचाव के लिए नहीं, बल्कि इत्मीनान से खुले में शौच करने के लिए करने लगे हैं. इन इलाकों के कई गांवों के लोग सुबह जंगल में जाते वक्त एक हाथ में लोटा या पानी की बोतल और दूसरे हाथ में हथियार ले कर शौच के लिए जाते हैं. इन्हें खतरा दुश्मनों या फिर जंगली जानवरों से नहीं, बल्कि उन सरकारी मुलाजिमों से है जिन्होंने खुले में शौच रोकने का बीड़ा उठाया हुआ है, जिस से कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 2 साल पहले शुरू की गई स्वच्छ भारत मुहिम को अंजाम तक पहुंचाया जा सके.

ग्वालियर जिला पंचायत के सीईओ नीरज कुमार को अपर जिला दंडाधिकारी शिवराज शर्मा से झक मार कर यह सिफारिश करनी पड़ी थी कि आधा दर्जन गांवों के तकरीबन 55 बंदूकधारियों के लाइसैंस रद्द किए जाएं क्योंकि ये बंदूक के दम पर खुले में शौच जाते हैं और अगर सरकारी मुलाजिम इन्हें रोकते हैं तो ये गोली चला देने की धौंस देते हैं. मजबूरन सरकारी अमले को उलटे पांव वापस लौटना पड़ता है. ये लोग बदस्तूर खुले में शौच करते रहते हैं. 10 जनवरी को ऐसी ही शिकायत एक ग्राम रोजगार सहायक घनश्याम सिंह दांगी ने उकीता गांव के निवासी अजय पाठक के खिलाफ दर्ज कराई थी. इस बारे में जनपद पंचायत मुरार के सीईओ राजीव मिश्रा की मानें तो गांव में स्वच्छ भारत मुहिम के तहत सुबहसुबह निगरानी करने के लिए टीम गठित की गई थी. उकीता गांव में अजय खुले में शौच कर रहा था. जब उसे खुले में शौच न करने की समझाइश दी गई तो उस ने जान से मारने की धमकी दे दी.

  1. कार्यवाही या ज्यादती

खुले में शौच से लोगों को रोकने के लिए सरकारी मुलाजिम किस कदर मनमानी करने पर उतारू हो गए हैं, यह अब आएदिन उजागर होने लगा है. मध्य प्रदेश के ही उज्जैन से एक वीडियो बीते दिनों वायरल हुआ था जिस में सरकारी मुलाजिम खुले में शौच करते एक बेबस, बूढ़े आदमी से उठकबैठक लगवा रहे हैं और उसे अपना मैला हाथ से उठा कर फेंकने को मजबूर भी कर रहे हैं. वायरल हुए इस वीडियो पर खूब बवाल मचा था पर इस बिगड़ैल सरकारी मुलाजिम का कुछ नहीं बिगड़ा था. इस से यह जरूर साबित हुआ था कि स्वच्छ भारत अभियान अब एक ऐसे खतरनाक मोड़ पर जा पहुंचा है जिस के शिकार वे गरीब दलित ज्यादा हो रहे हैं, जिन के यहां शौचालय इसलिए नहीं हैं कि उन का अपना कोई घर ही नहीं है.

जिन गरीबों के पास अपने घर हैं भी, तो उन्हें मजबूर किया जा रहा है कि वे जैसे भी हो, पहले घर में शौचालय बनवाएं जिस के पीछे छिपी मंशा यह है कि जिस से गांव देहातों के रसूखदार लोगों को बदबू व बीमारियों का सामना न करना पड़े. ग्वालियर और उज्जैन के मामलों में फर्क इतनाभर है कि ग्वालियर के लोग हथियारों के दम पर ही सही, सरकारी मुलाजिमों से जूझ पा रहे हैं लेकिन उज्जैन और देश के दूसरे देहाती व शहरी इलाकों के लोग न तो दबंग हैं और न ही उन के पास शौच करने जाने के लिए हथियार हैं. इसलिए वे खामोशी से ऊंचे वर्गों व सरकारी मुलाजिमों की गुंडागर्दी बरदाश्त करने को मजबूर हैं. उज्जैन का वायरल वीडियो इस की एक उजागर मिसाल थी, जिस में एक गरीब, कमजोर, बूढ़े के साथ जानवरों से भी ज्यादा बदतर बरताव किया गया.

जाहिर है जान पर नहीं बन आती तो ग्वालियर व चंबल संभागों के इलाकों में भी उज्जैन सरीखा शर्मनाक वाकेआ दोहराया जाता. हथियारों से निबटते बीते साल अगस्त में ग्वालियर प्रशासन ने यह फरमान जारी किया था कि जो लोग खुले में शौच करते पाए जाएंगे उन के हथियारों के लाइसैंस रद्द कर दिए जाएंगे. इस पर भी बात न बनी तो प्रशासन ने जुर्माने का रास्ता अख्तियार कर लिया. इस साल जनवरी के दूसरे हफ्ते में ग्वालियर की घाटीगांव जिला पंचायत के 2 गांवों सुलेहला और आंतरी के 21 लोगों पर प्रशासन ने 7 लाख 95 हजार रुपए की भारीभरकम राशि का जुर्माना ठोका था, तो भी खूब बवाल मचा था कि यह तो सरासर ज्यादती है. इतनी भारी रकम गरीब लोग कहां से लाएंगे जो पिछड़े और दलित हैं. यह तो इन पर जुल्म ही है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने सरकारी अफसरों व मुलाजिमों के हाथ में एक कानूनी डंडा थमा दिया है जिस के आगे दूसरे हथियार ज्यादा दिनों तक टिक पाएंगे, ऐसा लगता नहीं क्योंकि खुले में शौच पर जुर्माने की रकम अब मजिस्ट्रेटों के जरिए वसूली जाएगी. अगर जुर्माने की राशि नकद नहीं भरी गई तो शौच करने वालों की जमीनजायदाद कुर्क करने का हक भी सरकार को है. जिस के पास जमीनजायदाद नहीं होगी, उसे जेल में ठूंस दिया जाएगा. बात अकेले ग्वालियर, चंबल या उज्जैन संभागों की नहीं है, बल्कि देशभर में सरकारी मुलाजिम शौच की आड़ में गरीब, दलित और पिछड़ों पर तरहतरह के जुल्म ढा रहे हैं. दिलचस्प बात यह है कि जिन राज्यों में भाजपा का राज है वहां ऐसा ज्यादा हो रहा है. कुछ पीडि़तों को 1975 वाली इमरजैंसी याद आ रही है जब गरीब नौजवानों को पकड़पकड़ कर उन की नसबंदी कर दी गई थी. इंदिरा गांधी और नरेंद्र मोदी में फर्क नहीं रह गया जिन के मुंह से निकली ख्वाहिश ही कानून बन जाती है.

होना तो यह चाहिए था कि प्रशासन हर जगह लोगों में पल्स पोलियो मुहिम की तरह जागरूकता पैदा कर खुले में शौच के नुकसान गिनाते लोगों को उन की सेहत के बाबत आगाह करता, उन्हें शौचालय में शौच करने के फायदे गिनाता. पर, हो उलटा रहा है. सरकारी तंत्र 1975 की तरह बेलगाम हो कर कार्यवाही कर रहा है जिस की बड़ी गाज गांवदेहातों के गरीबों, दलितों और पिछड़ों पर गिर रही है. खुलेतौर पर खुले में शौच और जाति का कोई सीधा ताल्लुक नहीं है पर यह हर कोई जानता है कि अधिकांश दलित गरीब हैं, उन के पास रहने को पक्के तो दूर, कच्चे घर भी नहीं हैं. इसलिए वे खुले में शौच करने को मजबूर होते हैं. ऐसे में इसे जुर्म मानना, उन के साथ नाइंसाफी नहीं तो क्या है?

शौचालय बनवाने के नाम पर हर जगह हेरफेर और घोटाले सामने आने लगे हैं तो लगता है कि भ्रष्टाचार और मनमानी का लाइसैंस सरकारी मुलाजिमों के साथ उन दबंगों को भी मिल गया है जिन का समाज पर खासा दबदबा है. ये दोनों मिल कर शौच के नाम पर कार्यवाही नहीं, बल्कि गुंडागर्दी कर रहे हैं. दिक्कत यह है कि कोई इन के खिलाफ आवाज नहीं उठा रहा. लोगों का पहला अहम काम जुर्माने और सजा से खुद को बचाना है. हालात नोटबंदी जैसे शौच के मामले में भी हो चले हैं कि अगर नए नोट चाहिए तो बदलने के लिए बैंक की लाइनों मेें खामोशी से खड़े रहो वरना मेहनत से कमाए नोट रद्दी हो जाएंगे. जो भी किया जा रहा है वह तुम्हारे उस भले के लिए है जिसे तुम नहीं जानतेसमझते.

यज्ञ, हवन, उपवास, दान, दक्षिणा क्यों कराए जाते हैं? ताकि तुम्हारा यह जन्म व अगला जन्म सुधरे. कैसे सुधारोगे, यह हम कुछ विशेष लोग जानते हैं, आम दलित, गरीब को जानने की जरूरत नहीं. वह पिछले जन्मों के पाप का दंड भोगता रहे. नोटबंदी और खुले में शौच का दिलचस्प कनैक्शन यह है कि अब बैंकों की तरह सार्वजनिक और सुलभ शौचालयों में भीड़ उमड़ने लगी है. कार्यवाही के डर से खुले में शौच करने वाले एक बार पेट हलका करने के लिए 5 रुपए खर्च कर रहे हैं जिस से उन का रोजाना का एक खर्च बढ़ गया है. अगर एक परिवार में 4 सदस्य हैं तो वह 20 रुपए की मार भुगत रहा है जबकि उस की कमाई ज्यों की त्यों है. बल्कि, अब तो नोटबंदी के बाद कमाई और कम हो गई है.

भोपाल के कारोबारी इलाके एमपी नगर में आधा दर्जन सुलभ कौंपलैक्स हैं. इस इलाके में झुग्गीझोंपडि़यों की भी भरमार है. कुछ दिनों पहले तक झुग्गी के लोग 2-4 किलोमीटर दूर जा कर रेल पटरियों के किनारे या सुनसान में मुफ्त में पेट हलका कर आते थे पर अब सरकारी टीमें कभी सीटियां, तो कभी कनस्तर बजा कर उन्हें ढूंढ़ने लगी हैं. ये लोग अब सुलभ और सार्वजनिक शौचालयों की लाइनों में खड़े नजर आने लगे हैं. अगर सहूलियत से और समय पर शौच करना है तो सुलभ कौंपलैक्स में 5 रुपए इन्हें देने पड़ते हैं. मुफ्त वाले शौचालयों में हफ्तों सफाई नहीं होती, गंदगी और बदबू की वजह से इन के आसपास मवेशी भी नहीं फटकते. पर, वे गरीब जरूर कभीकभार हिम्मत कर इन में चले जाते हैं जिन की जेब में 5 रुपए भी नहीं होते.

एमपी नगर इलाके में ही सरगम टाकीज के पास एक झुग्गीझोंपड़ी बस्ती के बाशिंदे गजानंद, जो महाराष्ट्र से मजदूरी करने यहां आए, का कहना है कि उस के परिवार में 6 लोग हैं जो शौच के लिए अब हबीबगंज रेलवे स्टेशन के सुलभ कौंप्लैक्स में जाते हैं जिस से 30 रुपए रोज अलग से खर्च होते हैं. अगर शाम को भी जाना पड़े तो यह खर्च दोगुना हो जाता है. गजानंद बताता है, हम जैसे गरीबों पर यह दोहरी मार है. सरकार हल्ला तो बहुत मचा रही है पर मुफ्त वाले शौचालय बहुत कम हैं.

2. यहां है गड़बड़झाला

खुले में शौच करने वाले आज स्थानीय निकायों की आमदनी का एक बड़ा जरिया बन गए हैं. पंचायतों से ले कर नगरनिगमों तक ने फरमान जारी कर दिए हैं कि जो भी खुले में शौच करता पाया जाएगा, उस से जुर्माना वसूला जाएगा. यह जुर्माना राशि 50 रुपए से ले कर 5 हजार रुपए तक है. मध्य प्रदेश के तमाम नगरनिगम, नगरपालिकाएं, नगरपंचायतें और ग्रामपंचायतें रोज खुले में शौच करने वालों से जुर्माना वसूलते अपनी आमदनी बढ़ा रहे हैं.

स्थानीय निकायों को ऐसे नियम, कायदे व कानून बनाने के हक होने चाहिए कि नहीं, यह अलग और बड़ी बहस का मुद्दा है पर प्रधानमंत्री को खुश करने की होड़ में यह कोई नहीं सोच रहा कि जिस की जेब में जुर्माना देने लायक राशि होती, वह भला खुले में शौच करने जाता ही क्यों. यह मान भी लिया जाए कि कोई 8-10 फीसदी लोगों की खुले में शौच करने की ही आदत पड़ गई है जबकि उन के घर पर शौचालय हैं तो इस की सजा बाकी 90 फीसदी लोगों को क्यों दी जा रही है?

3. परेशानियां तरह तरह की

जो लोग जुर्माना नहीं भर पा रहे हैं, उन के खिलाफ तरहतरह की दिलचस्प लेकिन चिंताजनक कार्यवाहियां की जा रही हैं. इन्हें देख लगता है कि देश में लोकतंत्र और उसे ले कर जागरूकता नाम की चीज कहीं है ही नहीं. इन वाकेओं को देख ऐसा लगता है कि खुले में शौच करने वालों को जागरूक नहीं, बल्कि जलील किया जा रहा है.

कुछ दिनों पहले मध्य प्रदेश के ही सागर जिले में बसस्टैंड पर सुबहसुबह एक ड्राइवर और बसकंडक्टर को नगरनिगम के मुलाजिमों अशोक पांडेय व वसीम खान ने मुरगा बनाया. बसकंडक्टर और ड्राइवर का गुनाह इतना भर था कि वे खुले में शौच करते पकड़े गए थे.

इतना ही नहीं, सागर के ही लेहदरा नाके के इलाके में तो बेलगाम हो चले मुलाजिमों ने खुले में शौच करने वालों को पकड़ कर उन्हें राक्षस का मुखौटा पहना कर उन के साथ मोबाइल फोन से सैल्फी ली. महाराष्ट्र के बुलढाना जिले में प्रशासन ने फरमान जारी किया था कि जो भी खुले में शौच करने वालों के साथ सैल्फी खींच कर लाएगा, उसे इनाम में नकद 5 सौ रुपए दिए जाएंगे. इस का नतीजा यह हुआ कि लोग सुबहसुबह अपना मोबाइल फोन हाथ में ले कर झाडि़यों में झांकते फिरे ताकि कोई शौच करता मिल जाए तो उस के साथ सैल्फी ले कर 5 सौ रुपए कमाए जा सकें.

मनमानी और ज्यादती का आलम यह है कि रतलाम के मैदानों में नगरपरिषद हैलोजन लैंप और बल्ब लगा कर रोशनी के इंतजाम कर रही है जिस से खुले में शौच करने वालों पर नकेल डाली जा सके. हैलोजन बल्ब को लगाने का पैसा है पर गांवों, गंदी बस्तियों में सीवर लगाने का पैसा नहीं है ताकि घरों में ढंग के शौचालय बन सकें.

इस से भी एक कदम आगे चलते सागर नगरनिगम के कमिश्नर कौशलेंद्र विक्रम सिंह ने आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को हुक्म दिया हुआ है कि खुले में शौच को रोकने के लिए वे कलशयात्राएं निकालें, शाम को भजन गाएं और जगहजगह तुलसी के पौधे लगाएं. तुलसी को हिंदू पवित्र पौधा मानते हैं, इसलिए उस के आसपास शौच करने में हिचकिचाएंगे, ऐसा इन साहब का सोचना था.

4. जाति और धर्म से गहरा नाता

कोई अगर यह सोचे कि भला खुले में शौच से जाति और धर्म से क्या वास्ता, तो यह खयाल नादानी और गलतफहमी ही है. हकीकत यह है कि खुले में शौच का उम्मीद से ज्यादा और गहरा ताल्लुक जाति व धर्म से है जो अधिकांश लोगों की समझ में नहीं आ रहा. 2014 के लोकसभा चुनावप्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी ने साफ कहा था कि देवालयों यानी मंदिरों से ज्यादा जरूरी शौचालय हैं. तब गरीब लोग यह समझ कर खुश हुए थे कि मोदी सरकार जगहजगह पक्के शौचालय बनवाएगी और उन्हें जिल्लत व जलालत से छुटकारा मिल जाएगा.

केंद्र सरकार ने जैसे ही यह फरमान जारी किया कि खुले में शौच करने वालों पर 5 हजार रुपए तक का जुर्माना लगाया जाए तो सब से पहले जैन समुदाय के लोग चौकन्ना हुए. क्योंकि जैन मुनि हिंसा के अपने उसूल का पालन करते खुले में ही शौच करते हैं. जगहजगह से मांग उठी कि जैन मुनियों को खुले में शौच की छूट दी जाए.

ये लाइनें लिखे जाने तक केंद्रीय मंत्री वेंकैया नायडू ने खुलेतौर पर इस बात की  घोषणा नहीं की थी पर चर्चा है कि केंद्र सरकार ने जैन मुनियों को खुले में शौच करने की छूट देने का मन बना लिया है. दरअसल, भाजपा जैन वोटरों को नाराज नहीं करना चाहती. अगर सरकार इस तरह की किसी छूट का ऐलान करेगी तो तय है देशभर में बवाल मच जाएगा क्योंकि फिर गरीब, दलित भी अपने लिए इस तरह की छूट की मांग करते आसमान सिर पर उठा लेंगे.

बात अकेले जैन मुनियों की नहीं है, बल्कि लाखों की तादाद में नदियों के किनारे रह रहे हिंदू साधुसंतों की भी है जिन का कोई घर नहीं होता. ये साधु मंदिरों में रहते हैं और धड़ल्ले से खुले में शौच करते हैं. अभी तक एक भी मामला ऐसा सामने नहीं आया है जिस में निगरानी टीमों या सरकारी मुलाजिमों ने किसी साधु, संत या मुनि पर खुले में शौच करने के जुर्म के एवज में जुर्माना लगाया हो या समझाइश दी हो.

5. असल मार इन पर

आजादी के समय देश की 70 फीसदी आबादी खुले में शौच के लिए जाती थी. इस में से अधिकतर लोग दलित, पिछड़े और आदिवासी होते थे. हालात अब और बदतर हैं. अब खुले में शौच जाने वाले 90 फीसदी लोग इन्हीं जातियों के हैं. इन्हें आज कानून के नाम पर तंग किया व हटाया जा रहा है. दलित, आदिवासी तबके के लोगों को मुद्दत तक शौचालयों से दूर रखा गया क्योंकि खुले में शौच जाना इन की एक अहम पहचान होती थी. ठीक वैसे ही, जैसे गले में लटकता जनेऊ ब्राह्मण की पहचान होती थी, जो आज भी है.

यह कड़वा सच आजादी के बाद आज तक कायम है कि अभी भी 85 फीसदी दलित गरीब ही हैं जो झुग्गीझोंपड़ी बना कर रहते हैं. पढ़ेलिखे होने के बावजूद ये शौचालय की अहमियत नहीं समझते थे. अब आरक्षण के जरिए जो लोग सरकारी नौकरी पा गए हैं, वे घरों में शौचालय बनवा रहे हैं. इस सच का एक दूसरा पहलू यह है कि वे घर बनाने लगे हैं.

अब न केवल सियासी बल्कि सामाजिक तौर पर यह हो रहा है कि पैसे वाले दलितों को सवर्णों के बराबर माना जाने लगा है. वे पूजापाठ कर सकते हैं और दानदक्षिणा भी पंडों को दे सकते हैं. जाहिर है सवर्ण जैसे हो गए इन्हीं दलितों के यहां शौचालय हैं. इन की तादाद तकरीबन 10 फीसदी है. इन्हें देखदेख कर ही ऊंची जाति वाले चिल्लाचिल्ला कर यह जताने की कोशिश करते हैं कि देखो, जातिवाद और छुआछूत खत्म हो गई क्योंकि दलित अब खुलेआम मंदिर में जा रहा है. पूजापाठ भी कर रहा है और तो और, उस के यहां शौचालय भी है जो पहले नहीं हुआ करता था.

दरअसल, हकीकत सामने आ न जाए, इस का नया टोटका खुले में शौच का मुद्दा है. बढ़ते शहरीकरण के चलते अब जंगल और जमीन कम हो चले हैं जिस सेपक्के मकानों में रहने वाले ऊंची जाति वालों को खुले में शौच जाने वालों से परेशानी होने लगी थी. गांवों में भी जमीनें कम हो चली हैं. गरीब, मजदूर और किसान अपनी जमीनें बेच कर शहरों की तरफ भाग रहे हैं. गांवों में पहले सार्वजनिक जमीन बहुत होती थी जो अब न के बराबर हो गई है. कुछ सरकार या ग्राम सभाओं ने बेच खाई तो कुछ पर कब्जा हो गया. आम गरीब, जिन में दलित ज्यादा हैं, के लिए शौचालय न गांव में था और न ही शहर में है. कश्मीर से ले कर कन्याकुमारी तक बिछी रेल की पटरियां इस की गवाह हैं जहां रोज करोड़ों लोग हाथ में पानी की बोतल ले कर उकड़ूं बैठे देखे जा सकते हैं. चूंकि रेल की जमीन सरकारी है, कोई स्थानीय दबंग रेलवे की जमीन पर शौच करते किसी को धमका नहीं सकता.

जिन के पास 5 रुपए शौच के लिए सुलभ कौंप्लैक्स में जाने के नहीं हैं उन की जेब से खुले में शौच के जुर्माने के नाम पर 5 सौ या 5 हजार रुपए निकालना लोकतंत्र तो दूर, इंसानियत की बात भी नहीं कही जा सकती.

धर्म और जाति के नाम पर अत्याचार खत्म हो गए हैं, यह नारा पीटने वालों को एक दफा खुले में शौच के लिए जाने वालों की हालत देख लेनी चाहिए कि वे जस के तस हैं. बस, अत्याचार करने का तरीका बदल गया है. दलित की जगह गरीब शब्द इस्तेमाल किया जाने लगा है जिस से जाति छिपी रहे. भोपाल नगरनिगम के एक मुलाजिम का नाम न छापने की गुजारिश पर कहना है कि यह सच है कि लोग खुले में शौच करते पकड़े जा रहे हैं, इन में 70 फीसदी दलित, 20 फीसदी पिछड़े और 10 फीसदी सवर्ण, मुसलमान व दूसरी जाति के लोग हैं.

दरअसल, सारा खेल वे दबंग लोग खेल रहे हैं जिन के हाथ में समाज और राजनीति की डोर है. उन्होंने अब खुले में शौच को अत्याचार करने का हथियार बना डाला है. मंशा पहले की तरह समाज और राजनीति पर खुद का दबदबा बनाए रखने की है. और अगर कोई भेदभाव नहीं हो रहा, तो यह बताने को कोई तैयार नहीं

कि साधुसंतों और मुनियों के खिलाफ कार्यवाही क्यों नहीं की जाती. साफ है कि सिर्फ इसलिए कि वे धर्म के ठेकेदार हैं. उन्हें कोई रोकेगा तो तथाकथित पाप का भागीदार हो जाएगा.

6. गरीबी का सच और शौच

लोगों को साफसफाई की अहमियत कानून के डंडे से सिखाया जाना न तो मुमकिन है और न ही तुक की बात है. इस की जिम्मेदार एक हद तक सरकार की नीतियां भी हैं. ग्वालियर व चंबल संभागों के लोगों के पास हथियार हैं पर शौचालय नहीं, इस का राज क्या है? कुछ लोग घर में शौचालय बनाने की माली हैसियत रखते हैं पर नहीं बनवा रहे, तो इस की वजह क्या है?

राज और वजह यह है कि अधिकतर दलित आदिवासी और अति पिछड़े बीपीएल कार्ड वाले हैं. स्वच्छ भारत मुहिम ने इन के गरीब होने के माने और पैमाने बदल दिए हैं. बीपीएल सूची में शामिल लोगों को काफी सरकारी सहूलियतें और रियायती दामों पर राशन वगैरा खरीदने की छूट मिली हुई है. सरकार गरीब उसे ही मानती है जिस के बीपीएल ग्रेडिंग सिस्टम में 14 या उस से कम नंबर हों. जिस के घर में शौचालय होता है उसे सर्वे में 4 अंक दे दिए जाते हैं. जिन के 10 या 12 अंक हैं, उन में से अधिकतर लोग शौचालय इसलिए नहीं बनवा रहे कि अगर ये 4 अंक भी जुड़ गए तो वे 14 अंक पार कर जाएंगे और गरीब नहीं माने जाएंगे यानी उन से सारी सहूलियतें छिन जाएंगी.

ऐसे में सरकारी इमदाद से ही सही, शौचालय बनवा कर गरीब लोग अगर अपनी गरीबी नहीं छोड़ना चाह रहे हों तो इस में उन की गलती क्या, गलती तो सरकारी योजनाओं की खामियों और पैमाने की है. अभी, खुले में शौच के लिए जाने वालों को जीरो अंक दिया जाता है. जो लोग सामूहिक शौचालय में जाते हैं उन्हें एक या दो अंक पानी मुहैया होने न होने की बिना पर दिए जाते हैं. अब सरकार जबरदस्ती गरीबों को उन के छोटेतंग घरों में शौचालय, जिस की लागत 4-6 हजार रुपए आती है, बनवाने के साथ उन्हें 4 अंक दे कर उन की गरीबी का तमगा छीनना चाह रही है. ऐसा होने से उन से सस्ता राशन, प्रधानमंत्री आवास योजना वगैरा जैसी दर्जनों सहूलियतें छिन जाएंगी. ऐसे में उन का घबराना स्वाभाविक है.

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