दबंग कर रहे दलित दूल्हों की दुर्गति

Society News in Hindi: यह घटना इसी साल के जून महीने की है. मध्य प्रदेश (Madhya Pradesh) के छतरपुर (Chhatarpur) में चौराई गांव का रितेश अपनी शादी पर जैसे ही घोड़ी पर चढ़ा, गांव के कुछ लोगों ने इस बात का विरोध किया. हंगामा बढ़ा, तो पुलिस आई. लेकिन पुलिस की मौजूदगी में ही बरात पर पत्थरबाजी शुरू हो गई. दरअसल, रितेश अहिरवार दलित था. उस की बरात पर पत्थरबाजी इसलिए हुई कि कैसे कोई दलित घोड़ी पर चढ़ कर अपनी बरात ले जा सकता है? इस पूरे मामले में सरकारी काम में बाधा डालने, मारपीट करने और हरिजन ऐक्ट (Harijan Act) के तहत एफआईआर हुई थी. देश का संविधान (constitution) कहने को ही सभी को बराबरी का हक देता है, लेकिन एक कड़वा और अकसर देखा जाने वाला सच यह है कि जो दलित दूल्हा घोड़ी चढ़ने की हिमाकत या जुर्रत करता है, दबंग लोग उस की ऐसी दुर्गति करते हैं कि कहने में झिझक होती है कि वाकई देश में कोई लोकतंत्र वजूद में है, जिस का राग सरकार, नेता, समाजसेवी, राजनीतिक पार्टियां और पढ़ेलिखे समझदार लोग अलापा करते हैं.

छुआछूत दूर हो गई, जातपांत का भेदभाव खत्म हो गया और अब सभी बराबर हैं, ये कहने भर की बातें हैं. हकीकत यह है कि यह प्रचार खुद दबंग और उन के कट्टरवादी संगठन करते रहते हैं, जिस से समाज की अंदरूनी हालत और सच दबे रहें और वे दलितों पर बदस्तूर सदियों से चले आ रहे जुल्मोसितम ढाते हुए ऊंची जाति वाला होने का अपना गुरूर कायम रखें.

जड़ में है धर्म

किसी भी गांव, कसबे या शहर में देख लें, कोई न कोई छोटा या बड़ा बाबा पंडाल में बैठ कर प्रवचन या भागवत बांचता नजर आएगा. ये बाबा लोग कभी बराबरी की, छुआछूत दूर करने की या जातपांत खत्म करने की बात नहीं करते. वजह सिर्फ इतनी भर नहीं है कि धार्मिक किताबों में ऐसा नहीं लिखा है, बल्कि यह भी है कि इन की दुकान चलती ही जातिगत भेदभाव से है.

अपनी दुकान चमकाए रखने के लिए धर्म की आड़ में समाज में पड़ी फूट को हवा दे रहे बाबा घुमाफिरा कर दबंगों को उकसाते हैं और दलितों को उन के दलितपने का एहसास कराते हुए नीचा दिखाने में लगे रहते हैं. इन पर न तो कोई कानून लागू होता है, न ही कोई इन की मुखालफत कर पाता है, क्योंकि मामला धर्म का जो होता है.

फसाद की असल जड़ धर्म और उस के उसूल हैं, जिन के मुताबिक शूद्र यानी छोटी जाति वाले जानवरों से भी गएबीते हैं. उन्हें घोड़ी पर बैठ कर बरात निकालने का हक तो दूर की बात है, सवर्णों के बराबर बैठने का भी हक नहीं है, इसलिए आएदिन ऐसी खबरें पढ़ने में आती रहती हैं कि दलितों को पानी भरने से रोका, वे नहीं माने तो उन की औरतोंबच्चों को बेइज्जत किया, मर्दों को पीटा और इस पर भी नहीं माने तो गांव से ही खदेड़ दिया.

यही वजह है कि करोड़ों दलित दबंगों के कहर का शिकार हो कर घुटन भरी जिंदगी जी रहे हैं, पर उन की सुनने वाला कोई नहीं.

इस पर तुर्रा यह कि हम एक आजाद लोकतांत्रिक देश की खुली हवा में सांस लेते हैं, जिस में संविधान सभी को बराबरी का हक देता है. यह मजाक कब और कैसे दूर होगा, कोई नहीं जानता.

चिंता की बात यह भी है कि दलितों पर जोरजुल्म लगातार बढ़ रहे हैं, जिन की तरफ किसी राजनीतिक पार्टी, नेता या समाज के ठेकेदारों का ध्यान नहीं जो बड़ीबड़ी बातें करते हैं, रैलियां निकालते हैं और दलितों को बरगलाने के लिए बुद्ध और अंबेडकर जयंतियां मनाते हैं. इस साजिश को, जो धर्म और राजनीति की देन है, दलित समझ पाएं तभी वे इज्जत और गैरत की जिंदगी जी पाएंगे.

जानें काले गेहूं पर सफेद झूठ

मध्यप्रदेश की औद्योगिक राजधानी इंदौर से 40 किलोमीटर दूर बसे कस्बे देपालपुर के गांव शाहपुरा के एक किसान सीताराम गेहलोत इन दिनो बेहद खुश हैं. जो भी सुनता है उनके गांव की तरफ भागता है. सीताराम ने काला गेंहू बोया है जिसके बारे में कम ही लोग जानते हैं और जो जानते हैं वह बड़ा दिलचस्प और हैरतअंगेज है कि इस गेंहू की बनी रोटी खाने से न केवल कैंसर जैसी लाइलाज बीमारी ठीक होती है बल्कि दूसरी कई डायबिटीज़, मोटापा और हाइ ब्लडप्रेशर सरीखी बीमारियाँ भी दूर होती हैं. कहा तो यह भी जा रहा है कि काला गेंहू खाने से तनाव भी दूर होता है और दिल की बीमारी यानि हार्ट अटैक भी नहीं होता.

सीताराम गेंहू की यह अनूठी किस्म पंजाब के नेशनल एग्री फूड बायोटेक्नालाजी इंस्टीट्यूट यानि एनएबीआई से लाये हैं. जिसे नाबी भी कहा जाता है. गेहूं का रंग हरे और पकने के बाद पीले के अलावा भी कुछ और खासतौर से काला हो सकता है इस बात पर भरोसा करना मुश्किल काम है. लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि काले रंग का गेहूं होता है पर क्या वह वाकई उतना चमत्कारी होता है जितना बताया जाता है, यह जरूर शक वाली बात है.

lie on black wheat

सीताराम गेहलोत काले गेंहू के बीज के लिए 2 साल से नाबी के चक्कर काट रहे थे, तब कहीं जाकर इस साल उन्हें 5 किलो बीज मिला जिसे वे श्री विधि से उगा रहे हैं इस विधि में फसलों की पैदावार ज्यादा होती है और फसल पर तेज हवा और पानी का असर नहीं होता.

काला गेहूं हर किसी की जिज्ञासा और उत्सुकता का विषय है, वजह केवल इसका रंग ही नहीं बल्कि वे गिनाई जा रही खूबियां भी हैं जिनसे कई बीमारियां न होने या उनके दूर होने की भी चर्चा जमकर होती रहती है. फसल की पैदावार और बढ़वार के वक्त इस गेहूं की  वालियों का रंग हरा ही होता है. लेकिन जैसे जैसे फसल बढ़ती जाती है वैसे वैसे उनका रंग बदलकर काला होने लगता है. यह कोई कुदरत का करिश्मा नहीं है, बल्कि जानकारों की मानें तो एंथोसायनिन नाम का रसायन इसका जिम्मेदार है, जिसकी अधिकता से फसलें नीली बैंगनी या फिर काले रंग की होती हैं. अनाज, सब्जी या फलों का रंग उनमें मौजूद प्लांट पिगमेंट की तादाद पर निर्भर रहता है. अधिकतर पेड़ पौधे हरे क्लोरोफिल की वजह से होते हैं.

दरअसल, एंथोसायनिन एक अच्छा एंटीऔक्सीडेंट होता है, जो हरे रंग के गेहूं के मुकाबले काले गेहूं में 40 गुना ज्यादा तक होता है. काले गेहूं में आयरन भी 60 फीसदी से ज्यादा पाया जाता है.

lie on black wheat

अगर ये खूबियां कुदरत ने काले गेहूं को बख्शी हैं तो कुछ कमियां भी उसमें हैं. मसलन इसमें स्टार्च और प्रोटीन के अलावा दूसरे पोषक तत्व कम मात्रा में होते हैं. फिर क्यों और कौन काले गेहूं को अमृत सरीखा बताकर बेच रहा है, इसकी जांच होनी चाहिए. जानकार हैरानी होती है कि कुछ वेबसाइट्स पर काले गेहूं का आटा 2 से लेकर 4 हजार रु प्रतिकिलों तक बिक रहा है.

इस बारे में मध्य प्रदेश कृषि विभाग में कार्यरत स्वदेश विजय कहते हैं कि यह हम भारतीयों के चमत्कारों के आदी हो जाने की वजह से है. जबकि हकीकत में काले गेहूं के बाबत ऐसा कोई दावा जानकारों ने नहीं किया है. हां, काले गेंहू पर काम कर रही नाबी की वैज्ञानिक मोनिका गर्ग ने यह जरूर माना है कि अभी इसका प्रयोग चूहों पर किया गया है जिसके नतीजे उत्साहवर्धक आए हैं. जिन चूहों पर काले गेंहू का प्रयोग किया गया उनका वजन कम हुआ है और उनका कोल्स्ट्रोल और शुगर भी कम हुआ लेकिन इन्सानों के मामले में भी ऐसा हुआ है या होगा इसका दावा नहीं किया जा सकता. लेकिन यह भी सच है कि एंथोसायनिन आक्सीडेंट की वजह से इंसानों को भी फायदा होगा पर वह ठीक वैसा ही जैसा दूसरे एंटऔक्सीडेंट्स से होता है.

तो फिर काले गेंहू के नाम पर हल्ला क्यों इस सवाल का जबाब साफ है कि इसे बढ़ा चढ़ा कर पेश करने वाले जरूर तबियत से चांदी काट रहे हैं. बात ठीक वैसी ही है कि दो सर, चार सींग और छह पैरों वाले पैदा हुये बछड़े को लोग भगवान का अवतार या लीला मानते उसका पूजा पाठ शुरू कर देते हैं, दक्षिणा भी चढ़ाने लगते हैं. फसलों के मामले में भी बगैर सोचे समझे और जाने अगर लोग महज रंग की बिना पर अंधविश्वासी होकर पैसा लुटा रहे हैं तो वे खुद का ही नुकसान कर रहे हैं.

काले गेंहू से अगर कैंसर ठीक होता है तो कोई वजह नहीं कि इस जानलेवा और लाइलाज बीमारी से एक भी मौत हो और शुगर के मरीजों जिनकी तादाद देश में 6 करोड़ का आंकड़ा पार कर रही है को तो रोज सुबह शाम गुलाबजामुन की दावत उड़ाना चाहिए क्योंकि काला गेंहू जो है. हकीकत में एक साजिश के तहत सफेद झूठ फैलाकर काले गेंहू का काला कारोबार कुछ लोग कर रहे हैं जैसे चमत्कारी विज्ञापन वाले किया करते हैं कि हमारी दवाई की एक खुराक लो और सालों पुराना बावसीर जड़ से मिटाओ. बावसीर के मरीज ठीक हो जाने के लालच के चलते एक नहीं बल्कि हजारों खुराक फांक जाते हैं, लेकिन उनकी सुबह की तकलीफ दूर नहीं होती.

यह तय है कि काले गेंहू में कुछ ऐसे गुण हैं जो हर फसल में नहीं होते और होते भी हैं तो  अलग अलग तरीके से होते हैं, इसमें कुछ तत्व ज्यादा हैं जो हैरानी की बात नहीं पर सनसनी और हैरानी गेंहू के काले होने के नाम पर फैलाई जा रही है तो लोगों को इससे सावधान भी रहना चाहिए.

मायावती की साख पर सवाल

चुनाव के पहले और चुनाव के बाद नेताओं की बदलती फितरत से पीछा छुड़ाना उनको भारी पड़ता है. जनता को उनकी कही बातों पर भरोसा नहीं होता है. उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के सहयोग से 3 बार मुख्यमंत्री बनने वाली मायावती जब मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनाव में भाजपा के साथ नहीं जाने की बात कहती है तो उनपर जनता को यकीन नहीं हो रहा है. छत्तीसगढ़ के चुनाव प्रचार में मायावती वहां के मुद्दो पर राय देने की जगह पर केवल अपनी सफाई देने की कोशिश कर रही हैं. वह कांग्रेस और भाजपा दोनो की सांपनाथ-नागनाथ कहती है. छत्तीसगढ की जनता को यह समझ नहीं आ रहा कि चुनाव में सांपनाथ-नागनाथ नजर आने वाली भाजपा-कांग्रेस के साथ चुनाव के बाद मायावती समझौता कैसे कर लेती हैं?

5 राज्यों के विधनसभा मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ, मणिपुर और तेलंगाना के पहले बसपा कांग्रेस के साथ गठबंधन करना चाहती थी. अचानक बसपा ने यूटर्न लिया और खुद की चुनाव लड़ने का एलान कर दिया. मायावती उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन की बात भले करती हो पर मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ में वह सपा के साथ भी नहीं है. यहां सपा-बसपा भी अलग अलग ही चुनाव लड़ रहे हैं. कांग्रेस नेता सुरेन्द्र सिंह राजपूत कहते हैं, असल में मायावती उसूल की नहीं अपने मुनाफे की राजनीति करती हैं. ऐसे में वह वहां अकेले चुनाव लड़ रही हैं. कांग्रेस हमेशा की साम्प्रदायिकता विरोधी विचारधरा को एकजुट करके चुनाव लड़ना चाहती है.

मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ में मायावती की बसपा कहीं चुनावी लड़ाई में नहीं हैं. वह वोट काटने का काम करेंगी. जिसका प्रभाव कांग्रेस पर अधिक पड़ेगा. छत्तीसगढ में भाजपा और कांग्रेस के बीच पिछले चुनाव में सीट और वोट प्रतिशत दोनों के बीच बहुत ही कम फासला था. ऐसे में कुछ वोटों के कटने से ही जीत हार का गणित बदल सकता है. मायावती को लगता है कि छत्तीसगढ में अगर उनकी पार्टी कुछ सीटें भी ले आई तो वह किंगमेकर बन सकती है. जिसके बाद उनके लिये अपनी कोई भी बात मनवानी सरल होगी. चुनाव के पहले सांपनाथ-नागनाथ कहने वाली मायावती भाजपा-कांग्रेस के साथ नहीं जायेगी इसकी कोई गांरटी नहीं है.

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