तलाकशुदा पत्नी से दोबारा शादी

शायद ही कभी किसी ने देखासुना हो कि तलाक के 4 साल और अलगाव व खटपट के 12 वर्षों बाद पतिपत्नी ने दोबारा शादी कर ली. मामला कुछ कुछ विचित्र किंतु सत्य है जिस के बारे में जान कर महसूस होने लगा है कि तलाक के बाद पति पत्नियों की हालत या मानसिकता पर कोई एजेंसी अगर सर्वे व काउंसलिंग करे तो पति पत्नी का दोबारा मिल कर उजड़ी गृहस्थी को संवार लेना एक संभव काम है.

तलाक व्यक्तिगत, कानूनी, सामाजिक, पारिवारिक हर लिहाज से एक तकलीफदेह प्रक्रिया है जिस की मानसिक यंत्रणा के बारे में शायद भुक्तभोगी भी ठीक से न बता पाएं. इस के बाद भी तलाक के मामले दिनोंदिन बढ़ रहे हैं. इस से यही उजागर होता है कि अकसर पति पत्नी या तो गलतफहमी का शिकार रहते हैं या फिर मारे गुस्से के अपना भलाबुरा नहीं सोच पाते. तलाक में नजदीकी लोगों की भूमिका कहीं ज्यादा अहम हो जाती है जो बजाय बात संभालने के, बिगाड़ते ज्यादा हैं.

यह ठीक है कि कुछ मामलों में तलाक अनिवार्य सा हो जाता है पर अधिकांश मामलों में यह जिद व अहं का नतीजा होता है जो खासतौर से पत्नी के हक में अच्छा नहीं होता. समाज के लिहाज से यह दौर बदलाव का है जिस में महिलाएं पहले सी दोयम दरजे की नहीं रह गई हैं. वे हर स्तर पर समर्थ, सक्षम और जागरूक हुई हैं लेकिन तलाक के बाद ये सभी बातें हवा हो जाती हैं जब उन्हें अपने अकेलेपन का एहसास होता है और वे एक स्थायी असुरक्षा में जीने को मजबूर हो जाती हैं.

मुमकिन है कभी कभी उन्हें लगता हो कि तलाक बेहद जरूरी भी नहीं था. इस से बच कर तलाक के बाद की दुश्वारियों से भी बचा जा सकता था लेकिन बात ‘अब पछताए होत का जब चिडि़या चुग गई खेत’ सरीखी हो जाती है. तलाक का कागज उन्हें नए माहौल और हालत में जीना सिखा देता है, इसलिए चाह कर भी वापस नहीं मुड़ा जा सकता क्योंकि तलाक के बाद पति दूसरी शादी कर नई पत्नी के साथ शान से गुजर कर रहा होता है. वहीं, अधिकांश पत्नियां, जो भारतीय संस्कारों से ग्रस्त ही कही जाएंगी, किसी दूसरे को सहज तरीके से पति मानने या स्वीकारने के लिए खुद को तैयार या सहमत नहीं कर पातीं और जब तक खुद को तैयार कर पाती हैं तब तक उम्र का सुनहरा हिस्सा उन के हाथों से फिसल चुका होता है.

शशिकांत संग वंदना

मध्य प्रदेश के भिंड जिले के इस दिलचस्प मामले को बतौर मिसाल लिया जाए तो तलाकशुदाओं के लिहाज से यह एक अच्छी पहल सिद्ध हो सकती है. वंदना और शशिकांत की शादी साल 2001 में हुई थी. ये दोनों साधारण खातेपीते कायस्थ परिवार के हैं और दोनों के ही पिता पुलिस विभाग में नौकरी करते हैं. शादी के बाद वंदना ससुराल आई तो उसे नया कुछ खास नहीं लगा क्योंकि उस का मायका भी भिंड में ही है. संयुक्त परिवार से संयुक्त परिवार में आने से उसे तालमेल बैठाने में कोई दिक्कत पेश नहीं आई.

शशिकांत प्राइवेट नौकरी करता था. उस की कोई खास आमदनी नहीं थी. संयुक्त परिवारों में खर्चे का पता नहीं चलता, न ही कोई कमी महसूस होती. देखते ही देखते एक साल गुजर गया और वंदना ने एक बच्ची को जन्म दिया जिस का नाम घर वालों ने प्रिया रखा.

शायद आपसी समझ का अभाव था या फिर संयुक्त परिवार की बंदिशें थीं कि दोनों एकदूसरे से असंतुष्ट रहने लगे और जल्द ही आरोपों प्रत्यारोपों का सिलसिला शुरू हो गया जिन में कोई खास दम नहीं था. यह बात वक्त रहते दोनों समझ नहीं पाए, लिहाजा रोज रोज की खटपट शुरू हो गई. पतिपत्नी के बीच का तनाव और विवाद उजागर हुए तो दोनों के घर वालों ने दखल देते समझाया पर बजाय समझने के दोनों भड़कने लगे और आखिरकार अपना फैसला भी सुना दिया कि अब हम साथ नहीं रह सकते. लिहाजा, हमारा तलाक करा दिया जाए.

दोनों ही परिवारों की भिंड में इज्जत है, इसलिए घर वाले कतराए, लेकिन तमाम समझाइशें बेकार साबित हो चुकी थीं. दोनों कुछ समझने को तैयार नहीं थे. एक दिन वंदना प्रिया को ले कर अपने मायके चली गई तो शशिकांत ने भी आपा खो दिया और तलाक का मुकदमा दायर कर दिया.

8 साल मुकदमा चला. तारीखें पड़ीं, पेशियां हुईं और आखिरकार 2012 में तलाक यानी कानूनन विवाह विच्छेद इस शर्त पर हुआ कि पत्नी व बेटी को गुजारे के एवज शशिकांत 2 हजार रुपए महीने देगा जो कि कुछ साल उस ने दिए भी.

2014 में शशिकांत ने अदालत में एक अर्जी दाखिल कर अपनी आर्थिक स्थिति का हवाला देते भरणपोषण राशि देने में असमर्थता जताई तो अदालत ने भरणपोषण का आदेश रद्द कर दिया. अब तक घर और समाज वालों की दिलचस्पी इन दोनों से खत्म हो गई थी. वंदना मायके में थी लेकिन सहज तरीके से नहीं रह पा रही थी. उधर, शशिकांत को भी लग रहा था कि जो कुछ भी हुआ वह ठीक नहीं हुआ.

शशिकांत और वंदना दोनों कशमकश की जिंदगी जी रहे थे. बेटी प्रिया का भी कोई भविष्य नहीं था और सब से ज्यादा तकलीफदेह बात दोनों का एकदूसरे को न भूल पाना थी. झूठा अहं, गुस्सा और ठसक दम तोड़ रहे थे. दोनों को ही बराबर से समझ आ रहा था कि वे जाने अनजाने  जिंदगी की सब से बड़ी गलती या बेवकूफी कर चुके हैं, पर अब कुछ हो नहीं सकता था, इसलिए कसमसा कर रह जाते थे.

जब सब्र टूटा

बीती 9 अक्तूबर को वंदना बेटी प्रिया को ले कर भिंड के एएसपी अमृत मीणा के दफ्तर पहुंची और बगैर किसी हिचक के उन से कहा कि अब उस के सामने खुदकुशी करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है. अमृत मीणा ने सब्र से उस की पूरी बात सुनी और तुरंत शशिकांत को तलब किया. थाने में ही उन्होंने दोनों को साथ बैठा कर चर्चा की. 14 साल की होने जा रही प्रिया का हवाला दिया और जमाने भर की ऊंच नीच समझाई तो वंदना और शशिकांत हद से ज्यादा जज्बाती हो उठे और फिर से साथ रहने को तैयार हो गए.

अमृत मीणा भी अपनी पहल और समझाइश का वाजिब असर देखते उत्साहित थे. लिहाजा, उन्होंने इन दोनों की हिचक दूर करते तुरंत दफ्तर में ही उन की दोबारा शादी का इंतजाम कर डाला. दोनों 14 साल का गुबार और भड़ास निकाल चुके थे, इसलिए दोनों शादी के लिए तैयार हो गए ताकि तलाक और अलगाव का एहसास खत्म हो जाए.

एएसपी के रीडर रविशंकर मिश्रा ने पंडित की भूमिका निभाई और मंत्र पढ़ते हुए दोनों की शादी करा दी. 14 साल बाद इन पतिपत्नी ने दोबारा एकदूसरे को जयमाला पहनाई और शशिकांत वंदना को घर ले कर आ गया. बाकायदा विदाई भी हुई, अमृत मीणा अपनी गाड़ी से दोनों को घर छोड़ कर आए. बहुत कम मौकों और मामलों पर पुलिस वालों का मानवीय पहलू देखने में आता है, जो इस मामले में दिखा. दोबारा विवाह का यह अनूठा मामला था. इस प्रतिनिधि ने बीती 25 नवंबर को वंदना और शशिकांत से बात की. दोनों खुश थे. वे बीती बातें नहीं करना चाहते थे जिन में उन्होंने बेहद तनाव झेला था. वंदना की चहक और शशिकांत की परिपक्वता बता रही थी कि वे इस नई जिंदगी से खुश हैं और चाहते हैं कि दूसरे तलाकशुदा पतिपत्नी भी गुस्सा और पूर्वाग्रह छोड़ कर शादी करें. अगर वे ऐसा करते हैं तो पहले जो खो चुके हैं उसे वे मय ब्याज के हासिल कर सकते हैं.

जल्दबाजी, गुस्सा, अहं, जिद और अपनों के ही भड़काने पर पतिपत्नी तलाक तो ले लेते हैं पर इन में से अधिकांश बाद में पछताते हैं. वजह, दूसरी शादी आसान नहीं होती और अगर हो भी जाए तो तलाक का धब्बा सहज तरीके से जीने नहीं देता और इस पर भी, दूसरे जीवनसाथी के मनमाफिक होने की गारंटी नहीं रहती.

तो फिर तलाक के बाद क्यों न पहले जीवनसाथी की तरफ सुलह का हाथ बढ़ाया जाए, इस अहम सवाल पर वंदना और शशिकांत के मामले से सोचा जाए तो बात बन सकती है.

तलाक के बाद अधिकांश पतिपत्नी अवसाद में ही जीते नजर आते हैं खासतौर से उस सूरत में जब तलाक की कोई ठोस वजह न हो. ज्यादातर तलाकों की वजह बेहद हलकी होती है. ऐसा आएदिन के मामलों से उजागर भी होता रहता है. अगर शादी के बाद एक साल या उस से भी ज्यादा का वक्त पतिपत्नी ने एकसाथ गुजारा है तो एकदूसरे को भुला देना उन के लिए आसान नहीं होता.

तलाक के पहले परिवार परामर्श केंद्र, अदालत और काउंसलर सोचने के लिए वक्त देते हैं लेकिन उस वक्त पतिपत्नी दोनों के दिलोदिमाग में इतना गुस्सा व नफरत का गुबार भरा होता है कि वे सोचते कम, झल्लाते ज्यादा हैं.

तलाक के बाद की दुश्वारियां, अकेलापन, अपनों की अनदेखी वगैरा उन्हें समझ आने लगती हैं. पर चूंकि तलाकशुदा पतिपत्नी की दोबारा शादी की पहल किसी भी स्तर पर नहीं होती, इसलिए सुलह की गुंजाइशें होते हुए भी बात नहीं बन पाती. ऐसे में जरूरत इस बात की है कि भिंड के इस प्रयोग को दोहराया जाए क्योंकि संभव है पति और पत्नी अपनी गलतियां महसूस करते हुए दोबारा साथ रहना चाहते हों.

राजस्थान : लड़कियों से जबरदस्ती, शर्मसार बार बार

24 दिसंबर, 2016 की रात. राजस्थान के चूरू जिले के एक गांव में एक नाबालिग लड़की को अगवा कर गैंगरेप किया गया. इतने पर भी जी नहीं भरा, तो उस पर मोटरसाइकिल चढ़ा दी गई. इस से उस की रीढ़ की हड्डी टूट गई. उस लड़की की एक आंख फोड़ दी गई. बेंगलुरु, कनार्टक के एमजी रोड पर नए साल की पूर्व संध्या के मौके पर कुछ मर्दों ने लड़कियों के साथ हाथापाई की, जबकि वहां पुलिस मौजूद थी.

जयपुर में वहशीपन

राजस्थान की राजधानी जयपुर में भी वहशीपन की सारी हदें पार कर देने वाले 2 ऐसे मामले सामने आए, जो शर्मसार कर देने वाले हैं. पहले मामले में अलवर से जयपुर आई एक लड़की से 3 लड़कों के साथसाथ एक आटोरिकशा ड्राइवर ने रेप किया और उस के बाद बिना कपड़ों के उसे एमएनआईटी के बाहर फेंक कर फरार हो गए. लड़की ने खुद ही कंट्रोल रूम में फोन पर पुलिस को बताया.

डीसीपी ईस्ट कुंवर राष्ट्रदीप ने बताया कि उत्तर प्रदेश की रहने वाली पीडि़त लड़की जगतपुरा में अपने भाई के साथ रह कर सरकारी नौकरी के इम्तिहान की तैयारी कर रही थी. सुबह वह रेलवे स्टेशन पर उतरी और जगतपुरा में अपने भाई के कमरे तक जाने के लिए आटोरिकशे में बैठ गई. इस दौरान आटोरिकशे में 3 और लड़के भी थे.

लड़की को अकेला पा कर आरोपी लड़कों ने आटोरिकशा को सुनसान जगह पर रुकवाया और लड़की के मुंह पर कपड़ा बांध कर उस के साथ बारीबारी से रेप किया. रेप के बाद तीनों लड़के वहां से फरार हो गए, उस के बाद आटोरिकशा ड्राइवर ने भी उस के साथ रेप किया.

इस वारदात के बाद पुलिस ने शहरभर में नाकाबंदी कराई और लड़की को ले कर सिंधी कैंप बसस्टैंड और रेलवे स्टेशन पहुंची, जहां पीडि़ता से संदिग्ध आटोरिकशा ड्राइवर की शिनाख्त कराई गई. पीड़िता ने पुलिस को बताया कि वे तीनों लड़के हिंदी में बातें कर रहे थे और उस से पूछा कि कहां की रहने वाली हो और यहां क्या करती हो. उस पीडि़ता ने बताया वे तीनों आटोरिकशे में पहले से ही बैठे हुए थे. उन्हें कहां जाना था, इस बारे में वह नहीं जानती.

दूसरा मामला जयपुर के ही सांगानेर थाना इलाके का है. यहां 57 साल के एक टीचर ने अपनी ट्यूशन छात्रा, जिस की उम्र 16 साल बताई जा रही है, के साथ रेप कर दिया. पुलिस ने इस मामले में आरोपी टीचर को गिरफ्तार किया है. सांगानेर थाना पुलिस ने बताया कि नागरिक नगर, सांगानेर की पीडि़त लड़की के परिवार वालों ने मामला दर्ज कराया कि विरेंद्र सारस्वत नाम के टीचर ने यह करतूत की थी.

दरिंदगी की हदें पार

राजस्थान के चूरू जिले में भी दरिंदगी का एक मामला सामने आया.    2 लड़कों ने एक लड़की का रेप कर उस की रीढ़ की हड्डी व पसलियां तोड़ दीं. उन दरिंदों ने पीडि़ता की एक आंख भी फोड़ दी. इस के बाद वह लड़की जयपुर के एसएमएस अस्पताल में कई दिनों तक जिंदगी और मौत से जूझती रही.

यह वारदात बीदासर थाना इलाके के गांव सांरगसर की है. बीदासर थानाधिकारी प्रहलाद राय के मुताबिक, पीडि़ता के पिता ने रिपोर्ट दी है कि 24 दिसंबर, 2016 को 15 साला पीडि़ता अपने घर पर पढ़ाई कर रही थी. रात 11 बजे गांव भोमपुरा का एक बाशिंदा राकेश भार्गव अपने रिश्तेदार के एक लड़के के साथ मोटरसाइकिल पर आया और वे दोनों पीडि़ता को जबरदस्ती मोटरसाइकिल पर बिठा कर ले गए. आरोपियों ने गांव से एक किलोमीटर दूर चरला रोड पर ले जा कर उस के साथ ज्यादती की.

उस के बाद आरोपियों ने उसे किसी को बताने पर जान से मारने की धमकी दी और मोटरसाइकिल चढ़ा कर उस की रीढ़ की हड्डी व पसलियां तोड़ दीं. उस की एक आंख भी फोड़ दी. शरीर के कई हिस्सों पर गहरे घाव कर के उसे लहूलुहान हालत में मौके पर छोड़ कर भाग गए.

25 दिसंबर, 2016 की दोपहर 3 बजे पीडि़ता की मां के पास राकेश के मातापिता आए और उन्होंने लड़की के घायल होने की जानकारी दी. तब घर वालों को पता चला.

परिवार वालों ने पीडि़ता को सुजानगढ़ के अस्पताल में भरती कराया, जहां से उसे गंभीर हालत में पहले बीकानेर और फिर जयपुर भेज दिया गया. पीडि़ता का पिता गुजरात में मजदूरी करता है. घटना का पता चलने पर वह वहां आया और मामला दर्ज कराया.

राजस्थान पुलिस के मुताबिक, साल 2008 में रेप के 568 मामले दर्ज हुए थे. पिछले साल 2016 में यह तादाद बढ़ कर 3,769 हो गई. ये आंकड़े भयावह इसलिए भी हैं, क्योंकि 75 फीसदी आरोपी सुबूतों की कमी में बाइज्जत बरी हो जाते हैं. वैसे, साल 2015 में देशभर में दुष्कर्म के कुल 37,413 मामले हुए. इन में सब से ऊपर मध्य प्रदेश (5,076), राजस्थान (3769), उत्तर प्रदेश (3,467), महाराष्ट्र (3,438) जैसे राज्य ही थे. महानगरों की बात हो, तो दिल्ली (1,813), मुंबई (607), चेन्नई (65), बेंगलुरु (104) और कोलकाता (36) सब से आगे थे.

जयपुर की एक लीगल फर्म के मुताबिक, लापरवाही से की गई जांच, एफआईआर में देरी, आरोपियों के वकील का पीडि़ता के प्रति आक्रामक रुख और अदालतों में संवेदनशीलता की कमी इस की अहम वजह रही हैं. सजा की दर भी इसलिए कम है, क्योंकि ज्यादातर पीडि़ता चुपचाप ज्यादती सह जाती हैं. अगर पीडि़ता समाज के तानों की परवाह न करे, तो उसे पुलिस और कानून से इंसाफ मिलने की उम्मीद कम रहती है. साल 2015 में हुई एक स्टडी के मुताबिक, भारत में पति द्वारा जबरन सैक्स के सिर्फ 0.6 फीसदी यानी 167 में से महज एक केस ही दर्ज होता है.

दिखाया जज्बा

बेंगलुरु में 2 शोहदे एक लड़की से बेशर्मी के साथ छेड़छाड़ करते रहे और आसपास के लोग तमाशबीन और चुप ही रहे, लेकिन राजस्थान के चूरू जिले के राजगढ़ कसबे में जो घटा, वह सजगता की एक मिसाल बन गया है. यह किस्सा महशूर ओलिंपियन एथलीट कृष्णा पूनिया की बहादुरी की भी एक नजीर है.

कृष्णा पूनिया ने बताया कि रविवार की दोपहर दिन के डेढ़ बजे जब वे  सादुलपुर कसबे की कृष्णा बहल रोड से गुजर रही थीं, तो पिलानी रेलवे फाटक बंद था. वहां 3 बदमाश 2 किशोरियों पर फब्तियां कस रहे थे और छेड़खानी कर रहे थे. छेड़छाड़ करते हुए उन बदमाशों ने लड़कियों को जमीन पर गिरा दिया और मोटरसाइकिल से भागने लगे. इस घटना को बहुत से लोग देख रहे थे, लेकिन कोई भी अपनी जगह से नहीं हिला. सभी तमाशबीन खडे़ थे.

लड़कियां छेड़छाड़ से परेशान थीं और रो रही थीं. कृष्णा पूनिया अचानक कार से उतरीं और उन तीनों बदमाश लड़कों के पीछे दौड़ पड़ीं. उन्होंने 50 मीटर दौड़ने के बाद एक लड़के को धर दबोचा और पुलिस को फोन किया.

लड़कियां कह रही थीं कि अगर उन के घर वालों को इस घटना का पता लगा, तो वे आइंदा उन्हें घर से बाहर नहीं निकलने देंगे. लेकिन कृष्णा पूनिया ने किशोरियों को हौसला दिया और उन्हें उन के घर पर छोड़ कर आईं. वे पुलिस स्टेशन भी गईं और पुलिस अफसरों को नसीहत दी कि आखिर थाने के ठीक पास ही बदमाश इस तरह लड़कियों से कैसे छेड़छाड़ कर रहे हैं.

बीजिंग और लंदन ओलिंपिक में भारत की नुमाइंदगी कर चुकी कृष्णा पूनिया हरियाणा से हैं और चूरू जिले में उन की ससुराल है. इन दिनों वे राजनीति में हैं, लेकिन उन में एक बहादुर खिलाड़ी का जज्बा आज भी बरकरार है.

बेंगलुरु और राजगढ़ की ये दोनों घटनाएं एक ही समय में घटित हुई हैं, लेकिन एक में भीड़ के बीच खड़ी एक हिम्मती खिलाड़ी कृष्णा पूनिया ने पूरे हालात को ही बदल दिया और दूसरी में एक आधुनिक कसबे की जनता का वह तबका शर्मसार है, जो घटना के समय चुप्पी साधे रहा.

हद तो यह है कि बेंगलुरु की इस घटना के बाद कर्नाटक के गृह मंत्री डाक्टर जी. परमेश्वरा ने यह तक कह दिया कि नए साल और दूसरे ऐसे मौकों पर ऐसी घटनाएं होती रहती हैं, लेकिन सोशल मीडिया पर सवाल उठ रहा है कि राजस्थान का भी एक पक्ष है, जहां गृह मंत्री गुलाबचंद कटारिया ने अभी तक कृष्णा पूनिया की तारीफ नहीं की है, क्योंकि वे कांग्रेस से जुड़ी हैं.

सवाल यह उठता है कि क्या यह देश औरतों व लड़कियों के लिए महफूज नहीं है  क्या वे हमेशा यह डर साथ ले कर घर से बाहर निकलें कि कोई न कोई उन के साथ कुछ बुरा सोच कर तैयार बैठा है और वे हमेशा डरती रहें

आखिर हमारी सरकार, पुलिस और समाज का पूरा तबका अपनी सोच कब बदलेगा  ऐसे में यही बेहतर है कि हर लड़की कृष्णा पूनिया की तरह बन जाए और छेड़छाड़ करने वालों को गरदन से दबोच कर पुलिस के हवाले कर दे.

जब घर का ही कोई करे छेड़छाड़

तकरीबन रोजाना ही अखबारों में आने वाली रेप की घटनाएं हम सभी को परेशान करती हैं. कोई बड़ी घटना घट जाती है, तो बरसाती मेंढक की तरह कैंडल मार्च और रेपिस्ट को सजा देने की मांग तेजी से उठने लगती है, पर समय के साथ सब शांत हो जाता है और ‘जैसे थे’ उसी तरह हम सभी अपनी आदत के मुताबिक सबकुछ भूल कर अपनेअपने काम में लग जाते हैं.

खैर, अखबारों में आए रेप के मामलों में कम से कम रेपिस्ट पकड़ा तो जाता है, बाकी इस तरह की न जाने कितनी घटनाएं घर की चारदीवारी में ही घटती हैं, जिन के बारे में किसी को कुछ पता ही नहीं चल पाता. पता चलता भी हो तो अपना होने की आड़ ले कर इस तरह के लोग छूट जाते हैं.

घर में ही छेड़छाड़ और बदसलूकी के मामलों में ज्यादातर टीनएजर्स या कम उम्र के बच्चे शिकार होते हैं. अब तो ऐसे मामलों में लड़के भी महफूज नहीं हैं.

छोटे बच्चों के साथ घर का कोई सदस्य इस तरह का बरताव करता है, तो बच्चा किसी से कहने से डरता है. उस के अंदर ‘मेरी बात कोई नहीं मानेगा तो…? मुझे मारेगा तो…?’ इस तरह का डर ज्यादा होता है.
घर में ही सगेसंबंधियों द्वारा की जाने वाली छेड़छाड़ की घटना में जब कम उम्र के बच्चे शिकार होते हैं, तो उन के अंदर इतनी समझ नहीं होती कि उन के साथ उन के अपने ही यह कैसा बरताव कर
रहे हैं.

उन छोटे बच्चों को कुछ गलत होने का अनुभव तो होता है, पर यह गलत क्या है और इस बरताव के बारे में किस से कहा जाए, इस की समझ नहीं होती.

उन्हें इस बात का भी डर होता है कि मांबाप से कहेंगे तो वे नहीं मानेंगे और उलटा उन्हें ही डांट पड़ेगी. कुछ मामलों में यह भी होता है कि खराब बरताव करने वाला ही मांबाप से न कहने के लिए डराताधमकाता है.

ऐसे मामलों में बच्चों के साथ खराब बरताव करने वाले आदमी को जब पता चलता है कि उस के द्वारा किए गए खराब बरताव की शिकायत बच्चे ने मांबाप से नहीं की है, तो उस का हौसला बढ़ जाता है.
यहां केवल रेप की ही बात नहीं है, गलत तरीके से छूना या खराब इशारे भी इस में शामिल होते हैं. मांबाप इस तरह की शिकायत पुलिस से करने से डरते हैं.

एक एनजीओ के मुताबिक, वैसे तो घरेलू छेड़छाड़ के मामलों में ज्यादातर मांबाप ही ढकने का काम करते हैं. कभीकभी इस तरह के मामले में बच्चा बहुत डर जाता है, जिस की वजह से उस के बरताव में काफी बदलाव आ जाता है. तब मांबाप को साइकोलौजिस्ट की मदद लेनी पड़ती है. दूसरी ओर थाने में इस तरह की शिकायतें कम ही पहुंचती हैं. घर की इज्जत बचाने के चक्कर में घरेलू छेड़छाड़ की शिकायतें मात्र 15 फीसदी ही हो पाती हैं.

इस बारे में पुलिस अफसरों का कहना है कि जब मांबाप अपने बच्चों के साथ खराब बरताव करने वाले से कुछ कहने में खुद को काफी असहज महसूस करते हैं, तो थाने आ कर कहने या शिकायत करने की बात तो बहुत दूर है.

जिस तरह घरेलू हिंसा में थोड़ीबहुत हिंसा होती है, तो ‘औरत को थोड़ा सहन तो करना ही पड़ता है’ यह सोच कर लोग शिकायत नहीं करते, उसी तरह छेड़खानी के मामले में भी ‘ठीक है, अब इस बात को ले कर फजीहत नहीं करवानी, संभल कर चलना चाहिए’ यह सोचने वाले लोग ज्यादा हैं. इस बात को बढ़ाने से कोई फायदा नहीं है, इस तरह की सोच वाले लोग पुलिस तक बात को पहुंचने नहीं देते.

ज्यादातर मामलों में तो यह भी होता है कि लोग जानते ही नहीं कि इस तरह के मामलों में सारी पहचान पूरी तरह गुप्त रखी जाती है, जिस से आगे चल कर कोई परेशानी न हो.

छेड़छाड़ को छिपाने से छेड़छाड़ करने वाले को बढ़ावा ही मिलता है. बच्चे के साथ जब भी कोई घर का आदमी गलत बरताव करता है और बच्चा इस बारे में मांबाप को बताता है, तो उन्हें उस आदमी के खिलाफ कोई न कोई कदम जरूर उठाना चाहिए. उस आदमी को टोकना चाहिए और अगर इस पर भी वह न माने, तो पुलिस में शिकायत करने की धमकी देनी चाहिए.

ऐसा करने पर छेड़छाड़ करने वाला आदमी बदनामी के डर से अपने कदम पीछे खींच लेगा, जबकि मांबाप ऐसे मामलों में बच्चे को छेड़छाड़ करने वाले आदमी से दूर रहने और जो हुआ उसे भूल जाने की सलाह देते हैं.

छेड़छाड़ करने वाला सगा होने की वजह से संबंध बिगड़ेंगे और घर के दूसरे लोगों को पता चल गया तो बात का बतंगड़ बनेगा, इस डर से लोग कुछ कहते नहीं हैं.

मांबाप का यह बरताव बच्चे के दिमाग पर बुरा असर डालता है. बच्चे का अपने मांबाप के ऊपर से विश्वास उठ जाता है, क्योंकि बच्चे को भरोसा होता है कि कम उम्र में अपने साथ होने वाले गलत बरताव से वे उसे बचा लेंगे. अगर ऐसे समय में मांबाप कुछ नहीं करते, तो बच्चा निराश हो जाता है और उस का मांबाप के ऊपर से भरोसा उठ जाता है.

बच्चे के बदले बरताव को समझें. अकसर ऐसा होता है कि बच्चे के साथ जो हो रहा होता है, बच्चा उस बारे में मांबाप से कह नहीं पाता, पर उस के बरताव में यह बात आ जाती है. ऐसे बरताव के बाद बच्चा डराडरा सा रहने लगता है. उस का स्वभाव बदल जाता है. जो आदमी बच्चे के साथ गलत बरताव कर रहा होता है, उस के पास जाने से डरता है. बच्चे के इस बरताव को मांबाप को समझना चाहिए.

टीनएज लड़की या लड़का है, तो उस का भी बरताव बदल जाता है. मातापिता के रूप में अगर आप को अपने बच्चे के बरताव में बदलाव नजर आए, तो उस से प्यार से बात कर के बदलाव की वजह जानने की कोशिश करेंगे, तो यकीनन वह बता देगा.

याद रखिए, घरेलू छेड़छाड़ में बच्चे को अपने मांबाप पर भरोसा होगा तो वह यकीनन उस के साथ क्या गलत हो रहा है, जरूर बताएगा. पर अगर उसे इस बात का डर हुआ कि मांबाप उसे
ही गलत समझेंगे तो वह नहीं बताएगा, इसलिए बच्चे को इस बारे में सही सीख दें.

विवाह में शर्तें उचित या अनुचित, बरतें सावधानी

Society News in Hindi: मेरी एक परिचिता की बेटी को लड़के वाले देखने आए. सारी बातें पक्की हो जाने के बाद जब लड़का व लड़की ने एकांत में औपचारिक वार्त्तालाप किया तो लड़के ने लड़की से प्रश्न किया, ‘‘विवाह के बाद यदि फेसबुक, व्हाट्सऐप जैसे सोशल मीडिया का प्रयोग करने से हम मना करेंगे तो तुम बंद कर दोगी?’’

लड़की ने उत्तर दिया, ‘‘नहीं, बिलकुल नहीं.’’ साथ ही बाहर आ कर लड़की ने विवाह करने से भी यह कह कर मना कर दिया कि लड़का संकुचित मानसिकता का है. अभी से ऐसी शर्त रखी जा रही है तो विवाह के बाद तो जीना ही मुश्किल हो जाएगा.

एक अन्य परिवार में लड़के वालों ने लड़की वालों से कहा, ‘‘हमारे लगभग सौ बराती होंगे. उन के स्वागतसत्कार में कोई कमी नहीं रहनी चाहिए. साथ ही, हरेक बराती को विदाई में सोने का सिक्का देना होगा.’’

सीमा को एक लड़का देखने आया. औपचारिक वार्त्तालाप के बाद उस के मातापिता ने कहा, ‘‘देखो बेटी, हमारे घर की सभी बहूबेटियां नौकरी करती हैं तो तुम्हें भी हम घर में बैठने नहीं देंगे. बस, शादी के बाद एमबीए कर लेना ताकि सैलरी पैकेज अच्छा हो जाए, और शान से नौकरी करना.’’

सीमा को नौकरी करने के स्थान पर आराम से घर पर रहना पसंद था, सो उस ने शादी करने से इनकार कर दिया.

आजकल अरेंज मैरिज में लड़के वाले लड़की वालों के समक्ष शर्तों का पिटारा कुछ इस प्रकार खोलते हैं मानो लड़की और उस के परिवार का कोई अस्तित्व ही नहीं. कुछ लड़कियों और उन के मातापिता से की गई बातचीत के आधार पर हम ने जाना कि कैसीकैसी शर्तें लड़के वाले लड़की और उस के मातापिता के समक्ष रखते हैं-

  • शादी के बाद नौकरी छोड़नी पड़ेगी और यदि लड़की कामकाजी नहीं है तो यह, कि हमें कामकाजी बहू पसंद है इसलिए नौकरी करनी पड़ेगी.
  • हमारे पास मेहनत से कमाया हुआ सबकुछ है. हमें कुछ चाहिए नहीं. पर फिर भी, शादी का आप का बजट कितना है?
  • शादी के बाद मायके से कोई रिश्ता नहीं रखोगी और उन की किसी भी प्रकार की आर्थिक सहायता नहीं करोगी. जो भी कमा कर लाओगी, हमारे हाथ पर ही रखोगी.
  • तुम एमबीए नहीं हो, हमें तो एमबीए लड़की ही चाहिए. शादी के बाद एमबीए करना पड़ेगा.
  • मोटी बहुत हो, शादी से पहले 10 किलो तक वजन कम करना पड़ेगा.
  • 35 साल की उम्र तक अविवाहित रहने के पीछे क्या कारण रहा.
  •  नाक नहीं छिदी है, शादी से पहले छिदवानी पड़ेगी.
  • एक लड़के वाले ने यह कह कर रिश्ता करने से इनकार कर दिया कि लड़की के पिता को आंखों की लाइलाज बीमारी है.

उपरोक्त शर्तों को पढ़ कर पता चलता है कि समाज में स्त्री को किस दृष्टि से देखा जाता है. इस प्रकार की शर्तें लड़की के लिए ही क्यों? आज के समय में मातापिता लड़की और लड़के दोनों को पढ़ालिखा कर आत्मनिर्भर बनाने में समान पैसा, और परिश्रम व्यय करते हैं, फिर दोनों में असमानता क्यों? क्या अरेंज मैरिज में लड़की की अपनी इच्छा कोई माने नहीं रखती?

एक कंपनी में मैनेजर के पद पर काम कर रही नेहा गोयल कहती हैं, ‘‘कोई भी रिश्ता शर्तों पर नहीं टिक सकता क्योंकि शर्तों पर तो सिर्फ बिजनैस डील होती है, रिश्ता नहीं निभाया जा सकता.’’

वरिष्ठ मैरिज काउंसलर और मनोवैज्ञानिक निधि तिवारी कहती हैं, ‘‘विवाह से पूर्व लड़की व लड़की दोनों का ही शर्त रखना कुछ हद तक सही है क्योंकि विवाह से पूर्व ही सारी बातें साफ हो जाती हैं तो भविष्य में विवाद की आशंका नहीं होती. दोनों को यदि एकदूसरे की बात पसंद है तो शादी होगी वरना नहीं.

‘‘इस की अपेक्षा, विवाह के बाद यदि कोई शर्त रखी जाती है तो कई बार विवाह जैसा पवित्र बंधन टूटने के कगार तक पहुंच जाता है. दरअसल, लड़की व लड़का मानसिक रूप से उस स्थिति के लिए तैयार नहीं होते. परंतु सिर्फ लड़के के परिवार या लड़के के द्वारा ही शर्तों का रखना पूरी तरह गलत है.’’

शर्तों में बंधा बंधन

विवाह एक प्यारा सा बंधन है जो परस्पर सहयोग, समझदारी, विश्वास और आपसी सामंजस्य पर टिका होता है. इस बंधन में भावना प्रधान होती है. ऐसे बंधन में बंधने से पूर्व ही यदि शर्तें लाद दी जाएंगी तो उस का टिकना ही संदेहास्पद हो जाएगा. इसलिए इस में किसी भी प्रकार की अनपेक्षित शर्तों का रखा जाना बेमानी है. शर्त रखने के स्थान पर दोनों परिवारों के लोग आपसी बातचीत के माध्यम से अपनी इच्छाएं साझा करें ताकि दोनों को एकदूसरे की विचारधारा का पता लग सके.

कितनी बार देखा जाता है कि विवाह के बाद समय और परिस्थिति की मांग को देखते हुए बच्चों की परवरिश की खातिर अथवा अन्य कारणों से महिलाएं नौकरी खुद ही छोड़ देती हैं, या परिवार की आवश्यकतानुसार नौकरी करती हैं. विवाहोपरांत पति, पत्नी और ससुराल के परस्पर व्यवहार व सहयोग के बाद अनेक समस्याएं खुद हल हो जाती हैं परंतु विवाह पूर्व जब उन्हीं समस्याओं को शर्त के रूप में प्रस्तुत किया जाता है तो रिश्ते की शुरुआत में ही कटुता आ जाती है जो कई बार ताउम्र भी समाप्त नहीं हो पाती.

विवाह 2 परिवारों और संस्कृतियों का मिलन होता है, नई रिश्तेदारी का सृजन होता है, लड़का व लड़की इस से अपने एक नवीन जीवन का प्रारंभ करते हैं, नवीन रिश्तों को जीना शुरू करते हैं. ऐसे नाजुक रिश्ते में बंधने से पूर्व ही किसी भी प्रकार की शर्त रखना सरासर गलत है. वास्तविकता तो यह है कि विवाह में लड़की के मातापिता अपने खून से सींचे गए अंश को लड़के वालों के परिवार को दे कर शृंगारित करते हैं. ऐसे में लड़की वालों का स्थान लड़के वालों से ऊपर हो जाता है. सो, उन्हें हेय न समझ कर, बराबरी का मानसम्मान दिया जाना चाहिए.

विवाह में किसी भी प्रकार की शर्त का रखा जाना सर्वथा अनुचित है. बिना शर्त प्यार और सहयोग की भावना से किए गए विवाह में लड़की अपने ससुराल के प्रति प्यार, विश्वास और सम्मान की भावना ले कर सासससुर के घर में प्रवेश करती है जिस से घर में चहुंओर खुशियां रहती हैं.

सोशल साइट्स पर कैसा हो रंगढंग

Society News in Hindi: सोशल नैटवर्किंग साइट्स ने कुछकुछ नहीं, बहुत कुछ बदल दिया है. तकनीक के जमाने में नैटवर्किंग की तमाम सोशल साइट्स हैं, जैसे फेसबुक, व्हाट्सऐप, ट्विटर, लिंक्डइन, इंस्टाग्राम आदि. इन सब से हम ऐक्टिव अकाउंट द्वारा जुड़ सकते हैं. जहां एक ओर इन के कई फायदे हैं, वहीं सब से बड़ा नुकसान नैगेटिव पौपुलैरिटी का है यानी बिना जानेसमझे सोशल नैटवर्किंग साइट्स पर सक्रियता आप पर बुराई का ठप्पा चस्पां सकती है. इसलिए आप को बता दें कि सिर्फ अकाउंट बनाना ही पर्याप्त नहीं है. नैगेटिव पौपुलैरिटी या बैड टैग का ठप्पा न लगे इस के लिए कुछ बेसिक मैनर्स को अपनाना पड़ता है.

प्राइवेसी मजबूत हो

किसी भी सोशल नैटवर्किंग साइट पर अकाउंट बनाएं, लेकिन अपनी प्राइवेसी मेंटेन करते रहें. ताकि कोई अनजान व्यक्ति आप के अकाउंट में ताकाझांकी न कर पाए. इस से बचने का उपाय है कि आप प्राइवेट अकाउंट और अपना पासवर्ड कठिन रखें. महीने में एक बार जरूर पासवर्ड बदलें, पासवर्ड किसी से शेयर न करें.

हेराफेरी न हो

यदि सोशल साइट्स पर आप के परिचित आप से जुड़े हैं, तो डींगे मत हांकिए, सही और सटीक जानकारी अपने प्रोफाइल में अपडेट करें. पब्लिक डिस्प्ले में क्या रखना है, क्या नहीं, यह पूरी तरह आप पर निर्भर करता है. प्रोफाइल फोटो से परहेज न करें. ऐसा करने से नैटवर्क से जुड़े लोग आप को करीब पाएंगे.

 

पर्सनल अलग, प्रोफैशनल अलग

सोशल नैटवर्किंग साइट्स फायदेमंद साबित हों, तो पर्सनल और प्रोफैशनल अकाउंट रखें वरना एक ही अकाउंट रखने से सब गुड़गोबर हो जाएगा. कई बार एक ही अकाउंट की वजह से हम जरूरी जानकारियों से अछूते रह जाते हैं और पर्सनल व प्रोफैशनल लाइफ में अंतर तथा सामंजस्य नहीं बिठा पाते.

संभल कर करें फोटो शेयर

सोशल नैटवर्किंग साइट्स ने फोटो अपलोड की सुविधा दे कर यादों को संजोना आसान कर दिया है. मौका चाहे त्योहार का हो या दोस्तों के साथ मस्ती करने का या फिर अपनों के साथ सैरसपाटे या फिल्म देखने का, हम हर मौके को कैमरे में कैद कर सोशल नैटवर्किंग साइट्स पर अपलोड कर सकते हैं. यहां तक तो सब ठीक है यदि फोटो सिर्फ आप की हैं, लेकिन मामला तब गड़बड़ा जाता है जब आप दूसरे का फोटो बिना उस से पूछे टैग या अपलोड करते हैं. याद रखें आप की इस छोटी सी हरकत से रिश्ते में दरार आ सकती है. कई लोगों को अपनी फोटो सार्वजनिक करना पसंद नहीं होता, इसलिए फोटो शेयर, टैग या अपलोड करने से पहले उस व्यक्ति की अनुमति जरूर लें.

संभल कर करें कमैंट

कम्युनिकेशन का बैस्ट औप्शन है सोशल साइट्स में कमैंट का औप्शन. पर्सनल और प्रोफैशनल अकाउंट में कमैंट ध्यान से करें. आपत्तिजनक शब्दों और अश्लील भाषा का प्रयोग कतई न करें. कमैंट लिखने के बाद दोबारा जरूर पढ़ें. यदि कुछ पर्सनल लिखना हो, तो मैसेजबौक्स का प्रयोग करें.

आंख बंद कर हामी न भरें

फ्रैंड रिक्वैस्ट की लाइन देख कर खुश न हों. भोलीभाली शक्ल में कोई शैतान छिपा हो सकता है. सोशल नैटवर्किंग साइट्स में हम काफी हद तक बच सकते हैं. मसलन, आंख बंद कर हर रिक्वैस्ट पर हामी न भरें. रिक्वैस्ट ऐक्सैप्ट करने से पहले उस व्यक्ति का अकाउंट अच्छी तरह देख लें. सोचसमझ कर ही फैसला लें. जिन्हें आप जानते हैं उन्हें ही फ्रैंड लिस्ट में शामिल करें. यदि कोई बारबार फ्रैंड रिक्वैस्ट भेजे जिसे आप जानते नहीं, तो उस रिक्वैस्ट को स्पैम में डाल दें.

सब की अलग पसंद

यदि आप को सोशल साइट्स पर कैंडी क्रश खेलना पसंद हो तो जरूरी नहीं आप के सभी वर्चुअल फ्रैंड्स को भी पसंद होगा. बेवजह दूसरों को ऐसे गेम्स खेलने की रिक्वैस्ट न भेजें.

फौलो हो सही प्रोफाइल

कुछ गलत नहीं यदि आप सैलिब्रिटी के प्रोफाइल को फौलो करते हैं, लेकिन सही प्रोफाइल को फौलो करें, सैलिब्रिटी के अधिकांश प्रोफाइल सोशल नैटवर्किंग साइट्स पर फेक होते हैं. ओरिजनल की पहचान नीले रंग का मार्क है. जिस सैलिब्रिटी के प्रोफाइल के आगे नीले रंग का निशान हो वह ओरिजनल है. नीले मार्क वाले प्रोफाइल को ही फौलो करें.

अकेलेपन से कब तक जूझते रहेंगे बुजुर्ग

7 अगस्त, 2017 को मुंबई के ओशिवारा में अपनी मां से मिलने पहुंचे ऋतुराज साहनी को बंद फ्लैट से अपनी मां आशा साहनी का कंकाल मात्र ही मिला. अमेरिका में बसे बेटे ने आखिरी बार, अपनी मां से फोन पर बात अप्रैल 2016 में की थी. पुलिस को फ्लैट से सुसाइड नोट मिला, ‘‘मेरी मौत के लिए किसी को दोषी न ठहराया जाए.’’ आखिरी बार की बातचीत में महिला ने अपने पुत्र से कहा था, ‘मैं घर में बहुत अकेलापन महसूस करती हूं और ओल्डएज होम जाना चाहती हूं.’ आशाजी के नाम पर सोसायटी में करीब 5 से 6 करोड़ रुपए के 2 फ्लैट हैं.

संदर्भ यही है कि महिला अपने अकेलेपन से ऊब गई थी और मौत को ही अंतिम विकल्प मान कर इस दुनिया से चली गई. मगर अफसोस इस बात का है कि उस के पासपड़ोस के लोगों ने एक बार भी उस विषय में चर्चा नहीं की. क्या उस के घर अखबार वाला या कामवाली बाई कोई भी नहीं आती थी? क्या अपने पुत्र के सिवा किसी अन्य से बातचीत नहीं होती थी? क्या पूरी मुंबई या भारत में उस से संपर्क रखने वाले, उस के सुखदुख के साथी, पड़ोसी, मित्र या रिश्तेदार नहीं बचे थे? ऐसा कैसे हो सकता है जबकि उस की उम्र मात्र 63 वर्ष थी.

समाज और बुजुर्ग

भारत में 2020 तक 20 प्रतिशत भारतीय मानसिक समस्याओं का सामना कर रहे होंगे, ऐसा विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट से स्पष्ट हुआ है. हर वर्ष 2 लाख लोग आत्महत्या करते हैं जोकि विश्व में होने वाली आत्महत्याओं का 25 प्रतिशत है. देश में अकेलापन और आर्थिक व मानसिक असुरक्षा बुजुर्गों के दुख के प्रमुख कारण हैं.

हम समाज से हैं और समाज हम से है. व्यक्ति परिवार, पड़ोस, विद्यालय, समुदाय, राज्य, धर्म आदि विभिन्न लोगों से जुड़ा रहता है. इन सब के बावजूद हम अकेले कैसे पड़ जाते हैं, यह विचारणीय है.

सही कहावत है, बचपन खेल कर खोया, जवानी नींद भर सोया, बुढ़ापा देख कर रोया. बचपन और जवानी का समय, विभिन्न प्रकार की गतिविधियों, जिम्मेदारियों के बीच कब गुजर जाता है, पता नहीं चलता. लेकिन वृद्धावस्था की समस्याओं की व्यापकता, गंभीरता और जटिलता वर्तमान समय की प्रमुख समस्या के रूप में सामने आ रही है. जैसेजैसे लोगों के रहनसहन के स्तर में उन्नति हुई है, वैसे ही वृद्ध व्यक्तियों की अधिक समय तक जीवित रहने की संभावना भी बढ़ती जा रही है. सो, वृद्ध व्यक्तियों की संख्या में वृद्धि हो रही है.

समाज की यह परंपरा रही है कि वृद्धों के पुत्र व अन्य संबंधी उन की देखभाल करते हैं. इस के बावजूद, कई परिवारों में वृद्धों को पर्याप्त व आवश्यक देखभाल और सहायता नहीं मिल पाती. इस कारण वे दुखी व शारीरिकमानसिक बीमारियों से त्रस्त रहते हैं. वृद्धों की दुखदाई परिस्थिति के लिए परिवार का परस्पर मतभेद, कमजोर आर्थिक स्थिति, साधनों का अभाव और संतानों का विदेश जा कर बस जाना प्रमुख कारण हैं.

society

क्या न करें : रेमंड के मालिक विजयपत सिंघानिया का कहना है कि उन का पुत्र उन्हें कौड़ीकौड़ी के लिए तरसा रहा है और वे करोड़ों की जायदाद बेटे के नाम करने के बाद मुंबई की ग्रैंड पराडी सोसायटी में किराए के मकान में रह रहे हैं. जब अरबों की जायदाद पा कर भी किसी संतान में लालच आ सकता है तो मामूली हैसियत वाले परिवारों की बात ही क्या? अपने जीतेजी प्रौपर्टी अपनी संतानों के हवाले बिलकुल नहीं करनी चाहिए.

ऐसा नहीं है कि सिर्फ बुजुर्ग ही अकेलेपन के शिकार हो मानसिक अवसाद से घिर जाते हैं बल्कि युवा भी जब समाज से कटते हैं तो वे भी मानसिक रोगी बन जाते हैं और आत्महत्या कर लेते हैं या अपने को घर में कैद कर रहने लगते हैं. ऐसे कई युवकयुवतियों को घर से पुलिसबल द्वारा जबरन अस्पताल में भरती कराने की खबरें भी समयसमय पर सुर्खियां बनती रहती हैं.

क्या करें : अपनी आर्थिक सुरक्षा बरकरार रखनी चाहिए. अपने स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए मौसमी फल, सब्जी व स्वास्थ्यवर्धक आहार लेना चाहिए. पड़ोसी, रिश्तेदार व मित्रों के संपर्क में रहना चाहिए. सभी की यथासंभव आर्थिक, मानसिक या शारीरिक स्तर की मदद जरूर करनी चाहिए. जब आप आगे बढ़ कर दूसरों के सुखदुख में काम आएंगे तभी आप दूसरों की नजरों में आ पाएंगे.

अकेलेपन को अपना साथी न बना कर नियमित रूप से अपनी सोसायटी, महल्ले के क्लब या पार्क में जाएं. लोगों के संपर्क में रह कर उन के सुखदुख जानें. इस तरह के संपर्क आप को जीवन के सकारात्मक रुख की ओर ले जाते हैं.

यदि आर्थिक रूप से समर्थ हैं तो ड्राइवर, कामवाली, घरेलू नौकर की समयसमय पर आर्थिक मदद अवश्य करें. यदि धनाभाव है तो कमजोर तबके के बच्चों की पढ़ाई में निशुल्क या कम पैसे से ट्यूशन दे कर अपना समय व्यतीत करें व अकेलापन भी दूर करें.

यदि आप संयुक्त परिवार में हैं तो घर के सभी सदस्यों को साथ ले कर चलें. किसी भी प्रकार का भेदभाव पारिवारिक संबंधों की कड़वाहट का कारण बन सकता है. अगर आप अकेले ही वृद्धावस्था का सफर काट रहे हैं और आप की संतानें दूसरे शहरों या विदेशों में बसी हैं तो आप को अपने बच्चों से संपर्क में रहने से ज्यादा, अपने पड़ोसियों के संपर्क में रहना जरूरी है. आप की किसी भी परेशानी में बच्चों के पहुंचने से पहले पड़ोसी स्थिति संभाल लेंगे. यह तभी संभव है जब आप पड़ोसियों से मधुर संबंध रखेंगे.

आप अपनी सोसायटी, महल्ले के बुजुर्ग लोगों का एक अलग ग्रुप बना कर अपना समय बहुत ही अच्छे ढंग से बिता सकते हैं. बारीबारी से चायपानी का प्रोग्राम, साथ घूमने का प्रोग्राम, लूडो, कैरम, शतरंज जैसे खेल साथ में खेलने का प्रस्ताव भी समय को रोचक बनाता है.

सब का संगसाथ

महिमाजी पूरे महल्ले के बच्चों को अपने घर पर बुला कर रमी खेलती मिल जाएंगी. आतेजाते को पुकारेंगी, ‘‘ए लली, थोड़ी देर रमी खेलो न.’’ सब जानते हैं कि वे ताश खेलने की काफी शौकीन हैं. जो भी फुरसत में रहता है, उन के पास जा कर ताश खेल लेता है. किसी दिन उन की आवाज न सुनाई दे तो लोग खुद ही उन का हालचाल पूछने लगते हैं.

सुनयनाजी भजन, सोहर, बन्नाबन्नी सभी लोकगीत बहुत सुरीले स्वर में गाती हैं. हर घर के तीजत्योहार या किसी भी प्रोग्राम में उन की उपस्थिति अनिवार्य है. उन के लिए हर घर से निमंत्रण आता है.

महेशजी ने व्यायाम में महारत हासिल की हुई है. वे पार्क में नियमित रूप से लोगों को योग के टिप्स देते मिल जाते हैं. यदि वे पार्क में न दिखें, तो लोग उन का हालचाल लेने उन के घर पहुंच जाते हैं.

विनयजी को गप मारने की आदत है. अपने दरवाजे पर बैठेबैठे वे हर आनेजाने वाले की कुशलता पूछ लेते हैं. जिस दिन वे न दिखाई दें, उस दिन लोग उन के घर ही चल देते हैं.

प्रकाशजी एक बडे़ से बंगले के मालिक हैं. अपने बच्चों के विदेश प्रवास और पत्नी की मृत्यु के बाद अकेलेपन को दूर करने का उन्होंने एक नायाब तरीका ढूंढ़ा. उन्होंने अपने बंगले के आधे हिस्से में असहाय, निराश्रित वृद्धजन के लिए द्वार खोल दिए, जिस में रहनेखाने की सुविधा के बदले श्रमदान को अधिक महत्त्व दिया. वहां पर दिनभर किसी भी कार्य में दिया योगदान ही आप को वहां की सुविधा का लाभार्थी बनाता है, जैसे साफसफाई, खाना बनाना या बगीचे का रखरखाव. इस प्रकार वे अपनी उम्र के लोगों से जुड़े हुए हैं और वहीं वे उन का सहारा भी बन गए हैं.

समाज को अपनी गिरफ्त में लेता जा रहा है जहां धन, यश व भीड़भाड़ के बावजूद वृद्ध एकाकी हो कर अपनों के इंतजार में दम तोड़ रहे हैं.

 

अमीर लोगों के महंगे अंधविश्वास, नेता अभिनेता सब हैं शामिल

Society News in Hindi: मनुष्य एक जिज्ञासु प्राणी है. वह तमाम चीजों के साथसाथ अपना भविष्य भी जानना चाहता है. शायद अपनी इसी मनोवृत्ति की तृप्ति के लिए ही उस ने ज्योतिषशास्त्र (Astrology) की खोज की होगी. लेकिन, बाजार में ज्योतिष के नाम पर मनगढ़ंत किताबों के साथ ढोंगीपाखंडी बाबाओं की भरमार हो गई है. उन का मकसद लोगों की मजबूरियों का लाभ उठाना और पैसा बनाना है. मामूली पत्थर को भी ये लोग महंगे नगीने (Precious Stones) के नाम पर बेच कर लोगों को आसानी से ठग लेते हैं. यही कारण है कि हर गली, महल्ला, गांव, शहर, नगर, महानगर में ज्योतिषीय उपाय से समस्या समाधान करने का साइनबोर्ड टंगा हुआ है. मजबूर और बीमार आदमी उन के जाल में आसानी से फंस जाता है.

चाहे उत्तर भारत हो या दक्षिण भारत, चाहे पूर्व भारत हो या पश्चिम भारत, ज्योतिषियों की दुकान हर जगह खुली हुई हैं. आजकल तो टीवी चैनलों और अखबारों में ज्योतिषियों की बाढ़ सी आ गई है. सुबह से कार्यक्रम शुरू होते हैं तो मध्यरात्रि तक चलते रहते हैं. टीवी पर चलने वाले कार्यक्रमों के कंटैंट और प्रेजैंटेशन डर और भय पैदा करने वाले होते हैं.

शुभअशुभ का भ्रमजाल

जन्मकुंडली में 9 ग्रह बताए जाते हैं. ये ग्रह हैं सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु एवं केतु. इस में पृथ्वी का कोई स्थान नहीं है. जबकि वैज्ञानिक तथ्य यह है कि मनुष्य के जीवन पर सब से ज्यादा प्रभाव पृथ्वी का ही पड़ता है.

जब मौसम और जलवायु में बदलाव होता है, तब मनुष्य की जैविक क्रियाओंप्रतिक्रियाओं में परिवर्तन होने लगता है. इन का प्रभाव इतना होता है कि मनुष्य को मौसम के अनुसार कपड़े पहनने पड़ते हैं. लेकिन ज्योतिषशास्त्र में मौसम और जलवायु का मनुष्य पर क्या प्रभाव पड़ता है, इस की कहीं कोई चर्चा नहीं है.

वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध किया है कि सूर्य तारा है, ग्रह नहीं. लेकिन ज्योतिषशास्त्र में अब भी सूर्य को ग्रह ही माना जाता है. इस का मुख्य कारण यह है कि ज्योतिषशास्त्र में सैकड़ों सालों से नई खोज हुई ही नहीं है. नई खोज होगी कैसे? आज ऐसे हजारों ज्योतिषी हैं जिन को केवल संस्कृत भाषा का ही ज्ञान है.

शिकार और शिकारी

ज्योतिषियों के शिकार केवल अनपढ़गंवार या सामान्य लोग ही नहीं हैं, बल्कि पढे़लिखे, बुद्धिजीवी, बड़ेबड़े धन्नासेठ, वैज्ञानिक, इंजीनियर, डाक्टर, आईएएस अफसर, आईपीएस अफसर, वकील, नेता, अभिनेताअभिनेत्री भी इन ज्योतिषियों की सेवा लेते हैं. फिल्मी दुनिया में तो जितना अंधविश्वास है उतना तो अनपढ़गंवार लोग भी नहीं मानते हैं.

निर्देशक राकेश रोशन अपनी फिल्मों के नाम क अक्षर से रखते हैं, जैसे ‘करण अर्जुन’, ‘कहो ना प्यार है’, ‘कारोबार’, ‘कामचोर’, ‘कृष’, ‘कोयला’ इत्यादि. ‘कभी सास भी बहू थी’ टीवी धारावाहिक की निर्मात्री और अभिनेता जितेंद्र की बेटी एकता कपूर भी अपने धारावाहिकों और फिल्मों का नाम क अक्षर से ही रखती हैं, जैसे ‘कभी मैं झूठ नहीं बोलता’, ‘कृष्णा कौटेज’, ‘कसौटी जिंदगी की’, ‘कहीं किसी रोज’ इत्यादि. जबकि एकता कपूर की क अक्षर से टाइटल वाली सभी फिल्में फ्लौप हो गईं. जबकि उन की द अक्षर की टाइटल वाली फिल्म ‘द डर्टी पिक्चर’ सफल हो गई. फिर भी उन का अंधविश्वास ज्यों का त्यों है.

ऋतु चौधरी जब फिल्मों में अभिनेत्री बनने आईं और निर्देशक सुभाष घई से मिलीं तो सुभाष घई ने ऋतु चौधरी को सलाह दी कि उन के लिए म अक्षर लक्की है. उन की सभी फिल्मों की अभिनेत्रियों के नाम म अक्षर से हैं. इसलिए तुम अपना नाम म से रख लो. तो ऋतु चौधरी महिमा चौधरी बन गईं. और फिल्म बनी ‘परदेस.’ इतना कर्मकांड करने के बाद भी न फिल्म परदेस चली और न ही अभिनेत्री महिमा चौधरी का कैरियर आगे बढ़ सका.

सीमा से परे अंधविश्वास

यह अंधविश्वास केवल हिंदू धर्म में नहीं है. इसलाम धर्म को मानने वाले भी अंधविश्वासी होते हैं. जब यूसुफ खान फिल्म में अभिनेता बनने आए तो उन्होंने प्रसिद्ध ज्योतिषी पंडित नरेंद्र शर्मा से अपना नामकरण संस्कार दिलीप कुमार के रूप में कराया. शाहरुख खान पन्ना पहनते हैं, तो सलमान खान फिरोजा ब्रेसलेट.

केवल फिल्मी हस्तियां ही नहीं, बल्कि कई प्रधानमंत्रियों को अपने तांत्रिक मित्रों के कारण काफी प्रसिद्धिअप्रसिद्धि भी मिली. इंदिरा गांधी एकमुखी रुद्राक्ष की माला पहनती थीं और कई बाबाओं के यहां आतीजाती रहती थीं. इस के बावजूद उन का जीवन काफी संघर्षपूर्ण रहा. प्रधानमंत्री एच डी देवेगौड़ा के बारे में भी ऐसा ही कहा जाता है. प्रधानमंत्री पी वी नरसिंहा राव तांत्रिक चंद्रास्वामी से संबंध होने के बावजूद हवाला घोटाला में फंसे और उन की काफी फजीहत हुई.

इसरो हमारे देश की सब से बड़ी विज्ञान की प्रयोगशाला है. लेकिन इस के कई अध्यक्ष भी ऐसेऐसे वैज्ञानिक हुए हैं जो कर्मकांड और अंधविश्वास को मानते रहे हैं. भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान परिषद यानी इसरो के वैज्ञानिक रौकेट लौंच करने से पहले वेंकेटेश्वर स्वामी के तिरुपति बालाजी मंदिर में पूजाअर्चना करते हैं. इस पूजा में इसरो के अध्यक्ष स्वयं उपस्थित रहते हैं.

2014 की आईएएस टौपर इरा सिंघल ने एक साक्षात्कार में कहा कि वे ज्योतिष से जान गई थीं कि इस बार उन का चयन आईएएस में हो जाएगा.

बच्चन परिवार हो या अंबानी परिवार, राजनेता हो या नौकरशाह इन बड़े लोगों ने भी जानेअनजाने में अंधविश्वास का प्रचारप्रसार किया. अपनी सुरक्षा को ले कर एक सवाल के जवाब में अपने को सब से ईमानदार नेता के रूप में पेश करने वाले दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा था कि मेरी हथेली में जीवनरेखा लंबी है. मुझे कोई नहीं मार सकता. वहीं केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी जब अपना भविष्य जानने के लिए राजस्थान के भीलवाड़ा के कारोई कसबे में पंडित नाथूलाल व्यास के पास गईं तो मीडिया और सोशल मीडिया में उन की काफी आलोचना हुई थी.

ऐश्वर्या राय की शादी के समय अमिताभ बच्चन ने ग्रहनक्षत्रों को खुश करने के लिए मंदिरों का खूब दौरा किया था. वहीं, अंबानी बंधुओं में दरार पाटने के लिए मोरारी बापू से सलाह ली गई थी. फिर भी दोनों अंबानी भाई अलग हुए. कोई टोटका दोनों को एकसाथ न रख सका.

मोटी फीस वसूली

सामान्यतया ये ज्योतिषी एक डाक्टर से ज्यादा फीस लेते हैं. यंत्रमंत्रतंत्र और कर्मकांड करनेकराने के नाम पर तो मोटी रकम वसूली जाती है, वहीं रुद्राक्ष, लौकेट, अंगूठी, रत्न, माला, शंख की कीमत सैकड़े से शुरू हो कर लाखों में चली जाती है. बेजान दारूवाला एक प्रसिद्ध ज्योतिषी हैं. 5 साल तक आप का कैरियर कैसा रहेगा, यह बताने के लिए वे करीब 5,275 रुपए लेते हैं. प्रसिद्ध ऐस्ट्रोलौजर के एन राव के शिष्य एस गणेश की फीस 6,000 रुपए है. 3 साल तक आप का कैरियर कैसा रहेगा, यह बताने के लिए कंप्यूटर ऐस्ट्रोलौजी के जनक अजय भाम्बी 4,500 रुपए लेते हैं. प्रेमपाल शर्मा प्रति प्रश्न 2,100 रुपए लेते हैं. सुरेश श्रीमाली टैलीफोन पर सलाह देने के लिए एक व्यक्ति से 11,000 रुपए झटक लेते हैं.

जादवपुर यूनिवर्सिटी में विजिटिंग फैकल्टी डा. सुरेंद्र कपूर वीडियो कौंफ्रैंसिंग के जरिए सलाह देने के लिए 15 मिनट का 2,100 रुपए लेते हैं. ऋतु शुक्ला आप का जीवन 2 साल तक कैसा रहेगा, यह बताने के लिए 11,000 रुपए लेती हैं. दूरसंचार कंपनी एयरसेल अपनी ज्योतिषसेवा से प्रतिमाह 2 करोड़ रुपए का कारोबार करती है. एयरसेल की ज्योतिषसेवा के करीब 20 लाख ग्राहक हैं. हालांकि सब की फीस क्लाइंट की स्थिति के हिसाब से घटतीबढ़ती रहती है.

भारत का संविधान तंत्रमंत्रयंत्र, जादूटोना, शकुनअपशकुन, शुभअशुभ, मुहूर्त, गंडातावीज, और भभूत आदि को प्रतिबंधित करता है. भारतीय संविधान के 10 मूल कर्तव्यों में एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा देना भी है. लेकिन यहां अंधविश्वास को ही आगे बढ़ाने वालों की भीड़ ज्यादा है.

अंधविश्वास को बढ़ावा देती हस्तियां

 – तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव को वास्तुशास्त्र में इतना विश्वास है कि वे अपना आधिकारिक कार्यालय वास्तुशास्त्र के अनुसार 2 बार बदलवा चुके हैं.

– धार्मिक पाखंड पर बनी बहुचर्चित फिल्म ‘पीके’ के अभिनेता आमिर खान अपनी हर फिल्म दिसंबर में रिलीज करने को शुभ मानते हैं.

– कैटरीना कैफ अपनी हर फिल्म की रिलीज से पहले अजमेर शरीफ दरगाह जा कर दुआ मांगती हैं.

– अभिनेत्री शिल्पा शेट्टी अपनी आईपीएल टीम राजस्थान रौयल्स की सफलता के लिए मैच के दौरान 2 घडि़यां पहनती हैं.

– परेश रावल अपनी किसी भी फिल्म की शूटिंग के पहले दिन लोकेशन पर नहीं जाते हैं.

– बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार मोती पहनते हैं.

– शिवसेना नेता और 5 बार के सांसद मोहन रावले अपने चुनाव अभियान के दौरान सिर्फ पीली शर्ट ही पहनते हैं.

– महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण ने अपना नाम बदल कर अशोक राव चव्हाण कर लिया.

– वकील व पूर्व केंद्रीय मंत्री पी चिदंबरम ने नौर्थ ब्लौक में अपने कार्यालय के बाहर गणेश की बड़ी मूर्ति लगवा ली थी.

– धर्मनिरपेक्ष देश की राजधानी दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का घर गणेश की मूर्तियों से भरा हुआ था. फिर भी वे चुनाव हार गईं.

– अभिनेता सुनील शेट्टी अंक ज्योतिष के अनुसार अपने नाम की स्पैलिंग लिखते हैं.

– ज्योतिष और अंकशास्त्र में 13 को अशुभ माना जाता है. इसरो ने रौकेट पीएसएलवी 12 के बाद 13 नहीं बनाया, पीएसएलवी-14 बनाया है.

– राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव पन्ना पहनते हैं.

बाबाओं की अय्याशी, क्यों लुटती गरीब घर की बेटियां

Society News in Hindi: आसाराम (Asaram), रामरहीम (Ram Rahim) व फलाहारी बाबा (Phalhari Baba) के बाद रंगीनमिजाजी में एक और नाम वीरेंद्र दीक्षित (Virender Dixit) का सामने आया. 21 दिसंबर, 2017 को पुलिस ने कोर्ट के आदेश पर दिल्ली में उस की आध्यात्मिक यूनिवर्सिटी पर छापा मार कर दर्जनों लड़कियों को बाहर निकाला. उन में से कुछ लड़कियों ने मीडिया को बताया कि वह बाबा खुद को कृष्ण व उन्हें अपनी गोपियां बता कर गुप्त ज्ञान व प्रसाद देने के नाम पर उन के साथ मुंह काला करता था. यह असर धर्म की उस अफीम का है, जिस की घुट्टी जीने से मरने तक कदमकदम पर लोगों को पिलाई जाती है. बेकार की बातों को हवा देने वाली तमाम ऊलजुलूल किस्सेकहानियां धर्म की किताबों में भरी पड़ी हैं. बातों की चाशनी चढ़ा कर प्रवचनों में उन्हें दोहराया जाता है. स्वर्ग व मोक्ष मिलने का लालच दे कर लोगों को बहकाया जाता है. सारे दुखों से छुटकारा मिलने का झांसा दे कर उन्हें भरमाया जाता है. इस से ज्यादातर लोग चालबाज बाबाओं की लुभावनी बातों में आ जाते हैं.

इन्हीं बातों के असर से धर्म के दलदल में डूबे लोग सहीगलत में फर्क करना भूल जाते हैं. अपनी बेटियों व पत्नियों को बाबाओं के आश्रमों में ले जा कर कुरबान कर देते हैं.

ऐसी लड़कियां व औरतें बाबाओं के चंगुल में फंस कर जबतब अपनी इज्जतआबरू गंवा देती हैं तो उन्हें बताया जाता है कि वे तो भगवान की हो चुकी हैं, बाहरी दुनिया पाप की गठरी है.

पीडि़त लड़कियों में से ज्यादातर लोकलाज व बलात्कारी बाबाओं व उन के गुंडों के डर से चुप्पी साध जाती हैं. अपनी जबान सिल कर वे हालात से समझौता कर लेती हैं. किसी से कोई शिकायत भी नहीं करतीं. गिरोह की कई मुफ्तखोर सदस्या तो खुद बाहर आने से इनकार कर देती हैं. इतना ही नहीं, उन पाखंडी बाबाओं के हक में बोलने व लड़ने के लिए वे खड़ी हो जाती हैं.

अपने पैर पर कुल्हाड़ी…

देश में तकरीबन 5 फीसदी अमीर, 10 फीसदी मझले व 85 फीसदी गरीब हैं. ये पाखंडी बाबा ज्यादातर निचले व मझले तबके के कम पढ़े लोगों को अपना शिकार बनाते हैं. ज्योतिषी, तांत्रिक व बाबा जानते हैं कि माली तौर परकमजोर लोग ही समस्याओं से ज्यादा घिरे रहते हैं. ऊपर से उन का खुद पर यकीन भी नहीं होता इसलिए वे टोनेटोटके, गंडेतावीज, बाबाओं की मेहरबानी व चमत्कारों में अपने मसलों का हल ढूंढ़ते हैं.

जिस तरह बहुत ज्यादा महंगी गाड़ियां बनाने वाली कंपनियां टैलीविजन पर अपने इश्तिहार इसलिए नहीं देती हैं कि इतनी महंगी गाड़ियां खरीदने वालों के पास टैलीविजन देखने का समय नहीं होता है, उसी तरह पाखंडी बाबा भी ऊंची जाति के रसूखदार व अमीर लोगों को अपना शिकार कम ही बनाते हैं, क्योंकि एक तो वे जल्दी से हर किसी के झांसे में नहीं आते, ऊपर से बाबाओं को भी अपनी पोल खुलने व पकड़े जाने का डर रहता है.

नीचे से ऊपर छलांग

निचले व मझले तबके के ज्यादातर लोग अमीर लोगों की बराबरी के सपने देखते रहते हैं. धर्म के मनगढ़ंत प्रचार से उन्हें लगने लगता है कि करामातों से उन के दुखदर्द मिट जाएंगे. ये बाबा उन की दुनिया बदल देंगे, इसलिए अकसर उपायों के नाम पर वे छलांग लगाने के लिए तैयार हो जाते हैं, चाहे इस के लिए उन्हें कुछ भी कुरबानी क्यों न देनी पड़े.

बहुत से मक्कार बाबाओं के चेलेचपाटे भोलेभाले भक्तों को पटाने में लगे रहते हैं कि तुम तो बहुत खुशनसीब हो. तुम्हारी लड़की को बाबा ने अपनी सेवा के लिए चुना है. ऐसा तो हजारोंलाखों में से किसी एक के साथ होता है. तुम्हें तो खुश होना चाहिए. तुम्हारा नाम होगा. तुम्हारी सारी पुश्तें तर जाएंगी. तुम पर बाबा की खास कृपा बरसेगी.

कई लोग इसी झूठी शान, भरम व अपने भले की उम्मीद में मौत के कुएं में छलांग लगा लेते हैं. धोखेबाज बाबाओं पर भरोसा कर के वे अपने मासूम बीवीबच्चों को उन की शरण में छोड़ देते हैं.

कई बार बाबाओं की ऐश व दौलत देख कर कुछ निकम्मे लोग खुद भी वैसा बनने के सपने देखने लगते हैं. उन्हें आत्मा व परमात्मा के ज्ञान का दौरा सा पड़ने लगता है. किसी के मिलते ही वे उसे ज्ञान देने लगते हैं. यह बात अलग है कि उन के ये हवाई किले पूरे नहीं हो पाते. सभी लोग बाबा तो नहीं बन पाते, लेकिन उन के पक्के चेले जरूर हो कर रह जाते हैं. ये चेले बाबाओं की दुकानदारी चलाने व उसे आगे बढ़ाने में मदद करते हैं.

कथा, कीर्तन, प्रवचन करने और आश्रम वगैरह चला कर धनदौलत कमाने वालों की गिनती तेजी से बढ़ रही है. इस की अहम वजह धर्म के धंधों में बढ़ती चकाचौंध है, इसलिए बहुत से लड़केलड़कियां गेरुए कपड़े पहन कर जल्दी पैसा बनाने की ओर बढ़ रहे हैं. कम उम्र के बहुत से लड़केलड़कियां ऊंचेऊंचे स्टेज से कथाप्रवचन और जागरण कर के माल बटोर रहे हैं.

अब पछताए होत क्या…

धर्म का कारोबार करने वाले धंधेबाज बड़े ही शातिर होते हैं. ये भोलेभाले लोगों में से छांटछांट कर अपने चेलाचेली बना लेते हैं. हद से ज्यादा गरीबी, तालीम व जागरूकता की कमी धर्मांधता की आग में घी का काम करती हैं. मसलन माली तंगी होने से कई लोग लड़की को आज भी बोझ मानते हैं, इसलिए कई मांबाप तो मुफ्त में पढ़ाईलिखाई कराने के लालच में पहले लड़कियों को बाबाओं के आश्रमों में भेज देते हैं, बाद में हंगामा करते हैं.

दरअसल, जवान लड़कियां छांट कर अपनी हवस मिटाने की गरज से पाखंडी बाबाओं ने जाल फैला रखे हैं. धार्मिक तालीम देने के नाम पर उन्होंने अपने आश्रमों में 12वीं जमात तक के कन्या इंटर कालेज खोल रखे हैं.

ज्यादातर निकम्मे, नशेड़ी व गैरजिम्मेदार लोग अब लड़कियों को पालना भी बड़ा मुश्किल काम समझते हैं. इस के बाद उन की शादी करना व दहेज देना उन्हें झंझट लगता है, इसलिए कई बार छुटकारा पाने के लिए भी कुछ लोग अपनी लड़कियों को बाबाओं के आश्रमों में भेज कर बेफिक्र हो जाते हैं.

शिकार की तलाश में मक्कार बाबाओं व उन के चालबाज चेलों का बहुत से घरों में आनाजाना लगा रहता है. भोलीभाली औरतें धार्मिक कर्मकांड, दोष, दुर्भाग्य, नरक व पाप के नाम पर डरीसहमी रहती हैं. वे बाबाओं के दिमाग में घूम रहे शैतान व हैवान को नहीं पहचान पातीं और उन के झांसे में आ कर पैसा व आबरू दोनों गंवा देती हैं.

फैलता जाल

देश के हर हिस्से में शिरडी के सांईं बाबा, वैष्णो देवी, शनि महाराज व बालाजी वगैरह के नाम पर नएनए मंदिर और बाबाओं के आश्रम बढ़ रहे हैं, इसलिए उन के महंतों व पाखंडी बाबाओं की गिनती व उन का जाल भी बढ़ रहा है.

बहुत से शहरोंकसबों में अकसर बाबाओं के कथाप्रवचन होते रहते हैं. खातेपीते घरों की औरतें व मर्द अपने घर में काम छोड़ कर इन बाबाओं के प्रवचन सुनने चले जाते हैं, फिर उन से कान में नाम व मंत्र की दीक्षा लेते हैं.

धर्म की आड़ में बलात्कार करने वाले कई बाबाओं का गिरोह बहुत बड़ा है. शिकायत व जांच के बाद जब ये फंस जाते हैं तो इन के गुंडे शिकायत करने वालों को धमकाते हैं, गवाहों को मार तक देते हैं.

आसाराम के केस में अब तक कई गवाह मारे जा चुके हैं. आसाराम को सलाखों के पीछे पहुंचाने वाली लड़की को भी बदनाम करने व मार देने की धमकी मिली थी, इसलिए उसे 20 दिसंबर, 2017 को उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में आसाराम व उसके 11 गुरगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराना पड़ा और सरकार को उस की सिक्योरिटी बढ़ानी पड़ी. अपने धन बल व भक्तों की भीड़ वाले वोट बैंक के चलते ज्यादातर नेता इन बाबाओं के तलवे चाटते हैं. भ्रष्ट व कमजोर अफसर इन के खिलाफ सख्त कदम उठाना तो दूर जांच करने से भी कतराते हैं.

ये हैं उपाय

बाबाओं के चक्कर में फंस चुके तमाम लोग आज भी थानाकचहरी के चक्कर काटकाट कर परेशान हैं. उन की बहूबेटियां बरसों से इन दरिंदों के आश्रमों में कैद हैं, मारी जा चुकी हैं या लापता हैं. ये गुनाहगार हत्यारे उन के दस्तखत से जबरन या बहलाफुसला कर लिखाए गए हलफनामों की आड़ में बचने की नाकाम कोशिशें करने में लगे रहते हैं.

पिछले दिनों मेरठ का एक बाबा अपने एक चेले की जवान व बेऔलाद बीवी को औलाद देने का झांसा दे कर अपने साथ ले कर भाग गया.

इतना ही नहीं, पाखंडी बाबा आज भी जेल से बाहर अपना कारोबार धड़ल्ले से चला कर अपनी ऐशगाहों में मौज मार रहे हैं. भोलेभाले भक्त उन पर अंधा भरोसा कर के भेड़ों की तरह मुंड़ रहे हैं.

इस में कुसूर धर्म प्रचार व लोगों की लापरवाही का है. पाखंडी बाबाओं को पकड़ने के ज्यादातर मामले कोर्ट के आदेश से खुले हैं. गैरसरकारी संगठन व महिला आयोग को पहल करनी चाहिए ताकि ढोंगियों व पाखंडियों को उन के किए की सजा मिले, वरना अनगिनत पाखंडी बाबा धर्म की आड़ ले कर अपना घर भरते रहेंगे. वे भोलेभाले लोगों के घर इसी तरह बरबाद करते रहेंगे.

अब तो धर्म का सहारा ले कर कई सालों से सत्ता पाई जा रही है और ऐसे में कौन सी सरकार इन बाबाओं पर नकेल कसेगी? ये तो नेताओं और अफसरों की तरह चाहे जैसे मरजी जनता की जेबें काटेंगे.

दबंग कर रहे दलित दूल्हों की दुर्गति

Society News in Hindi: यह घटना इसी साल के जून महीने की है. मध्य प्रदेश (Madhya Pradesh) के छतरपुर (Chhatarpur) में चौराई गांव का रितेश अपनी शादी पर जैसे ही घोड़ी पर चढ़ा, गांव के कुछ लोगों ने इस बात का विरोध किया. हंगामा बढ़ा, तो पुलिस आई. लेकिन पुलिस की मौजूदगी में ही बरात पर पत्थरबाजी शुरू हो गई. दरअसल, रितेश अहिरवार दलित था. उस की बरात पर पत्थरबाजी इसलिए हुई कि कैसे कोई दलित घोड़ी पर चढ़ कर अपनी बरात ले जा सकता है? इस पूरे मामले में सरकारी काम में बाधा डालने, मारपीट करने और हरिजन ऐक्ट (Harijan Act) के तहत एफआईआर हुई थी. देश का संविधान (constitution) कहने को ही सभी को बराबरी का हक देता है, लेकिन एक कड़वा और अकसर देखा जाने वाला सच यह है कि जो दलित दूल्हा घोड़ी चढ़ने की हिमाकत या जुर्रत करता है, दबंग लोग उस की ऐसी दुर्गति करते हैं कि कहने में झिझक होती है कि वाकई देश में कोई लोकतंत्र वजूद में है, जिस का राग सरकार, नेता, समाजसेवी, राजनीतिक पार्टियां और पढ़ेलिखे समझदार लोग अलापा करते हैं.

छुआछूत दूर हो गई, जातपांत का भेदभाव खत्म हो गया और अब सभी बराबर हैं, ये कहने भर की बातें हैं. हकीकत यह है कि यह प्रचार खुद दबंग और उन के कट्टरवादी संगठन करते रहते हैं, जिस से समाज की अंदरूनी हालत और सच दबे रहें और वे दलितों पर बदस्तूर सदियों से चले आ रहे जुल्मोसितम ढाते हुए ऊंची जाति वाला होने का अपना गुरूर कायम रखें.

जड़ में है धर्म

किसी भी गांव, कसबे या शहर में देख लें, कोई न कोई छोटा या बड़ा बाबा पंडाल में बैठ कर प्रवचन या भागवत बांचता नजर आएगा. ये बाबा लोग कभी बराबरी की, छुआछूत दूर करने की या जातपांत खत्म करने की बात नहीं करते. वजह सिर्फ इतनी भर नहीं है कि धार्मिक किताबों में ऐसा नहीं लिखा है, बल्कि यह भी है कि इन की दुकान चलती ही जातिगत भेदभाव से है.

अपनी दुकान चमकाए रखने के लिए धर्म की आड़ में समाज में पड़ी फूट को हवा दे रहे बाबा घुमाफिरा कर दबंगों को उकसाते हैं और दलितों को उन के दलितपने का एहसास कराते हुए नीचा दिखाने में लगे रहते हैं. इन पर न तो कोई कानून लागू होता है, न ही कोई इन की मुखालफत कर पाता है, क्योंकि मामला धर्म का जो होता है.

फसाद की असल जड़ धर्म और उस के उसूल हैं, जिन के मुताबिक शूद्र यानी छोटी जाति वाले जानवरों से भी गएबीते हैं. उन्हें घोड़ी पर बैठ कर बरात निकालने का हक तो दूर की बात है, सवर्णों के बराबर बैठने का भी हक नहीं है, इसलिए आएदिन ऐसी खबरें पढ़ने में आती रहती हैं कि दलितों को पानी भरने से रोका, वे नहीं माने तो उन की औरतोंबच्चों को बेइज्जत किया, मर्दों को पीटा और इस पर भी नहीं माने तो गांव से ही खदेड़ दिया.

यही वजह है कि करोड़ों दलित दबंगों के कहर का शिकार हो कर घुटन भरी जिंदगी जी रहे हैं, पर उन की सुनने वाला कोई नहीं.

इस पर तुर्रा यह कि हम एक आजाद लोकतांत्रिक देश की खुली हवा में सांस लेते हैं, जिस में संविधान सभी को बराबरी का हक देता है. यह मजाक कब और कैसे दूर होगा, कोई नहीं जानता.

चिंता की बात यह भी है कि दलितों पर जोरजुल्म लगातार बढ़ रहे हैं, जिन की तरफ किसी राजनीतिक पार्टी, नेता या समाज के ठेकेदारों का ध्यान नहीं जो बड़ीबड़ी बातें करते हैं, रैलियां निकालते हैं और दलितों को बरगलाने के लिए बुद्ध और अंबेडकर जयंतियां मनाते हैं. इस साजिश को, जो धर्म और राजनीति की देन है, दलित समझ पाएं तभी वे इज्जत और गैरत की जिंदगी जी पाएंगे.

Acid Attack जिंदगी सिमट नहीं जाती चमड़ी के सिकुड़ने से

Acid Attack News in Hindi: शनिवार का दिन था. रात के साढ़े 8 बजे थे. माला कर्मकार ‘सियालदहडायमंड हार्बर’ लोकल ट्रेन(Local Train) से दफ्तर से घर लौट रही थीं. उस समय लेडीज कंपार्टमैंट में कुछ गिनीचुनी औरतें ही थीं. एकाध स्टेशन के बाद उन में से 1-1 कर के और भी 4-5 औरतें उतर गईं. अब माला कर्मकार समेत 3 औरतें रह गईं. कल्याणपुर स्टेशन (kalyanpur Station) से कुछ सवारियों को उतार कर जब ट्रेन चली, तो अचानक चलती हुई ट्रेन की खिड़की के सामने एक नकाबपोश आया और उस ने खिड़की पर बैठी माला कर्मकार पर एसिड (Acid) फेंक दिया. यह वह घड़ी थी, जब माला की पूरी जिंदगी ही बदल गई. दरअसल, एक जमीन को ले कर स्वरूप हलदार नामक एक बिल्डर (Builder) के साथ माला कर्मकार के घर वालों का झगड़ा था. बिल्डर जमीन चाहता था और माला का परिवार जमीन बेचने को राजी नहीं था. बिल्डर स्वरूप हलदार कई बार माला कर्मकार के परिवार वालों को नतीजा भुगतने की धमकी दे चुका था. आखिरकार उस ने माला पर एसिड फेंक कर अपनी धमकी को पूरा कर ही दिया. अब वह हवालात में है. उस की जमानत (Bail) नहीं हो पा रही है.

एक और वाकिआ. मनीषा पैलान सुबहसवेरे जब नींद से जाग कर अपना चेहरा आईने में देखती हैं, तो एसिड से झुलसे चेहरे में गाल, आंखें, उस से नीचे गले और छाती की बीभत्सता से उन का पूरा बदन कांप जाता है.

एक मग एसिड ने मनीषा की दुनिया को पूरी तरह झुलसा कर रख दिया है.

मनीषा पैलान का सपना था कि वे अच्छी तरह पढ़लिख कर सब्जी बेचने वाले अपने पिता मुन्नाफ पैलान का सहारा बनें. वे अपने छोटे भाईबहन की पढ़ाई का खर्च जुटाना चाहती थीं, ताकि परिवार सिर ऊंचा कर के जी सके, इसीलिए पढ़ाई के साथसाथ वे नर्सिंग ट्रेनिंग, कंप्यूटर कोर्स, ब्यूटीशियन कोर्स भी कर रही थीं.

रूढ़िवादी मुसलिम परिवार में जनमी मनीषा पैलान कुछ भी कर के अपने पिता और परिवार की लड़खड़ाती जिंदगी को संभालने की कोशिश कर रही थीं.

साल 2015 में मनीषा पैलान ने अपने बचपन के प्यार सलीम हलदार से घर से भाग कर शादी कर ली. लेकिन कुछ समय बाद ही मनीषा के मन में अपने पैरों पर खड़ा हो कर पिता की मदद करने का सपना कुलबुलाने लगा.

मुसलिम परिवार में ऐसा सपना देखने की सख्त मनाही थी. जाहिर है, पतिपत्नी में अनबन होने लगी. मनीषा पैलान ने तलाक लेने का फैसला किया. मनीषा के मुताबिक, सलीम भी तलाक के लिए तैयार था, लेकिन वह इसे मन से स्वीकार नहीं कर पाया.

17 नवंबर, 2015. सर्दी की एक शाम. मनीषा कंप्यूटर क्लास से घर लौट रही थीं. सलीम अपने कुछ दोस्तों के साथ अचानक सामने आया और एक मग एसिड फेंक कर फरार हो गया. मनीषा से अलग होने का गुस्सा उस ने एसिड हमला कर के निकाला था.

सलीम से अलग होने के बाद मनीषा ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उन के लिए एक बहुत बड़ी लड़ाई इंतजार कर रही है. लगातार थाना, पुलिस और अदालत के चक्कर लगाने के साथसाथ अपनी लड़ाई लड़ने के लिए वे मन को तैयार करती चली गईं.

एसिड हमले की वारदात और पुलिस की कार्यवाही के बाद सलीम समेत दूसरे 5 आरोपी जमानत पर खुलेआम घूम रहे हैं, धमकियां दे रहे हैं और मामला उठा लेने के लिए लगातार दबाव बना रहे हैं.

आखिरकार मनीषा को अपना कसबा छोड़ कर कोलकाता आना पड़ा. यहां मनीषा ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया. हाईकोर्ट ने 17 जुलाई को राज्य सरकार को मनीषा को 3 लाख रुपए हर्जाने के तौर पर दिए जाने का आदेश दिया.

गौरतलब है कि पश्चिम बंगाल में एसिड हमले के पीडि़तों को 3 लाख रुपए हर्जाना देने का कानून है. इस कानून के तहत हाईकोर्ट ने यह फैसला सुनाया. इतना ही नहीं, जमानत पर खुलेआम घूम रहे पांचों आरोपियों को भी हाईकोर्ट ने फिर से गिरफ्तारी के साथ जांच का भी आदेश दिया.

सलीम फरार है. बाकियों को पुलिस गिरफ्तार कर चुकी है. जहां तक 3 लाख रुपए के हर्जाने का सवाल है, तो 21 साला मनीषा कहती हैं कि अगर काबिलीयत से उन्हें कोई नौकरी मिल गई, तो कुछ सालों में 3 लाख रुपए जमा कर लेना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है. सिर्फ चमड़ी ही तो जल कर सिकुड़ गई है. इस से जीने का रास्ता तो बंद नहीं हो जाता है न? नौकरी कर के अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए चिकनी चमड़ी होना एकलौती काबिलीयत नहीं हो सकती है.

इलाज के दौरान जब पूरे चेहरे पर पट्टियां बंधी थीं, तब अस्पताल के बिस्तर पर लेटी मनीषा ने खुद को दिलासा दी थी कि जिंदगी यहीं खत्म नहीं हो जाती. इस के आगे भी दुनिया है. पर उस के लिए खुद को ही तैयार करना होगा.

मनीषा बताती हैं कि लोकल ट्रेन में उन की आपबीती सुन कर एक मुसाफिर ने यहां तक पूछ लिया था कि सिर्फ एसिड ही फेंका था या रेप भी हुआ था? ऐसी दुनिया से रूबरू होने के बाद भी वे आत्मविश्वास से लबालब हैं. उन का मानना है कि उन का जला चेहरा समाज का आईना है.

मनीषा को जब अस्पताल से छुट्टी मिली, तब उन्हें पता चला कि हमलावर जमानत पर छूट कर महल्ले में लौट आए हैं और छाती फुला कर उन के घर के आसपास घूम रहे हैं.

उसी समय मनीषा ने ठान लिया था कि पूरी हिम्मत के साथ उन्हें समझा देना है कि तुम्हारा एसिड मेरा कुछ भी नहीं जला पाया है. मेरे सपने को, मेरी चाह को जला नहीं सका है.

यही वजह है कि आज भी मनीषा गानों पर थिरकती हैं. ब्यूटीशियन का कोर्स कर के वे महल्ले की औरतों को सजातीसंवारती हैं.

इसी तरह मैत्री भट्टाचार्य द्वारा नाजायज संबंध बनाने से इनकार करने की सजा एसिड हमले से दी गई.

पश्चिम बंगाल के वर्दमान जिले के रानाघाट स्टेशन पर एक जानपहचान के लड़के ने मैत्री के चेहरे को निशाना बना कर एसिड फेंका. इस हमले में मैत्री का चेहरा तो झुलसा ही, साथ ही एक आंख भी जाती रही. लेकिन उन का मनोबल आज भी नहीं टूटा है.

वे कोलकाता मैडिकल कालेज में अपना इलाज करा रही हैं. उन के कंधे और दाहिने हाथ की चमड़ी ही नहीं, मांसपेशियां तक गल गई थीं और वहां सैप्टिक हो गया था. फिर भी वे दम साध कर कुसूरवारों को सजा दिलाने और एसिड हमले की पीडि़तों के लिए एक लंबी लड़ाई लड़ने का संकल्प ले रही थीं. वे एसिड पीडि़तों को संदेश देना चाहती हैं कि जिंदगी सिमट नहीं जाती चमड़ी की सिकुड़न से.

मैत्री भट्टाचार्य कहती हैं कि बलात्कार के विरोध में लोग सड़कों पर उतरते हैं, लेकिन एसिड हमले का देश में सख्ती से कोई विरोध नहीं करता, इसीलिए वे इसे एक लंबी लड़ाई मानती हैं. इस लड़ाई में वे आम लोगों का साथ भी चाहती हैं.

आंकड़ों की जबानी

‘एसिड सर्वाइवल फाउंडेशन औफ इंडिया’ के आंकड़े कहते हैं कि एसिड हमले की वारदातें हमारे देश में बड़ी तेजी से बढ़ रही हैं. साल 2011 में एसिड हमले की जहां महज 106 वारदातें सामने आई थीं, वहीं साल 2015 में 802 वारदातें दर्ज हुई हैं.

जाहिर है, यह चिंता की बात है. वैसे, फरवरी, 2013 से पहले हुए एसिड हमले के आंकड़े पुख्ता आंकड़े नहीं माने जा सकते. वजह, तब तक हमारे देश में एसिड हमले जैसी वारदातों के लिए भारतीय आपराधिक कानून में अलग से कोई धारा नहीं थी.

फरवरी, 2013 को भारतीय दंड विधान में संशोधन किया गया. 326ए और 326बी को गैरजमानती धारा के तहत ऐसे अपराध को चिह्नित किया गया. अपराध साबित होने पर कम से कम 7 साल और ज्यादा से ज्यादा 10 साल की सजा का प्रावधान किया गया.

इस तरह देखा जाए, तो एसिड हमले के पुख्ता आंकड़े साल 2014 में ही उपलब्ध हो पाए. नई धारा के तहत पूरे देश में एसिड हमले के 225 मामले दर्ज हुए और साल 2015 में यह आंकड़ा बढ़ कर 249 तक पहुंच गया.

सरकार की अनदेखी

पश्चिम बंगाल की बात करें, तो पिछले कुछ सालों से राज्य में एसिड हमले की वारदातें लगातार बढ़ती जा रही हैं. साल 2013 से ले कर अब तक राज्य में ऐसी घटनाएं आएदिन हो रही हैं. उन्हें देख कर साफ लगता है कि एसिड मामलों में पुलिस प्रशासन और सरकार उदासीन है.

नैशनल क्राइम रिकौर्ड ब्यूरो के आंकड़े कहते हैं कि बीते 5 सालों में राज्य में 131 मामले दर्ज हुए, वहीं साल 2014 और साल 2015 में 41-41 मामले दर्ज हुए. पर किसी भी आरोपी को सजा नहीं हुई है.

‘एसिड सर्वाइवल फाउंडेशन औफ इंडिया’ के विक्रमजीत सेन का मानना है कि गैरजमानती धारा में आरोपियों की गिरफ्तारी के बाद ही ये जमानत पर छूट जाते हैं. ऐसा इसलिए होता है कि पुलिस पुख्ता चार्जशीट तैयार नहीं करती है.

सलफ्यूरिक, नाइट्रिक और हाइड्रोक्लोरिक एसिड खरीदनेबेचने में कंट्रोल के बारे में सुप्रीम कोर्ट ने दिशानिर्देश जारी किए हैं, जिन के तहत राज्य सरकार ने 31 मार्च, 2014 को एसिड बिक्री से संबंधित कुछ नियम बनाए थे. मसलन, दुकानदारों को एसिड खरीदारों का एक अलग रजिस्टर रखना होगा और उस रजिस्टर में खरीदार का पूरा नामपता दर्ज करना होगा.

साथ ही, यह भी कहा गया था कि ऐक्जिक्यूटिव मजिस्ट्रेट जितनी हैसियत वाला कोई अफसर, सबइंस्पैक्टर की हैसियत वाला पुलिस औचक दौरा कर के एसिड विक्रेताओं के रजिस्टर की जांच कर सकता है.

कानूनी पचड़े में पीड़ित

पश्चिम बंगाल सरकार के मौजूदा नियम के मुताबिक, एसिड पीड़ित को अधिकतम 2 लाख रुपए हर्जाने व बतौर माली मदद के रूप में दिए जाने का प्रावधान है. उधर साल 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश जारी कर के कहा था कि एसिड पीड़ित को 15 दिनों के भीतर राज्य सरकार 3 लाख रुपए दे.

पिछले साल जून में एसिड हमले की पीड़िता मनीषा पैलान ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया. हाईकोर्ट ने सरकार को 3 लाख रुपए का हर्जाना देने का निर्देश दिया. लेकिन सरकार अभी तक मनीषा को रकम नहीं दे पाई है.

हालांकि इस बारे में गृह विभाग के एक अधिकारी के अनुसार, इस देरी की वजह कानूनी अड़चन है. दरअसल, वित्त विभाग की मंजूरी मिलने के बावजूद कानून विभाग से कानून में बदलाव की इजाजत अभी तक नहीं मिली है. इस के कारण मामला अधर में लटका हुआ है.

जाहिर है, राज्य सरकार सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार हर्जाना नहीं दे पा रही है. सुप्रीम कोर्ट का निर्देश मान कर 3 लाख रुपए का हर्जाना देने के लिए राज्य सरकार को वित्त विभाग की इजाजत चाहिए और वित्त विभाग इस रकम की मंजूरी दे चुका है. लेकिन कानून विभाग द्वारा पुराने कानून में संशोधन किए बिना राज्य सरकार पीड़िता को वह रकम नहीं दे सकती.

पश्चिम बंगाल में एपीडीआर जैसे मानवाधिकार संगठनों और स्वयंसेवी संगठनों के लगातार दबाव बनाने के बाद हुआ सिर्फ इतना है कि सरकारी अस्पतालों में पीड़िता के मुफ्त इलाज का निर्देश सरकार ने जारी कर के छुट्टी पा ली है.

एक मिसाल यह भी

एसिड हमला न केवल पीड़िता के चेहरेमोहरे को बिगाड़ देता है, बल्कि उस के पूरे वजूद को झकझोर कर रख देता है. लेकिन यह एक नाकाम कोशिश होती है. ‘नाकाम कोशिश’ इसलिए है, क्योंकि इस तरह का हमला पीड़ित को कमजोर नहीं बनाता, बल्कि सब से डट कर मुकाबला करने का माद्दा ही पैदा करता है.

आगरा के फतेहाबाद रोड पर गेटवे होटल के ठीक सामने शिरोज हैंगआउट इसी बात का सुबूत है. इस कैफेटेरिया को एसिड हमले की पीड़ित लड़कियां व औरतें चलाती हैं. एसिड ने भले ही इन के चेहरे को बिगाड़ दिया है, लेकिन इन के चेहरे पर हजारों वाट की मुसकराहट है.

एसिड अटैक सर्वाइवल को दोबारा बसाने का अपनी ही तरह का देश में यह पहला प्रोजैक्ट है, बल्कि यह कहा जाना चाहिए कि एसिड सर्वाइवल द्वारा चलाया जाने वाला यह देश का पहला कैफेटेरिया है. बिगड़े चेहरे, समाज की अनदेखी, आसपड़ोस के लोगों की हमदर्दी, हंसीमजाक, डर को अंगूठा दिखा कर ये लड़कियां शिरोज हैंगआउट चला रही हैं.

साल 2014 में अकेले उत्तर प्रदेश में एसिड हमले के 186 मामले पुलिस ने दर्ज किए थे. इस के बाद मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने दिल्ली की एक स्वयंसेवी संस्था ‘छांव फाउंडेशन’ की मदद से इन लड़कियों के पुनर्वास की योजना बनाई.

मजेदार बात यह है कि इस कैफेटेरिया में चायकौफी और स्नैक्स के साथ कम्यूनिटी रेडियो सुनने का लुत्फ और लाइब्रेरी में बैठने की भी सहूलियत है. इस के अलावा समयसमय पर यहां आर्ट वर्कशौप और एग्जिबिशन भी कराई जाती हैं.

यह कैफेटेरिया आगरा में न केवल लोकल लोगों के बीच, बल्कि देशीविदेशी सैलानियों के बीच कम समय में ही मशहूर हो गया. इस की मशहूरी को देखते हुए लखनऊ में भी इस की एक शाखा खोल दी गई?है. जाहिर है, उत्तर प्रदेश की यह मिसाल उम्मीद जगाती है, पर इस में सरकार और समाज का साथ मिलना भी बेहद जरूरी है.

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