शायद ही कभी किसी ने देखासुना हो कि तलाक के 4 साल और अलगाव व खटपट के 12 वर्षों बाद पतिपत्नी ने दोबारा शादी कर ली. मामला कुछ कुछ विचित्र किंतु सत्य है जिस के बारे में जान कर महसूस होने लगा है कि तलाक के बाद पति पत्नियों की हालत या मानसिकता पर कोई एजेंसी अगर सर्वे व काउंसलिंग करे तो पति पत्नी का दोबारा मिल कर उजड़ी गृहस्थी को संवार लेना एक संभव काम है.
तलाक व्यक्तिगत, कानूनी, सामाजिक, पारिवारिक हर लिहाज से एक तकलीफदेह प्रक्रिया है जिस की मानसिक यंत्रणा के बारे में शायद भुक्तभोगी भी ठीक से न बता पाएं. इस के बाद भी तलाक के मामले दिनोंदिन बढ़ रहे हैं. इस से यही उजागर होता है कि अकसर पति पत्नी या तो गलतफहमी का शिकार रहते हैं या फिर मारे गुस्से के अपना भलाबुरा नहीं सोच पाते. तलाक में नजदीकी लोगों की भूमिका कहीं ज्यादा अहम हो जाती है जो बजाय बात संभालने के, बिगाड़ते ज्यादा हैं.
यह ठीक है कि कुछ मामलों में तलाक अनिवार्य सा हो जाता है पर अधिकांश मामलों में यह जिद व अहं का नतीजा होता है जो खासतौर से पत्नी के हक में अच्छा नहीं होता. समाज के लिहाज से यह दौर बदलाव का है जिस में महिलाएं पहले सी दोयम दरजे की नहीं रह गई हैं. वे हर स्तर पर समर्थ, सक्षम और जागरूक हुई हैं लेकिन तलाक के बाद ये सभी बातें हवा हो जाती हैं जब उन्हें अपने अकेलेपन का एहसास होता है और वे एक स्थायी असुरक्षा में जीने को मजबूर हो जाती हैं.
मुमकिन है कभी कभी उन्हें लगता हो कि तलाक बेहद जरूरी भी नहीं था. इस से बच कर तलाक के बाद की दुश्वारियों से भी बचा जा सकता था लेकिन बात ‘अब पछताए होत का जब चिडि़या चुग गई खेत’ सरीखी हो जाती है. तलाक का कागज उन्हें नए माहौल और हालत में जीना सिखा देता है, इसलिए चाह कर भी वापस नहीं मुड़ा जा सकता क्योंकि तलाक के बाद पति दूसरी शादी कर नई पत्नी के साथ शान से गुजर कर रहा होता है. वहीं, अधिकांश पत्नियां, जो भारतीय संस्कारों से ग्रस्त ही कही जाएंगी, किसी दूसरे को सहज तरीके से पति मानने या स्वीकारने के लिए खुद को तैयार या सहमत नहीं कर पातीं और जब तक खुद को तैयार कर पाती हैं तब तक उम्र का सुनहरा हिस्सा उन के हाथों से फिसल चुका होता है.
शशिकांत संग वंदना
मध्य प्रदेश के भिंड जिले के इस दिलचस्प मामले को बतौर मिसाल लिया जाए तो तलाकशुदाओं के लिहाज से यह एक अच्छी पहल सिद्ध हो सकती है. वंदना और शशिकांत की शादी साल 2001 में हुई थी. ये दोनों साधारण खातेपीते कायस्थ परिवार के हैं और दोनों के ही पिता पुलिस विभाग में नौकरी करते हैं. शादी के बाद वंदना ससुराल आई तो उसे नया कुछ खास नहीं लगा क्योंकि उस का मायका भी भिंड में ही है. संयुक्त परिवार से संयुक्त परिवार में आने से उसे तालमेल बैठाने में कोई दिक्कत पेश नहीं आई.
शशिकांत प्राइवेट नौकरी करता था. उस की कोई खास आमदनी नहीं थी. संयुक्त परिवारों में खर्चे का पता नहीं चलता, न ही कोई कमी महसूस होती. देखते ही देखते एक साल गुजर गया और वंदना ने एक बच्ची को जन्म दिया जिस का नाम घर वालों ने प्रिया रखा.
शायद आपसी समझ का अभाव था या फिर संयुक्त परिवार की बंदिशें थीं कि दोनों एकदूसरे से असंतुष्ट रहने लगे और जल्द ही आरोपों प्रत्यारोपों का सिलसिला शुरू हो गया जिन में कोई खास दम नहीं था. यह बात वक्त रहते दोनों समझ नहीं पाए, लिहाजा रोज रोज की खटपट शुरू हो गई. पतिपत्नी के बीच का तनाव और विवाद उजागर हुए तो दोनों के घर वालों ने दखल देते समझाया पर बजाय समझने के दोनों भड़कने लगे और आखिरकार अपना फैसला भी सुना दिया कि अब हम साथ नहीं रह सकते. लिहाजा, हमारा तलाक करा दिया जाए.
दोनों ही परिवारों की भिंड में इज्जत है, इसलिए घर वाले कतराए, लेकिन तमाम समझाइशें बेकार साबित हो चुकी थीं. दोनों कुछ समझने को तैयार नहीं थे. एक दिन वंदना प्रिया को ले कर अपने मायके चली गई तो शशिकांत ने भी आपा खो दिया और तलाक का मुकदमा दायर कर दिया.
8 साल मुकदमा चला. तारीखें पड़ीं, पेशियां हुईं और आखिरकार 2012 में तलाक यानी कानूनन विवाह विच्छेद इस शर्त पर हुआ कि पत्नी व बेटी को गुजारे के एवज शशिकांत 2 हजार रुपए महीने देगा जो कि कुछ साल उस ने दिए भी.
2014 में शशिकांत ने अदालत में एक अर्जी दाखिल कर अपनी आर्थिक स्थिति का हवाला देते भरणपोषण राशि देने में असमर्थता जताई तो अदालत ने भरणपोषण का आदेश रद्द कर दिया. अब तक घर और समाज वालों की दिलचस्पी इन दोनों से खत्म हो गई थी. वंदना मायके में थी लेकिन सहज तरीके से नहीं रह पा रही थी. उधर, शशिकांत को भी लग रहा था कि जो कुछ भी हुआ वह ठीक नहीं हुआ.
शशिकांत और वंदना दोनों कशमकश की जिंदगी जी रहे थे. बेटी प्रिया का भी कोई भविष्य नहीं था और सब से ज्यादा तकलीफदेह बात दोनों का एकदूसरे को न भूल पाना थी. झूठा अहं, गुस्सा और ठसक दम तोड़ रहे थे. दोनों को ही बराबर से समझ आ रहा था कि वे जाने अनजाने जिंदगी की सब से बड़ी गलती या बेवकूफी कर चुके हैं, पर अब कुछ हो नहीं सकता था, इसलिए कसमसा कर रह जाते थे.
जब सब्र टूटा
बीती 9 अक्तूबर को वंदना बेटी प्रिया को ले कर भिंड के एएसपी अमृत मीणा के दफ्तर पहुंची और बगैर किसी हिचक के उन से कहा कि अब उस के सामने खुदकुशी करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है. अमृत मीणा ने सब्र से उस की पूरी बात सुनी और तुरंत शशिकांत को तलब किया. थाने में ही उन्होंने दोनों को साथ बैठा कर चर्चा की. 14 साल की होने जा रही प्रिया का हवाला दिया और जमाने भर की ऊंच नीच समझाई तो वंदना और शशिकांत हद से ज्यादा जज्बाती हो उठे और फिर से साथ रहने को तैयार हो गए.
अमृत मीणा भी अपनी पहल और समझाइश का वाजिब असर देखते उत्साहित थे. लिहाजा, उन्होंने इन दोनों की हिचक दूर करते तुरंत दफ्तर में ही उन की दोबारा शादी का इंतजाम कर डाला. दोनों 14 साल का गुबार और भड़ास निकाल चुके थे, इसलिए दोनों शादी के लिए तैयार हो गए ताकि तलाक और अलगाव का एहसास खत्म हो जाए.
एएसपी के रीडर रविशंकर मिश्रा ने पंडित की भूमिका निभाई और मंत्र पढ़ते हुए दोनों की शादी करा दी. 14 साल बाद इन पतिपत्नी ने दोबारा एकदूसरे को जयमाला पहनाई और शशिकांत वंदना को घर ले कर आ गया. बाकायदा विदाई भी हुई, अमृत मीणा अपनी गाड़ी से दोनों को घर छोड़ कर आए. बहुत कम मौकों और मामलों पर पुलिस वालों का मानवीय पहलू देखने में आता है, जो इस मामले में दिखा. दोबारा विवाह का यह अनूठा मामला था. इस प्रतिनिधि ने बीती 25 नवंबर को वंदना और शशिकांत से बात की. दोनों खुश थे. वे बीती बातें नहीं करना चाहते थे जिन में उन्होंने बेहद तनाव झेला था. वंदना की चहक और शशिकांत की परिपक्वता बता रही थी कि वे इस नई जिंदगी से खुश हैं और चाहते हैं कि दूसरे तलाकशुदा पतिपत्नी भी गुस्सा और पूर्वाग्रह छोड़ कर शादी करें. अगर वे ऐसा करते हैं तो पहले जो खो चुके हैं उसे वे मय ब्याज के हासिल कर सकते हैं.
जल्दबाजी, गुस्सा, अहं, जिद और अपनों के ही भड़काने पर पतिपत्नी तलाक तो ले लेते हैं पर इन में से अधिकांश बाद में पछताते हैं. वजह, दूसरी शादी आसान नहीं होती और अगर हो भी जाए तो तलाक का धब्बा सहज तरीके से जीने नहीं देता और इस पर भी, दूसरे जीवनसाथी के मनमाफिक होने की गारंटी नहीं रहती.
तो फिर तलाक के बाद क्यों न पहले जीवनसाथी की तरफ सुलह का हाथ बढ़ाया जाए, इस अहम सवाल पर वंदना और शशिकांत के मामले से सोचा जाए तो बात बन सकती है.
तलाक के बाद अधिकांश पतिपत्नी अवसाद में ही जीते नजर आते हैं खासतौर से उस सूरत में जब तलाक की कोई ठोस वजह न हो. ज्यादातर तलाकों की वजह बेहद हलकी होती है. ऐसा आएदिन के मामलों से उजागर भी होता रहता है. अगर शादी के बाद एक साल या उस से भी ज्यादा का वक्त पतिपत्नी ने एकसाथ गुजारा है तो एकदूसरे को भुला देना उन के लिए आसान नहीं होता.
तलाक के पहले परिवार परामर्श केंद्र, अदालत और काउंसलर सोचने के लिए वक्त देते हैं लेकिन उस वक्त पतिपत्नी दोनों के दिलोदिमाग में इतना गुस्सा व नफरत का गुबार भरा होता है कि वे सोचते कम, झल्लाते ज्यादा हैं.
तलाक के बाद की दुश्वारियां, अकेलापन, अपनों की अनदेखी वगैरा उन्हें समझ आने लगती हैं. पर चूंकि तलाकशुदा पतिपत्नी की दोबारा शादी की पहल किसी भी स्तर पर नहीं होती, इसलिए सुलह की गुंजाइशें होते हुए भी बात नहीं बन पाती. ऐसे में जरूरत इस बात की है कि भिंड के इस प्रयोग को दोहराया जाए क्योंकि संभव है पति और पत्नी अपनी गलतियां महसूस करते हुए दोबारा साथ रहना चाहते हों.