अनोखा रिश्ता: कैसी थी सास और बहू की जोड़ी

‘‘बायमां, मैं निकल रही हूं... और हां भूलना मत,

दोपहर के खाने से पहले दवा जरूर खा लेना,’’ कह पल्लवी औफिस जाने लगी.

तभी ललिता ने उसे रोक कहा, ‘‘यह पकड़ो टिफिन. रोज भूल जाती हो और हां, पहुंचते ही फोन जरूर कर देना.’’

‘‘मैं भूल भी जाऊं तो क्या आप भूलने देती हो मां? पकड़ा ही देती हो खाने का टिफिन,’’ लाड़ दिखाते हुए पल्लवी ने कहा, तो ललिता भी प्यार के साथ नसीहतें देने लगीं कि वह कैंटीन में कुछ न खाए.

‘‘हांहां, नहीं खाऊंगी मेरी मां... वैसे याद है न शाम को 5 बजे... आप तैयार रहना मैं जल्दी आने की कोशिश करूंगी,’’ यह बात पल्लवी ने इशारों में कही, तो ललिता ने भी इशारों में ही जवाब दिया कि वे तैयार रहेंगी.

‘‘क्या इशारे हो रहे हैं दोनों के बीच?’’ ललिता और पल्लवी को इशारों में बात करते देख विपुल ने कहा, ‘‘देख लो पापा, जरूर यहां सासबहू और साजिश चल रही है.’’

विपुल की बातें सुन शंभुजी भी हंसे बिना नहीं रह पाए. मगर विपुल तो अपनी मां के पीछे ही पड़ गया, यह जानने के लिए कि इशारों में पल्लवी ने उन से क्या कहा.

‘‘यह हम सासबहू के बीच की बात है,’’ प्यार से बेटे का कान खींचते हुए ललिता बोलीं.

बेचारा विपुल बिना बात को जाने ही औफिस चला गया. दोनों को

औफिस भेज कर ललिता 2 कप चाय बना लाईं और फिर इतमीनान से शंभूजी की बगल में बैठ गईं.

चाय पीते हुए शंभूजी एकटक ललिता को देखदेख कर मुसकराए जा रहे थे.

‘‘इतना क्यों मुसकरा रहे हो? क्या गम है जिसे छिपा रहे हो...?’’ ललिता ने शायराना अंदाज में पूछा, तो उन की हंसी छूट गई.

कहने लगे, ‘‘मुसकरा इसलिए रहा हूं कि तुम भी न अजीब हो. अरे, बता देती बेचारे को कि तुम सासबहू का क्या प्रोग्राम है. लेकिन जो भी हो तुम सासबहू की बौडिंग देख कर मन को बड़ा सुकून मिलता है वरना तो मेरा सासबहू के झगड़े सुनसुन कर दिमाग घूम जाता है. हाल ही में मैं ने अखबार में एक खबर पढ़ी, जिस में लिखा था सास से तंग आ कर एक बहू 12वीं मंजिल से कूद गई और जानती हो पहले उस ने अपने ढाई साल के बेटे को फेंका और फिर खुद कूद गई, जिस से दोनों की मौत हो गई. सच कह रहा हूं ललिता यह पढ़ कर मेरा तो दिल बैठ गया था.’’

शंभूजी की बातें सुन कर ललिता का भी दिल दहल गया.

‘‘सोचा जरा उस इंसान पर क्या बीतती होगी जिसे न तो मां समझ पाती हैं और न पत्नी. पिसता रहता है बेचारा मां और पत्नी के बीच.’’

‘‘हूं, सही कह रहे हैं आप. हमारे समाज में जब एक लड़की शादी के बाद अपना मायका छोड़ कर जहां उस ने लगभग अपनी आधी जिंदगी पूरे हक के साथ गुजारी होती है, ससुराल में कदम रखते ही उस के दिल में घबराहट सी होने लगती है कि यहां सब उसे दिल से तो अपनाएंगे न? अपने परिवार का हिस्सा समझेंगे न? ज्यादातर घरों में यही होता है कि बहू को आए अभी कुछ दिन हुए नहीं कि जिम्मेदारी की टोकरी उसे पकड़ा दी जाती है. उसे यह तो समझा दिया जाता है कि सासससुर के साथसाथ ननददेवर और नातेरिश्तेदारों को भी सम्मान देना होगा, लेकिन यह नहीं समझाया जाता कि आज से यह घर उस का भी है और ससुराल में उस की राय भी उतनी ही मान्य होगी जितनी घर के बाकी सदस्यों की.

‘‘क्या एक बहू का यह अधिकार नहीं कि घर के हित के लिए जो भी फैसले लिए जाएं उन में उस की भी राय शामिल हो? क्यों सास को लगने लगता है कि बहू आते ही उस से उस के बेटे को छीन लेगी? अगर ऐसा ही है, तो फिर न करें वे अपने बेटे की शादी. रखें अपने आंचल में ही छिपा कर. अगर शादी के बाद बेटा अपने परिवार को कुछ बोल जाए, तो सब को यही लगने लगता है कि बीवी ने ही सिखाया होगा

उसे ऐसा बोलने के लिए और यही झगड़े की जड़ है. हर बात के लिए बहू को ही दोषी ठहराया जाने लगता है. और तो और उस के मायके को भी नहीं छोड़ते लोग,’’ कहते हुए ललिता की आंखें गीली हो गईं, जो शंभूजी से भी छिपी न रह पाईं.

वे समझ रहे थे कि आज ललिता के मन का गुब्बार निकल रहा है और वह वही सब बोल रही है जो उस के साथ हुआ है. उन्हें भी तो याद है... कभी उन की मां ने ललिता को चैन से जीने नहीं दिया. बातबात पर तानेउलाहने, गालीगलौच यहां तक कि थप्पड़ भी चला देती थीं वे ललिता पर और बेचारी रो कर रह जाती. लेकिन क्या कोई भी लड़की अपने मायके की बेइज्जती सहन कर सकती है भला? जब ललिता की सास उस के मायके के खिलाफ कुछ बोल देतीं, तो उस से सहन नहीं होता और वह पलट कर जवाब दे देती. यह बात उन की मां की बरदाश्त के बाहर चली जाती. गरजते हुए कहतीं कि अगर फिर कभी ललिता ने कैंची की तरह जबान चलाई तो वे उसे हमेशा के लिए उस के मायके भेज देगी, क्योंकि उन के बेटे के लिए लड़कियों की कमी नहीं है.

बेचारे शंभूजी भी क्या करते? खून का घूंट पी कर रह जाते पर अपनी मां से कुछ कह न पाते. अगर कुछ बोलते तो जोरू का गुलाम कहलाते और पहले के जमाने में कहां बेटे को इतना हक होता था कि वह पत्नी की तरफदारी में कुछ बोल सके.

‘‘मैं ने तो पहले ही सोच लिया था शंभूजी कि जब मेरी बहू का गृहप्रवेश होगा, तो उसे सिर्फ कर्तव्यों, दायित्वों, जिम्मेदारियों और फर्ज की टोकरी ही नहीं थमाऊंगी वरन उसे उस के हक और अधिकारों का गुलदस्ता भी दूंगी, क्योंकि आखिर वह भी तो अपनी ससुराल में कुछ उम्मीदें ले कर आएगी.’’

‘‘और अगर तुम्हारी बहू ही अच्छे विचारों वाली नहीं आती तब? तब कैसे निभाती उस से?’’ शंभूजी ने पूछा.

अपने पति की बातों पर वे हंसीं और फिर कहने लगीं, ‘‘मैं ने यह भी सोचा था

कि शायद मेरी बहू मेरे मनमुताबिक न आएलेकिन फिर भी मैं उस से निभाऊंगी. उसे इतना प्यार दूंगी कि वह भी मेरे रंग में रंग जाएगी. जानते हैं शंभूजीअगर एक औरत चाहे तो फिर चाहे वह सास हो या बहूअपने रिश्ते को बिगाड़ भी सकती है और चाहे तो अपनी सूझबूझ से रिश्ते को कभी न टूटने वाले पक्के धागे में पिरो कर भी रख सकती है. हर लड़की चाहती है कि वह एक अच्छी बहू बनेपर इस के लिए सास को भी तो अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी न. अगर घर के किसी फैसले में बहू की सहमति न लेंउसे पराई समझेंतो वह हमें कितना अपना पाएगीबोलिएउफबातोंबातों में समय का पता  ही नहीं चला,’’ घड़ी की तरफ देखते हुए ललिता ने कहा, ‘‘आज आप को दुकान पर नहीं जाना क्या?’’

‘‘सोच रहा हूं आज न जाऊं. वैसे भी लेट हो गया और मंदी के कारण वैसे भी ग्राहक कम ही आते हैं,’’ शंभूजी ने कहा. उन का अपना कपड़े का व्यापार था.

 ‘‘पर यह तो बताओ कि तुम सासबहू ने क्या प्रोग्राम बनाया हैमुझे तो बता दो,’’ वे बोले.

शंभूजी के पूछने पर पहले तो ललिता झूठेसच्चे बहाने बनाने लगींपर जब उन्होंने जोर दियातो बोलीं, ‘‘आज हम सासबहू फिल्म देखने जा रही हैं.’’

‘‘अच्छाकौन सी?’’ पूछते हुए शंभूजी की आंखें चमक उठीं.

‘‘अरेवह करीना कपूर और सोनम कपूर की कोई नई फिल्म आई है न... क्या नाम है उस का... हांयाद आया, ‘वीरे दी वैडिंग.’ वही देखने जा रही हैं. आज आप घर पर ही हैंतो ध्यान रखना घर का.’’

‘‘अच्छातो अब तुम सासबहू फिल्म देखो और हम बापबेटा खाना पकाएंयही कहना चाहती हो न?’’

‘‘हांसही तो है,’’ हंसते हुए ललिता बोलीं और फिर किचन की तरफ बढ़ गईं.

‘‘अच्छा ठीक हैखाना हम बना लेंगेपर

कप चाय और पिला दो,’’ शंभूजी ने कहा तो ललिता भुनभुनाईं यह कह कर कि घर में रहते हैंतो बारबार चाय बनवा कर परेशान कर देते हैं.

जो भी हो पतिपत्नी अपने जीवन में बहुत खुश थे और हों भी क्यों नजब पल्लवी जैसी बहू हो. शादी के साल हो गएपर कभी उस ने ललिता को यह एहसास नहीं दिलवाया कि वह उन की बहू है. पासपड़ोसनातेरिश्तेदार इन दोनों के रिश्ते को देख कर आश्चर्य करते और कहते कि क्या सासबहू भी कभी ऐसे एकसाथ इतनी खुश रह सकती हैंलगता ही नहीं है कि दोनों सासबहू हैं.

पल्लवी एक मल्टीनैशनल कंपनी में अच्छे पैकेज पर नौकरी कर रही थी और वहीं उस की मुलाकात विपुल से हुईजो जानपहचान के बाद दोस्ती और फिर प्यार में बदल गई. साल तक बेरोकटोक उन का प्यार चलता रहा और फिर दोनों परिवारों की सहमति से विवाह के बंधन में बंध गए. वैसे तो बचपन से ही पल्लवी को सास नाम के प्राणी से डर लगता थाक्योंकि उस के जेहन में एक हौआ सा बैठ गया था कि सास और बहू में कभी नहीं पटतीक्योंकि अपने घर में भी तो उस ने आएदिन अपनी मां और दादी को लड़तेझगड़ते ही देखा था.

ज्योंज्यों वह बड़ी होती गई दादी और मां में लड़ाइयां भी बढ़ती चली गईं. उसे याद है जब उस की मांदादी में झगड़ा होता और उस के पापा किसी एक की तरफदारी करतेतो दूसरी का मुंह फूल जाता. हालत यह हो गई कि फिर उन्होंने बोलना ही छोड़ दिया. जब भी दोनों में झगड़ा होतापल्लवी के पापा घर से बाहर निकल जाते. नातेरिश्तेदारों और पासपड़ोस में भी तो आएदिन सासबहू के झगड़े सुनतेदेखते वह घबरा सी जाती.

उसे याद है जब पड़ोस की शकुंतला चाची की बहू ने अपने शरीर पर मिट्टी का तेल छिड़क कर आग लगा ली थी. तब यह सुन कर पल्लवी की रूह कांप उठी थी. वैसे हल्ला तो यही हुआ था कि उस की सास ने ही उसे जला कर मार डालामगर कोई सुबूत न मिलने के कारण वह कुछ सजा पा कर ही बच गई थी. मगर मारा तो उसे उस की सास ने ही थाक्योंकि उस की बहू तो गाय समान सीधी थी. ऐसा पल्लवी की दादी कहा करती थीं. पल्लवी की दादी भी किसी सांपनाथ से कम नहीं थीं और मां तो नागनाथ थीं हीक्योंकि दादी एक सुनातींतो मां हजार सुना डालतीं.

खैरएक दिन पल्लवी की दादी इस दुनिया को छोड़ कर चली गईं. लेकिन आश्चर्य तो उसे तब हुआ जब दादी की 13वीं पर महल्ले की औरतों के सामने घडि़याली आंसू बहाते हुए पल्लवी की मां शांति कहने लगीं कि उन की साससास नहीं मां थीं उन की. जाने अब वे उन के बगैर कैसे जी पाएंगी.

मन तो हुआ पल्लवी का कि कह दे कि क्यों झूठे आंसू बहा रही हो मांकब तुम ने दादी को मां मानामगर वह चुप रही. मन ही मन सोचने लगी कि बस नाम ही शांति है उस की मां काकाम तो सारे अशांति वाले ही करती हैं.

सासबहू के झगड़े सुनदेख कर पल्लवी का तो शादी पर से विश्वास ही उठ गया था. जब भी उस की शादी की बात चलती, वह सिहर जाती. सोचती, जाने कैसी ससुराल मिलेगी. कहीं उस की सास भी शकुंतला चाची जैसी निकली तो या कहीं उस में भी उस की मां का गुण आ गया तो? ऐसे कई सवाल उस के मन को डराते रहते.

अपने मन का डर उस ने विपुल को भी बताया, जिसे सुन उस की हंसी रुक नहीं रही थी. किसी तरह अपनी हंसी रोक वह कहने लगा, ‘‘हां, मेरी मां सच में ललिता पवार हैं. सोच लो अब भी समय है. कहीं ऐसा न हो तुम्हें बाद में पछताना पड़े? पागल, मेरी मां पुराने जमाने की सास नहीं हैं. तुम्हें उन से मिलने के बाद खुद ही पता चल जाएगा.’’

विपुल की बातों ने उस का डर जरा कम तो कर दिया, पर पूरी तरह से खत्म नहीं हो पाया. अब भी सास को ले कर दिल के किसी कोने में डर तो था ही.

बिदाई के वक्त बड़े प्यार से शांति ने भी अपनी बेटी के कान फूंकते हुए समझाया था, ‘‘देख बिटिया, सास को कभी मां समझने की भूल न करना, क्योंकि सास चुड़ैल का दूसरा रूप होती है. देखा नहीं अपनी दादी को? मांजीमांजी कह कर उसे सिर पर मत बैठा लेना. पैरों में तेल मालिशवालिश की आदत तो डालना ही मत नहीं तो मरते दम तक तुम से सेवा करवाती रहेगी... सब से बड़ी बात पति को अपनी मुट्ठी में रखना और उस के कमाए पैसों को भी. अपनी कमाई तो उसे छूने भी मत देना. एक बार मुंह को खून लग जाए, तो आदत पड़ जाती है. समझ रही हो न मेरे कहने का मतलब?’’

अपनी मां की कुछ बातों को उस ने आत्मसात कर लिया तो कुछ को नहीं.

ससुराल में जब पल्लवी ने पहला कदम रखा, तो सब से पहले उस का

सामना ललिता यानी अपनी सास से ही हुआ. उन का भरा हुआ रोबीला चेहरा, लंबा चरबी से लदा शरीर देख कर ही वह डर गई. लगा जैसा नाम वैसा ही रूप. और जिस तरह से वे आत्मविश्वास से भरी आवाज में बातें करतीं, पल्लवी कांप जाती. वह समझ गई कि उस का हाल वही होने वाला है जो और बेचारी बहुओं का होता आया है.

मगर हफ्ता 10 दिन में ही जान लिया पल्लवी ने कि यथा नाम तथा गुण वाली कहावत ललिता पर कहीं से भी लागू नहीं होती है. तेजतर्रार, कैंची की तरह जबान और सासों वाला रोब जरा भी नहीं था उन के पास.

एक रोज जब वह अपनी मां को याद कर रोने लगी, तो उस की सास ने उसे सीने से लगा लिया और कहा कि वह उसे सास नहीं मां समझे और जब मन हो जा कर अपनी मां से मिल आए. किसी बात की रोकटोक नहीं है यहां उस पर, क्योंकि यह उस का भी घर है. जैसे उन के लिए उन की बेटी है वैसे ही बहू भी... और सिर्फ कहा ही नहीं ललिता ने कर के भी दिखाया, क्योंकि पल्लवी को नए माहौल में ढलने और वहां के लोगों की पसंदनापसंद को समझने के लिए उसे पर्याप्त समय दिया.

अगर पल्लवी से कोई गलती हो जाती, तो एक मां की  तरह बड़े प्यार से उसे

सिखाने का प्रयास करतीं. पाककला में तो उस की सास ने ही उसे माहिर किया था वरना एक मैगी और अंडा उबालने के सिवा और कुछ कहां बनाना आता था उसे. लेकिन कभी ललिता ने उसे इस बात के लिए तानाउलाहना नहीं मारा, बल्कि बोलने वालों का भी यह कह कर मुंह चुप करा देतीं कि आज की लड़कियां चांद पर पहुंच चुकी हैं, पर अफसोस कि हमारी सोच आज भी वहीं की वहीं है. क्यों हमें बहू सर्वगुण संपन्न चाहिए? क्या हम सासें भी हैं सर्वगुण संपन्न और यही उम्मीद हम अपनी बेटियों से क्यों नहीं लगाते? फिर क्या मजाल जो कोई पल्लवी के बारे में कुछ बोल भी दे.

उस दिन ललिता की बातें सुन कर दिल से पल्लवी ने अपनी सास को मां समझा और सोच लिया कि वह कैसा रिश्ता निभाएगी अपनी सास से.

कभी ललिता ने यह नहीं जताया कि विपुल उन का बेटा है तो विपुल पर पहला अधिकार भी उन का ही है और न ही कभी पल्लवी ने ऐसा जताया कि अब उस के पति पर सिर्फ उस का अधिकार है. जब कभी बेटेबहू में किसी बात को ले कर बहस छिड़ जाती, तो ललिता बहू का ही साथ देतीं. इस से पल्लवी के मन में ललिता के प्रति और सम्मान बढ़ता गया. धीरेधीरे वह अपनी सास के और करीब आने लगी. पूरी तरह से खुलने लगी उन के साथ. कोई भी काम होता वह ललिता से पूछ कर ही करती. उस का जो भय था सास को ले कर वह दूर हो चुका था.

लोग कहते हैं अच्छी बहू बनना और सूर्य पर जाना एक ही बात है. लेकिन अगर मैं एक अच्छी बेटी हूं, तो अच्छी बहू क्यों नहीं बन सकती? मांदादी को मैं ने हमेशा लड़तेझगड़ते देखा है, लेकिन गलती सिर्फ दादी की ही नहीं होती थी. मां चाहतीं तो सासबहू के रिश्ते को संवार सकती थीं, पर उन्होंने और बिगाड़ा रिश्ते को. मुझे भी उन्होंने वही सब सिखाया सास के प्रति, पर मैं उन की एक भी बात में नहीं आई, क्योंकि मैं जानती थी कि सामने वाले मुझे वही देंगे, जो मैं उन्हें दूंगी और ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती. शादी के बाद एक लड़की का रिश्ता सिर्फ अपने पति से ही नहीं जुड़ता, बल्कि ससुराल के बाकी सदस्यों से भी खास रिश्ता बन जाता है, यह बात क्यों नहीं समझती लड़कियां? अगर अपने घर का माहौल हमेशा अच्छा और खुशी भरा रखना है, तो मुझे अपनी मां की बातें भूलनी होंगी और फिर सिर्फ पतिपत्नी में ही 7 वचन क्यों? सासबहू भी क्यों न कुछ वचनों में बंध जाएं ताकि जीवन सुखमय बीत सके, अपनेआप से ही कहती पल्लवी.

उसी दिन ठान लिया पल्लवी ने कि वे सासबहू भी कुछ वचनों में बंधेंगी और अपने रिश्ते को एक नया नाम देंगी-अनोखा रिश्ता. अब पल्लवी अपनी सास की हर पसंदनापसंद को जाननेसमझने लगी थी. चाहे शौपिंग पर जाना हो, फिल्म देखने जाना हो या घर में बैठ कर सासबहू सीरियल देखना हो, दोनों साथ देखतीं.

अब तो पल्लवी ने ललिता को व्हाट्सऐप, फेसबुक, लैपटौप यहां तक कि कार चलाना भी सिखा दिया था. सब के औफिस चले जाने के बाद ललिता घर में बोर न हों, इसलिए उस ने जबरदस्ती उन्हें किट्टी भी जौइन करवा दी.

शुरूशुरू में ललिता को अजीब लगा था, पर फिर मजा आने लगा. अब वे भी अपनी बहू के साथ जा कर और औरतों की तरह स्टाइलिश कपड़े खरीद लातीं. वजन भी बहुत कम कर लिया था. आखिर दोनों सासबहू रोज वाक पर जो जाती थीं. अपने हलके शरीर को देख बहुत खुश होतीं ललिता और उस का सारा श्रेय देतीं अपनी बहू को, जिस के कारण उन में इतना बदलाव आया था वरना तो 5 गज की साड़ी में ही लिपटी उन की जिंदगी गुजर रही थी.

एक दिन चुटकी लेते हुए शंभूजी ने कहा भी, ‘‘कहीं तुम ललिता पवार से 0 फिगर साइज वाली करीना न बन जाओ. फिर मेरा क्या होगा मेरी जान?’’

‘‘हां, बनूंगी ही, आप को क्यों जलन हो रही है?’’ ललिता बोलीं.

‘‘अरे, मैं क्यों जलने लगा भई. अच्छा है बन जाओ करीना की तरह. मेरे लिए तो और अच्छा ही है न वरना तो ट्रक के साथ आधी से ज्यादा उम्र बीत ही गई मेरी,’’ कह कर शंभूजी हंस पड़े पर ललिता बड़बड़ा उठीं.

दोनों की इस तरह की नोकझोंक देख पल्लवी और विपुल हंस पड़ते.

एक दिन जब पल्लवी ने अपने लिए जींस और टीशर्ट खरीदी, तो ललिता के लिए भी खरीद लाई. वैसे विपुल ने मना किया था कि मत खरीदो, मां नहीं पहनेगी, पर वह ले ही आई.

‘‘अरे, यह क्या ले आई बहू? नहींनहीं मैं ये सब नहीं पहनूंगी. लोग क्या कहेंगे और मेरी उम्र तो देखो,’’ जींस व टीशर्ट एक तरफ रखते हुए ललिता ने कहा.

‘‘उम्र क्यों नहीं है? अभी आप की उम्र ही क्या हुई है मां? लगता है आप 50 की हैं? लोगों की परवाह छोडि़ए, बस वही पहनिए जो आप को अच्छा लगता है और मुझे पता है आप का जींस पहनने का मन है. आप यह जरूर पहनेंगी,’’ हुक्म सुना कर पल्लवी फ्रैश होने चली गई. ललिता उसे जाते देखते हुए सोचने लगीं कि यह कैसा अनोखा रिश्ता है उन का.

छुटकारा: क्या ऐसे मिलता है लड़की से छुटकारा

खुला सा आंगन. आंगन में ही है टूटाफूटा सा बड़ा दरवाजा और उस दरवाजे से लग कर 2 कमरे. कमरों से सटे हुए बरामदे में रसोई. यह है गंजोई का घर. 4 बेटियां और पत्नी है गंजोई के परिवार में.

गंजोई की पत्नी सुगना पुरानी साड़ी की फटी पट्टियों से गुंथी रहती. मैली सी चारपाई पर गंजोई पैर फैला कर लेटा रहता और सुगना अपनी बातों से उस का मन बहलाया करती.

सुगना को पति की सेवा से फुरसत मिलती, तो घर की खोजखबर लेती. गंजोई तो अजगर था. दास मलूका का शुक्रिया अदा करता और अपने दाने के इंतजार में पड़ा रहता. गंजोई की बड़ी बेटी अंजू 15 साल से कुछ ऊपर. काली, ठिगनी, सुस्त, थोड़ी मोटी और चुपचुप सी रहती थी. वह लोगों के घरों में झाड़ूबरतन किया करती और धीरेधीरे उस ने अपनी दोनों छोटी बहनों को भी जानपहचान के घरों में काम पर लगवा दिया था.

अंजू के बाद वाली संजू 13 साल की दुबलीपतली, गठी हुई, उम्र के मुताबिक सही कदकाठी. खूबसूरत तो नहीं, पर बदसूरत भी नहीं थी वह. धीमी और मीठी आवाज. जल्दीजल्दी काम निबटाती. जिन घरों में काम करती, वहीं के बच्चों से वह अपना मन बहलाती.

8 साल की रंजू बेहद दुबली. गेहुआं रंग. उलझेउलझे तेल चुपड़े बाल और मैली सी फ्रौक. उस के काम में सब से ज्यादा फुरती थी. उस का मन मचलता था अपने साथ के बच्चों के साथ खेलने और भागनेदौड़ने के लिए, इसलिए वह जल्दीजल्दी काम करने की कोशिश में कुछ न कुछ गड़बड़ करती रहती और डांट सुनती रहती, पर थी धुन की पक्की.

सब से छोटी रीना 6 साल की थी. अंजू के साथ काम पर जाती और उस की मदद करती. बरतन मांजना अभी वह सीख रही थी और झाड़ू ठीकठाक लगा लेती थी  कुलमिला कर सारी बहनें मिल कर दालरोटी का जुगाड़ कर लेती थीं.

एक चीज थी, जो चारों बहनों में एकजैसी थी. उन की खाली आंखों में जिंदगी की चमक. खूब जीना चाहती थीं. वे सब जो भी थीं, जैसे भी थीं, खूब हंसना और कुछ न कुछ गुनगुनाते रहना उन की आदत थी.

महल्ले की औरतें ज्यादातर मजदूर थीं या फिर लोगों के यहां आया, महरी का काम करती थीं. गंजोई जब घर पर नहीं होता था, तो सुगना रेशमी साड़ी पहन कर किसी पड़ोसन के यहां जा बैठती. औरतें भी बातोंबातों मे उसे छेड़तीं, ‘ये चटकमटक के दिन तेरे नहीं तेरी बेटियों के हैं. जवानी में भी उन से अपने ही घर का पानी भरवाएगी क्या?

‘लड़कियां बड़ी हो रही हैं. भेज अपने निठल्ले मरद को बाहर. घरबार देखे. रिश्ताकुनबा देखे. ऐसे घर बैठे तो कोई तुम्हारे दरवाजे चढ़ेगा नहीं.’

सुगना खिसियानी सी हंसी हंसती और बोलती, ‘‘तू ही बता सरोज, हमारे पास न जेवर है, न जमीन. जो थोड़ाबहुत मेरी सास के गांठपल्ले था, वह पहले ही अंजू के बापू ने दारू में घोल कर चढ़ा लिया. अब तो ऐसा है कि चूल्हा भी अनाज देख कर ही गरम होता है.’’ ‘‘अरे तो उसे काम पर क्यों नहीं भेजती? इतनी बड़ी अनाज की मंडी है, बड़ेबड़े आढ़ती बैठते हैं. जाए किसी के पास. कोई न कोई काम मिल ही जाएगा, बेटियों की कमाई से घर चलता है कोई,’’ सरोज की सास ने दोटूक सुनाया.

अब सुगना ने वहां से खिसकने में ही अपनी भलाई समझी. ऐसा नहीं है कि सुगना और गंजोई को अपनी जवान होती बेटियों की फिक्र नहीं थी, पर वे दोनों ठहरे मिजाज के मस्तमौला. उन्हें लगता था कि एक दिन सब ठीक हो जाएगा.

सुगना और गंजोई का परिवार समय की ताल में ताल मिलाता एकएक कदम उस के साथ चलता चला जा रहा था. समय भी चिकनी सड़क पर सरपट चाल चल रहा था बिना किसी रुकावट के, बिना किसी मुश्किल के. अंजू की ज्यादातर सखियों का ब्याह हो चुका था, पर उसे अपने ब्याह न होने का मलाल न था. न ही उसे जरूरत महसूस होती थी. सुगना और गंजोई को उस के ब्याह की काई आस न थी. इसलिए कोशिश करने का खयाल भी किसी के धकियाने से ही आता था और धक्का हटते ही वे फिर आराम की मुद्रा में टेक लगा लेते और फिर घर चलाने में अंजू का अहम योगदान था.

संजू भी 14 साल की उम्र में ज्यादा तीखी और मुखर हो गई थी. अब वह घर से निकलती, तो उस की उभरती देह पर चुस्त फिटिंग वाला सूट होता. अपनी मालकिनों की उतरन को सजाचमका कर जब वह अपने तन पर डालती, तो उन पुराने कपड़ों से भी ताजगी फूट पड़ती. महल्ले के जवान होते मजदूर बच्चे छिपछिप कर उसे देखते और वह उन्हें देख कर बड़ी अदा से अनदेखा कर देती, मानो सावन को पता ही न हो कि उस की बारिश में सब भीग जाता है.

अब संजू का ध्यान काम में कम लगता, सोचती और मुसकराती रहती. उस के साथ की लड़कियां उस से चिढ़तीं, ‘बड़ी फैशन वाली बन गई है. बरतन मांजने जाती है या थाली में मुंह देखने? ’ अंजू भी पीछे न रहती. वह कहती, ‘‘अरे, बरतन तो मुझे देखते ही चमक जाते हैं. तुम्हारी तरह नहीं कि शक्ल देख कर घूरा भी छींक दे.’’

गंजोई के घर से बाईं तरफ 3 मकान छोड़ कर कमलकिशोर का घर था. वह एक 17 साल का ठीकठाक सी शक्ल वाला लड़का था, जो बाजार में साइकिल की दुकान पर पंचर लगाने का काम करता था.वह जवानी के उस पायदान पर था, जहां सबकुछ खूबसूरत और आसान लगता है. खाली समय में रंगीन चश्मा लगा कर वह फिल्मी गाने गुनगुनाता.उस ने मालिक से बड़ी मिन्नत कर के दुकान से एक पुरानी साइकिल ले ली थी और साइकिल की दुकान पर मंजे हुए अपने हुनर को आजमा कर उस साइकिल को नई जिंदगी दे डाली थी.

एक दिन कमलकिशोर घर के बाहर खड़ा हो कर अपनी साइकिल को साफ कर रहा था और साथ ही कुछ गाना गुनगुना रहा था, ‘‘चोरीचोरी आ जा गोरी पीपल की छांव में, कहीं कोई…’’ तभी उस की नजर संजू पर पड़ी, ‘‘यह कौन है. बड़ी मस्त दिख रही है.’’

इतने में संजू की नजर कमलकिशोर पर पड़ी. आंखें सिकोड़, कमर पर हाथ रख संजू थोड़ा गुस्से और बड़ी अदा से गुर्रा कर बोली, ‘‘आंखें फाड़ कर क्या देख रहा है? बोलूं तेरे बापू को?’’

‘‘भड़क क्यों रही है? देख ही तो रहा हूं. तू सुगना काकी की बेटी है न? चल, नाम बता अपना?’’ कमलकिशोर ने उस की तरफ बढ़ते हुए फिल्मी अंदाज में पूछा.

संजू को हंसी आ गई, ‘‘चल जा अपना काम कर,’’ कह कर वह घर में घुस गई. कमलकिशोर का मन गुदगुदाहट से भर गया. संजू को गए बहुत वक्त बीत चुका था, पर वह वहीं खड़ा अब भी उन पलों को आगेपीछे कर के अपने सपनों में जी रहा था.

‘‘संजू, जरा चूल्हा जला दे और आटे में थोड़ा नमक डाल कर मुझे दे दे. खाने का समय हो गया है. बस, अभी सब खाना मांगने वाले हैं,’’ अंजू ने कहा. इतने में ही सुगना की आवाज आई, ‘‘ऐ अंजू, खाना कब देगी? मुझे जोरों की भूख लगी है.’’

सुगना और गंजोई आंगन में पड़ी खाट पर जमे हुए थे. गंजोई आसमान की ओर मुंह कर के लेटा था और सुगना उस के पैर दबा रही थी. रसोई में जान खपाने से ज्यादा आसान था यह काम. गंजोई के खाते ही सुगना खुद खाने बैठ जाती, फिर बाद में बच्चे आपस में मिलबैठ कर खा लेते.

‘‘हांहां, खाना बन रहा है,’’ संजू ने चिढ़ कर जवाब दिया. अंजू ने संजू की तरफ देखा, पर बोली कुछ भी नहीं. अब उसे संजू के लिए फिक्र होने लगी थी. जब तक उस का खुद का ब्याह न हो जाता, तब तक संजू का ब्याह होना मुश्किल था. अपनी आस उसे थी नहीं, पर संजू…

आज रात संजू को भी नींद नहीं आ रही थी. ‘चल, नाम बता अपना’ उस के कानों में गूंज रहा था. उसे फिर हंसी आने लगी. वह कमलकिशोर ही तो था. कितनी ही बार तो देखा है उसे, फिर आज क्या बात हो गई? संजू समझने की कोशिश कर रही थी.

आज संजू की लाली में कुछ ज्यादा ही चमक थी. शायद सुबह की धूप का असर था या फिर रात को दबे पैर उस की चारपाई में घुस आए खयालों का, पता नहीं. घर से पहला कदम ही निकला था कि नजर बाईं ओर मुड़ गई. हड़बड़ाहट में दूसरा कदम तो बाहर निकला नहीं, पहला भी अंदर चला गया.

दरवाजे की ओट ले कर संजू अपनी घबराहट पर काबू पाने की कोशिश करने लगी. अपने घर के बाहर कमलकिशोर पूरी तरह मुस्तैद खड़ा था. आखिर संजू की चारपाई से निकल कर वह खयाल उस के भी तो बिस्तर में घुसा था.

कमलकिशोर की नजर संजू पर पड़ चुकी थी. वह समझ गया था कि संजू काम पर जाने वाली है. वह पहले ही साइकिल ले कर उस के काम की दिशा की ओर चल पड़ा थाइधर संजू भी संभल चुकी थी. वह तन कर बाहर निकली, बाएं देखा, फिर दाएं देखा, फिर एक निराशा की ढीली सांस, जिस में राहत पाने की भरसक कोशिश की गई थी, छोड़ते हुए अनमनी सी काम पर चल दी.

‘‘संजू, तेरे मांबापू तेरा ब्याह मुझ से तो क्या किसी से भी नहीं होने देंगे,’’ कमलकिशोर संजू से कह रहा था. कमलकिशोर और संजू को एकदूसरे के नजदीक आने में ज्यादा समय नहीं लगा था. दोनों को एकदूसरे का साथ अच्छा लगता. अपना काम खत्म कर दोनों रोज मिलते, एकदूसरे के साथ जीने के सपने देखते. सुगना और गंजोई की बेजारी संजू की चाह को और हवा देती, पर वह अंजू के बारे में सोच कर बेचैन हो जाती. उसे कोई रास्ता नजर नहीं आता था, जो उस घर की बेटियों को ससुराल के दरवाजे तक पहुंचाता हो. मांबाप को अपनी कमाऊ बेटियों को विदा करने की कोई जल्दी न थी.

अंजू को संजू और कमलकिशोर के इश्क की खबर थी, संजू ने ही उसे बताया था एक दिन.

‘‘संजू, भाग कर जाएगी मेरे साथ?’’

‘‘चल हट. बड़ा आया भगा कर ले जाने वाला. कहां रखेगा? क्या खिलाएगा मुझे? और मेरे घर वाले? महल्ले वाले जीने नहीं देंगे. मेरी बहनों की जिंदगी खराब हो जाएगी,’’ संजू ने उसे घुड़का और आखिरी बात कहतेकहते उसे खुद की आवाज सुनाई नहीं दी, आंखें सिकुड़ गईं और चेहरे पर उदासी उभर आई.

कमलकिशोर ने हलके से झिड़क कर कहा, ‘‘तो यहां रह कर तू कौन सा उन का घर भर देगी. भाग चल. तेरे बाप का बोझ कुछ कम हो जाएगा. यहां रह कर जिंदा भूत की तरह बरतन ही तो घिसेगी. मेरे साथ चल, तेरी जिंदगी संवार दूंगा.’’

संजू ने उसे घूर कर देखा, पर बोली कुछ नहीं . गरमी की रात में सभी आंगन और बरामदे में ही सोते थे. आज संजू ने अपना बिस्तर अंजू के साथ जमीन पर ही बिछा लिया था. चारपाइयां कम थीं, सो अंजू जमीन पर ही सोती थी. रीना और रंजू भी एक चारपाई पर वहां बेसुध सो रही थीं. सुगना बरामदे में थी.

संजू और अंजू दोनों चुपचाप सी आसमान को घूर रही थीं. दोनों को नींद नहीं आ रही थी. वे चुप थीं, पर शायद उन के मन के बीच संवाद चल रहा था. संजू जरा बेचैन दिखी, तो अंजू ने अपना हाथ उस के सिर पर रखते हुए पूछा, ‘‘क्या हुआ संजू, नींद नहीं आ रही है?’’

बेहद अपनेपन में भीगे शब्दों की नमी में संजू भी नहा गई, ‘‘हां दीदी, आज तो नींद सचमुच नहीं आ रही.’’

‘‘अच्छा, यह बता कि कमलकिशोर कैसा है? क्या लाया वह आज तेरे लिए? आजकल तो तू कुछ बताती ही नहीं मुझे,’’ अंजू ने बनावटी गुस्से से मुंह फुला कर कहा.

संजू ने अंजू की तरफ देखा और खिलखिला कर हंस दी, ‘‘दीदी, तुम बड़ी चालाक हो. मेरा मुंह खुलवाने के लिए कमलकिशोर का नाम ले दिया.’’

कमलकिशोर का नाम लेते ही संजू जरा संजीदा हो गई. ठंडी सांस छोड़ते हुए उस ने कहा, ‘‘दीदी, आज वह मुझे अपने साथ भाग चलने के लिए कह रहा था.’’

‘‘तो भाग जा. किस के लिए रुकी हुई है?’’ अंजू ने सहज भाव से कहा.

और एक दिन महल्ले में आग लग गई. गंजोई पहली बार हरकत में आया, ‘‘अरी सुगना, संजू आई क्या?’’

‘‘नहीं. अंजू के बापू,’’ कहते हुए सुगना बीच आंगन में बैठ छाती पीटपीट कर रो रही थी.

दिन ढल रहा था. सुबह से निकली संजू का अब तक कुछ पता न था. गंजोई ने हर जगह खबर ले ली थी और यह बात अब पूरे महल्ले को पता थी. पता चला था कि कमलकिशोर भी सुबह से गायब था. दो और दो चार भांपने में किसी ने समय न गंवाया. गंजोई ने अपना सिर पीट लिया.

सुगना रोरो कर बच्चियों को कोस रही थी, ‘‘जाओ, तुम लोग भी भाग जाओ, कोई न कोई मिल ही जाएगा चौक पर. अरे, भागना ही था तो तू ही भाग जाती,’’ उस ने अंजू की तरफ इशारा कर के कहा, ‘‘भगोड़ों का घर नाम धरा जाएगा हमारा. अंजू के बापू कुछ करो. हाय, यह क्या कर दिया? अब तो जिंदगी पत्थर जैसी भारी हो जाएगी. लोग हमें जीने नहीं देंगे, कौन ब्याहेगा इन बेटियों को?’’

गंजोई महल्ले के बड़ेबूढ़ों के आगे रो रहा था. एक बुजुर्ग ने अपनी घरघराती आवाज में लताड़ा, ‘‘देख गंजोई, तू ने तो कभी खबर ली नहीं अपने बच्चों की, अब पछताने से क्या होगा. लड़की भाग गई और धर गई कलंक तेरी सात पुश्तों पर. अब जरा सुध ले और बाकियों को संभाल.’’

‘‘देख, अब तू हमारी बिरादरी से बाहर हो गया है. हमारे भी लड़केलड़कियां हैं. कुछ तो कायदाकानून रखना पड़ेगा,’’ एक ने कहा था.

यह सुन कर गंजोई फफक कर रो पड़ा. वह हाथ जोड़ कर बोला, ‘‘देखिए, आप लोग ऐसा मत कहिए. आप ही साथ छोड़ने की बात करेंगे, तो हम किस से मदद मांगेंगे. मुश्किल में तो अपने ही काम आते हैं.’’

हुमेशा यहां के एक मंदिर के बुजुर्ग थे. वे बहुत ही कांइयां मिजाज के थे. कुछ सोच कर उन्होंने कहा, ‘‘देख गंजोई, जब हम गांव में रहते थे, वहां के नियमकानून अलग थे. या यों कह लो कि बड़ेबुजुर्गों ने बड़ी सूझबूझ के साथ परिवार पर विपत्ति का तोड़ निकाला था. जो तब भी सही थे और अब भी सही ही माने जाएंगे.

‘‘गांव में जब कोई लड़की भाग जाती थी, तो उस परिवार को जाति से बाहर कर दिया जाता था और बच्चे की एक नादानी की वजह से पूरा कुनबा बरबाद हो जाता था.

‘‘तू अपनी लड़की को न खोज, न ही उसे दोबारा घर में घुसने देना. तू उस का श्राद्ध कर दे, ऐसा करने से माना जाता है कि लड़की भागी नहीं मर गई. फिर कोई उंगली नहीं उठाता. यह हमारी जाति का एक रिवाज है, जो गांव में आज भी माना जाता है. गांव वालों को खूब खिलापिला कर खुश कर दिया जाता है. फिर सब उसे मरा मान कर भूल जाते हैं.’’

गंजोई ने संजू का श्राद्ध करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. उस ने तय भोजन से 2 अतिरिक्त पकवान बनवाए. सुगना ने चाव से सब को परोसा. अंजू ने भी जलेबी खाई. हुमेशा को 2 जोड़ी कपड़े भी दिए गए. कमलकिशोर के परिवार को उस का श्राद्ध करने की जरूरत नहीं थी. वह तो लड़का था न.

मुलाकात की वो आखिरी रात

नूर मोहम्मद की सैक्स की चाहत अधूरी रह गई. और फिर यह किसे पता था कि अय्याशी की बढ़ी हुई भूख से उपजा गुस्से का उफान इतना बढ़ जाएगा कि जोया के जिस्म के 2 टुकड़े कर दिए जाएंगे. कहानी है एक किन्नर जोया की. इस अनोखी मर्डर मिस्ट्री में वह रात जोया की आखिरी रात इस तरह बनी कि…

इधर इंदौर में खजराना थाने की पुलिस 30 अगस्त, 2022 को आधी लाश की शिनाख्त करने में उलझी हुई थी.

उस पर बंधी चुन्नी,चटखदार मेकअप आदि से आधीअधूरी पहचान ही हो पाई थी. सिर नहीं था. पुलिस के सामने बड़ी मुश्किल यही थी.

उधर इंदौर के हाईटेक कंट्रोल रूम में सीसीटीवी कैमरे की फुटेज खंगाले जा रहे थे. एक कमरे में बैठे युवक को उस के एक दोस्त ने आवाज लगाई, ‘‘अरे यार घर चलना नहीं है क्या? रात के 10 बज चुके हैं, ज्यादा काम करेगा तो तनख्वाह थोड़े न बढ़ जाएगी.’’

‘‘अरे नहीं यार, अभी तक 70 के करीब फुटेज का मिलान कर चुका हूं. कुछ पता ही नहीं चल पा रहा है. सभी में काफी डार्क दिख रहा है.’’

‘‘किस की फुटेज निकाल रहा है? स्क्रीन को थोड़ा ब्राइट कर देख न.’’

‘‘वह सब कर के मैं ने देख लिया.’’

‘‘ला मुझे दिखा, मैं देखता हूं. मैं ने एक से एक डार्क शौट्स की ट्रेसिंग की है,’’ बोलते हुए दोस्त उस के कमरे में आ गया था.

‘‘हां यार, तू मेरी मदद कर दे. आज ही इस की रिपोर्ट पीएचक्यू भेजनी है.’’ मौनीटर के सामने बैठा युवक बोला.

‘‘किस की फुटेज निकालनी है? रात की है क्या?’’ दोस्त ने पूछा.

‘‘खजराना थाना एरिया में ग्रीन बेल्ट.’’

‘‘वह तो घनी आबादी वाला एरिया है. पौश इलाका भी है,’’ दोस्त बोला.

उसी इलाके की रात की फुटेज निकालनी है. आज ही सुबह सफाईकर्मी को बंद बोरी में आधी लाश मिली है. सफाईकर्मी तो दिख रहा है. लेकिन रात के फुटेज में अभी तक कोई शख्स नजर नहीं आया है.’’

मौनीटर के सामने बैठे शख्स ने चिंता जताई.

‘‘एक बार तू पीछे से मुझे रिवाइंड कर के दिखा.’’

दोस्त के कहने पर उस ने सारे फुटेज को तेजी से रिवाइंड करता हुआ और पीछे की ओर बढ़ता चला गया. इसी बीच दोस्त ने उसे टोकते हुए अंतिम कुछ फुटेज को स्लो कर दोबारा दिखाने के लिए कहा.

जैसे ही फुटेज को स्लो किया गया, वैसे ही उन में एक धुंधली वीडियो दिख गई. उस में बाइक पर एक शख्स जा रहा था. वह अपने पीछे एक बोरी लादे हुए था. कुछ समय बाद के वीडियो में वही शख्स दिखा, लेकिन उस की बाइक पर बोरी नहीं थी.

उस फुटेज को देख कर दोनों दोस्त खुश हो गए. हाथ मिलाते हुए चीयर्स किया. उन्हें 5-6 घंटे बाद सफलता मिल गई थी. उन्होंने रिपोर्ट और वीडियो क्लिपिंग खजराना थाने के अलावा पीएचक्यू में भी भेज दी.

खजराना थाने के टीआई दिनेश वर्मा के लिए यह फुटेज काफी महत्त्वपूर्ण थी. दरअसल, 30 अगस्त को वर्मा को सुबहसुबह बोरी में बंद लाश की सूचना मिली थी. यह सूचना उन्हें एक सफाईकर्मी ने दी थी. खबर मिलते ही वह दलबल के साथ भारी बारिश में ही वह मौके पर जा पहुंचे थे. बोरी खोली तो उस में किसी युवक का आधा शव था.

उसे देख कर वह चौंक पड़े थे. शव का पैर मुड़ा था, जो गुलाबी रंग की चुन्नी से बंधा था. सिर और ऊपर धड़ नहीं था. आधे शव के यौनांग को देख कर उस की पहली पहचान किसी मुसलिम युवक के रूप में हुई.

अगली पहचान संदिग्ध थी. कारण, उस के पैर के नाखूनों में नेल पौलिश और मेहंदी लगी थी. अंगुलियों में महिलाओं द्वारा पहने जाने वाले बिछुआ पहनने के निशान थे. श्री वर्मा ने शव किसी किन्नर का होने की आशंका मानते हुए तहकीकात आगे बढ़ाई.

फिर भी मृतक की पहचान मुश्किल थी. वह तभी संभव थी, जब लाश को वहां ठिकाने लगाने वाले की तलाश हो जाए. उसी से लाश का बाकी हिस्सा मिलने की भी उम्मीद थी. इस तरह के कई बिंदुओं पर अपने सहयोगियों से विचारविमर्श कर टीआई वर्मा ने अपने स्टाफ को आसपास शव का बाकी हिस्सा खोजने के काम में लगा दिया.

घटना की जानकारी पुलिस कमिश्नर हरिनारायण मिश्र, एसीपी (खजराना) जयंत राठौर के साथसाथ डीसीपी संपत उपाध्याय को भी दे दी.

थोड़े समय में ही एसीपी राठौर के साथ फोरैंसिक जांच टीम भी मौके पर पहुंच गई. जांच में पाया गया कि शव करीब 3 दिन पुराना है, जिसे किसी धारदार हथियार से बेहद सफाई के साथ काटा गया है. यह काम टाइल्स वगैरह के कटर का काम करने वाला कोई प्रोफेशनल व्यक्ति ही कर सकता है.

इस तरह सभी को सन्न कर देने वाली इस वारदात में शरीर के नीचे की अधकटी लाश, पैरों में बंधी चुन्नी, अंगुलियों में औरतों के मेकअप और उस का मुसलिम होना काफी उलझाने वाला था. जिसे भारी बारिश के बीच सफाईकर्मियों ने खजराना की सीमा में एमआर 10 स्थित एक पैट्रोल पंप के पास मैदान में कचरे से भरे प्लास्टिक के बोरे देखा था.

इस की पहचान कराने के लिए आसपास के लोगों से पूछताछ की गई. कोई सुराग नहीं मिलने पर सर्विलांस विभाग को आसपास के सीसीटीवी कैमरों की फुटेज निकालने का आदेश जारी किया गया. साथ ही एक किन्नर के लापता होने की सूचना को इस घटना के साथ जोड़ कर देखा जाने लगा.

लापता किन्नर का नाम जोया था. पुलिस ने उस के मोबाइल नंबर को भी सर्विलांस पर लगा दिया. पुलिस को जोया की काल डिटेल्स और आखिरी लोकेशन नूर मोहम्मद नाम के एक व्यक्ति के घर के आसपास की मिली.

इसी बीच पुलिस को सूचना मिली कि आबिद नाम का व्यक्ति अपनी रिक्शा से किन्नर जोया को छोड़ने और लाने का काम करता था. उस ने जोया की चुन्नी भी पहचान ली, जिसे वह ओढ़े रहती थी.

उसी ने आखिरी बार जोया से बात की थी. पुलिस ने जब आबिद से पूछताछ की, तब उस ने नूर मोहम्मद के घर पर उसे छोड़ने की बात बताई थी.

सीसीटीवी के फुटेज की मदद से पुलिस ने एक बाइक भी ट्रेस कर ली. पता चला कि वह टाइल्स का काम करने वाले नूर मोहम्मद की ही थी. तब तक वह अपना घर बंद कर कहीं भाग गया था. फिर पुलिस ने नूर मोहम्मद के मोबाइल फोन की लोकेशन के आधार पर उसे दबोच लिया. उस ने जोया की हत्या करने की बात स्वीकार कर ली.

पुलिस पूछताछ में उस ने बताया कि शव का ऊपर वाला हिस्सा उस के घर में एक बक्से में बंद है. इस के बाद पुलिस ने उस के घर में रखे बक्से से शव का दूसरा हिस्सा भी बरामद कर लिया. और फिर नूर मोहम्मद से पूछताछ करने के बाद इस हत्याकांड की जो पूरी कहानी सामने आई, वह इस प्रकार है—

आरोपी नूर मोहम्मद इंदौर के अशरफी नगर में रह कर टाइल्स का काम करता था. 2 साल पहले उस की शादी हुई थी. पत्नी इस समय गर्भवती थी, इसलिए वह डिलीवरी के लिए अपने मायके चली गई थी. पिछले काफी समय से नूर मोहम्मद घर में अकेला था. सैक्स की इच्छा हुई तो शारीरिक संबंध बनाने के लिए वह लड़की की तलाश में जुट गया.

इसी बीच उसे किसी ने डेटिंग ऐप के बारे में बताया. उस ने एक डेटिंग ऐप डाउनलोड किया. उसी ऐप के जरिए उस की मुलाकात जोया से हुई. जोया ने खुद को लड़की बताया था, जबकि वह किन्नर थी. फिर दोनों के बीच मिलने की बात हुई. मिलने के लिए जोया ने 2 हजार रुपए मांगे. नूर मोहम्मद तैयार हो गया.

इस के बाद औनलाइन ही जोया ने 500 रुपए एडवांस मांगे. नूर मोहम्मद ने औनलाइन उसे एडवांस पैसे दे दिए. फिर 27 अगस्त, 2022 की शाम को एक आटो से जोया अशरफी नगर में नूर मोहम्मद के घर पहुंची. यहां आने के बाद जोया ने बाकी 1500 रुपए भी सैक्स से पहले ही ले लिए.

इस के बाद जब दोनों सैक्स संबंध बनाने की पहल करने लगे तब नूर मोहम्मद को जोया के किन्नर होने की हकीकत का पता चल गया.

उसे जोया पर बहुत गुस्सा आया और वह विरोध करने लगा. गालियां देने लगा, लेकिन जोया ने उस पर फिजिकल रिलेशन बनाने का दबाव बनाया.

तब तक नूर के सिर से अय्याशी का नशा उतर चुका था. गुस्से में उस ने पास रखे तौलिए से जोया का गला घोट दिया.

उस की वहीं मौत हो गई. फिर डंडे से उस के सिर पर भी हमला कर दिया. जोया को मरा देख वह घबरा गया. इस के बाद शव को एक बक्से में रख कर भागने की सोचने लगा, लेकिन बक्से में पूरा शव नहीं आ सका. इस के बाद उस ने मीट काटने वाली धारदार छुरी से जोया के शरीर के 2 टुकड़े कर दिए.

शरीर से खून निकलता रहा और 2 दिनों तक नूर मोहम्मद घर में ही रहा. जोया का टुकड़ों में बंटा शव भी वहीं पड़ा रहा. इस के बाद 29 अगस्त, 2022 की रात में नूर मोहम्मद ने एक बोरी में जोया के निचले हिस्से को भरा और अंधेरे में ग्रीन बेल्ट में कूड़ेदान के पास फेंक कर लौट आया. थोड़ी देर घर पर रुका, फिर घर को बंद कर कहीं भाग गया था.

नूर मोहम्मद मटन की दुकान पर काम करने के साथ ही टाइल्स लगाने का भी काम करता है. वह 3 भाइयों में सब से छोटा था.

जोया की कहानी भी काफी दिलचस्प है. पिछले साल भी इंदौर में जोया किन्नर की चर्चा हुई थी. वह कोई और थी, जिस की 6 अक्तूबर, 2021 को लसूडिया थानाक्षेत्र में हत्या हो गई थी.

उस की हत्या का आरोप रियल एस्टेट कंपनी फ्यूचर लैंडमार्क में सीनियर सेल्स डायरेक्टर के पद पर काम करने वाले देवांशु मिश्रा पर लगा था. आरोप है कि उन्होंने अपने 2 साथियों के साथ मिल कर उस की हत्या कर दी थी. वह जिस्मफरोशी के धंधे में थी.

उसी को ध्यान में रख कर इरशाद अंसारी उर्फ अफजल नाम के युवक ने अपना नाम जोया रख लिया था. वैसे वह मूलरूप से महाराष्ट्र का रहने वाला था. उस की शक्लसूरत और हावभाव लड़कियों जैसे थे.

इस कारण कई साल तक वह नकली किन्नर बन कर इंदौर और खंडवा के बीच ट्रेन में यात्रियों से वसूली करता था. इस दौरान उस ने असली किन्नरों के हाथ कई बार मार भी खाई थी.

उस ने फरीदाबाद में डेढ़ साल रह कर अपना लिंग परिवर्तन करवा लिया था. उस के बाद उस ने उन्नत उभारों को दिखा कर युवकों को अपने जाल में फंसाने का धंधा शुरू कर दिया.

उस ने डेटिंग ऐप पर अपनी प्रोफाइल बना ली थी और सोशल साइटों पर एक्टिव रहने लगी. इस के जरिए नएनए लड़कों को फंसाती थी. लोगों को ब्लैकमेल कर उन से पैसे लूटती रहती थी.

जोया पब और पार्टियों में शामिल रईस युवकों को अपना शिकार बनाती थी. लड़कों को फंसाने के लिए जोया अकेले ही पब में जाती थी. ग्लैमर और सैक्स अपील के साथ नजर आती थी. सोशल मीडिया पर उस की लड़की वाली तसवीर को जो लड़के देखते, वह उस के आकर्षण में बंध जाते. कुछ नहीं तो कम से कम कामेंट कर ही देते थे.

जोया ने सैक्स के भूखों को फंसाना शुरू कर दिया था. कइयों ने उस से शारीरिक संबंध बनाने के लिए सौदा कर लिया था. मुलाकात होने पर जोया अपने पूरे कपड़े उतारने से पहले ही तय रकम ले लेती थी.

जब ग्राहक को उस की हकीकत का पता चलता था, तब वह उसे समलैंगिक संबंध के लिए राजी कर लेती थी. ज्यादातर ग्राहक इस बात पर राजी नहीं होते थे, लेकिन उन से ली गई रकम वह वापस नहीं करती थी. ऐसे ग्राहक  विवाद से बचने के लिए जोया को भगा देते थे.

एक दिन नूर मोहम्मद भी उस के रूपजाल में फंस गया था. जब वह घर पर एकदम अकेला था, तब उस ने जोया को बुलाया था.

पुलिस द्वारा पूछताछ में नूर मोहम्मद ने न केवल अपना जुर्म कुबूल कर लिया, बल्कि जोया के शव के बाकी हिस्से के बारे में भी पुलिस को बता दिया.

इस तरह से 24 घंटे से भी कम समय में खजराना पुलिस द्वारा आरोपी को गिरफ्तार कर लिए जाने की खबर पा कर डीसीपी संपत उपाध्याय और एसीपी जयंत राठौर ने टीआई दिनेश वर्मा एवं उन की टीम को बधाई दी.

दूसरे दिन खजराना टीआई, एफएसएल टीम के साथ आरोपी को ले कर उस के घर पहुंचे, जहां बक्से में बंद कर रखे गए जोया के बाकी आधे शव को बरामद करने के अलावा वह तौलिया, जिस से जोया का गला घोंटा गया था और हत्या में प्रयुक्त छुरी बरामद कर ली. इस के बाद अगले दिन पुलिस ने आरोपी को अदालत में पेश किया, जहां से उसे जेल भेज दिया गया.

अनोखा रिश्ता: कैसी थी सास और बहू की जोड़ी – भाग 3

सासबहू के झगड़े सुनदेख कर पल्लवी का तो शादी पर से विश्वास ही उठ गया था. जब भी उस की शादी की बात चलती, वह सिहर जाती. सोचती, जाने कैसी ससुराल मिलेगी. कहीं उस की सास भी शकुंतला चाची जैसी निकली तो या कहीं उस में भी उस की मां का गुण आ गया तो? ऐसे कई सवाल उस के मन को डराते रहते.

अपने मन का डर उस ने विपुल को भी बताया, जिसे सुन उस की हंसी रुक नहीं रही थी. किसी तरह अपनी हंसी रोक वह कहने लगा, ‘‘हां, मेरी मां सच में ललिता पवार हैं. सोच लो अब भी समय है. कहीं ऐसा न हो तुम्हें बाद में पछताना पड़े? पागल, मेरी मां पुराने जमाने की सास नहीं हैं. तुम्हें उन से मिलने के बाद खुद ही पता चल जाएगा.’’

विपुल की बातों ने उस का डर जरा कम तो कर दिया, पर पूरी तरह से खत्म नहीं हो पाया. अब भी सास को ले कर दिल के किसी कोने में डर तो था ही.

बिदाई के वक्त बड़े प्यार से शांति ने भी अपनी बेटी के कान फूंकते हुए समझाया था, ‘‘देख बिटिया, सास को कभी मां समझने की भूल न करना, क्योंकि सास चुड़ैल का दूसरा रूप होती है. देखा नहीं अपनी दादी को? मांजीमांजी कह कर उसे सिर पर मत बैठा लेना. पैरों में तेल मालिशवालिश की आदत तो डालना ही मत नहीं तो मरते दम तक तुम से सेवा करवाती रहेगी… सब से बड़ी बात पति को अपनी मुट्ठी में रखना और उस के कमाए पैसों को भी. अपनी कमाई तो उसे छूने भी मत देना. एक बार मुंह को खून लग जाए, तो आदत पड़ जाती है. समझ रही हो न मेरे कहने का मतलब?’’

अपनी मां की कुछ बातों को उस ने आत्मसात कर लिया तो कुछ को नहीं.

ससुराल में जब पल्लवी ने पहला कदम रखा, तो सब से पहले उस का

सामना ललिता यानी अपनी सास से ही हुआ. उन का भरा हुआ रोबीला चेहरा, लंबा चरबी से लदा शरीर देख कर ही वह डर गई. लगा जैसा नाम वैसा ही रूप. और जिस तरह से वे आत्मविश्वास से भरी आवाज में बातें करतीं, पल्लवी कांप जाती. वह समझ गई कि उस का हाल वही होने वाला है जो और बेचारी बहुओं का होता आया है.

मगर हफ्ता 10 दिन में ही जान लिया पल्लवी ने कि यथा नाम तथा गुण वाली कहावत ललिता पर कहीं से भी लागू नहीं होती है. तेजतर्रार, कैंची की तरह जबान और सासों वाला रोब जरा भी नहीं था उन के पास.

एक रोज जब वह अपनी मां को याद कर रोने लगी, तो उस की सास ने उसे सीने से लगा लिया और कहा कि वह उसे सास नहीं मां समझे और जब मन हो जा कर अपनी मां से मिल आए. किसी बात की रोकटोक नहीं है यहां उस पर, क्योंकि यह उस का भी घर है. जैसे उन के लिए उन की बेटी है वैसे ही बहू भी… और सिर्फ कहा ही नहीं ललिता ने कर के भी दिखाया, क्योंकि पल्लवी को नए माहौल में ढलने और वहां के लोगों की पसंदनापसंद को समझने के लिए उसे पर्याप्त समय दिया.

अगर पल्लवी से कोई गलती हो जाती, तो एक मां की  तरह बड़े प्यार से उसे

सिखाने का प्रयास करतीं. पाककला में तो उस की सास ने ही उसे माहिर किया था वरना एक मैगी और अंडा उबालने के सिवा और कुछ कहां बनाना आता था उसे. लेकिन कभी ललिता ने उसे इस बात के लिए तानाउलाहना नहीं मारा, बल्कि बोलने वालों का भी यह कह कर मुंह चुप करा देतीं कि आज की लड़कियां चांद पर पहुंच चुकी हैं, पर अफसोस कि हमारी सोच आज भी वहीं की वहीं है. क्यों हमें बहू सर्वगुण संपन्न चाहिए? क्या हम सासें भी हैं सर्वगुण संपन्न और यही उम्मीद हम अपनी बेटियों से क्यों नहीं लगाते? फिर क्या मजाल जो कोई पल्लवी के बारे में कुछ बोल भी दे.

उस दिन ललिता की बातें सुन कर दिल से पल्लवी ने अपनी सास को मां समझा और सोच लिया कि वह कैसा रिश्ता निभाएगी अपनी सास से.

कभी ललिता ने यह नहीं जताया कि विपुल उन का बेटा है तो विपुल पर पहला अधिकार भी उन का ही है और न ही कभी पल्लवी ने ऐसा जताया कि अब उस के पति पर सिर्फ उस का अधिकार है. जब कभी बेटेबहू में किसी बात को ले कर बहस छिड़ जाती, तो ललिता बहू का ही साथ देतीं. इस से पल्लवी के मन में ललिता के प्रति और सम्मान बढ़ता गया. धीरेधीरे वह अपनी सास के और करीब आने लगी. पूरी तरह से खुलने लगी उन के साथ. कोई भी काम होता वह ललिता से पूछ कर ही करती. उस का जो भय था सास को ले कर वह दूर हो चुका था.

लोग कहते हैं अच्छी बहू बनना और सूर्य पर जाना एक ही बात है. लेकिन अगर मैं एक अच्छी बेटी हूं, तो अच्छी बहू क्यों नहीं बन सकती? मांदादी को मैं ने हमेशा लड़तेझगड़ते देखा है, लेकिन गलती सिर्फ दादी की ही नहीं होती थी. मां चाहतीं तो सासबहू के रिश्ते को संवार सकती थीं, पर उन्होंने और बिगाड़ा रिश्ते को. मुझे भी उन्होंने वही सब सिखाया सास के प्रति, पर मैं उन की एक भी बात में नहीं आई, क्योंकि मैं जानती थी कि सामने वाले मुझे वही देंगे, जो मैं उन्हें दूंगी और ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती. शादी के बाद एक लड़की का रिश्ता सिर्फ अपने पति से ही नहीं जुड़ता, बल्कि ससुराल के बाकी सदस्यों से भी खास रिश्ता बन जाता है, यह बात क्यों नहीं समझती लड़कियां? अगर अपने घर का माहौल हमेशा अच्छा और खुशी भरा रखना है, तो मुझे अपनी मां की बातें भूलनी होंगी और फिर सिर्फ पतिपत्नी में ही 7 वचन क्यों? सासबहू भी क्यों न कुछ वचनों में बंध जाएं ताकि जीवन सुखमय बीत सके, अपनेआप से ही कहती पल्लवी.

उसी दिन ठान लिया पल्लवी ने कि वे सासबहू भी कुछ वचनों में बंधेंगी और अपने रिश्ते को एक नया नाम देंगी-अनोखा रिश्ता. अब पल्लवी अपनी सास की हर पसंदनापसंद को जाननेसमझने लगी थी. चाहे शौपिंग पर जाना हो, फिल्म देखने जाना हो या घर में बैठ कर सासबहू सीरियल देखना हो, दोनों साथ देखतीं.

अब तो पल्लवी ने ललिता को व्हाट्सऐप, फेसबुक, लैपटौप यहां तक कि कार चलाना भी सिखा दिया था. सब के औफिस चले जाने के बाद ललिता घर में बोर न हों, इसलिए उस ने जबरदस्ती उन्हें किट्टी भी जौइन करवा दी.

शुरूशुरू में ललिता को अजीब लगा था, पर फिर मजा आने लगा. अब वे भी अपनी बहू के साथ जा कर और औरतों की तरह स्टाइलिश कपड़े खरीद लातीं. वजन भी बहुत कम कर लिया था. आखिर दोनों सासबहू रोज वाक पर जो जाती थीं. अपने हलके शरीर को देख बहुत खुश होतीं ललिता और उस का सारा श्रेय देतीं अपनी बहू को, जिस के कारण उन में इतना बदलाव आया था वरना तो 5 गज की साड़ी में ही लिपटी उन की जिंदगी गुजर रही थी.

एक दिन चुटकी लेते हुए शंभूजी ने कहा भी, ‘‘कहीं तुम ललिता पवार से 0 फिगर साइज वाली करीना न बन जाओ. फिर मेरा क्या होगा मेरी जान?’’

‘‘हां, बनूंगी ही, आप को क्यों जलन हो रही है?’’ ललिता बोलीं.

‘‘अरे, मैं क्यों जलने लगा भई. अच्छा है बन जाओ करीना की तरह. मेरे लिए तो और अच्छा ही है न वरना तो ट्रक के साथ आधी से ज्यादा उम्र बीत ही गई मेरी,’’ कह कर शंभूजी हंस पड़े पर ललिता बड़बड़ा उठीं.

दोनों की इस तरह की नोकझोंक देख पल्लवी और विपुल हंस पड़ते.

एक दिन जब पल्लवी ने अपने लिए जींस और टीशर्ट खरीदी, तो ललिता के लिए भी खरीद लाई. वैसे विपुल ने मना किया था कि मत खरीदो, मां नहीं पहनेगी, पर वह ले ही आई.

‘‘अरे, यह क्या ले आई बहू? नहींनहीं मैं ये सब नहीं पहनूंगी. लोग क्या कहेंगे और मेरी उम्र तो देखो,’’ जींस व टीशर्ट एक तरफ रखते हुए ललिता ने कहा.

‘‘उम्र क्यों नहीं है? अभी आप की उम्र ही क्या हुई है मां? लगता है आप 50 की हैं? लोगों की परवाह छोडि़ए, बस वही पहनिए जो आप को अच्छा लगता है और मुझे पता है आप का जींस पहनने का मन है. आप यह जरूर पहनेंगी,’’ हुक्म सुना कर पल्लवी फ्रैश होने चली गई. ललिता उसे जाते देखते हुए सोचने लगीं कि यह कैसा अनोखा रिश्ता है उन का.

अनोखा रिश्ता: कैसी थी सास और बहू की जोड़ी – भाग -1

‘‘बायमां, मैं निकल रही हूं… और हां भूलना मत,

दोपहर के खाने से पहले दवा जरूर खा लेना,’’ कह पल्लवी औफिस जाने लगी.

तभी ललिता ने उसे रोक कहा, ‘‘यह पकड़ो टिफिन. रोज भूल जाती हो और हां, पहुंचते ही फोन जरूर कर देना.’’

‘‘मैं भूल भी जाऊं तो क्या आप भूलने देती हो मां? पकड़ा ही देती हो खाने का टिफिन,’’ लाड़ दिखाते हुए पल्लवी ने कहा, तो ललिता भी प्यार के साथ नसीहतें देने लगीं कि वह कैंटीन में कुछ न खाए.

‘‘हांहां, नहीं खाऊंगी मेरी मां… वैसे याद है न शाम को 5 बजे… आप तैयार रहना मैं जल्दी आने की कोशिश करूंगी,’’ यह बात पल्लवी ने इशारों में कही, तो ललिता ने भी इशारों में ही जवाब दिया कि वे तैयार रहेंगी.

‘‘क्या इशारे हो रहे हैं दोनों के बीच?’’ ललिता और पल्लवी को इशारों में बात करते देख विपुल ने कहा, ‘‘देख लो पापा, जरूर यहां सासबहू और साजिश चल रही है.’’

विपुल की बातें सुन शंभुजी भी हंसे बिना नहीं रह पाए. मगर विपुल तो अपनी मां के पीछे ही पड़ गया, यह जानने के लिए कि इशारों में पल्लवी ने उन से क्या कहा.

‘‘यह हम सासबहू के बीच की बात है,’’ प्यार से बेटे का कान खींचते हुए ललिता बोलीं.

बेचारा विपुल बिना बात को जाने ही औफिस चला गया. दोनों को

औफिस भेज कर ललिता 2 कप चाय बना लाईं और फिर इतमीनान से शंभूजी की बगल में बैठ गईं.

चाय पीते हुए शंभूजी एकटक ललिता को देखदेख कर मुसकराए जा रहे थे.

‘‘इतना क्यों मुसकरा रहे हो? क्या गम है जिसे छिपा रहे हो…?’’ ललिता ने शायराना अंदाज में पूछा, तो उन की हंसी छूट गई.

कहने लगे, ‘‘मुसकरा इसलिए रहा हूं कि तुम भी न अजीब हो. अरे, बता देती बेचारे को कि तुम सासबहू का क्या प्रोग्राम है. लेकिन जो भी हो तुम सासबहू की बौडिंग देख कर मन को बड़ा सुकून मिलता है वरना तो मेरा सासबहू के झगड़े सुनसुन कर दिमाग घूम जाता है. हाल ही में मैं ने अखबार में एक खबर पढ़ी, जिस में लिखा था सास से तंग आ कर एक बहू 12वीं मंजिल से कूद गई और जानती हो पहले उस ने अपने ढाई साल के बेटे को फेंका और फिर खुद कूद गई, जिस से दोनों की मौत हो गई. सच कह रहा हूं ललिता यह पढ़ कर मेरा तो दिल बैठ गया था.’’

शंभूजी की बातें सुन कर ललिता का भी दिल दहल गया.

‘‘सोचा जरा उस इंसान पर क्या बीतती होगी जिसे न तो मां समझ पाती हैं और न पत्नी. पिसता रहता है बेचारा मां और पत्नी के बीच.’’

‘‘हूं, सही कह रहे हैं आप. हमारे समाज में जब एक लड़की शादी के बाद अपना मायका छोड़ कर जहां उस ने लगभग अपनी आधी जिंदगी पूरे हक के साथ गुजारी होती है, ससुराल में कदम रखते ही उस के दिल में घबराहट सी होने लगती है कि यहां सब उसे दिल से तो अपनाएंगे न? अपने परिवार का हिस्सा समझेंगे न? ज्यादातर घरों में यही होता है कि बहू को आए अभी कुछ दिन हुए नहीं कि जिम्मेदारी की टोकरी उसे पकड़ा दी जाती है. उसे यह तो समझा दिया जाता है कि सासससुर के साथसाथ ननददेवर और नातेरिश्तेदारों को भी सम्मान देना होगा, लेकिन यह नहीं समझाया जाता कि आज से यह घर उस का भी है और ससुराल में उस की राय भी उतनी ही मान्य होगी जितनी घर के बाकी सदस्यों की.

‘‘क्या एक बहू का यह अधिकार नहीं कि घर के हित के लिए जो भी फैसले लिए जाएं उन में उस की भी राय शामिल हो? क्यों सास को लगने लगता है कि बहू आते ही उस से उस के बेटे को छीन लेगी? अगर ऐसा ही है, तो फिर न करें वे अपने बेटे की शादी. रखें अपने आंचल में ही छिपा कर. अगर शादी के बाद बेटा अपने परिवार को कुछ बोल जाए, तो सब को यही लगने लगता है कि बीवी ने ही सिखाया होगा

उसे ऐसा बोलने के लिए और यही झगड़े की जड़ है. हर बात के लिए बहू को ही दोषी ठहराया जाने लगता है. और तो और उस के मायके को भी नहीं छोड़ते लोग,’’ कहते हुए ललिता की आंखें गीली हो गईं, जो शंभूजी से भी छिपी न रह पाईं.

वे समझ रहे थे कि आज ललिता के मन का गुब्बार निकल रहा है और वह वही सब बोल रही है जो उस के साथ हुआ है. उन्हें भी तो याद है… कभी उन की मां ने ललिता को चैन से जीने नहीं दिया. बातबात पर तानेउलाहने, गालीगलौच यहां तक कि थप्पड़ भी चला देती थीं वे ललिता पर और बेचारी रो कर रह जाती. लेकिन क्या कोई भी लड़की अपने मायके की बेइज्जती सहन कर सकती है भला? जब ललिता की सास उस के मायके के खिलाफ कुछ बोल देतीं, तो उस से सहन नहीं होता और वह पलट कर जवाब दे देती. यह बात उन की मां की बरदाश्त के बाहर चली जाती. गरजते हुए कहतीं कि अगर फिर कभी ललिता ने कैंची की तरह जबान चलाई तो वे उसे हमेशा के लिए उस के मायके भेज देगी, क्योंकि उन के बेटे के लिए लड़कियों की कमी नहीं है.

बेचारे शंभूजी भी क्या करते? खून का घूंट पी कर रह जाते पर अपनी मां से कुछ कह न पाते. अगर कुछ बोलते तो जोरू का गुलाम कहलाते और पहले के जमाने में कहां बेटे को इतना हक होता था कि वह पत्नी की तरफदारी में कुछ बोल सके.

‘‘मैं ने तो पहले ही सोच लिया था शंभूजी कि जब मेरी बहू का गृहप्रवेश होगा, तो उसे सिर्फ कर्तव्यों, दायित्वों, जिम्मेदारियों और फर्ज की टोकरी ही नहीं थमाऊंगी वरन उसे उस के हक और अधिकारों का गुलदस्ता भी दूंगी, क्योंकि आखिर वह भी तो अपनी ससुराल में कुछ उम्मीदें ले कर आएगी.’’

‘‘और अगर तुम्हारी बहू ही अच्छे विचारों वाली नहीं आती तब? तब कैसे निभाती उस से?’’ शंभूजी ने पूछा.

पश्चात्ताप- भाग 2: सुभाष ध्यान लगाए किसे देख रहा था?

Writer- डा. अनुसूया त्यागी

‘अरे, यह क्या कर रहे हो?’ मैं ने जल्दी से अपने अंगूठे से दबा दिया. फिमोरल आरटरी कटी थी युवक की. उस व्यक्ति ने अपने अंगूठे से उस कटे स्थान को दबा कर काफी समझदारी का परिचय दिया था.

‘‘मांजी, मांजी,’’ एक आदमी अर्जुन की मां को झझकोर रहा है. मानो वह उन्हें सोए से जगाने का प्रयत्न कर रहा हो, ‘‘होश में आओ मांजी, यह अर्जुन है. आप का बेटा,’’ लोग अर्जुन की मां को रुलाना चाह रहे हैं, मैं वर्तमान में लौटता हूं. सब सोच रहे हैं कि यदि यह नहीं रोएगी तो इस के दिमाग पर असर होगा. पर वह वैसी ही बैठी है, अश्रुविहीन आंखें लिए हुए.

क्या रो पाई थी उस युवक की मां? मैं फिर अतीत में लौट जाता हूं. क्या उस के दिमाग पर असर नहीं हुआ होगा? कैसे जी रही होगी अब तक, या मर गई होगी? पुराना दृश्य फिर कौंधता है.

फिमोरल आरटरी दबा कर बैठा हूं और अपने साथ के दूसरे सीएमओ को कहता हूं कि जल्दी से शल्यचिकित्सक को बुलाइए. औपरेशन थिएटर में कहलवा दीजिए. एक फिमोरल आरटरी को रिपेयर करना है. इतने में एक दूसरे युवक को लोग अंदर ला रहे हैं. 3-4 व्यक्तियों ने उसे सहारा दिया हुआ है. वह लंबीलंबी सांसें ले रहा है. मेरे पास आ कर सब रुकते हैं और कहते हैं, ‘डाक्टर साहब, इस युवक को देखिए, यह इस के स्कूटर के पीछे बैठा हुआ था, पलंग पर लेटे उस युवक की ओर इशारा करते हैं जिस की फिमोरल आरटरी मैं दबा कर बैठा हूं. मैं दूसरे डाक्टर की ओर इशारा कर देता हूं क्योंकि मेरे हाथ व्यस्त हैं. डाक्टर विमल मरीज का निरीक्षण करते हैं और उस की हिस्टरी लेते हैं.

‘कहां दर्द है?’ डाक्टर पूछते हैं.

‘छाती में,’ कराहता हुआ युवक बोलता है, ‘मुझे सांस लेने में कठिनाई हो रही है.’

‘नर्स, इसे पेथीडीन का इंजैक्शन लगवा दो,’ डाक्टर आदेश देते हैं.

‘जरा रुकिए, डाक्टर, पहले इस की छाती का एक्सरे करवा लीजिएगा,’ मेरे अंदर का विशेषज्ञ बोल उठता है.

‘ठीक है, अभी एक्सरे के लिए भेज देता हूं, इतने में कोई दर्दनिवारक दवा तो दे ही दूं.’

मेरे अंदर का विशेषज्ञ संतुष्ट नहीं हो पा रहा था. मैं उस दूसरे युवक को देखना चाहता हूं, उस का निरीक्षण कर के उस का निदान करना चाहता हूं. मन ही मन आशंकित हो रहा हूं. कहीं इस की पसली तो नहीं टूट गई है और उस टूटे हुए टुकड़े ने फेफड़े में छेद तो नहीं कर दिया है.

डा. विमल मेरी बात को अनसुना कर देते हैं.

‘‘डाक्टर साहब,’’ कोई मुझे झंझोड़ रहा था, ‘‘क्या किया जाए, यह अर्जुन की मां तो कुछ बोलती ही नहीं. इन के किसी रिश्तेदार को खबर कर दें, कोई यहीं रहता हो तो फोन कर दें, क्या करें? आप ही बताइए. कुछ समझ में नहीं आ रहा, हम क्या करें,’’ मैं फिर वर्तमान में लौटता हूं. मुझे पत्नी की बातें याद आती हैं, ‘अर्जुन की मां का कोईर् नहीं है इस संसार में. पर बड़ी खुद्दार औरत है. किसी के सामने हाथ फैलाना बिलकुल पसंद नहीं करती. मैं कभीकभी ऐसे ही उस की सहायता करना चाहती हूं पर वह कुछ नहीं लेती.’

‘‘इस का तो कोई नहीं है इस संसार में, न पीहर में और न ससुराल में. हमें ही सबकुछ करना है,’’ मुझे डर भी है. मैं स्वगत कहता हूं, ‘दिल्ली जैसे शहर के व्यस्त लोग कहीं अपनेअपने काम का बहाना कर के खिसक न जाएं, फिर मैं अकेला क्या करूंगा?’

सुविधा, मेरी पत्नी, मेरी मनोदशा भांप कर धीरे से मेरा हाथ दबाती है. शब्द मेरे मुंह से निकलते हैं प्रत्यक्ष रूप में, ‘‘आप लोग लाश को उठवा कर निगम बोध घाट ले चलिए. इस की मां को तो कोई होश नहीं है.’’ वास्तव में कोई होश नहीं है. इन आंखों में अभी तक कोई भाव नहीं है, अभी भी अश्रुविहीन आंखें सुदूर, अंधकारमय भविष्य की ओर निहारतीं. इतना बड़ा वज्रपात और यह मौन…

काश, उस बस ड्राइवर ने सोचा होता. उस की असावधानी और लापरवाही कैसे एक समूची जिंदगी को खत्म कर देती है. जिसे अभी पूरा जीवन जीना था, असमय ही कालकवलित हो गया और उस के साथ ही एक पूरा परिवार, जिस में इस अभागी मां का अपने इस कलेजे के टुकड़े के अलावा पूरे संसार में कोई नहीं है, ध्वस्त हो गया है. उस के एकमात्र सहारे की डोर ही टूट गई और उस का खुद का जीवन भी शीशे की तरह किरिचकिरिच हो कर बिखर गया है. कैसे जिएगी यह. काश, वह ड्राइवर सोच पाता, देख पाता.

मुझे एक फिल्म याद आ रही है. ऐसे समय में फिल्म याद आना स्वयं को धिक्कारने को मन करता है, पर मन ही तो है, विचारों पर कोई वश तो नहीं इंसान का. उस फिल्म में एक युवक एक व्यक्ति को कुचल देता है. सर्दी के कोहरे में उसे वह दिखाई नहीं देता और अदालत में जज साहब दंडस्वरूप उस युवक को उस व्यक्ति के परिवार का पालनपोषण करने का भार सौंपते हैं और तब उस युवक को अपने अपराध का एहसास होता है कि कैसे उस की असावधानी ने पूरे परिवार का जीवन संकट में डाल दिया है.

काश, हमारी अदालतें ऐसा ही न्याय कर पातीं. ऐसे ड्राइवरों को इसी प्रकार की सजा दी जाती. जेल की सजा काटने से तो उन्हें उस परिवार के संकट का अनुभव नहीं होता जिस के परिवार का व्यक्ति मौत के मुंह में जाता है. अरे, मैं यह किन विचारों में बह गया हूं, सब लोग तो निगम बोध घाट रवाना हो गए हैं. मैं भी कार में बैठता हूं. स्टीयरिंग घुमाने के साथसाथ मन फिर घूम जाता है. 15-20 औरतें कैजुअल्टी में घुसी चली आ रही हैं. लड़के की मां आगेआगे रोती हुई आरही है, ‘अरे डाक्टर साहब, मेरे बच्चे को क्या हो गया, इसे बचा लीजिए. इस की तो बरात जाने वाली है. अभी एक घंटे के बाद इस की शादी होनी है. यह क्या हो गया मेरे लाल को. मैं ने तो बहुत मना किया था तुझे बाजार जाने को. पर नहीं माना,’ वह जोरजोर से रोने लगती है.

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