‘‘फिल्म ‘कांचली’ में स्त्री के उत्थान की बात है.’’ -देदीप्य जोशी

राजस्थान के कुछ गांवों में छोटी उम्र के बालक के साथ बड़ी उम्र की महिला की शादी से पनपने वाली सामाजिक विसंगतियों के खिलाफ फिल्म ‘‘सांकल’’ का निर्देशन कर कई राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुके फिल्मकार देदीप्य जोशी की हास्य फिल्म ‘‘चल जा बापू’’ को खास सफलता नही मिली थी. अब वह स्त्री उत्थान के मसले पर बतौर निर्माता व निर्देशक फिल्म ‘‘कांचली’’ लेकर आए हैं, जो कि राजस्थान के मशहूर लेखक विजयदान देथा की कहानी ‘‘केंचुली’’ पर आधारित है. सात फरवरी को प्रदर्शित होने वाली फिल्म ‘‘कांचली’’ में शिखा मल्होत्रा, संजय मिश्रा और ललित पारिमू की अहम भूमिकाएं हैं.

सांकल’ और ‘चल जा बापू’ जैसी आपकी दो फिल्में आ चुकी हैं. इनके प्रदर्शन का अनुभव कैसा रहा?

– पहली फिल्म ‘‘सांकल’’ थी, जिसे राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काफी सराहा गया. यह फिल्म कई राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह का हिस्सा बनी. मुझे लाइव दर्शकों से मिलने का, उनकी प्रतिक्रिया जानने का अवसर मिला. फिल्म फेस्टिवल वाला दौर काफी सुकून भरा था और हमें अहसास हुआ कि हमने कुछ बेहतर काम किया है. गौरवान्वित भी हुआ. मगर जब हम बौक्स आफिस की बात करते हैं, क्योंकि पूरी दुनिया अर्थशास्त्र पर टिकी हुई है. सिनेमा को कला कहा जाता है, मगर यहां अर्थशास्त्र सबसे ज्यादा मायने रखता है.

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ऐसे में कुछ लोग बीच का रास्ता निकालकर अच्छे कलाकारों के साथ फिल्म बनाते हुए उसमें अपनी बात भी कह देते हैं और उनकी फिल्म बौक्स आफिस पर भी सफलता दर्ज करा लेती है. इन दिनों ऐसा दौर चल रहा है. पर हमारे जैसे कुछ अड़ियल भी होते हैं, जो कहते हैं कि हम अपनी बात अपने तरीके से कहना चाहते हैं. बिना किसी तरह के प्रभाव में आए. हमारे जैसे फिल्मकार फिल्म बनाते समय यह नहीं सोचते कि फिल्म बिकेगी कैसे, सिनेमाघरों में कैसे पहुंचेगी. क्योंकि हम तो अपनी बात दर्शकों से कहना चाहते हैं. मैने जब ‘सांकल’ बनायी थी, तो यह सोचकर बनायी थी कि इससे मुझे आर्थिक तौर पर नुकसान ही होगा. लेकिन मैं चाहता था कि फिल्म देखें और जिस समस्या को मैने अपनी फिल्म का हिस्सा बनाया है, उसको लेकर लोगों के बीच चर्चा हो. इसलिए फिल्म ‘सांकल’ जिस तरह से रिलीज हुई, इसका मुझे कभी पश्चाताप नहीं रहा.

इसके बाद कमर्शियल फिल्म ‘‘चल जा बापू’’ करने के पीछे क्या सोच थी?

– ‘‘चल जा बापू’’ बनाने के पीछे मेरी सोच कमर्शियल सिनेमा करना था. कमशिर्यल सिनेमा में बजट ज्यादा चाहिए. दर्शक भी लार्जर देन लाइफ किरदार व घटनाएं देखना चाहता है. वैसे इन दिनों रियालिस्टिक सिनेमा भी चल रहा है, जिसमें राज कुमार राव, आयुश्मान खुराना जैसे कलाकार काम कर रहे हैं. लेकिन इस तरह की फिल्मों के निर्माण में भी कम लागत नहीं आती है. कंटेंट मजबूत होता है, पर खर्चा भरपूर होता है. मैं शुरू से इस बात के खिलाफ हूं कि कम बजट की कमर्शियल फिल्म नही करनी चाहिए. लेकिन उस वक्त मेरे दिमाग में था कि यदि मैं कमर्शियल फिल्म को रियालिस्टिक अप्रोच दूंंगा, तो कम बजट में भी वह लोगों के दिलों में घर कर जाएगी, पर मेरी यह सोच गलत निकली. क्योकि ‘चल मेरे बापू’ का निर्माता मैं नहीं था. हम दोनों की सोच में अंतर था. मेरी इच्छा के विपरीत निर्माता ने आइटम सांग व दूसरे गाने रखवाए. मैं आइटम सांग के खिलाफ नही हूं, पर इसके लिए फिल्म का सब्जेक्ट भी उसी के अनुरूप हो और आइटम सांग को अच्छे पैसे खर्च कर इतनी भव्यता के साथ फिल्माया जाए कि उसे देखकर दर्शक की आंखे चकाचौंध हो जाएं. फिल्म भी सही ढंग से रिलीज नही हुई.

पहली फिल्म ‘‘सांकल’’ के प्रदर्शन के बाद किस तरह की प्रतिक्रियाएं मिली थी?

– मिश्रित प्रतिक्रियाएं मिली. कलकत्ता के फेस्टिवल में एक शख्स मेरे पास आया जिसकी आंखों में आंसू थे, उसने कहा- ‘‘यह बहुत बड़ा मार्मिक विषय है. इस तरह के विषयों पर फिल्म बननी चाहिए. आपने इसे बनाकर समाज व सिनेमा को बहुत बड़ा योगदान दिया है. इस तरह की सामाजिक कुरीति पर चर्चा होनी चाहिए. हम दर्शक इस तरह की फिल्में देखना चाहते हैं. तो मुझे लगा कि मेरी मेहनत सफल हो गयी. पर जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में एक महिला ने मुझसे कहा- ‘‘आप इस कहानी को बिना हार्श होकर भी दिखा सकते थे.’’ मै इस तरह के कमेंट्स, प्रतिक्रिया से बहुत ज्यादा उत्साहित नहीं होता. मैं अपने मन का सिनेमा बनाना चाहता हूं.

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सुना है आप ‘‘कांचली’’ का निर्माण 2008 में ही करना चाहते थे?

– जी हां! 2008 से पांच साल तक मैंने इस फिल्म की पटकथा लेकर कई निर्माता व कलाकारों के यहां चक्कर लगाए. पर बात नही बनी. जबकि इस फिल्म में उस वक्त मुख्य भूमिका निभाने के लिए विद्या बालन, नीतू चंद्रा और राधिका आप्टे भी तैयार थीं. मगर कोई निर्माता नहीं मिला. तो उस वक्त फिल्म नही बना सकी. फिर मैने ‘सांकल’ बनायी, ‘चल मेरे बापू’ का निर्देशन किया. अब जब परस्थितियां  मेरे हक में नजर आयी, तो मैंने एक नई अदाकारा शिखा मल्होत्रा के साथ संजय मिश्रा को लेकर ‘‘कांचली’’ बनायी.

पर आप ‘‘कांचली’’ बनाने को इतना बेताब क्यों रहे?

– यह फिल्म राजस्थान के सेक्सपिअर माने जाने वाले लेखक विजयदान देथा की कहानी ‘‘केंचुली’’ पर है. विजयदान देथा के बारे में कहा जाता है कि स्त्री के मन के भाव को समझने वाला कोई पुरूष हो ही नहीं सकता, मगर विजयदान देथा ने अपनी हर कहानी में स्त्री के अंतर्मन को बहुत बारीकी से समझकर उकेरा है. लोग कहते हैं कि यह कहानियां विजयदान देथा ने नही, बल्कि किसी स्त्री ने लिखी है. तो यह उनके लिए बहुत बड़ा कौम्पलीमेंट है. वह महान लेखक थे, तो उन्हे हमने बहुत पढ़ा है. सिनेमा के प्रति रूझान के चलते उनकी कहानी पढ़ते समय मेरी आंखों के सामने एक नक्शा सा खिंच जाता था. विजयदान देथा की राजस्थानी भाषा में इस कहानी का नाम ‘‘केंचुली’’ है, जबकि हिंदी में ‘‘कांचली’’ है. इस कहानी का जो क्लायमैक्स था, उसने मुझे इस फिल्म को बनाने के लिए उकसाया. इसका क्लायमेक्स रोंगटे खड़ा कर देने वाला, हिलाकर रख देने वाला है. 2008 से मैं इस पर फिल्म बनाने के लिए प्रयासरत रहा हूं. मेरी इच्छा थी कि मेरे कैरियर की पहली फिल्म ‘‘कांचली’’ ही हो. पर संभव नहीं हो पाया था. यह कहानी आज भी समसामायिक है.

सामंतशाही के दौर की यह कथा किस तरह आपको समसामायिक नजर आयी?

– परिवार और समाज में स्त्रियों की दशा सदैव दोयम दर्जे की रही है. हर तरह के निर्णय पुरूष ही लेते रहे हैं. जहां निर्णय लेने के लिए कोई लड़की आगे आती है, तो उसे दबाया जाता है. यह पुरुष मानसिकता है. हम नारी उत्थान और औरतों को आगे बढ़ाने की चाहे जितनी बातें कर लें, पर कहीं न कहीं ऐसी गलती कर बैठते हैं, जब हम सोचते हैं कि हमने भी वही किया, जो दूसरे करते रहते हैं. मैं स्पष्ट कर दूं कि मैं नारीवादी व फेमिनिस्ट नही हूं. मेरी राय में इस संसार में रह रहे पुरूष, औरत या जानवर हर किसी को अपना अपना अस्तित्व है, जिसे नकारा नहीं जा सकता. नारी मानसिक रूप से शक्तिशाली और शारीरिक रूप से कमजोर तथ पुरूष मानसिक रूप से कमजोर और शारीरिक रूप से मजबूत हैं. इसीलिए नारी की सच बात को भी पुरूष दबाता आया है. इसलिए कहानी पूरी तरह से समसामायिक हैं. यह हालात भारत ही नहीं, अमरीका में भी हैं.अमरीका में भी शारीरिक रूप से कमजोर लड़की व औरत के संग जबरन बलात्कार हो रहे हैं.

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फिल्म ‘‘कांचली’’ की कहानी क्या है?

– फिल्म की कहानी किशनू (नरेशपाल सिंह) की बेहद खूबसूरत लड़की कजरी (शिखा मल्होत्रा) से शादी के साथ शुरू होती है. किशनू के शादी कर गांव पहुंचने के साथ ही गांव के कजरी की सुंदरता के चर्चा होने लगते हैं और ठाकुर (ललित परीमू) की नीयत कजरी पर डोल जाती है. ऐसे में वह अपने खास आदमी भोजा (संजय मिश्रा) को कजरी को अपने सामने पेश करने का आदेश देते हैं. लेकिन अपने पति के प्रति बेहद वफादार कजरी एक दिन अपनी आत्मरक्षा के लिए ठाकुर पर हमला कर देती है. यह देख भोजा का मन कजरी पर लट्टू हो जाता है. मगर किशनु अपनी पत्नी कजरी की हिम्मत की दाद देने की बजाय उसे आइंदा से ठाकुर के साथ अच्छी तरह से पेश आने की हिदायत देता है. यह सुनकर कजरी का दिल टूट जाता है, क्योंकि उसने सपने में भी कभी नहीं सोचा था कि उसका पति दुनिया से उसकी इस लड़ाई में उसे अकेला छोड़ देगा. ऐसे में उदास कजरी सोचती है कि सुनने और देखने मे फर्क होता है, शायद किसी कभी गैर मर्द के साथ देख लेने के बाद उसके पति का खून खौल उठे. इस सोच के साथ वह भोजा की आड़ में अपने पति की परीक्षा लेने का निर्णय लेती है. उसके बाद बहुत कुछ घटित होता है.

सांकल’ और ‘कांचली’ में आप क्या अंतर देखते हैं?

– ‘सांकल’ सामाजिक बुराइयों पर थी. जहां एक छोटे बालक का विवाह बड़ी उम्र की महिला के साथ कर दिया जाता है, जिससे कई तरह की सामाजिक विसंगतियां पैदा होती हैं. जबकि‘कांचली’ स्त्री के उत्थान की बात है. स्त्री अपने पति व समाज से खुश है, पर उसके मन की भावना है कि वह खुश तो है, मगर स्वतंत्र नही है. उसका मन कहता है कि वह कई तरह की जकड़न में बंधी हुई है. उसका पति उसे प्यार करता है, उसकी कद्र करता है, मगर उसमें असुरक्षा की भावना है, क्योकि वह पति के सहारे है. इसलिए फिल्म ‘कांचली’ नारी जागृति की कहानी है कि वह किस तरह आत्मनिर्भर व स्वतंत्र हो सकती है.

पिछले कुछ वर्षों से नारी उत्थान और नारी स्वतंत्रता के जो आंदोलन..?

– मेरे विचार अजीब से लगेंगे. हमारे देश में हर मुद्दे के दो अलग विचार बन जाते हैं. सोशल मीडिया के माध्यम से आप किसी निर्णय पर नहीं पहुंच सकते, सभी कन्फ्यूज करते हैं. महिलाओं के लिए सही मायनों में कुछ बेहतर काम कुछ एनजीओ ग्रामीण इलाके में जरुर कर रहे हैं. कुछ संस्थाएं पारिवारिक वेश्यावृत्ति के खिलाफ काम कर रही हैं. डायन प्रथा पर काम कर रही हैं. मगर बड़ी बड़ी अभिनेत्रियां या सेलेब्रिटी जो ट्वीट कर खुद को महिलाओं का हितैषी या नारीवादी बताती रहती हैं, वह महज ढोंग है. यह सब मौका परस्ती ही है.

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