मसला: जरूरी नहीं है स्कूलों में धार्मिक पढ़ाई-लिखाई

28फरवरी, 2023 को मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के जहांगीराबाद  इलाके के रसीदिया सीएम राइज स्कूल में 2 टीचरों का बच्चों को क्लास से बाहर निकाल कर नमाज पढ़ने का वीडियो जैसे ही सोशल मीडिया पर वायरल हुआ, तो हमेशा हिंदूमुसलिम का राग अलापने वालों के कलेजे पर जैसे सांप लोट गया. मामला खबरों की सुर्खियां बना, तो शिक्षा विभाग के आला अफसरों के कानों तक यह बात पहुंची और आननफानन में जांच के आदेश दे दिए.

जहांगीराबाद सीएम राइज रसीदिया स्कूल के ही कुछ टीचरों ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि स्कूल में नमाज पढ़ने की यह कोई नई बात नहीं है. हर शुक्रवार को यहां बच्चे भी नमाज पढ़ते हैं और इस के बारे में सब जानते हैं, लेकिन कोई कुछ नहीं कहता.

इस मामले में स्कूल के प्रिंसिपल केडी श्रीवास्तव ने तो पूरी तरह से पल्ला झाड़ते हुए कहा, ‘‘मुझे इस की जानकारी ही नहीं है और न ही मेरी नजर में कभी ऐसी कोई बात सामने आई.’’

सरकारी स्कूल में नमाज पढ़ने पर इतना बवाल मच गया, लेकिन मध्य प्रदेश के गांवकसबों के बहुत सारे स्कूल तो ऐसे भी हैं, जहां पर गणेश पूजा, दुर्गा पूजा जैसे धार्मिक आयोजन के साथसाथ रामचरितमानस के पाठ किए जाते हैं और इन में टीचर और स्टूडैंट भी हिस्सा लेते हैं.

इतना ही नहीं, सैकड़ों स्कूलों में सरस्वती के मंदिर बने हुए हैं, जिन में नियमित रूप से पूजापाठ का आडंबर भी होता है. नरसिंहपुर जिले के रायपुर हायर सैकंडरी स्कूल में तो हिंदू देवीदेवताओं गणेश, शंकर, हनुमान और सरस्वती के मंदिर टीचरों और गांव वालों ने चंदा इकट्ठा कर के बनवाए हैं. इसी तरह हायर सैकंडरी स्कूल खुर्सीपार, केएनवी स्कूल गाडरवारा में भी सरस्वती देवी के मंदिर बने हुए हैं.

मध्य प्रदेश में ऐसे हालात 2-4 स्कूलों के ही नहीं हैं, बल्कि ज्यादातर स्कूलों में तो रोज स्कूल खुलने पर पहले सरस्वती पूजा की जाती है. स्कूलों में देवीदेवताओं के मंदिर और उन में होने वाले पूजापाठ और नमाज के आयोजन साबित करते हैं कि स्कूल तालीम देने के बजाय धार्मिक अखाड़े बन कर रह गए हैं.

जानकारों का कहना है कि वैसे तो ऐसी धार्मिक गतिविधियों को ले कर शासन से कोई साफ निर्देश नहीं हैं, लेकिन ड्यूटी के दौरान किसी सरकारी परिसर या क्लास में नमाज वगैरह नहीं की जा सकती.

इस मामले में राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के अध्यक्ष प्रियंक कानूनगो का कहना है कि क्लास में धार्मिक गतिविधि करना कानूनन गलत है. इस सब के बावजूद भी स्कूलों में धार्मिक आयोजन धड़ल्ले से होते हैं.

भारत का संविधान कहता है कि हमारा देश धर्मनिरपेक्ष है, मगर धर्म के नाम पर फैली कट्टरता लोगों के बीच गहरी खाई खोदने का काम कर रही है और कुछ सरकारें इसे खादपानी दे रही हैं.

एडवोकेट जगदीश पटेल ने बताया कि कोई भी ऐसा काम सरकारी भवन या सरकारी संपत्ति पर नहीं करना चाहिए, जो किसी एक धर्म विशेष को प्रमोट करता हो. ऐसी गतिविधियों से देश की संप्रभुता, अखंडता और धर्मनिरपेक्षता पर असर पड़ता है, जो संविधान के प्रावधानों के उलट है.

सिलेबस में भरा पाखंड

कहने को तो हमारा देश धर्मनिरपेक्ष है, पर चुनी हुई सरकारों की कट्टरता की वजह से शिक्षा नीति और स्कूली सिलेबस भी धार्मिक रंग में पूरी तरह से रंगे हुए हैं. आज स्कूलों में पढ़ाए जाने वाले सिलेबस में वैज्ञानिक सोच के बजाय धर्म से जुड़ी दकियानूसी कथाकहानियों को अहमियत दी जा रही है.

हमें यह भी सोचना चाहिए कि सिलेबस में अगर किसी धर्म विशेष की बातें या उस से जुड़ी किताबें, ग्रंथ शामिल किए जाएंगे, तो इस का उलटा असर उन छात्रों पर पड़ सकता है,

जो किसी धर्म संप्रदाय को न मानने वाले हों या दूसरे धर्म, संप्रदाय से ताल्लुक रखते हों.

इस बारे में खुद नैशनल काउंसिल फौर ऐजुकेशनल रिसर्च ऐंड ट्रेनिंग (एनसीईआरटी) की स्टडी गौरतलब है, जिस के द्वारा तैयार किए गए मैन्युअल का फोकस तकरीबन इसी बात पर है कि स्कूल असैंबली में होने वाली प्रार्थनाएं और स्कूल की दीवारों पर चस्पां की गई देवीदेवताओं की तसवीरें किस तरह अल्पसंख्यक समुदाय के बच्चों में भेदभाव की भावना पैदा करते हैं.

सरकारी फंड का इस्तेमाल

जिन सरकारी स्कूल या मदरसों में धार्मिक शिक्षा दी जाती है, उन्हें सरकार लाखों रुपए फंड के रूप में देती है. संविधान का अनुच्छेद 28 कहता है कि जिस शिक्षण संस्थान को सरकार से फंडिंग मिलती है, वहां धार्मिक शिक्षा नहीं दी सकती है. लेकिन भारत में अभी ज्यादातर मदरसे संविधान के अनुच्छेद 30 के आधार पर चल रहे हैं. इस में भारत के अल्पसंख्यकों को यह अधिकार है कि वे अपने खुद के भाषाई और शैक्षिक संस्थानों की स्थापना कर सकते हैं और बिना किसी भेदभाव के सरकार से ग्रांट भी मांग सकते हैं.

भारत कहने के लिए तो एक धर्मनिरपेक्ष देश है, लेकिन यहां धार्मिक शिक्षा देने पर किसी को कोई एतराज नहीं होता है. और ऐसा नहीं है कि सिर्फ मदरसों को ही सरकार से फंडिंग मिलती है. देश में संस्कृत स्कूलों को भी सरकार से पैसे की मदद मिलती है और कई शिक्षण संस्थानों को भी अलगअलग श्रेणी में मदद दी जाती है. लेकिन इन संस्थानों और मदरसों में फर्क यह है कि मदरसों की मूल भावना में इसलाम को ही केंद्र में रखा जाता है, जबकि इन संस्थानों में धार्मिक शिक्षा पर ज्यादा जोर नहीं होता.

राजनीतिक फायदा

देश में विभिन्न दलों के लोग अपने राजनीतिक हित साधने के लिए बारबार धर्म और राजनीति का तालमेल कराने की वकालत करते हैं. इस का नतीजा यह है कि इस समय देश का सामाजिक तानाबाना किस दौर से गुजर रहा है, यह आज सब के सामने है. टैलीविजन का कोई भी चैनल लगा कर देखिए, आप को सहिष्णुता, असहिष्णुता, धर्म आधारित जनसंख्या, धर्मग्रंथ, धर्म स्थान, सांप्रदायिकता, धर्म परिवर्तन, बीफ, गौवंश, लव जिहाद, धर्मांतरण, मंदिरमसजिद जैसे विषयों पर गरमागरम बहस होती सुनाई देगी.

इन बहसों को देख कर ऐसा लगता है कि देश के सामने इस समय सब से बड़ी समस्याएं यही हैं. देश को विकास, महंगाई नियंत्रण, सामाजिक उत्थान, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, औद्योगीकरण, पर्यावरण संरक्षण, प्रदूषण नियंत्रण, सड़क, बिजली, पानी आदि की न तो जरूरत है, न ही राजनीतिक दल व मीडिया इन बातों पर बहस करनेकराने की कोई जरूरत समझते हैं.

दुनिया के सभी देशों में विद्यालय इसलिए खोले जाते हैं, ताकि बच्चों को सामान्य ज्ञान, विज्ञान, व्यावसायिक ज्ञान और उन के अपने जीवन चरित्र और राष्ट्र के विकास में काम आने वाली शिक्षाएं दी जा सकें.

जहां तक धार्मिक शिक्षा दिए जाने का सवाल है, तो इस के लिए तकरीबन सभी धर्मों में अलग धार्मिक शिक्षण संस्थाएं मौजूद हैं, जो अपनेअपने धर्म प्रचार के लिए अपने ही धर्म के बच्चों को अपनेअपने धर्मग्रंथों व अपने धर्म के महापुरुषों के जीवन परिचय और आचरण संबंधी शिक्षा देती हैं.

राजनीतिक दल धर्म और राजनीति का घालमेल करने की गरज से और समुदाय विशेष को अपनी ओर लुभाने के मकसद से अपने राजनीतिक हित साधने के लिए ये सरकारी व गैरसरकारी स्कूलों के सिलेबस में धर्मग्रंथ विशेष को शामिल कराए जाने की वकालत करते देखे जा रहे हैं. कई राज्यों में तो इस प्रकार की पढ़ाई शुरू भी कर दी गई है.

कई राज्य ऐसे भी हैं, जहां किसी एक धर्म के धर्मग्रंथ को स्कूल के सिलेबस में शामिल किए जाने का दूसरे धर्मों के लोग विरोध कर रहे हैं. उन के द्वारा यह मांग की जा रही है कि या तो अमुक धर्मग्रंथ की शिक्षाओं को सिलेबस से हटाया जाए या फिर दूसरे धर्मों के धर्मग्रंथों की शिक्षाओं को भी शामिल किया जाए.

शायद राजनीतिक लोग भी यही चाहते हैं कि इस तरह के विरोधाभासी स्वर उठें और ऐसी आवाजें बुलंद होने के चलते ही समाज धर्म के नाम पर बंटे. फिर देश के लोग रोटी, कपड़ा, मकान, विकास, बेरोजगार, महंगाई, शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली और पानी जैसे बुनियादी मसलों से दूर हो कर धर्म के नाम पर बंट जाएं और उसी आधार पर वोट डालें.

धार्मिक शिक्षा की वकालत

मध्य प्रदेश भी देश के ऐसे ही कुछ राज्यों में एक है, जहां हिंदू धर्म के प्रमुख धर्मग्रंथ के रूप में स्वीकार्य भगवत गीता और रामचरितमानस को स्कूली सिलेबस में शामिल करने का फैसला लिया गया है. स्कूलों में गीता के पाठ पढ़ाए जाने के बाद दूसरे धर्मों के लोगों ने इस मांग को ले कर विरोध प्रदर्शन किया है कि स्कूली सिलेबस में कुरान, बाइबिल और गुरुग्रंथ साहिब जैसे धर्मग्रथों के सार भी उन पुस्तकों में शामिल किए जाएं.

इस विरोध के बाद बाइबिल व गुरुग्रंथ जैसे दूसरे धर्मग्रथों की प्रमुख शिक्षाओं को भी राज्य के प्राथमिक और उच्च प्राथमिक सिलेबस में शामिल किए जाने का मसौदा सरकार ने सिलेबस तय करने वाली समिति को भेजा है.

राज्य सरकार द्वारा सिलेबस में विभिन्न धर्मों के प्रमुख धार्मिक ग्रंथों की शिक्षाओं को और इन के सार को शामिल किए जाने के पक्ष में यह तर्क दिया जा रहा है कि स्कूल के बच्चे इन की स्टडी कर के बचपन में ही नैतिक शिक्षा हासिल कर सकेंगे और अपने धर्म के साथसाथ दूसरे धर्मों की शिक्षाओं की जानकारी भी हासिल कर सकेंगे.

यह तर्क भी दिया जा रहा है कि इस कदम से बच्चों में अपने धर्म के साथ ही दूसरे धर्म के प्रति सम्मान की भावना पैदा होगी और बच्चों में सर्वधर्म समभाव का बोध विकसित होगा, लेकिन राजनीतिक दलों के नेता आएदिन धर्म के नाम पर लोगों को लड़ाने का काम करते हैं.

दूसरी तरफ सच यह भी है कि विभिन्न धर्मों के धर्मग्रंथों में कई ऐसी दकियानूसी बातें भी हैं, जो आज के वैज्ञानिक युग में गले नहीं उतरती हैं. धार्मिक कथाकहानियों में तो यही बताया गया है कि सूरज पूर्व दिशा से उग कर पश्चिम दिशा में डूबता है. पढ़ने वाले बच्चे भी सहजता से यही मान कर चलते हैं कि सूरज पृथ्वी के चारों ओर घूमता है, जबकि विज्ञान ने साबित कर दिया है कि सूरज एक तारा है और पृथ्वी उस के चारों ओर घूमती है.

इसी तरह धर्मग्रंथों में सौरमंडल के 9 ग्रहों को देवताओं की तरह पूजनीय बता कर उन की पूजापाठ का विधान बताया गया है, जबकि सचाई यह है कि हमारे सौरमंडल में 8 ग्रह बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, बृहस्पति, शनि, यूरेनस और नैप्च्यून हैं, जो सूरज के चारों ओर चक्कर काटते हैं.

दूसरी बात यह है कि धर्मग्रंथों की शिक्षा देने के लिए पहले से ही विभिन्न धर्मों के लोग अपनेअपने मदरसे, गुरुकुल, संस्कृत पाठशालाएं और गिरजाघर आदि संचालित कर रहे हैं, जिन में वे अपनेअपने धर्म के बच्चों को अपने धर्मग्रंथ व अपने धर्मगुरुओं से संबंधित शिक्षाएं देते आ रहे हैं. फिर आखिर स्कूली शिक्षा के सिलेबस में किसी भी धर्म के किसी भी धर्मग्रंथ की शिक्षा या उस के सार को शामिल करने की जरूरत ही क्या है?

धार्मिक नाम वाले स्कूल

देश में चलने वाले ज्यादातर प्राइवेट स्कूलों के नाम भी धार्मिक आधार पर रखे गए हैं. मध्य प्रदेश में सरस्वती शिक्षा परिषद हर गांवकसबे में सरस्वती शिशु मंदिर के नाम से स्कूल संचालित कर रही है और बाकायदा इन स्कूलों को सरकारी अनुदान के साथ सांसद, विधायक अपनी निधि में से लाखों रुपए की मदद देते हैं.

नरसिंहपुर जिले में ही सरस्वती शिशु मंदिर, शारदा विद्या निकेतन और श्रीकृष्णा विद्या मंदिर, लवकुश विद्यापीठ, रेवाश्री पब्लिक स्कूल, मां नर्मदा संस्कृत पाठशाला, श्री नरसिंह पब्लिक स्कूल जैसे दर्जनों स्कूल चल रहे हैं.

इसी तरह से पूरे प्रदेश में सैंट मैरी, सैंटट जोसेफ, सैंट जेवियर्स, सैंट थौमस, खालसा कालेज, राधारमण कालेज, श्रीराम इंजीनियरिंग कालेज, लक्ष्मीनारायण इंजीनियरिंग ऐंड मैडिकल कालेज, अंजुमन इसलामिया कालेज जैसे शिक्षण संस्थान धड़ल्ले से चल रहे हैं.

देश में सभी धर्मों के स्कूल चल रहे हैं, जिन में अपनेअपने धर्म की शिक्षा दी जा रही है. आज देश के नौनिहालों को वैज्ञानिक सोच विकसित करने वाली शिक्षा की जरूरत है, मगर धार्मिक कट्टरता की वजह से हम बच्चों को धार्मिक शिक्षा देने पर आमादा हैं.

धर्म से बढ़ रहा भेदभाव

धार्मिक शिक्षा हमें तार्किक बनाने के बजाय अंधविश्वासी बनाती है. ज्यादातर समस्याओं की जड़ धार्मिक शिक्षा ही है. धार्मिक शिक्षा के चलते सामाजिक व राजनीतिक कट्टरता बढ़ रही है. यह शिक्षा हमें एकदूसरे से भेदभाव करना सिखाती है.

यही वजह है कि देश के कई राज्य घरेलू हिंसा की चपेट में हैं, वहां अंदरूनी धार्मिक, पंथिक, वर्गीय संघर्ष होते रहते हैं. इस से उन्हें आर्थिक व सामाजिक नुकसान झेलना पड़ रहा है.

धार्मिक शिक्षा से समाज में प्रेम, शांति, अहिंसा, इनसानियत की गारंटी नहीं है तो फिर क्यों न ऐसी शिक्षा से दूर रहा जाए? धार्मिक शिक्षा समाज को अंधविश्वासी बनाती है.

धर्म की शिक्षा से सब से ज्यादा फायदा पंडेपुरोहित, मुल्लामौलवियों पादरी का है. यही वे लोग हैं, जो धार्मिक शिक्षा को बनाए रखने में जीजान से लगे हैं.

हर धर्मगुरु अपने धर्म को सब से बेहतर मानता है. सब का अपना अहं है, सब की एकदूसरे के साथ प्रतियोगिता है और वे सब दूसरे धर्म वालों से नफरत करते हैं. धर्म हमें बारबार हिंसा की ओर ले जाते हैं.

आज धर्म मानव कल्याण के नाम पर प्रतियोगिता मात्र बन कर रह गया है और जहां प्रतियोगिता होगी, वहां ईर्ष्या होगी. जहां ईर्ष्या होगी, वहां अशांति होगी.

इस शिक्षा की जरूरतस्कूली सिलेबस में धार्मिक शिक्षा शामिल करने से बच्चों के समय की बरबादी होगी और सांसारिक, उन के भविष्य संबंधी और व्यावसायिक शिक्षा ग्रहण करने में भी बाधा पैदा होगी.

यह जरूरी नहीं कि भविष्य में देश के दूसरे राज्य भी सभी धर्मों के धर्मग्रंथों को स्कूलों में पढ़ाए जाने की इजाजत दें और ऐसा भी मुमकिन है कि धर्म विशेष के लोगों को खुश करने के लिए विभिन्न राज्यों की सरकारों द्वारा ऐसा किया भी जाए, मगर इस में कोई दोराय नहीं कि राजनीतिबाजों द्वारा इस विषय पर जो भी फैसला लिया जाएगा, उस के पीछे बच्चों के उज्ज्वल भविष्य की चिंता तो कम, वोट बैंक साधने की फिक्र ज्यादा होगी.

वैसे भी हमारे देश में इस समय धर्मगुरुओं, प्रवचनकर्ताओं, मौलवियों, पादरियों और ज्ञानियों की एक बाढ़ सी आ गई है और यह बताने की भी जरूरत नहीं है कि ऐसे ‘महान लोग’ व धर्म के ठेकेदार हमें अपने ‘आचरण’ से क्या शिक्षा दे रहे हैं और उन में से कइयों को जेल की हवा खानी पड़ी है.

आज का स्कूली सिलेबस इस तरह का है कि वह शिक्षा आम जिंदगी में किसी काम नहीं आती. हायर सैकंडरी स्कूलों और कालेजों में इलैक्ट्रिक करंट पढ़ने के बाद भी बिजली के घरेलू उपकरणों की सामान्य मरम्मत के लिए भी बिजली मिस्त्री की मदद लेनी पड़ती है.

इसी तरह स्कूल में पढ़ाए जाने वाले संस्कृत विषय की जिंदगी में कोई उपयोगिता समझ नहीं आती. ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए बच्चों के लिए यह भाषा कथापुराण और पूजाहवन करने में काम आती है और इस की बदौलत दानदक्षिणा भी खूब मिल जाती है, मगर पिछड़े दलितों के लिए यह भाषा जबरन थोपी हुई लगती है.

आज स्कूलों में तो बच्चों को केवल विज्ञान, सामान्य ज्ञान, समाजशास्त्र, भूगोल, गणित की तालीम देने के साथसाथ व्यावसायिक शिक्षा की जरूरत ज्यादा है. आज भी देश के गांवकसबों में तकनीकी संस्थानों की कमी है.

यही वजह है कि नौजवान पीढ़ी पढ़लिख कर भी नकारा घूम रही है. धार्मिक शिक्षा की घुट्टी उसे इस तरह पिला दी गई है कि बेरोजगार नौजवान कांवड़ यात्रा, दुर्गा पूजा, गणेश पूजा और धार्मिक यात्रा, भंडारे में अपना कीमती समय गंवा रहे हैं. मौजूदा दौर में ऐसी व्यावसायिक शिक्षा की जरूरत है, जिस के बलबूते नौजवान अपनी रोजीरोटी का जुगाड़ आसानी से कर सकें.

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