कांग्रेस को सीख बड़े काम के हैं छोटे चुनाव

उत्तर प्रदेश की 9 विधानसभा सीटों के उपचुनाव में कांग्रेस ने किसी सीट पर चुनाव नहीं लड़ा. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन है, जिस को ‘इंडिया ब्लौक’ के नाम से जाना जाता है. साल 2024 के लोकसभा चुनाव में सपाकांग्रेस गठबंधन ने 43 सीटें जीती थीं, जिन में से सपा को 37 और कांग्रेस को 6 सीटें मिली थीं.

9 विधानसभा सीटों के उपचुनाव अलीगढ़ जिले की खैर, अंबेडकरनगर की कटेहरी, मुजफ्फरनगर की मीरापुर, कानपुर नगर की सीसामऊ, प्रयागराज की फूलपुर, गाजियाबाद की गाजियाबाद, मिर्जापुर की मझवां, मुरादाबाद की कुंदरकी और मैनपुरी की करहल विधानसभा सीटें शामिल हैं.

उत्तर प्रदेश की इन 9 विधानसभा सीटों पर साल 2022 में हुए विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने सब से ज्यादा 4 सीटें जीती थीं. भाजपा ने इन में से 3 सीटें जीती थीं. राष्ट्रीय लोकदल और निषाद पार्टी के एकएक उम्मीदवार इन सीटों पर विजयी हुए थे. कानपुर नगर की सीसामऊ सीट साल 2022 में यहां से जीते समाजवादी पार्टी के इरफान सोलंकी को अयोग्य करार दिए जाने से खाली हुई थी.

समाजवादी पार्टी ने सभी 9 सीटों पर उम्मीदवार उतारे हैं. कांग्रेस पहले इस चुनाव में 5 सीटों को अपने लिए मांग रही थी. समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस के लिए महज 2 सीटें छोड़ी थीं. कांग्रेस ने मनमुताबिक सीट नहीं मिलने के चलते उपचुनाव न लड़ने का फैसला लिया. उत्तर प्रदेश के कांग्रेस प्रभारी अविनाश पांडेय ने साफ कहा कि कांग्रेस पार्टी चुनाव नहीं लड़ेगी.

अविनाश पांडेय ने कहा कि आज सब दलों को मिल कर संविधान को बचाना है. अगर भाजपा को नहीं रोका गया, तो आने वाले समय में संविधान, भाईचारा और आपसी सम?ा और भी कमजोर हो जाएगी.

हरियाणा की हार से कांग्रेस में निराशा का माहौल है. राहुल गांधी के नेतृत्व पर सवाल उठने लगे हैं. उत्तर प्रदेश के उपचुनाव में कांग्रेस हार जाती, तो उन के लिए एक और मुश्किल खड़ी हो जाती.

नरेंद्र मोदी और भाजपा से लड़ने के लिए कांग्रेस अपनी जमीन छोड़ती जा रही है, जिस का असर आने वाले समय पर पड़ेगा खासकर हिंदी बोली वाले इलाकों में, जहां पर कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधा मुकाबला है, वहां कांग्रेस को कोई चुनाव छोटा सम?ा कर छोड़ना नहीं चाहिए.

केवल विधानसभा और लोकसभा चुनाव लड़ने से ही काम नहीं चलने वाला है. कांग्रेस को अगर अपने को मजबूत करना है, तो उसे पंचायत चुनाव और शहरी निकाय चुनाव भी लड़ने पड़ेंगे, तभी उस का संगठन मजबूत होगा और बूथ लैवल तक कार्यकर्ता तैयार हो सकेंगे.

मजबूत करते हैं छोटे चुनाव पंचायत और शहरी निकाय के चुनाव हर 5 साल में पंचायती राज कानून के तहत होते हैं. इन में जातीय आरक्षण और महिला आरक्षण दोनों शामिल हैं. इन चुनाव में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण दिया गया है.

पंचायती राज कानून प्रधानमंत्री राजीव गांधी के समय में साल 1984 में लागू हुआ था. पंचायत और निकाय चुनाव विधानसभा और लोकसभा चुनाव की नर्सरी जैसे हैं.

राजनीति में नेताओं की पौध पहले छात्रसंघ चुनावों से तैयार होती थी. आज के नेताओं में तमाम नेता ऐसे हैं, जो छात्रसंघ चुनाव से आगे बढ़ कर नेता बने. इन में वामदल और कांग्रेस दोनों शामिल हैं. छात्रसंघ चुनावों पर रोक लगने के बाद से पंचायत और निकाय चुनाव राजनीति की नर्सरी बन गए हैं.

कांग्रेस ने पिछले कुछ सालों से पंचायत और निकाय चुनाव में गंभीरता से लड़ना बंद कर दिया है, जिस के चलते उन का संगठन बूथ लैवल तक नहीं पहुंच रहा और नए नेताओं की पौध भी वहां तैयार नहीं हो पा रही है. पंचायत चुनाव और शहरी निकाय चुनाव का माहौल विधानसभा और लोकसभा चुनाव जैसा होने लगा है.

पंचायत चुनावों में राजनीतिक दल अपनी पार्टी के चिह्न पर चुनाव भले ही नहीं लड़ते हैं, लेकिन उन्हें किसी न किसी पार्टी का समर्थन होता है. शहरी निकाय चुनाव पार्टी के चिह्न पर लड़े जाते हैं.

पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने पंचायत चुनाव की अहमियत को सम?ा और साल 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को जो कामयाबी मिली, उसे रोकने के लिए पूरे दमखम से पंचायत और विधानसभा चुनाव लड़ कर साल 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को रोकने में कामयाबी हासिल कर ली.

पश्चिम बंगाल की 63,229 ग्राम पंचायत सीटों में से तृणमूल कांग्रेस ने 35,359 सीटें जीती थीं. वहीं दूसरे नंबर पर रही भाजपा ने 9,545 सीटों पर जीत हासिल की थी.

ममता बनर्जी ने पंचायत चुनाव के जरीए ही 16 साल पहले राज्य में अपनी पार्टी को मजबूत किया और विधानसभा चुनाव जीते थे. वहां से ही लोकसभा चुनाव में कामयाबी हासिल कर के पश्चिम बंगाल से कांग्रेस और वामदलों को राज्य से बेदखल कर दिया.

दूसरे राज्यों को देखें, तो जिन दलों ने पंचायत और निकाय चुनाव लड़ा, वे राज्य की राजनीति में असरदार साबित हुए. उत्तर प्रदेश और बिहार में समाजवादी पार्टी और राजद दोनों ही पंचायत चुनावों में सब से प्रभावी ढंग से हिस्सा लेती है, जिस की वजह से विधानसभा और लोकसभा चुनाव में भी सब से प्रमुख दल के रूप में चुनाव मैदान में होते हैं.

उत्तर प्रदेश के 75 जिलों में जिला पंचायत सदस्य की 3,050 सीटें हैं. 3,047 सीटों पर हुए चुनाव में मुख्य मुकाबला भाजपा और सपा के बीच था. भाजपा ने 768 और सपा ने 759 सीटें जीती थीं.

साल 2021 में उत्तर प्रदेश में हुए ग्राम पंचायत चुनाव में 58,176 ग्राम प्रधानों सहित 7 लाख, 31 हजार, 813 ग्राम पंचायत सदस्यों ने जीत हासिल की थी. वैसे तो ये चुनाव पार्टी चुनाव चिह्न पर नहीं लड़े गए थे, लेकिन ब्लौक प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव में क्षेत्र विकास समिति और जिला पंचायत सदस्य के साथ ग्राम प्रधान और पंचायत सदस्य वोट देते हैं. ऐसे में हर पार्टी ज्यादा से ज्यादा अपने लोगों को यह चुनाव जितवाना चाहती है.

पंचायत चुनाव की ही तरह से शहरी निकाय चुनाव होते हैं. इन चुनावों में पार्टी अपने उम्मीदवार खड़े करती हैं. इस में पार्षद, नगरपालिका, नगर पंचायत और मेयर का चुनाव होता है.

उत्तर प्रदेश के 75 जिलों में कुल 17 नगरनिगम यानी महापालिका, 199 नगरपालिका परिषद और 544 नगर पंचायत हैं. इन सभी के चुनाव स्थानीय निकाय चुनाव होते हैं. नगरनिगम सब से बड़ी स्थानीय निकाय होती है, उस के बाद नगरपालिका और फिर नगर पंचायत का नंबर आता है.

पंचायत चुनाव और निकाय चुनाव खास इसलिए भी होते हैं, क्योंकि ये कार्यकर्ताओं के चुनाव होते हैं, जो पार्टियों को लोकसभा और विधानसभा जिताने में खास रोल अदा करते हैं. यहां कार्यकर्ता और उम्मीदवार दोनों को अपने वोटरों का पता होता है.

देखा यह गया है कि पंचायत और निकाय चुनावों में जिस पार्टी का दबदबा होता है, लोकसभा या विधानसभा चुनावों में उस के अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद भी बढ़ जाती है.

बात केवल उत्तर प्रदेश की ही नहीं है, बल्कि बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और दिल्ली का भी यही हाल है. जिस प्रदेश में जो पार्टी पंचायत और निकाय चुनाव में मजबूत होती है, वह विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में भी अच्छा प्रदर्शन दिखाती है. उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल इस के सब से बड़े उदाहरण हैं. यहां भाजपा और तृणमूल कांग्रेस ने पंचायत चुनाव में सब से अच्छा प्रदर्शन किया था, तो विधानसभा और लोकसभा में भी उन का अच्छा प्रदर्शन रहा है.

बिहार में 8,053 ग्राम पंचायतें हैं, जबकि यहां गांवों की संख्या 45,103 हैं. मध्य प्रदेश के 52 जिलों में 55,000 से ज्यादा गांव हैं. 23,066 ग्राम पंचायतें हैं.

राजस्थान में 11,341 ग्राम पंचायतों के चुनाव है. वहां इन चुनाव की बड़ी राजनीतिक अहमियत है. विधानसभा चुनाव के बाद जनता की सब से ज्यादा दिलचस्पी इन चुनावों में होती है. राजस्थान और हरियाणा में सरपंच यानी मुखिया की बात की अहमियत उत्तर प्रदेश और बिहार से ज्यादा है. इस की सब से बड़ी वजह यह है कि राजस्थान और हरियाणा में खाप पंचायतों का असर रहा है. पंचायती राज कानून लागू होने के बाद खाप पंचायतों का असर खत्म हुआ और वहां चुने हुए मुखिया यानी सरपंच का असर होने लगा.

छोटे चुनावों का बड़ा आधार

पंचायत चुनावों में महिलाओं के लिए आरक्षण होने के चलते अब महिलाएं यहां मुखिया बनने लगी हैं. बहुत सारे पुरुष समाज को यह मंजूर नहीं था, लेकिन मजबूरी में सहन करना पड़ता है. एक ग्राम पंचायत में 7 से 17 सदस्य होते हैं. इन को गांव का वार्ड कहा जाता है. इस के चुने हुए सदस्य को पंच कहा जाता है.

पंचायत चुनाव में जनता 4 लोगों का चुनाव करती है. इन में प्रधान या सरपंच या मुखिया के नाम से जाना जाता है. इस के बाद पंच के लिए वोट पड़ता है. तीसरा वोट क्षेत्र पंचायत समिति और चौथा जिला पंचायत सदस्य के लिए होता है.

छोटे चुनाव का बड़ा आधार होता है. इस की 2 बड़ी वजहें हैं. पहली यह कि यहां चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार और वोटर के बीच जानपहचान सी होती है. फर्जी वोट और वोट में होने वाली गड़बड़ी को पकड़ना आसान होता है. इन चुनावों में आरक्षण होने के चलते हर जाति के वोट लेने पड़ते हैं. ऐसे में सभी को बराबर का हक देना पड़ता है.

यहां पार्टी की नीतियां नहीं चलती हैं. ऐसे में जो अच्छा उम्मीदवार होता है, वह चुनाव जीत लेता है. यह उम्मीदवार अगर विधानसभा और लोकसभा चुनाव तक जाएगा, तो चुनावी राजनीति की दिशा में बदलाव होगा.

‘ड्राइंगरूम पौलिटिक्स’ से चुनाव को जीतना आसान नहीं होता है. पंचायत और निकाय चुनाव लड़ने वाले नेता को मेहनत करने की आदत होती है. वह पार्टी के लिए मेहनत करेगा. कांग्रेस के लिए जरूरी है कि वह छोटे चुनावों की बड़ी अहमियत को समझे.

ज्यादा से ज्यादा तादाद में ज्यादा से ज्यादा चुनाव लड़ना कांग्रेस की सेहत को ठीक करने का काम करेगा. इस से गांवगांव, शहरशहर बूथ लैवल पर उस के पास कार्यकर्ताओं का संगठन तैयार होगा, जो विधानसभा और लोकसभा चुनाव को जीतने लायक बुनियादी ढांचा तैयार कर सकेगा.

नौजवानों में बढ़ रहा चुनावों का आकर्षण

जिस तरह से छात्रसंघ चुनाव लड़ने के लिए कालेज में पढ़ने वाले नौजवान पहले उतावले रहते थे, अब वे पंचायत और निकाय का चुनाव लड़ने के लिए तैयार रहते हैं.

पिछले 10 सालों को देखें, तो हर राज्य में औसतन 60 फीसदी पंचायत चुनाव लड़ने वालों की उम्र 40 साल से कम रही है. इन में से कई ने अपने कैरियर को छोड़ कर चुनाव लड़ा और जीते. कांग्रेस इन नौजवानों के जरीए राजनीति में बड़ी इबारत लिख सकती है. ये नौजवान जाति और धर्म से अलग हट कर राजनीति करते हैं.

प्रयागराज के फूलपुर विकासखंड के मुस्तफाबाद गांव के रहने वाले आदित्य ने एमबीए जैसी प्रोफैशनल डिगरी लेने के बाद नौकरी नहीं की, बल्कि अपने गांव की बदहाली को ठीक करने की ठानी. अपने अंदर एक जिद पाली कि गांव में ही बेहतर करेंगे. यहां की दशा सुधार कर ही दम लेंगे.

गांव में बिजली नहीं थी, तो आदित्य ने खुद के पैसे से विद्युतीकरण करा दिया. गांव में बिजली आई, तो सभी आदित्य के मुरीद हो गए. उसे अपना मुखिया चुनने का मन बनाया. आदित्य ने चुनाव जीत कर प्रयागराज के सब से कम उम्र के ग्राम प्रधान बनने में कामयाबी हासिल की.

हरियाणा पंचायत चुनाव में 21 साल की अंजू तंवर सरपंच बनीं. अंजू खुडाना गांव की रहने वाली हैं. खुडाना गांव के सरपंच की सीट महिला के लिए आरक्षित थी. गांव की ही बेटी अंजू तंवर को चुनाव लड़ाने का फैसला किया गया.

खुडाना गांव की आबादी तकरीबन 10,000 है. तकरीबन 3,600 वोट चुनाव के दौरान डाले गए थे, जिन में से सब से ज्यादा 1,300 वोट अंजू तंवर को मिले थे. अंजू के परिवार से कोई भी राजनीति में नहीं है. वे अपने परिवार से राजनीति में आने वाली पहली सदस्य हैं.

मध्य प्रदेश के बालाघाट जिले में निर्मला वल्के सब से कम उम्र की सरपंच बनी हैं. स्नातक की पढ़ाई करने के दौरान उन्होंने परसवाड़ा विकासखंड की आदिवासी ग्राम पंचायत खलोंडी से चुनाव लड़ा और जीत हासिल की. आदिवासी समाज से एक छात्रा को पढ़ाई की उम्र में गांव की सरपंच बनना समाज व गांव की जागरूकता का ही हिस्सा कहा जा सकता है.

पूरे देश में ऐसे बहुत से उदाहरण हैं, जहां नौजवानों ने पंचायत और निकाय चुनाव में जीत हासिल की है. ऐसे में नौजवान चेहरों को आगे लाने में कांग्रेस अहम रोल अदा कर सकती है.

कांग्रेस जाति और धर्म की राजनीति में फिट नहीं हो पाती है. पंचायत और निकाय चुनाव में जाति और धर्म का असर कम होता है. ऐसे में अगर इन चुनाव में कांग्रेस लड़े और नौजवानों को आगे बढ़ाए, तो देश की राजनीति से जाति और धर्म को खत्म करने मे मदद मिल सकेगी.

इस से कांग्रेस का अपना चुनावी ढांचा मजबूत होगा. छोटे चुनावों को कमतर आंकना ठीक नहीं होता है. जब कांग्रेस ताकतवर थी, तब वह इन चुनावों को लड़ती और जीतती थी.

पूरे देश में कांग्रेस अकेली ऐसी पार्टी है, जो भाजपा को रोक सकती है. इस के लिए उसे अपने अंदर बदलाव और आत्मविश्वास को बढ़ाना होगा. इस के लिए छोटे चुनाव बड़े काम के होते हैं.

सलमान के बाद बिहार के पप्पू यादव पर क्यों मंडराया लौरेंस बिश्नोई को खौफ

सलमान खान (Salman khan) पर लोरेंश बिश्नोई गैंग (Lawerence bishnoi gang) का खतरा मंडरा रहा था. उनको एक बार फिर से जान से मारने की धमकियां मिल रही थी. इसी बीच बिहार के बाहुबली नेता कहे जाने वाला पूर्णिया सांसद पप्पू यादव(Pappu Yadav) भी इन धमकियों का शिकार हो रहे है. पप्पू यादव को भी लोरेंस गैंग की तरफ से लिख कर धमकियां मिल रही है. जिसकी शिकायत भी पुलिस में दर्ज हुई है. हालांकि, सलमान खान से लोरेंस की धमकियां का कारण तो सभी मीडिया खबरों में वायरल है. लेकिन पप्पू यादव तक ये गैंग कैसे पहुंचा जानते है.

दरअसल, पप्पू यादव का खुद कहना है कि मुझे लोरेंस गैंग से धमकियां मिल रही हैं और मेरी हत्या हो जाती है तो इसकी जिम्मेदार सरकार होगी. पप्पू ने हर जिले में अपने लिए पुलिस एस्कोर्ट और कार्यक्रम स्थल पर सुरक्षा टाइट करवा दी है. लेकिन एक नेता होने के कारण उन्होंने लोरेंस बिश्नोई गैंग की लगातार दे रहे अंजामों पर गौर किया और इसके विरोध में उतरे. उन्होंने कहा कि मैं एक राजनीतिक व्यक्ति होने के कारण लोरेंस बिश्नोई का विरोध करता हूं. जिस कारण से लौरेंस ने मुझे भी धमकी भरे खत लिख कर मुझे जान से मारने की धमकी दी है. इतना ही नहीं ये धमकियां मोबाइल से भी दी गई है.

हालांकि, दिल्ली पुलिस में ये सब शिकायतों को दर्ज कराया गया है. शिकायत कनौट प्लेस थाने में दर्ज हुई है. एक शिकायत में यह दावा भी किया गया है कि शिकायत कराने वाले यादव के निजी सहायक (पीए) मोहम्मद सादिक आलम है जिन्होंने बताया है कि बृहस्पतिवार को उनके मोबाइल फोन पर दो संदेश आए, जिनमें भेजने वाले ने खुद को बिश्नोई गिरोह का मेंबर बताया और कहा कि वे यादव को जान से मार देंगे.

सुरक्षो हो टाइट

पप्पू यादव ने गृह मंत्रालय से ‘जेड’ श्रेणी की सुरक्षा देने की मांग की है. पप्पू का कहना था कि अभी मुझे ‘वाई’ श्रेणी की सुरक्षा दी जा रही है. लेकिन लगातार धमकियां मिलने से जान को खतरा ज्यादा है. सिक्योरिटी को ओर टाइट करना चाहिए. पप्पू ने चिट्ठी में यह भी बताया कि इससे पहले भी मुझ पर और मेरे परिवार के सदस्यों पर हमला हुआ है. पप्पू यादव के मुताबिक धमकी देने वाले ने दावा किया है कि लोरेंस बिश्नोई जेल से ही पप्पू यादव से बात करने की कोशिश कर रहा है.

बताते चले की सांसद पप्पू यादव के निवास अर्जुन भवन को उड़ाने की धमकी मिली थी. इन धमकियों के पीछे लोरेंस बिश्नोई गैंग का ही नाम सामने आया था. हालांकि, पुलिस की जांच के दौरान कुछ और ही कहानी निकली. पूर्णिया पुलिस के मुताबिक, यह लेटर फर्जी निकला. पूर्णिया के एसपी ने बताया कि पप्पू यादव को जितनी भी धमकियां मिली हैं, उन्हें पुलिस गंभीरता से ले रही है. लेकिन, सांसद के निवास को उड़ाने का मामला फर्जी पाया गया है.

हालांकि पुलिस की जांच के दौरान कुछ और ही कहानी निकली. पूर्णिया पुलिस के मुताबिक, यह लेटर फर्जी है. पूर्णिया के एसपी बताया कि पप्पू यादव को जितनी भी धमकियां मिली हैं, उन्हें पुलिस गंभीरता से ले रही है.

पप्पू यादव की पार्टी और उनकी पत्नी

राजेश रंजन जिन्हें ‘पप्पू यादव’ के नाम से जाना जाता है. एक राजनीतिज्ञ हैं. इनका जन्म 24 दिसंबर 1969 को हुआ. इन्होंने बिहार के कई निर्वाचन क्षेत्रों से निर्दलीय चुनाव जीते है. पप्पू यादव 2015 में ‘सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाले’ सांसदों में से एक बने वर्तमान में जन अधिकार पार्टी (लोकतांत्रिक) के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.इन्होंने आम चुनावों में शरद यादव को हराया है. उनकी पत्नी रंजीत रंजन सुपौल से भी सांसद थीं, लेंकिन 2019 के आम चुनाव में जद(यू) से हार गईं थी. बता दें कि पप्पू यादव को राजनीतिक दल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी है.

नरेंद्र मोदी और अमित शाह की रणनीति चारों खाने चित

भा रतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी की सत्ता आने के बाद जिस तरह से जम्मूकश्मीर और वहां की अवाम को दर्द ही दर्द मिला है, क्या उसे कोई भूल सकता है? यहां तक कि नागरिकों के अधिकार नहीं रहे और बंदूक के साए में अब देश की सब से बड़ी अदालत के आदेश के बाद चुनाव होने जा रहे हैं. यह एक ऐसा रास्ता है, जो लोकतांत्रिक की मृग मरीचिका का आभास देता है.

मगर सितंबर, 2024 में होने वाले विधानसभा चुनाव की जो रणनीति कांग्रेस बना रही है, उस में नरेंद्र मोदी और अमित शाह का पूरा खेल बिगड़ता दिखाई दे रहा है. भाजपा किसी भी हालत में यहां सत्ता में आती नहीं दिखाई दे रही है, जिस का आगाज लोकसभा चुनाव में भी नतीजे के रूप में हमारे सामने है.

इधर, फारूक अब्दुल्ला ने जिस तरह सामने आ कर मोरचा संभाला है और  विधानसभा चुनाव लड़ने की रणनीति बनाई है, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि नरेंद्र मोदी की रणनीति चारों खाने चित हो चुकी है.

कांग्रेस प्रमुख मल्लिकार्जुन खड़गे और राहुल गांधी श्रीनगर पहुंचे थे. मल्लिकार्जुन खड़गे ने जम्मूकश्मीर के आगामी विधानसभा चुनाव के लिए दूसरे विपक्षी दलों के साथ गठबंधन करने की इच्छा जताई और केंद्रशासित प्रदेश के लोगों से भारतीय जनता पार्टी के वादों को ‘जुमला’ करार दिया.

मल्लिकार्जुन खड़गे ने लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी के साथ श्रीनगर में कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं से विधानसभा चुनावों की जमीनी स्तर की तैयारियों के बारे में जानकारी ली. उन्होंने कहा कि ‘इंडी’ गठबंधन ने एक तानाशाह को पूरे बहुमत के साथ (केंद्र में) सत्ता में आने से रोका है. यह गठबंधन की सब से बड़ी कामयाबी है. कांग्रेस ने राज्य का दर्जा बहाल करने की पहल की है. हम इस दिशा में काम करने का वादा करते हैं. राहुल गांधी की जम्मूकश्मीर में चुनाव से पहले गठबंधन बनाने में दिलचस्पी है. वे दूसरी पार्टियों के साथ मिल कर चुनाव लड़ने के इच्छुक हैं.

कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने आगे कहा कि दरअसल, भाजपा लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद चिंतित है, क्योंकि वे लोग जिन विधेयकों को पास कराना चाहते थे, उन में करारी मात मिली है.

पूर्ण राज्य का दर्जा

कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के श्रीनगर दौरे से राजनीति में एक गरमाहट आ गई है. राहुल गांधी ने कहा कि जम्मूकश्मीर का पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल करना कांग्रेस और विपक्षी गठबंधन ‘इंडी’ की प्राथमिकता है. यह उन की पार्टी का लक्ष्य है कि जम्मूकश्मीर और लद्दाख के लोगों को उन के लोकतांत्रिक अधिकार वापस मिलें.

कांग्रेस और ‘इंडी’ गठबंधन की प्राथमिकता है कि जम्मूकश्मीर का पूर्ण राज्य का दर्जा जल्द से जल्द बहाल किया जाए. हमें उम्मीद थी कि चुनाव से पहले ऐसा कर दिया जाएगा, लेकिन चुनाव घोषित हो गए हैं. हम उम्मीद कर रहे हैं कि जल्द से जल्द पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल किया जाएगा और जम्मूकश्मीर के लोगों के अधिकार बहाल किए जाएंगे.

आजादी के बाद यह पहली बार है कि कोई राज्य केंद्रशासित प्रदेश बन गया है. यहां कोई विधानपरिषद, कोई पंचायत या नगरपालिका नहीं है. लोगों को लोकतंत्र से दूर रखा गया है.

मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के 30 सितंबर तक चुनाव कराने के निर्देश के चलते ही जम्मूकश्मीर में विधानसभा चुनाव की घोषणा की गई है.

चुनाव से पहले जम्मूकश्मीर के लोगों से किया गया एक भी वादा पूरा नहीं किया गया है. कुलमिला कर कांग्रेस नेताओं ने जिस तरह जम्मूकश्मीर में मोरचाबंदी की है, उस से नरेंद्र मोदी और अमित शाह के मनसूबे ध्वस्त होंगे, ऐसा लगता है.

फारूक अब्दुल्ला और कांग्रेस

जम्मूकश्मीर में जो नए राजनीतिक समीकरण बन रहे हैं, उन से साफ दिखाई दे रहा है कि फारूक अब्दुल्ला, जो जम्मूकश्मीर के सब से बड़े नेता और चेहरे हैं, ने कांग्रेस के साथ मिल कर चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है और यह गठबंधन अगर बन जाता है, तो इस की सरकार बनने की पूरी संभावना है, क्योंकि इन के सामने सारे नेता बौने हैं. वहीं राहुल गांधी और ‘इंडी’ गठबंधन का अब समय आ गया है, यह दिखाई देता है.

यहां चुनाव 18 सितंबर, 25 सितंबर और 1 अक्तूबर को होंगे. नतीजे 4 अक्तूबर को घोषित किए जाएंगे.

फारूक अब्दुल्ला ने कहा कि कांग्रेस के साथ मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी (माकपा) के (एमवाई) तारिगामी भी हमारे साथ हैं. मुझे उम्मीद है कि हमें लोगों का साथ मिलेगा और हम लोगों

के जीवन को बेहतर बनाने के लिए भारी बहुमत से जीतेंगे. इस के पहले राहुल गांधी ने भरोसा दिया था कि जम्मूकश्मीर के लिए पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल करना कांग्रेस और ‘इंडी’ गठबंधन की प्राथमिकता है.

फारूक अब्दुल्ला ने उम्मीद जताई कि सभी ताकतों के साथ पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल किया जाएगा. राज्य का दर्जा हम सभी के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है. इस का हम से वादा किया गया है. इस राज्य ने बुरे दिन देखे हैं और हमें उम्मीद है कि इसे पूरी शक्तियों के साथ बहाल किया जाएगा. इस के लिए हम ‘इंडी’ गठबंधन के साथ एकजुट हैं.

महत्त्वपूर्ण तथ्य सामने आया है कि चुनाव से पहले या चुनाव के बाद गठबंधन में महबूबा मुफ्ती के नेतृत्व वाली पीडीपी की मौजूदगी से भी नैशनल कौंफ्रैंस के नेता फारूक अब्दुल्ला ने इनकार नहीं किया है.

देसी नेताओं का सूटबूट में लुक्स है वायरल, टशन दिखाने में नहीं है किसी से कम

भारत में एक से बढ़ कर एक नेता हैं. कई तो यंग हैं, जो आज भी बिलकुल उसी तरह के कपड़े पहनना पसंद करते हैं, जो कभी आजादी के वक्त पहने जाते थे. ज्यादातर नेताओं की पोशाक अमूमन देसी ही देखी गई है, लेकिन अब ऐसा नहीं है, क्योंकि कई नेता काफी स्टाइलिश हैं और सूटबूट पहना करते हैं.

 

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रवि किशन

रवि किशन, जो गोरखपुर से भारतीय जनता पार्टी के सांसद हैं, का असल लुक काफी बदला है. पहले वे बिना दाढ़ीमूंछों के हंसमुख चेहरे के लिए जाने जाते थे, लेकिन अब वे घनी दाढ़ीमूंछों के साथ एक गंभीर लुक में नजर आते हैं. साथ ही, उन्हें हर तरह के स्टाइलिश लुक में भी देखा गया है. वे कभी देसी अवतार में नजर आते हैं, तो कभी सूटबूट के साथ, लेकिन ज्यादातर चुनावी दौर में उन्हें देसी लिबास में ही देखा गया है.

तेजस्वी सूर्या

तेजस्वी सूर्या, जो बैंगलुरु दक्षिण से भारतीय जनता पार्टी के सांसद हैं, का लुक काफी आकर्षक और युवा है. वे अकसर औफिशियल कपड़ों में नजर आते हैं, जैसे कि सूट और टाई, जो उन का पहनावा है. उन के बाल छोटे हैं  और वे अकसर बिना दाढ़ीमूंछों के साफसुथरे लुक में दिखते हैं. तेजस्वी सूर्या देसी लिबास में बेहद कम नजर आते हैं.

चंद्रशेखर आजाद

चंद्रशेखर आजाद का लिबास उन के क्रांतिकारी जीवन का प्रतीक है. वे अकसर धोतीकुरता पहनते हैं, जो उस समय के भारतीय ग्रामीण और साधारण लोगों की एक पहचान है. उन के पहनावे में सादगी और भारतीयता की झलक मिलती है. लेकिन ऐसा नहीं है कि उन्हें कभी सूटबूट में नहीं देखा गया है. वे सूटबूट के भी शौकीन रहे हैं.

चिराग पासवान

चिराग पासवान भी उन नेताओं की लिस्ट में आते हैं, जो देसी लिबास कैरी करने में बिलकुल नहीं शरमाते हैं. हालफिलहाल में चिराग पासवान ने एक इवैंट में अपने देसी लुक से सब का ध्यान खींचा था. उन्होंने ब्लैक शेरवानी पहनी थी, जिस में ग्रे धागों से कढ़ाई की गई थी. इस लुक में उन्होंने हील वाले ब्लैक लेदर के शूज और गोल्डन रिंग्स पहनी थीं. उन की यह ट्रैडिशनल आउटफिट और बियर्ड लुक उन्हें काफी हैंडसम और डैशिंग दिखा रहा था. इस के अलावा कई दफा चिराग पासवान सूटबूट में भी नजर आ चुके हैं.

अखिलेश यादव

अखिलेश यादव का लुक अकसर चर्चा में रहता है खासकर जब वे पब्लिक कार्यक्रमों में शामिल होते हैं. वे टोपी के साथ देसी लुक में दिखाई देते हैं. उन का पहनावा आमतौर पर सफेद कुरतापाजामा और लाल टोपी का होता है, जो समाजवादी पार्टी का प्रतीक है. यह लुक उन्हें एक पहचान देता है और उन के समर्थकों के बीच काफी लोकप्रिय बनाता है.

किसान नेता Rakesh Tikait को खाना खिला रही पोती का वीडियो वायरल, दादू नंबर 1

किसान नेता Rakesh Tikait को खाना खिला रही पोती का वीडियो वायरल, पोतेपोती है खास प्यार
राकेश टिकैत का नाम ही किसान आंदोलन के दिनों से चर्चा में रहता आया है. कभी यह जोरदार भाषणों से रैलियों को संबोधित करते नजर आते हैं, तो कभी सरकार की किसान नीतियों पर बहस करते दिखते हैं. ऐसे कद्दावर नेता का एक वीडियो वायल हो रहा है, जिसमें वह अपने घर की एक छोटी सी बच्ची के हाथों से खाना खाते दिख रहे हैं. उनकी ऐसी सौफ्ट छवि को शायद ही किसी ने देखा होगा क्योंकि उनकी इमैज हमेशा से एक फायर ब्रांड नेता की रही है. राकेश टिकैत के इस वीडियो को देखने वाले में से एक सोशल मीडिया यूजर ने लिखा है कि यह दादापोती का प्यार है, तो किसी ने लिखा है कि चौधरी राकेश सिंह टिकैत के परिवार पर सदैव ईश्वर की कृपा बनी रहे.

 

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पोते को भी दुलारने का वीडियो वायरल

किसान नेता के रूप में मशहूर राकेश टिकैत ने एमए तक की स्टडी की है. ऐसा भी कहा जाता है कि उनके पास वकालत की भी डिग्री है. इन दिनों वे भारतीय किसान यूनियन के नेता के तौर पर भी जाने जाते हैं. राकेश टिकैत को सोशल मीडिया प्लैटफौर्म पर पोते के साथ खेलते हुए देखा जा सकता है. इस प्लेटफौर्म पर वे अकसर रैलियों और भाषणों की वीडियो डालते रहते हैं, लेकिन कुछ वीडियोज ऐसे हैं, जिसमें पोतेपोती के लिए उनका दुलार साफ नजर आता है. इससे पहले भी उनका एक वीडियो वायरल हुआ था जिस में वे अपने पोते को गन्ने का जूस पिलाते हुए दिख रहे थे. उनके पोते को यूजर्स फ्यूचर चौधरी साहब का नाम दे रहे हैं.

टिकैत कैसे बने किसान नेता

राकेश टिकैत के बारे में कहा जाता है कि साल 1985 में दिल्ली पुलिस में कौंस्टेबल के पद पर काम कर रहे थे. उसके बाद वे सब-इंसपैक्टर बने. लेकिन अपने पिता महेंद्र सिंह टिकैत को किसान आंदोलन में साथ देने के लिए उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी और आंदोलन में शामिल हो गए, उसी समय से वे किसान नेता के तौर पर किसानों की आवाज को उठाते रहते हैं. साल 2017 में राकेश टिकैत ने एक बार मुजफ्फरनगर से निर्दलीय चुनाव लड़ा लेकिन वे बुरी तरह हार गए. उन्होंने राष्ट्रीय लोकदल के टिकट से साल 2014 में भी चुनाव लड़ा लेकिन इसमें भी सफलता उनके हाथ नहीं लगी. भले ही वह किसानों के बड़े नेता है लेकिन आज भी प्रत्यक्ष राजनीति से दूर हैं

डिंपल यादव है अखिलेश की परफेक्ट वाइफ, दोनों की कैमिस्ट्री है सुपरहिट

समाजवादी पार्टी के प्रमुख और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और उनकी पत्नी डिंपल यादव सुर्खियों में रहते है. पति पत्नी की ये जोड़ी को खूब पसंद किया जाता है. लेकिन, डिपंल यादव, अखिलेश की परफेक्ट पत्नी है इस बात का जवाब डिपंल भी समय समय पर देती रही है. डिपंल यादव जितना राजनीति में उनके साथ एक्टिव उतना ही एक परफेक्ट वाइफ होने के लिए परफेक्ट है.दोनो की कैमिस्ट्री को भी खूब पसंद किया जाता है.

 

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डिपंल और अखिलेश की लव स्टोरी भी वायरल है. उनके लव के चर्चे राजनीति में जोरो शोरो से होते रहे है, वही, खई बार सांसद में दोनों के रिएक्शन भी ऐसे रहे है कि दोनों एक दूसरे को चीयर करते हुए नजर आए है. डिपंल यादव और अखिलेश यादव ने अपनी एक दूसरे का साथ बौंडिग को सांसद में सबके सामने भी दिखाया है.

संसद में करती है पति अखिलेश को चीयर

डिपंल यादल और अखिलेश यादव कन्नौज की सांसद में बैठे थे. अखिलेश यादव के भाषण के दौरान उनकी पत्नी और मैनपुरी से सांसद डिंपल यादव उनके ठीक पीछे बैठी थीं. अखिलेश ने जिस प्रकार से भाजपा को विभिन्न मुद्दों पर घेरा, उस दौरान डिंपल के इमोसन देखने लायक थे. कई मौकों पर वह खिलखिलाकर हंसती दिखाई दी. एक मौके पर डिंपल यादव मेज थपथपाकर हंसती दिखाई दी. डिपंल, अखिलेश का साथ देने से कभी भी पिछे नहीं हटती है.

जब साथ साथ बनें थे सांसद

दोनों की कैमिस्ट्री तब भी सुर्खियों में थी जब सपा चीफ अखिलेश यादव और उनकी पत्नी डिंपल यादव पहली बार एक साथ लोकसभा जा रहे हैं. ऐसे में अखिलेश और डिंपल, यूपी के पहले दंपत्ति होने जा रहे हैं, जो एक साथ सांसद बने हैं और एक साथ ही लोकसभा पहुंच रहे हैं.politics

प्यार से शादी तक दिया पूरा साथ

दोनों की प्रेम कहानी के किस्से भी मौजूद है. अखिलेश के नीजी जीवन पर एक किताब लिखी गई थी. जिसका नाम अखिलेश यादव-बदलाव की लहर है. इस किताब में उन्होंने अखिलेश की निजी जिंदगी से जुड़ी कई अहम बातें भी बताई हैं. किताब के मुताबिक, अखिलेश और डिंपल दोस्त से मिलने का बहाना बनाकर एक दूसरे से छुप छुपकर मिलते थे. इसके बादचार साल की दूरी, परिवार का विरोध, लेकिन बावजूद इसके इस जोड़ी ने हर बाधा को पार किया और आज जीवनसाथी है और दोनों के तीन बच्चे है.

लेकिन हर कदम पर डिंपल यादव ने साथ चलकर ये दिखाया है कि वे अखिलेश की एक परफेक्ट वाइफ है जो पर्सनल, प्रोफेशनल दोनों तरीके से उनका साथ देती है.

नीतीश कुमार ने विधानसभा में किया महिला विधायक का अपमान, हुए आपे से बाहर

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एक बार फिर आपे से बाहर हो गए और एक ‘महिला विधायक’ को इंगित करते हुए कुछ ऐसा कह दिया, जो खुद उन के लिए आफत बन गया है और अब जब वे घिरे गए हैं, तो उन से जवाब देते नहीं बना, मगर उन्होंने अपनी गलती या माफी नहीं मांगी, नतीजतन वे और उन का बरताव आज देशभर में चर्चा की बात बन गए हैं.

अच्छा होता कि नीतीश कुमार तत्काल अपने कथन को ले कर माफी मांग लेते, मगर आज हमारे समाज और देशप्रदेश में जो लोग ऊंचे ओहदों पर पहुंच जाते हैं, वे अपनेआप को सबकुछ समझते हैं और अपनी गलती पर माफी मांगने में उन्हें शर्म आती है.

नीतीश कुमार के तेवर

दरअसल, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार विधानसभा में अपना आपा खो बैठे और राष्ट्रीय जनता दल की विधायक रेखा देवी पर गुस्से में आ कर एक विवादास्पद टिप्पणी करते हुए कहा – ‘अरे महिला हो, कुछ जानती नहीं हो.”

नीतीश कुमार के इस कथन को ले कर विधानसभा में हंगामा खड़ा हो गया. थोड़ी देर बाद उन्हें बात समझ में आ गई कि गलती हो गई है, मगर अपनी गलती को छिपाने के बजाय समझदारी दिखाते हुए गलती स्वीकार कर लेते, तो बात वहीं खत्म हो जाती.

बिहार की मुख्यमंत्री रह चुकीं और राज्य विधानपरिषद में प्रतिपक्ष की नेता राबड़ी देवी ने इस मुद्दे पर कहा, “मुख्यमंत्री के साथ ऐसा पहली बार नहीं हुआ है… लोग जानते हैं कि उन के (नीतीश) मन में महिलाओं के लिए कोई सम्मान नहीं है. उन्होंने विधानसभा में जोकुछ किया है, वह सरासर एक महिला का अपमान है. जद (यू) नेताओं और राजग के अन्य गठबंधन सहयोगियों के मन में महिलाओं के लिए कोई सम्मान नहीं है. महिलाओं का सम्मान केवल राजद और इंडिया गठबंधन के नेताओं में ही है.”

यह महिलाओं का अपमान

नीतीश कुमार बिहार विधानसभा में अपनी कही हुई बातों के चलते चर्चा में रहे हैं. पहले भी उन्होंने कुछ ऐसी बातें कह दी थीं, जो संसदीय नहीं की जा सकती हैं.

रेखा देवी, जिन्हें इंगित करते हुए नीतीश कुमार ने टिप्पणी की थी, ने कहा, “नीतीश कुमारजी ने विधानसभा में जोकुछ कहा, वह एक महिला का अपमान है. उन्होंने मेरे साथ ऐसा किया… यह पहली बार नहीं हुआ है. हम आज यहां अपने नेता और पार्टी प्रमुख लालू प्रसाद की वजह से हैं… नीतीश कुमार की वजह से नहीं. नीतीश कुमार ने सदन में एक दलित विधायक का अपमान किया है. ऐसा लगता है कि मुख्यमंत्री का अपने दिमाग पर कोई नियंत्रण नहीं रहा.”

दरअसल, बिहार विधानसभा में 24 जुलाई, 2024 को राज्य के संशोधित आरक्षण कानूनों को संविधान की 9वीं अनुसूची में शामिल किए जाने की मांग को ले कर विपक्षी सदस्य हंगामा और नारेबाजी कर रहे थे. हंगामे के बीच मुख्यमंत्री नीतीश कुमार दखल देने के लिए उठ खड़े हुए. उस समय राजद की मसौढी से विधायक रेखा देवी अपनी बात कह रही थीं.

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने रेखा देवी की ओर उंगलियां दिखाते हुए ऊंची आवाज में कहा, “अरे महिला हो, कुछ जानती नहीं हो. इन लोगों (राजद) ने किसी महिला को आगे बढ़ाया था. क्या आप को पता है कि मेरे सत्ता संभालने के बाद ही बिहार में महिलाओं को उन का हक मिलना शुरू हुआ. 2005 के बाद हम ने महिलाओं को आगे बढ़ाया है. बोल रही हो, फालतू बात… इसलिए कह रह हैं, चुपचाप सुनो. ”

उन के इतना कहते ही सदन में हल्ला बोल शुरू हो गया. एक महिला विधायक से इस तरह मुखातिब होने का विपक्षी सदस्यों द्वारा विरोध किए जाने पर मुख्यमंत्री ने कहा, “अरे क्या हुआ… सुनोगे नहीं… हम तो सुनाएंगे और अगर नहीं सुनिएगा, तो यह आप की गलती है.”

बाद में संसदीय कार्यमंत्री विजय कुमार चौधरी ने दखल देते हुए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से आसन को संबोधित करने का अनुरोध किया तो नीतीश कुंअर ने विपक्षी सदस्यों के बारे में कहा, “आप समझ लीजिए कि हम लोगों ने 1-1 चीज को लागू कर दिया है.”

इधर तेजस्वी यादव ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की टिप्पणी को ‘महिला विरोधी व असभ्य’ करार दिया. उन्होंने आरोप लगाया कि महिलाओं के खिलाफ बयानबाजी नीतीश कुमार की आदत है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार मुख्यमंत्री के साथसाथ एक वरिष्ठतम विधायक हैं, उन्हें अपनी बात आसन को संबोधित करते हुए कहनी चाहिए थी, मगर जिस ढंग और शब्दों में उन्होंने आसन की अनदेखी कर के अपनी बात कही, वह हर नजरिए से आलोचना की बात बन गई है.

कांवड़ यात्रा : राहुल की मुहब्बत की दुकान, योगी के फैसले पर सवाल

उत्तर प्रदेश की योगी आदित्य नाथ सरकार पर संकट के बादल गहरे काले होते जा रहे हैं. एक तरफ नरेंद्र मोदी की चाह है कि योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री पद से मुक्त हो जाएं, तो दूसरी तरफ योगी आदित्यनाथ और उन के खास लोग ऐसा नहीं चाहते हैं.

बहुचर्चित कांवड़ यात्रा के संबंध में कहा जा सकता है कि सावन का महीना हो और बादल घने और पानी लिए न हों, भला यह कैसे मुमकिन है. कोई योगी हो तो भला वह आधुनिक विचारों से संपन्न कैसे हो सकता है. हालांकि, अपवाद हो सकते हैं, होते हैं, मगर उत्तर प्रदेश की बदहाली देखिए कि गोरखनाथ मठ के प्रमुख योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बन गए हैं. इस के बाद से मुख्यमंत्री पद का जो पतन हुआ है, वह सारा देश और दुनिया जानती है. सच तो यह है कि हिंदू आज आधुनिक सोच के साथ दुनियाभर में देश की कामयाबी का परचम लहरा रहे हैं, मगर योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री की कुरसी पर बैठ कर जिस तरह के फैसले ले रहे हैं, उन से हंसी भी आती है और रोना भी आता है.

कांवड़ यात्रा को ले कर आज देशभर में उत्तर प्रदेश चर्चा का केंद्र बन गया है और सरकार योगी आदित्यनाथ की छीछालेदर हो रही है. यहां तक कि भारतीय जनता पार्टी के सहयोगी दल भी मुखर हो चुके हैं और विरोध कर रहे हैं. अब सवाल यह है कि क्या योगी आदित्यनाथ पीछे हटेंगे? क्या वे यह कहेंगे कि यह फैसला उन का नहीं है, बल्कि प्रशासनिक लैवल पर लिया गया था और अपनी छवि बचाएंगे या फिर पूरे मामले में नया ट्विस्ट आएगा? सचमुच यह सब देखना दिलचस्प होगा.

भाजपा में खतरे की घंटी

कांवड़ यात्रा मार्ग पर बने ढाबों पर अपने नाम लिखने के उत्तर प्रदेश सरकार के आदेश की आम आदमी भी आलोचना कर रहा है. यह सचमुच हमारे देश की गंगाजमुना संस्कृति पर एक बड़ी चोट है. यही वजह है कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के सहयोगी दलों ने सवाल उठाए हैं.

जनता दल (यूनाइटेड) के नेता नीतीश कुमार, लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के नेता चिराग पासवान के बाद राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष और केंद्रीय राज्य मंत्री जयंत चौधरी ने भी सवाल उठाए हैं, जो यह बताते हैं कि जल्द ही योगी आदित्यनाथ की विदाई मुमकिन है या फिर वे राजनीति में एक पिटा हुआ चेहरा बन कर रह जाएंगे.

अपने पिता चौधरी चरण सिंह को ‘भारत रत्न’ मिलने से गदगद हुए जयंत चौधरी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से जुड़ गए हैं, मगर योगी आदित्यनाथ के इस फैसले पर उन्होंने सरकार के फैसले की आलोचना करते हुए कहा, ‘ऐसा लगता है कि यह आदेश बिना सोचेसमझे लिया गया है और सरकार इस पर इसलिए अड़ी हुई है, क्योंकि फैसला हो चुका है. कभीकभी सरकार में ऐसी चीजें हो जाती हैं.’

उन्होंने आगे कहा, ‘अब भी समय है कि इसे वापस लिया जाए या सरकार को इसे लागू करने पर ज्यादा जोर नहीं देना चाहिए. कांवड़ की सेवा सभी करते हैं. कांवड़ की पहचान कोई जाति से नहीं की जाती है. इस मामले को धर्म और जाति से नहीं जोड़ा जाना चाहिए. कहांकहां नाम लिखें, क्या अब कुरते पर भी नाम लिखना शुरू कर दें, ताकि देख कर यह तय किया जा सके कि हाथ मिलाना है या गले लगाना है?’

इस से पहले नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल (यूनाइटेड) के प्रवक्ता केसी त्यागी ने फैसले की समीक्षा करने की मांग की. उन्होंने कहा कि ऐसा कोई भी आदेश जारी नहीं किया जाना चाहिए, जिस से समाज में सांप्रदायिक विभाजन पैदा हो. कई मौके पर मुजफ्फरनगर के मुसलमान कांवड़ यात्रियों की मदद करते देखे गए हैं.

राजग केंद्र सरकार में शामिल केंद्रीय मंत्री चिराग पासवान ने भी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के फैसले पर सवाल उठाए हैं. उन्होंने कहा, ‘मेरी लड़ाई जातिवाद और सांप्रदायिकता के खिलाफ है, इसलिए जहां कहीं भी जाति और धर्म के विभाजन की बात होगी, मैं उस का कभी भी समर्थन नहीं करूंगा.’

दूसरी ओर, भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता मुख्तार अब्बास नकवी ने पहले तो योगी सरकार के फैसले पर सवाल उठाए और इसे छुआछूत को बढ़ावा देने वाला बताया, पर बाद में कहा कि राज्य सरकार के आदेश से साफ है कि कांवड़ियों की आस्था को ध्यान में रखते हुए यह फैसला लिया गया है, लेकिन कुछ लोग सांप्रदायिकता फैलाने की कोशिश कर रहे हैं.

इस तरह भारतीय जनता पार्टी का चरित्र आज देश के चौराहे पर खड़ा है. दूसरी तरफ मजेदार बात किया है कि कांवड़ यात्रा के रास्ते पर कांग्रेस के नेता राहुल गांधी की मुहब्बत की दुकान के पोस्टर दिखाई देने लगे हैं, जो बताता है कि उन की लोकप्रियता और विचार अब देश की जनता स्वीकार करने लगी है. यह सीधेसीधे नरेंद्र मोदी सरकार के लिए खतरे की घंटी है.

राहुल गांधी का संसद में बयान, क्यों बौखलाई भाजपा

लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष के रूप में राहुल गांधी का पहला भाषण ऐसा लगता है मानो भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर बिजली की तरह गिरा. राहुल गांधी के भाषण की जैसी प्रतिक्रिया देशभर में आई है, वह बताती है कि राहुल गांधी का एकएक शब्द लोगों ने ध्यान से सुना और भाजपा तो मानो चारों खाने चित हो गई. यही कारण है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उठ खड़े हुए और उन्होंने सफाई दी.

अब भाजपा नेताओं, नरेंद्र मोदी सहित संघ ने मोरचा संभाला और कहा कि राहुल गांधी हिंदुओं को ऐसावैसा कह रहे हैं….देखिए… जबकि हकीकत यह है कि जिस ने भी राहुल गांधी का भाषण सुना है, वह जानता है कि राहुल गांधी ने भाजपा और संघ पर टिप्पणी की है और कहा कि हिंदू समाज ऐसा नहीं है मगर भरम यह फैलाया जा रहा है कि राहुल गांधी ने संपूर्ण हिंदू समाज को हिंसक कहा है जो सीधेसीधे गलत है.

दरअसल, भाजपा के काम करने का ढंग यही है कि वह बातों को तोड़मरोड़ देती है. इस का सब से बड़ा उदाहरण है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसद में खड़े हो कर के कहना कि राहुल गांधी हिंदुओं को हिंसक कर रहे हैं, जबकि राहुल ने क्या कहा, यह साफ है.

लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने सोमवार, 1 जुलाई, 2024 को भाजपा पर देश में हिंसा, नफरत और डर फैलाने का आरोप लगाया और दावा किया, ‘ये लोग हिंदू नहीं हैं, क्योंकि 24 घंटे की हिंसा की बात करते हैं.’

राहुल गांधी ने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर लाए गए धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा में भाग लेते हुए कहा, ‘हिंदू कभी हिंसा नहीं कर सकता, कभी नफरत और डर नहीं फैला सकता.’

राहुल गांधी ने जब भाजपा पर यह आरोप लगाया तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की बौखलाहट साफ दिखाई दी. दोनों ने आपत्ति जताते हुए कहा कि कांग्रेस नेता ने पूरे हिंदू समाज को हिंसक कहा है.

राहुल गांधी ने भाजपा पर युवाओं, छात्रों, किसानों, मजदूरों, दलितों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों में डर पैदा करने का आरोप लगाया. उन्होंने कहा कि भाजपा के लोग अल्पसंख्यकों, मुसलमानों, सिखों एवं ईसाइयों को डराते हैं, उन पर हमला करते हैं और उन के खिलाफ नफरत फैलाते हैं, लेकिन अल्पसंख्यक इस देश के साथ हैं.

नरेंद्र मोदी सामने आए

लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने भारतीय जनता पार्टी पर निशाना साधते हुए कहा कि खुद को हिंदू कहने वाले हर समय ‘हिंसा और नफरत फैलाने’ में लगे हैं, जिस पर सत्ता पक्ष के सदस्यों ने जोरदार तरीके से विरोध जताया.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सामने आए और कहा, “पूरे हिंदू समाज को हिंसक कहना बहुत गंभीर बात है.” हालांकि राहुल गांधी ने प्रतिक्रिया में कहा कि वे भाजपा की बात कर रहे हैं और भाजपा, नरेंद्र मोदी या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पूरा हिंदू समाज नहीं हैं.

कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने सदन में कई बार भगवान शिव की एक तसवीर दिखाते हुए कहा कि वे अहिंसा और निडरता का संदेश देते हैं. सदन में राष्ट्रपति अभिभाषण के धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा में भाग लेते हुए राहुल गांधी ने कहा, ‘सभी धर्मों और हमारे सभी महापुरुषों ने अहिंसा और निडरता की बात की है. वे कहते थे कि डरो मत, डराओ मत.’

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सामने आया

संघ ने लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के बयान पर आपत्ति जाहिर की. संघ की ओर से कहा गया कि हिंदुत्व को हिंसा से जोड़ना अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है. विश्व हिंदू परिषद ने भी राहुल के भाषण की भर्त्सना की है. हिंदुत्व चाहे विवेकानंद का हो या गांधी का, वह सौहार्द्र व बंधुत्व का परिचायक है. हिंदुत्व के बारे में ऐसी प्रतिक्रिया ठीक नहीं है.

विश्व हिंदू परिषद के अध्यक्ष आलोक कुमार ने कहा कि लोकसभा में राहुल गांधी ने बहुत ही नाटकीय आक्रामकता से भरा भाषण दिया है. नेता प्रतिपक्ष के नाते शायद उन के पहले भाषण में अपनेआप को साबित करने का जोश होगा. इस दौरान वे बोल गए कि हिंदू समाज हिंसक होता है.

संघ के सुनील आंबेकर ने कहा कि संसद में जिम्मेदार लोगों द्वारा हिंदुत्व को हिंसा से जोड़ना दुर्भाग्यजनक है.
उन्होंने कहा कि जिस हिंदू समाज के भिक्षुक पैदल ही दुनिया का भ्रमण करते थे, अपने प्रेम से, तर्क से, करुणा से लोगों को हिंदू बनाते थे, उस समाज पर ऐसा आरोप लगाने की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती थी.

कुलमिला कर राहुल गांधी के कथन से भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दोनों के हाथों के तोते उड़े हुए हैं.

काले धन का नया झांसा

भारत में लोकसभा चुनाव का प्रचार जब अपनी हद पर था, तो 6 मई, 2024 को देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हैदराबाद में कहा था, ‘‘मैं भ्रष्टाचार से लूटे गए गरीबों के धन को वापस करने के बारे में कानूनी सलाह ले रहा हूं. मेरा ध्यान मेरे लिए इस्तेमाल किए जाने वाले अपशब्दों पर नहीं, बल्कि उन गरीब लोगों पर है, जिन का धन लूटा गया है. इस के लिए कानूनी सलाह ली जा रही है कि वह धन गरीबों को वापस कैसे किया जा सकता है.’’

दरअसल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह कहते हुए सीधेसीधे यह बात मान ली है कि दुनिया की 5वीं बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के बाद भी देश में इफरात से गरीब और गरीबी है.

दूसरी बात यह कि 8 नवंबर, 2016 को नोटबंदी के फैसले के समय नरेंद्र मोदी की ही की गई यह घोषणा भी खोखली निकली कि इस से देश में काला धन खत्म हो जाएगा.

इसी से जुड़ी तीसरी अहम बात यह कि 10 साल में काले धन को बंद करने के लिए कुछ नहीं कर पाए हैं, उलटे, यह दिनोंदिन बढ़ ही रहा है. इस के लिए उन्होंने जो कुछ कर रखा है, वह अभी किसी को नजर नहीं आएगा. हां, जिस दिन जनता उखाड़ फेंकेगी, उस दिन जोजो सामने आएगा, उस की भी कल्पना हर कोई नहीं कर सकता.

चौथी और असल बात यह थी कि 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन और दूसरी योजनाओं के जरीए इमदाद देने के बाद भी भाजपा को उम्मीद के मुताबिक वोट और सीटें नहीं मिल रही हैं, इसलिए वोटों के लिए वही लालच दिया जा रहा है, जो आज से 10 साल पहले दिया गया था कि देश में इतना काला धन है कि उसे पकड़ कर हरेक के खाते में 15-15 लाख डाल दूंगा.

नरेंद्र मोदी के इस ?ांसे से लोगों को कोई खास खुशी नहीं हुई, क्योंकि वे एक बार नहीं, बल्कि कई बार ऐसे धोखे पिछले 10 साल में खा चुके हैं.

इत्तिफाक से इसी दिन झारखंड के ग्रामीण विकास मंत्री आलमगीर के पीएस संजीव लाल के नौकर जहांगीर आलम के यहां से तकरीबन 35 करोड़ रुपए की नकदी बरामद हुई थी, जिसे चारा बना कर जनता के सामने उन्होंने पेश किया कि इस पैसे पर पहला हक तुम्हारा है, जो तुम्हें दिया भी जा सकता है, लेकिन इस के लिए जरूरी है कि मुझे तीसरी बार प्रधानमंत्री बनाओ.

अब इस इत्तिफाक में लोग भाजपा सरकार का यह रोल भी देख रहे हैं कि कहीं यह उस का ही कियाधरा तो नहीं. वजह, आजकल सबकुछ मुमकिन है और चुनाव जीतने के लिए नेता किसी भी हद तक जा सकते हैं. यह पैसा ईमान का था या बेईमानी का, इस बारे में कोई भी दावे से कुछ नहीं कह सकता. इस में हैरानी की एकलौती बात यह है कि इसे संभाल कर कमरे में रखा गया था यानी इसे कभी न कभी खर्च किया जाता, जिस से यह बाजार में आता.

मंदिरों में तो जाम है पैसा

जो नकदी झारखंड से बरामद हुई, वह उन पैसों के आगे कुछ नहीं है, जो मंदिरों में जाम पड़ा है. तथाकथित भ्रष्टाचार का पैसा अगर गरीबों का है, तो मंदिरों में सड़ रहा खरबों रुपया किस का है, प्रधानमंत्री कभी इस पर क्यों नहीं बोलते? क्या यह पैसा भी लूट का नहीं, जो लोकपरलोक सुधारने व मोक्षमुक्ति वगैरह के नाम पर पंडेपुजारियों द्वारा झटका जाता है? यह पैसा क्यों गरीबों में नहीं बांट दिया जाता, जिस के लिए किसी कानूनी सलाह की भी जरूरत नहीं?

गरीबों के लिए दुबलाए जा रहे प्रधानमंत्री चाहें तो एक झटके में देश से गरीबी दूर हो सकती है, उन्हें बस मंदिरों का पैसा गरीबों में बांटे जाने का हुक्म देना भर है, लेकिन वे ऐसा करेंगे नहीं, क्योंकि सत्ता गरीबों के वोट से ही मिलती है.

एक दफा लोकतंत्र खत्म हो जाए, संविधान मिट जाए, लेकिन गरीबी पर आंच नहीं आनी चाहिए. जवाहरलाल नेहरू से ले कर इंदिरा गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी से ले कर मनमोहन सिंह की सरकारों ने भी गरीबी दूर करने की सिर्फ बातें की थीं, गरीबी हटाओ के लुभावने नारे दिए थे, लेकिन इसे दूर करने को कुछ ठोस नहीं किया था. यही नरेंद्र मोदी कर रहे हैं.

फंडा बहुत सीधा है कि जब तक धर्म और धर्मस्थल हैं, तब तक गरीबी दूर नहीं हो सकती. इन के चलते गरीब निकम्मा, निठल्ला और भाग्यवादी बना रहता है. वह मेहनत भी कामचलाऊ करता है और जब पेट पीठ से चिपकने लगता है, तो सरकार अपने गोदामों के शटर उठा देती है, जिस से वह भूखा न मरे.

देश के लिए तो वह किसी काम का नहीं, लेकिन धर्म के लिए उसे जिंदा रखा जाता है. वैसे भी मंदिरों के पैसों पर हक भाजपा का ही है, जिसे सलामत रखने की बाबत वह पंडेपुजारियों को पगार और कमीशन देती है, एवज में भगवान के ये एजेंट भाजपा के लिए वोटों की दलाली करते हैं. इन के कोई उसूल नहीं होते. एक वक्त में यही काम ये लोग कांग्रेस के लिए भी करते थे. इन का भगवान सिर्फ बिना मेहनत से आया पैसा होता है, जो इन दिनों मोदी सरकार उन्हें दरियादिली से दिला रही है.

जब पैसे वालों को तसल्ली हो जाती है कि गरीब हैं और गरीबी किसी सरकार की देन नहीं, बल्कि इन के पिछले जन्मों के पापों का फल है, तो वह दान की, पूजापाठ की तादाद बढ़ा देता है, ताकि अगले जन्म में वह गरीबी में पैदा न हो.

ऐसे में छापों के पैसों से गरीबी दूर करने का झांसा देना एक बड़ी चालाकी है. बात तो तभी बन सकती है, जब मंदिरों के खजानों का मुंह गरीबों के लिए खोल दिया जाए.

देश के मंदिरों के पैसे की थाह लेना आसान नहीं है, लेकिन यह हर कोई जानता है कि उन में अथाह धन है. हाल तो यह है कि एक अकेले तिरुपति मंदिर की जायदाद से ही गरीबी दूर हो सकती है. कुबेर के इस रईस मंदिर के ट्रस्ट के मुताबिक, बैंकों में 16,000 करोड़ रुपए की एफडी हैं, जिन का ब्याज ही करोड़ों में होता है. देशभर में मंदिर ट्रस्ट की 960 प्रोपर्टी हैं, जिन की कीमत भी अरबों रुपए में है.

मंदिर के पास 11 टन सोना है और तकरीबन ढाई टन सोने के गहने हैं. साल 2022-23 में ही जमा पैसे पर 3,100 करोड़ रुपए ब्याज में मिले थे और रोज करोड़ों का चढ़ावा बदस्तूर आ ही रहा है.

अगर इस में अयोध्या, काशी, शिरडी, वैष्णो देवी, उज्जैन सहित चारों धामों का भी पैसा मिला दिया जाए, तो देश में अमीरों की भरमार हो जाएगी. लेकिन फिर वे भाजपा को वोट नहीं देने वाले, क्योंकि फिर उन्हें धर्म की जरूरत नहीं रह जाएगी और भाजपा को इस के सिवा कुछ और आता नहीं, जो पूरे चुनाव प्रचार में मुसलिमों का डर दिखाते रामश्याम और राधेराधे करती रही. उस का मकसद पंडेपुजारियों की आमदनी पक्की करना है.

पब्लिक मीटिंगों में विपक्षियों को कोसते रहना नरेंद्र मोदी की कोई सियासी मजबूरी नहीं, बल्कि चालाकी है कि ये अगर सत्ता में आए, तो मुफ्त की तगड़ी कमाई वाला धर्म और मंदिर खत्म कर देंगे, फिर सब बैठ कर चिमटा हिलाते रहना. अगर इस पैसे की, इस सनातनी सिस्टम की हिफाजत चाहते हो, तो मुझे वोट दो, मैं गरीबी बनाए रखूंगा, यह मेरी गारंटी है.

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