नरेंद्र मोदी और अमित शाह की रणनीति चारों खाने चित

भा रतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी की सत्ता आने के बाद जिस तरह से जम्मूकश्मीर और वहां की अवाम को दर्द ही दर्द मिला है, क्या उसे कोई भूल सकता है? यहां तक कि नागरिकों के अधिकार नहीं रहे और बंदूक के साए में अब देश की सब से बड़ी अदालत के आदेश के बाद चुनाव होने जा रहे हैं. यह एक ऐसा रास्ता है, जो लोकतांत्रिक की मृग मरीचिका का आभास देता है.

मगर सितंबर, 2024 में होने वाले विधानसभा चुनाव की जो रणनीति कांग्रेस बना रही है, उस में नरेंद्र मोदी और अमित शाह का पूरा खेल बिगड़ता दिखाई दे रहा है. भाजपा किसी भी हालत में यहां सत्ता में आती नहीं दिखाई दे रही है, जिस का आगाज लोकसभा चुनाव में भी नतीजे के रूप में हमारे सामने है.

इधर, फारूक अब्दुल्ला ने जिस तरह सामने आ कर मोरचा संभाला है और  विधानसभा चुनाव लड़ने की रणनीति बनाई है, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि नरेंद्र मोदी की रणनीति चारों खाने चित हो चुकी है.

कांग्रेस प्रमुख मल्लिकार्जुन खड़गे और राहुल गांधी श्रीनगर पहुंचे थे. मल्लिकार्जुन खड़गे ने जम्मूकश्मीर के आगामी विधानसभा चुनाव के लिए दूसरे विपक्षी दलों के साथ गठबंधन करने की इच्छा जताई और केंद्रशासित प्रदेश के लोगों से भारतीय जनता पार्टी के वादों को ‘जुमला’ करार दिया.

मल्लिकार्जुन खड़गे ने लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी के साथ श्रीनगर में कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं से विधानसभा चुनावों की जमीनी स्तर की तैयारियों के बारे में जानकारी ली. उन्होंने कहा कि ‘इंडी’ गठबंधन ने एक तानाशाह को पूरे बहुमत के साथ (केंद्र में) सत्ता में आने से रोका है. यह गठबंधन की सब से बड़ी कामयाबी है. कांग्रेस ने राज्य का दर्जा बहाल करने की पहल की है. हम इस दिशा में काम करने का वादा करते हैं. राहुल गांधी की जम्मूकश्मीर में चुनाव से पहले गठबंधन बनाने में दिलचस्पी है. वे दूसरी पार्टियों के साथ मिल कर चुनाव लड़ने के इच्छुक हैं.

कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने आगे कहा कि दरअसल, भाजपा लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद चिंतित है, क्योंकि वे लोग जिन विधेयकों को पास कराना चाहते थे, उन में करारी मात मिली है.

पूर्ण राज्य का दर्जा

कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के श्रीनगर दौरे से राजनीति में एक गरमाहट आ गई है. राहुल गांधी ने कहा कि जम्मूकश्मीर का पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल करना कांग्रेस और विपक्षी गठबंधन ‘इंडी’ की प्राथमिकता है. यह उन की पार्टी का लक्ष्य है कि जम्मूकश्मीर और लद्दाख के लोगों को उन के लोकतांत्रिक अधिकार वापस मिलें.

कांग्रेस और ‘इंडी’ गठबंधन की प्राथमिकता है कि जम्मूकश्मीर का पूर्ण राज्य का दर्जा जल्द से जल्द बहाल किया जाए. हमें उम्मीद थी कि चुनाव से पहले ऐसा कर दिया जाएगा, लेकिन चुनाव घोषित हो गए हैं. हम उम्मीद कर रहे हैं कि जल्द से जल्द पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल किया जाएगा और जम्मूकश्मीर के लोगों के अधिकार बहाल किए जाएंगे.

आजादी के बाद यह पहली बार है कि कोई राज्य केंद्रशासित प्रदेश बन गया है. यहां कोई विधानपरिषद, कोई पंचायत या नगरपालिका नहीं है. लोगों को लोकतंत्र से दूर रखा गया है.

मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के 30 सितंबर तक चुनाव कराने के निर्देश के चलते ही जम्मूकश्मीर में विधानसभा चुनाव की घोषणा की गई है.

चुनाव से पहले जम्मूकश्मीर के लोगों से किया गया एक भी वादा पूरा नहीं किया गया है. कुलमिला कर कांग्रेस नेताओं ने जिस तरह जम्मूकश्मीर में मोरचाबंदी की है, उस से नरेंद्र मोदी और अमित शाह के मनसूबे ध्वस्त होंगे, ऐसा लगता है.

फारूक अब्दुल्ला और कांग्रेस

जम्मूकश्मीर में जो नए राजनीतिक समीकरण बन रहे हैं, उन से साफ दिखाई दे रहा है कि फारूक अब्दुल्ला, जो जम्मूकश्मीर के सब से बड़े नेता और चेहरे हैं, ने कांग्रेस के साथ मिल कर चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है और यह गठबंधन अगर बन जाता है, तो इस की सरकार बनने की पूरी संभावना है, क्योंकि इन के सामने सारे नेता बौने हैं. वहीं राहुल गांधी और ‘इंडी’ गठबंधन का अब समय आ गया है, यह दिखाई देता है.

यहां चुनाव 18 सितंबर, 25 सितंबर और 1 अक्तूबर को होंगे. नतीजे 4 अक्तूबर को घोषित किए जाएंगे.

फारूक अब्दुल्ला ने कहा कि कांग्रेस के साथ मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी (माकपा) के (एमवाई) तारिगामी भी हमारे साथ हैं. मुझे उम्मीद है कि हमें लोगों का साथ मिलेगा और हम लोगों

के जीवन को बेहतर बनाने के लिए भारी बहुमत से जीतेंगे. इस के पहले राहुल गांधी ने भरोसा दिया था कि जम्मूकश्मीर के लिए पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल करना कांग्रेस और ‘इंडी’ गठबंधन की प्राथमिकता है.

फारूक अब्दुल्ला ने उम्मीद जताई कि सभी ताकतों के साथ पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल किया जाएगा. राज्य का दर्जा हम सभी के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है. इस का हम से वादा किया गया है. इस राज्य ने बुरे दिन देखे हैं और हमें उम्मीद है कि इसे पूरी शक्तियों के साथ बहाल किया जाएगा. इस के लिए हम ‘इंडी’ गठबंधन के साथ एकजुट हैं.

महत्त्वपूर्ण तथ्य सामने आया है कि चुनाव से पहले या चुनाव के बाद गठबंधन में महबूबा मुफ्ती के नेतृत्व वाली पीडीपी की मौजूदगी से भी नैशनल कौंफ्रैंस के नेता फारूक अब्दुल्ला ने इनकार नहीं किया है.

देसी नेताओं का सूटबूट में लुक्स है वायरल, टशन दिखाने में नहीं है किसी से कम

भारत में एक से बढ़ कर एक नेता हैं. कई तो यंग हैं, जो आज भी बिलकुल उसी तरह के कपड़े पहनना पसंद करते हैं, जो कभी आजादी के वक्त पहने जाते थे. ज्यादातर नेताओं की पोशाक अमूमन देसी ही देखी गई है, लेकिन अब ऐसा नहीं है, क्योंकि कई नेता काफी स्टाइलिश हैं और सूटबूट पहना करते हैं.

 

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रवि किशन

रवि किशन, जो गोरखपुर से भारतीय जनता पार्टी के सांसद हैं, का असल लुक काफी बदला है. पहले वे बिना दाढ़ीमूंछों के हंसमुख चेहरे के लिए जाने जाते थे, लेकिन अब वे घनी दाढ़ीमूंछों के साथ एक गंभीर लुक में नजर आते हैं. साथ ही, उन्हें हर तरह के स्टाइलिश लुक में भी देखा गया है. वे कभी देसी अवतार में नजर आते हैं, तो कभी सूटबूट के साथ, लेकिन ज्यादातर चुनावी दौर में उन्हें देसी लिबास में ही देखा गया है.

तेजस्वी सूर्या

तेजस्वी सूर्या, जो बैंगलुरु दक्षिण से भारतीय जनता पार्टी के सांसद हैं, का लुक काफी आकर्षक और युवा है. वे अकसर औफिशियल कपड़ों में नजर आते हैं, जैसे कि सूट और टाई, जो उन का पहनावा है. उन के बाल छोटे हैं  और वे अकसर बिना दाढ़ीमूंछों के साफसुथरे लुक में दिखते हैं. तेजस्वी सूर्या देसी लिबास में बेहद कम नजर आते हैं.

चंद्रशेखर आजाद

चंद्रशेखर आजाद का लिबास उन के क्रांतिकारी जीवन का प्रतीक है. वे अकसर धोतीकुरता पहनते हैं, जो उस समय के भारतीय ग्रामीण और साधारण लोगों की एक पहचान है. उन के पहनावे में सादगी और भारतीयता की झलक मिलती है. लेकिन ऐसा नहीं है कि उन्हें कभी सूटबूट में नहीं देखा गया है. वे सूटबूट के भी शौकीन रहे हैं.

चिराग पासवान

चिराग पासवान भी उन नेताओं की लिस्ट में आते हैं, जो देसी लिबास कैरी करने में बिलकुल नहीं शरमाते हैं. हालफिलहाल में चिराग पासवान ने एक इवैंट में अपने देसी लुक से सब का ध्यान खींचा था. उन्होंने ब्लैक शेरवानी पहनी थी, जिस में ग्रे धागों से कढ़ाई की गई थी. इस लुक में उन्होंने हील वाले ब्लैक लेदर के शूज और गोल्डन रिंग्स पहनी थीं. उन की यह ट्रैडिशनल आउटफिट और बियर्ड लुक उन्हें काफी हैंडसम और डैशिंग दिखा रहा था. इस के अलावा कई दफा चिराग पासवान सूटबूट में भी नजर आ चुके हैं.

अखिलेश यादव

अखिलेश यादव का लुक अकसर चर्चा में रहता है खासकर जब वे पब्लिक कार्यक्रमों में शामिल होते हैं. वे टोपी के साथ देसी लुक में दिखाई देते हैं. उन का पहनावा आमतौर पर सफेद कुरतापाजामा और लाल टोपी का होता है, जो समाजवादी पार्टी का प्रतीक है. यह लुक उन्हें एक पहचान देता है और उन के समर्थकों के बीच काफी लोकप्रिय बनाता है.

किसान नेता Rakesh Tikait को खाना खिला रही पोती का वीडियो वायरल, दादू नंबर 1

किसान नेता Rakesh Tikait को खाना खिला रही पोती का वीडियो वायरल, पोतेपोती है खास प्यार
राकेश टिकैत का नाम ही किसान आंदोलन के दिनों से चर्चा में रहता आया है. कभी यह जोरदार भाषणों से रैलियों को संबोधित करते नजर आते हैं, तो कभी सरकार की किसान नीतियों पर बहस करते दिखते हैं. ऐसे कद्दावर नेता का एक वीडियो वायल हो रहा है, जिसमें वह अपने घर की एक छोटी सी बच्ची के हाथों से खाना खाते दिख रहे हैं. उनकी ऐसी सौफ्ट छवि को शायद ही किसी ने देखा होगा क्योंकि उनकी इमैज हमेशा से एक फायर ब्रांड नेता की रही है. राकेश टिकैत के इस वीडियो को देखने वाले में से एक सोशल मीडिया यूजर ने लिखा है कि यह दादापोती का प्यार है, तो किसी ने लिखा है कि चौधरी राकेश सिंह टिकैत के परिवार पर सदैव ईश्वर की कृपा बनी रहे.

 

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पोते को भी दुलारने का वीडियो वायरल

किसान नेता के रूप में मशहूर राकेश टिकैत ने एमए तक की स्टडी की है. ऐसा भी कहा जाता है कि उनके पास वकालत की भी डिग्री है. इन दिनों वे भारतीय किसान यूनियन के नेता के तौर पर भी जाने जाते हैं. राकेश टिकैत को सोशल मीडिया प्लैटफौर्म पर पोते के साथ खेलते हुए देखा जा सकता है. इस प्लेटफौर्म पर वे अकसर रैलियों और भाषणों की वीडियो डालते रहते हैं, लेकिन कुछ वीडियोज ऐसे हैं, जिसमें पोतेपोती के लिए उनका दुलार साफ नजर आता है. इससे पहले भी उनका एक वीडियो वायरल हुआ था जिस में वे अपने पोते को गन्ने का जूस पिलाते हुए दिख रहे थे. उनके पोते को यूजर्स फ्यूचर चौधरी साहब का नाम दे रहे हैं.

टिकैत कैसे बने किसान नेता

राकेश टिकैत के बारे में कहा जाता है कि साल 1985 में दिल्ली पुलिस में कौंस्टेबल के पद पर काम कर रहे थे. उसके बाद वे सब-इंसपैक्टर बने. लेकिन अपने पिता महेंद्र सिंह टिकैत को किसान आंदोलन में साथ देने के लिए उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी और आंदोलन में शामिल हो गए, उसी समय से वे किसान नेता के तौर पर किसानों की आवाज को उठाते रहते हैं. साल 2017 में राकेश टिकैत ने एक बार मुजफ्फरनगर से निर्दलीय चुनाव लड़ा लेकिन वे बुरी तरह हार गए. उन्होंने राष्ट्रीय लोकदल के टिकट से साल 2014 में भी चुनाव लड़ा लेकिन इसमें भी सफलता उनके हाथ नहीं लगी. भले ही वह किसानों के बड़े नेता है लेकिन आज भी प्रत्यक्ष राजनीति से दूर हैं

डिंपल यादव है अखिलेश की परफेक्ट वाइफ, दोनों की कैमिस्ट्री है सुपरहिट

समाजवादी पार्टी के प्रमुख और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और उनकी पत्नी डिंपल यादव सुर्खियों में रहते है. पति पत्नी की ये जोड़ी को खूब पसंद किया जाता है. लेकिन, डिपंल यादव, अखिलेश की परफेक्ट पत्नी है इस बात का जवाब डिपंल भी समय समय पर देती रही है. डिपंल यादव जितना राजनीति में उनके साथ एक्टिव उतना ही एक परफेक्ट वाइफ होने के लिए परफेक्ट है.दोनो की कैमिस्ट्री को भी खूब पसंद किया जाता है.

 

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डिपंल और अखिलेश की लव स्टोरी भी वायरल है. उनके लव के चर्चे राजनीति में जोरो शोरो से होते रहे है, वही, खई बार सांसद में दोनों के रिएक्शन भी ऐसे रहे है कि दोनों एक दूसरे को चीयर करते हुए नजर आए है. डिपंल यादव और अखिलेश यादव ने अपनी एक दूसरे का साथ बौंडिग को सांसद में सबके सामने भी दिखाया है.

संसद में करती है पति अखिलेश को चीयर

डिपंल यादल और अखिलेश यादव कन्नौज की सांसद में बैठे थे. अखिलेश यादव के भाषण के दौरान उनकी पत्नी और मैनपुरी से सांसद डिंपल यादव उनके ठीक पीछे बैठी थीं. अखिलेश ने जिस प्रकार से भाजपा को विभिन्न मुद्दों पर घेरा, उस दौरान डिंपल के इमोसन देखने लायक थे. कई मौकों पर वह खिलखिलाकर हंसती दिखाई दी. एक मौके पर डिंपल यादव मेज थपथपाकर हंसती दिखाई दी. डिपंल, अखिलेश का साथ देने से कभी भी पिछे नहीं हटती है.

जब साथ साथ बनें थे सांसद

दोनों की कैमिस्ट्री तब भी सुर्खियों में थी जब सपा चीफ अखिलेश यादव और उनकी पत्नी डिंपल यादव पहली बार एक साथ लोकसभा जा रहे हैं. ऐसे में अखिलेश और डिंपल, यूपी के पहले दंपत्ति होने जा रहे हैं, जो एक साथ सांसद बने हैं और एक साथ ही लोकसभा पहुंच रहे हैं.politics

प्यार से शादी तक दिया पूरा साथ

दोनों की प्रेम कहानी के किस्से भी मौजूद है. अखिलेश के नीजी जीवन पर एक किताब लिखी गई थी. जिसका नाम अखिलेश यादव-बदलाव की लहर है. इस किताब में उन्होंने अखिलेश की निजी जिंदगी से जुड़ी कई अहम बातें भी बताई हैं. किताब के मुताबिक, अखिलेश और डिंपल दोस्त से मिलने का बहाना बनाकर एक दूसरे से छुप छुपकर मिलते थे. इसके बादचार साल की दूरी, परिवार का विरोध, लेकिन बावजूद इसके इस जोड़ी ने हर बाधा को पार किया और आज जीवनसाथी है और दोनों के तीन बच्चे है.

लेकिन हर कदम पर डिंपल यादव ने साथ चलकर ये दिखाया है कि वे अखिलेश की एक परफेक्ट वाइफ है जो पर्सनल, प्रोफेशनल दोनों तरीके से उनका साथ देती है.

नीतीश कुमार ने विधानसभा में किया महिला विधायक का अपमान, हुए आपे से बाहर

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एक बार फिर आपे से बाहर हो गए और एक ‘महिला विधायक’ को इंगित करते हुए कुछ ऐसा कह दिया, जो खुद उन के लिए आफत बन गया है और अब जब वे घिरे गए हैं, तो उन से जवाब देते नहीं बना, मगर उन्होंने अपनी गलती या माफी नहीं मांगी, नतीजतन वे और उन का बरताव आज देशभर में चर्चा की बात बन गए हैं.

अच्छा होता कि नीतीश कुमार तत्काल अपने कथन को ले कर माफी मांग लेते, मगर आज हमारे समाज और देशप्रदेश में जो लोग ऊंचे ओहदों पर पहुंच जाते हैं, वे अपनेआप को सबकुछ समझते हैं और अपनी गलती पर माफी मांगने में उन्हें शर्म आती है.

नीतीश कुमार के तेवर

दरअसल, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार विधानसभा में अपना आपा खो बैठे और राष्ट्रीय जनता दल की विधायक रेखा देवी पर गुस्से में आ कर एक विवादास्पद टिप्पणी करते हुए कहा – ‘अरे महिला हो, कुछ जानती नहीं हो.”

नीतीश कुमार के इस कथन को ले कर विधानसभा में हंगामा खड़ा हो गया. थोड़ी देर बाद उन्हें बात समझ में आ गई कि गलती हो गई है, मगर अपनी गलती को छिपाने के बजाय समझदारी दिखाते हुए गलती स्वीकार कर लेते, तो बात वहीं खत्म हो जाती.

बिहार की मुख्यमंत्री रह चुकीं और राज्य विधानपरिषद में प्रतिपक्ष की नेता राबड़ी देवी ने इस मुद्दे पर कहा, “मुख्यमंत्री के साथ ऐसा पहली बार नहीं हुआ है… लोग जानते हैं कि उन के (नीतीश) मन में महिलाओं के लिए कोई सम्मान नहीं है. उन्होंने विधानसभा में जोकुछ किया है, वह सरासर एक महिला का अपमान है. जद (यू) नेताओं और राजग के अन्य गठबंधन सहयोगियों के मन में महिलाओं के लिए कोई सम्मान नहीं है. महिलाओं का सम्मान केवल राजद और इंडिया गठबंधन के नेताओं में ही है.”

यह महिलाओं का अपमान

नीतीश कुमार बिहार विधानसभा में अपनी कही हुई बातों के चलते चर्चा में रहे हैं. पहले भी उन्होंने कुछ ऐसी बातें कह दी थीं, जो संसदीय नहीं की जा सकती हैं.

रेखा देवी, जिन्हें इंगित करते हुए नीतीश कुमार ने टिप्पणी की थी, ने कहा, “नीतीश कुमारजी ने विधानसभा में जोकुछ कहा, वह एक महिला का अपमान है. उन्होंने मेरे साथ ऐसा किया… यह पहली बार नहीं हुआ है. हम आज यहां अपने नेता और पार्टी प्रमुख लालू प्रसाद की वजह से हैं… नीतीश कुमार की वजह से नहीं. नीतीश कुमार ने सदन में एक दलित विधायक का अपमान किया है. ऐसा लगता है कि मुख्यमंत्री का अपने दिमाग पर कोई नियंत्रण नहीं रहा.”

दरअसल, बिहार विधानसभा में 24 जुलाई, 2024 को राज्य के संशोधित आरक्षण कानूनों को संविधान की 9वीं अनुसूची में शामिल किए जाने की मांग को ले कर विपक्षी सदस्य हंगामा और नारेबाजी कर रहे थे. हंगामे के बीच मुख्यमंत्री नीतीश कुमार दखल देने के लिए उठ खड़े हुए. उस समय राजद की मसौढी से विधायक रेखा देवी अपनी बात कह रही थीं.

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने रेखा देवी की ओर उंगलियां दिखाते हुए ऊंची आवाज में कहा, “अरे महिला हो, कुछ जानती नहीं हो. इन लोगों (राजद) ने किसी महिला को आगे बढ़ाया था. क्या आप को पता है कि मेरे सत्ता संभालने के बाद ही बिहार में महिलाओं को उन का हक मिलना शुरू हुआ. 2005 के बाद हम ने महिलाओं को आगे बढ़ाया है. बोल रही हो, फालतू बात… इसलिए कह रह हैं, चुपचाप सुनो. ”

उन के इतना कहते ही सदन में हल्ला बोल शुरू हो गया. एक महिला विधायक से इस तरह मुखातिब होने का विपक्षी सदस्यों द्वारा विरोध किए जाने पर मुख्यमंत्री ने कहा, “अरे क्या हुआ… सुनोगे नहीं… हम तो सुनाएंगे और अगर नहीं सुनिएगा, तो यह आप की गलती है.”

बाद में संसदीय कार्यमंत्री विजय कुमार चौधरी ने दखल देते हुए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से आसन को संबोधित करने का अनुरोध किया तो नीतीश कुंअर ने विपक्षी सदस्यों के बारे में कहा, “आप समझ लीजिए कि हम लोगों ने 1-1 चीज को लागू कर दिया है.”

इधर तेजस्वी यादव ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की टिप्पणी को ‘महिला विरोधी व असभ्य’ करार दिया. उन्होंने आरोप लगाया कि महिलाओं के खिलाफ बयानबाजी नीतीश कुमार की आदत है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार मुख्यमंत्री के साथसाथ एक वरिष्ठतम विधायक हैं, उन्हें अपनी बात आसन को संबोधित करते हुए कहनी चाहिए थी, मगर जिस ढंग और शब्दों में उन्होंने आसन की अनदेखी कर के अपनी बात कही, वह हर नजरिए से आलोचना की बात बन गई है.

कांवड़ यात्रा : राहुल की मुहब्बत की दुकान, योगी के फैसले पर सवाल

उत्तर प्रदेश की योगी आदित्य नाथ सरकार पर संकट के बादल गहरे काले होते जा रहे हैं. एक तरफ नरेंद्र मोदी की चाह है कि योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री पद से मुक्त हो जाएं, तो दूसरी तरफ योगी आदित्यनाथ और उन के खास लोग ऐसा नहीं चाहते हैं.

बहुचर्चित कांवड़ यात्रा के संबंध में कहा जा सकता है कि सावन का महीना हो और बादल घने और पानी लिए न हों, भला यह कैसे मुमकिन है. कोई योगी हो तो भला वह आधुनिक विचारों से संपन्न कैसे हो सकता है. हालांकि, अपवाद हो सकते हैं, होते हैं, मगर उत्तर प्रदेश की बदहाली देखिए कि गोरखनाथ मठ के प्रमुख योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बन गए हैं. इस के बाद से मुख्यमंत्री पद का जो पतन हुआ है, वह सारा देश और दुनिया जानती है. सच तो यह है कि हिंदू आज आधुनिक सोच के साथ दुनियाभर में देश की कामयाबी का परचम लहरा रहे हैं, मगर योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री की कुरसी पर बैठ कर जिस तरह के फैसले ले रहे हैं, उन से हंसी भी आती है और रोना भी आता है.

कांवड़ यात्रा को ले कर आज देशभर में उत्तर प्रदेश चर्चा का केंद्र बन गया है और सरकार योगी आदित्यनाथ की छीछालेदर हो रही है. यहां तक कि भारतीय जनता पार्टी के सहयोगी दल भी मुखर हो चुके हैं और विरोध कर रहे हैं. अब सवाल यह है कि क्या योगी आदित्यनाथ पीछे हटेंगे? क्या वे यह कहेंगे कि यह फैसला उन का नहीं है, बल्कि प्रशासनिक लैवल पर लिया गया था और अपनी छवि बचाएंगे या फिर पूरे मामले में नया ट्विस्ट आएगा? सचमुच यह सब देखना दिलचस्प होगा.

भाजपा में खतरे की घंटी

कांवड़ यात्रा मार्ग पर बने ढाबों पर अपने नाम लिखने के उत्तर प्रदेश सरकार के आदेश की आम आदमी भी आलोचना कर रहा है. यह सचमुच हमारे देश की गंगाजमुना संस्कृति पर एक बड़ी चोट है. यही वजह है कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के सहयोगी दलों ने सवाल उठाए हैं.

जनता दल (यूनाइटेड) के नेता नीतीश कुमार, लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के नेता चिराग पासवान के बाद राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष और केंद्रीय राज्य मंत्री जयंत चौधरी ने भी सवाल उठाए हैं, जो यह बताते हैं कि जल्द ही योगी आदित्यनाथ की विदाई मुमकिन है या फिर वे राजनीति में एक पिटा हुआ चेहरा बन कर रह जाएंगे.

अपने पिता चौधरी चरण सिंह को ‘भारत रत्न’ मिलने से गदगद हुए जयंत चौधरी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से जुड़ गए हैं, मगर योगी आदित्यनाथ के इस फैसले पर उन्होंने सरकार के फैसले की आलोचना करते हुए कहा, ‘ऐसा लगता है कि यह आदेश बिना सोचेसमझे लिया गया है और सरकार इस पर इसलिए अड़ी हुई है, क्योंकि फैसला हो चुका है. कभीकभी सरकार में ऐसी चीजें हो जाती हैं.’

उन्होंने आगे कहा, ‘अब भी समय है कि इसे वापस लिया जाए या सरकार को इसे लागू करने पर ज्यादा जोर नहीं देना चाहिए. कांवड़ की सेवा सभी करते हैं. कांवड़ की पहचान कोई जाति से नहीं की जाती है. इस मामले को धर्म और जाति से नहीं जोड़ा जाना चाहिए. कहांकहां नाम लिखें, क्या अब कुरते पर भी नाम लिखना शुरू कर दें, ताकि देख कर यह तय किया जा सके कि हाथ मिलाना है या गले लगाना है?’

इस से पहले नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल (यूनाइटेड) के प्रवक्ता केसी त्यागी ने फैसले की समीक्षा करने की मांग की. उन्होंने कहा कि ऐसा कोई भी आदेश जारी नहीं किया जाना चाहिए, जिस से समाज में सांप्रदायिक विभाजन पैदा हो. कई मौके पर मुजफ्फरनगर के मुसलमान कांवड़ यात्रियों की मदद करते देखे गए हैं.

राजग केंद्र सरकार में शामिल केंद्रीय मंत्री चिराग पासवान ने भी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के फैसले पर सवाल उठाए हैं. उन्होंने कहा, ‘मेरी लड़ाई जातिवाद और सांप्रदायिकता के खिलाफ है, इसलिए जहां कहीं भी जाति और धर्म के विभाजन की बात होगी, मैं उस का कभी भी समर्थन नहीं करूंगा.’

दूसरी ओर, भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता मुख्तार अब्बास नकवी ने पहले तो योगी सरकार के फैसले पर सवाल उठाए और इसे छुआछूत को बढ़ावा देने वाला बताया, पर बाद में कहा कि राज्य सरकार के आदेश से साफ है कि कांवड़ियों की आस्था को ध्यान में रखते हुए यह फैसला लिया गया है, लेकिन कुछ लोग सांप्रदायिकता फैलाने की कोशिश कर रहे हैं.

इस तरह भारतीय जनता पार्टी का चरित्र आज देश के चौराहे पर खड़ा है. दूसरी तरफ मजेदार बात किया है कि कांवड़ यात्रा के रास्ते पर कांग्रेस के नेता राहुल गांधी की मुहब्बत की दुकान के पोस्टर दिखाई देने लगे हैं, जो बताता है कि उन की लोकप्रियता और विचार अब देश की जनता स्वीकार करने लगी है. यह सीधेसीधे नरेंद्र मोदी सरकार के लिए खतरे की घंटी है.

राहुल गांधी का संसद में बयान, क्यों बौखलाई भाजपा

लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष के रूप में राहुल गांधी का पहला भाषण ऐसा लगता है मानो भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर बिजली की तरह गिरा. राहुल गांधी के भाषण की जैसी प्रतिक्रिया देशभर में आई है, वह बताती है कि राहुल गांधी का एकएक शब्द लोगों ने ध्यान से सुना और भाजपा तो मानो चारों खाने चित हो गई. यही कारण है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उठ खड़े हुए और उन्होंने सफाई दी.

अब भाजपा नेताओं, नरेंद्र मोदी सहित संघ ने मोरचा संभाला और कहा कि राहुल गांधी हिंदुओं को ऐसावैसा कह रहे हैं….देखिए… जबकि हकीकत यह है कि जिस ने भी राहुल गांधी का भाषण सुना है, वह जानता है कि राहुल गांधी ने भाजपा और संघ पर टिप्पणी की है और कहा कि हिंदू समाज ऐसा नहीं है मगर भरम यह फैलाया जा रहा है कि राहुल गांधी ने संपूर्ण हिंदू समाज को हिंसक कहा है जो सीधेसीधे गलत है.

दरअसल, भाजपा के काम करने का ढंग यही है कि वह बातों को तोड़मरोड़ देती है. इस का सब से बड़ा उदाहरण है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसद में खड़े हो कर के कहना कि राहुल गांधी हिंदुओं को हिंसक कर रहे हैं, जबकि राहुल ने क्या कहा, यह साफ है.

लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने सोमवार, 1 जुलाई, 2024 को भाजपा पर देश में हिंसा, नफरत और डर फैलाने का आरोप लगाया और दावा किया, ‘ये लोग हिंदू नहीं हैं, क्योंकि 24 घंटे की हिंसा की बात करते हैं.’

राहुल गांधी ने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर लाए गए धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा में भाग लेते हुए कहा, ‘हिंदू कभी हिंसा नहीं कर सकता, कभी नफरत और डर नहीं फैला सकता.’

राहुल गांधी ने जब भाजपा पर यह आरोप लगाया तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की बौखलाहट साफ दिखाई दी. दोनों ने आपत्ति जताते हुए कहा कि कांग्रेस नेता ने पूरे हिंदू समाज को हिंसक कहा है.

राहुल गांधी ने भाजपा पर युवाओं, छात्रों, किसानों, मजदूरों, दलितों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों में डर पैदा करने का आरोप लगाया. उन्होंने कहा कि भाजपा के लोग अल्पसंख्यकों, मुसलमानों, सिखों एवं ईसाइयों को डराते हैं, उन पर हमला करते हैं और उन के खिलाफ नफरत फैलाते हैं, लेकिन अल्पसंख्यक इस देश के साथ हैं.

नरेंद्र मोदी सामने आए

लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने भारतीय जनता पार्टी पर निशाना साधते हुए कहा कि खुद को हिंदू कहने वाले हर समय ‘हिंसा और नफरत फैलाने’ में लगे हैं, जिस पर सत्ता पक्ष के सदस्यों ने जोरदार तरीके से विरोध जताया.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सामने आए और कहा, “पूरे हिंदू समाज को हिंसक कहना बहुत गंभीर बात है.” हालांकि राहुल गांधी ने प्रतिक्रिया में कहा कि वे भाजपा की बात कर रहे हैं और भाजपा, नरेंद्र मोदी या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पूरा हिंदू समाज नहीं हैं.

कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने सदन में कई बार भगवान शिव की एक तसवीर दिखाते हुए कहा कि वे अहिंसा और निडरता का संदेश देते हैं. सदन में राष्ट्रपति अभिभाषण के धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा में भाग लेते हुए राहुल गांधी ने कहा, ‘सभी धर्मों और हमारे सभी महापुरुषों ने अहिंसा और निडरता की बात की है. वे कहते थे कि डरो मत, डराओ मत.’

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सामने आया

संघ ने लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के बयान पर आपत्ति जाहिर की. संघ की ओर से कहा गया कि हिंदुत्व को हिंसा से जोड़ना अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है. विश्व हिंदू परिषद ने भी राहुल के भाषण की भर्त्सना की है. हिंदुत्व चाहे विवेकानंद का हो या गांधी का, वह सौहार्द्र व बंधुत्व का परिचायक है. हिंदुत्व के बारे में ऐसी प्रतिक्रिया ठीक नहीं है.

विश्व हिंदू परिषद के अध्यक्ष आलोक कुमार ने कहा कि लोकसभा में राहुल गांधी ने बहुत ही नाटकीय आक्रामकता से भरा भाषण दिया है. नेता प्रतिपक्ष के नाते शायद उन के पहले भाषण में अपनेआप को साबित करने का जोश होगा. इस दौरान वे बोल गए कि हिंदू समाज हिंसक होता है.

संघ के सुनील आंबेकर ने कहा कि संसद में जिम्मेदार लोगों द्वारा हिंदुत्व को हिंसा से जोड़ना दुर्भाग्यजनक है.
उन्होंने कहा कि जिस हिंदू समाज के भिक्षुक पैदल ही दुनिया का भ्रमण करते थे, अपने प्रेम से, तर्क से, करुणा से लोगों को हिंदू बनाते थे, उस समाज पर ऐसा आरोप लगाने की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती थी.

कुलमिला कर राहुल गांधी के कथन से भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दोनों के हाथों के तोते उड़े हुए हैं.

काले धन का नया झांसा

भारत में लोकसभा चुनाव का प्रचार जब अपनी हद पर था, तो 6 मई, 2024 को देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हैदराबाद में कहा था, ‘‘मैं भ्रष्टाचार से लूटे गए गरीबों के धन को वापस करने के बारे में कानूनी सलाह ले रहा हूं. मेरा ध्यान मेरे लिए इस्तेमाल किए जाने वाले अपशब्दों पर नहीं, बल्कि उन गरीब लोगों पर है, जिन का धन लूटा गया है. इस के लिए कानूनी सलाह ली जा रही है कि वह धन गरीबों को वापस कैसे किया जा सकता है.’’

दरअसल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह कहते हुए सीधेसीधे यह बात मान ली है कि दुनिया की 5वीं बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के बाद भी देश में इफरात से गरीब और गरीबी है.

दूसरी बात यह कि 8 नवंबर, 2016 को नोटबंदी के फैसले के समय नरेंद्र मोदी की ही की गई यह घोषणा भी खोखली निकली कि इस से देश में काला धन खत्म हो जाएगा.

इसी से जुड़ी तीसरी अहम बात यह कि 10 साल में काले धन को बंद करने के लिए कुछ नहीं कर पाए हैं, उलटे, यह दिनोंदिन बढ़ ही रहा है. इस के लिए उन्होंने जो कुछ कर रखा है, वह अभी किसी को नजर नहीं आएगा. हां, जिस दिन जनता उखाड़ फेंकेगी, उस दिन जोजो सामने आएगा, उस की भी कल्पना हर कोई नहीं कर सकता.

चौथी और असल बात यह थी कि 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन और दूसरी योजनाओं के जरीए इमदाद देने के बाद भी भाजपा को उम्मीद के मुताबिक वोट और सीटें नहीं मिल रही हैं, इसलिए वोटों के लिए वही लालच दिया जा रहा है, जो आज से 10 साल पहले दिया गया था कि देश में इतना काला धन है कि उसे पकड़ कर हरेक के खाते में 15-15 लाख डाल दूंगा.

नरेंद्र मोदी के इस ?ांसे से लोगों को कोई खास खुशी नहीं हुई, क्योंकि वे एक बार नहीं, बल्कि कई बार ऐसे धोखे पिछले 10 साल में खा चुके हैं.

इत्तिफाक से इसी दिन झारखंड के ग्रामीण विकास मंत्री आलमगीर के पीएस संजीव लाल के नौकर जहांगीर आलम के यहां से तकरीबन 35 करोड़ रुपए की नकदी बरामद हुई थी, जिसे चारा बना कर जनता के सामने उन्होंने पेश किया कि इस पैसे पर पहला हक तुम्हारा है, जो तुम्हें दिया भी जा सकता है, लेकिन इस के लिए जरूरी है कि मुझे तीसरी बार प्रधानमंत्री बनाओ.

अब इस इत्तिफाक में लोग भाजपा सरकार का यह रोल भी देख रहे हैं कि कहीं यह उस का ही कियाधरा तो नहीं. वजह, आजकल सबकुछ मुमकिन है और चुनाव जीतने के लिए नेता किसी भी हद तक जा सकते हैं. यह पैसा ईमान का था या बेईमानी का, इस बारे में कोई भी दावे से कुछ नहीं कह सकता. इस में हैरानी की एकलौती बात यह है कि इसे संभाल कर कमरे में रखा गया था यानी इसे कभी न कभी खर्च किया जाता, जिस से यह बाजार में आता.

मंदिरों में तो जाम है पैसा

जो नकदी झारखंड से बरामद हुई, वह उन पैसों के आगे कुछ नहीं है, जो मंदिरों में जाम पड़ा है. तथाकथित भ्रष्टाचार का पैसा अगर गरीबों का है, तो मंदिरों में सड़ रहा खरबों रुपया किस का है, प्रधानमंत्री कभी इस पर क्यों नहीं बोलते? क्या यह पैसा भी लूट का नहीं, जो लोकपरलोक सुधारने व मोक्षमुक्ति वगैरह के नाम पर पंडेपुजारियों द्वारा झटका जाता है? यह पैसा क्यों गरीबों में नहीं बांट दिया जाता, जिस के लिए किसी कानूनी सलाह की भी जरूरत नहीं?

गरीबों के लिए दुबलाए जा रहे प्रधानमंत्री चाहें तो एक झटके में देश से गरीबी दूर हो सकती है, उन्हें बस मंदिरों का पैसा गरीबों में बांटे जाने का हुक्म देना भर है, लेकिन वे ऐसा करेंगे नहीं, क्योंकि सत्ता गरीबों के वोट से ही मिलती है.

एक दफा लोकतंत्र खत्म हो जाए, संविधान मिट जाए, लेकिन गरीबी पर आंच नहीं आनी चाहिए. जवाहरलाल नेहरू से ले कर इंदिरा गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी से ले कर मनमोहन सिंह की सरकारों ने भी गरीबी दूर करने की सिर्फ बातें की थीं, गरीबी हटाओ के लुभावने नारे दिए थे, लेकिन इसे दूर करने को कुछ ठोस नहीं किया था. यही नरेंद्र मोदी कर रहे हैं.

फंडा बहुत सीधा है कि जब तक धर्म और धर्मस्थल हैं, तब तक गरीबी दूर नहीं हो सकती. इन के चलते गरीब निकम्मा, निठल्ला और भाग्यवादी बना रहता है. वह मेहनत भी कामचलाऊ करता है और जब पेट पीठ से चिपकने लगता है, तो सरकार अपने गोदामों के शटर उठा देती है, जिस से वह भूखा न मरे.

देश के लिए तो वह किसी काम का नहीं, लेकिन धर्म के लिए उसे जिंदा रखा जाता है. वैसे भी मंदिरों के पैसों पर हक भाजपा का ही है, जिसे सलामत रखने की बाबत वह पंडेपुजारियों को पगार और कमीशन देती है, एवज में भगवान के ये एजेंट भाजपा के लिए वोटों की दलाली करते हैं. इन के कोई उसूल नहीं होते. एक वक्त में यही काम ये लोग कांग्रेस के लिए भी करते थे. इन का भगवान सिर्फ बिना मेहनत से आया पैसा होता है, जो इन दिनों मोदी सरकार उन्हें दरियादिली से दिला रही है.

जब पैसे वालों को तसल्ली हो जाती है कि गरीब हैं और गरीबी किसी सरकार की देन नहीं, बल्कि इन के पिछले जन्मों के पापों का फल है, तो वह दान की, पूजापाठ की तादाद बढ़ा देता है, ताकि अगले जन्म में वह गरीबी में पैदा न हो.

ऐसे में छापों के पैसों से गरीबी दूर करने का झांसा देना एक बड़ी चालाकी है. बात तो तभी बन सकती है, जब मंदिरों के खजानों का मुंह गरीबों के लिए खोल दिया जाए.

देश के मंदिरों के पैसे की थाह लेना आसान नहीं है, लेकिन यह हर कोई जानता है कि उन में अथाह धन है. हाल तो यह है कि एक अकेले तिरुपति मंदिर की जायदाद से ही गरीबी दूर हो सकती है. कुबेर के इस रईस मंदिर के ट्रस्ट के मुताबिक, बैंकों में 16,000 करोड़ रुपए की एफडी हैं, जिन का ब्याज ही करोड़ों में होता है. देशभर में मंदिर ट्रस्ट की 960 प्रोपर्टी हैं, जिन की कीमत भी अरबों रुपए में है.

मंदिर के पास 11 टन सोना है और तकरीबन ढाई टन सोने के गहने हैं. साल 2022-23 में ही जमा पैसे पर 3,100 करोड़ रुपए ब्याज में मिले थे और रोज करोड़ों का चढ़ावा बदस्तूर आ ही रहा है.

अगर इस में अयोध्या, काशी, शिरडी, वैष्णो देवी, उज्जैन सहित चारों धामों का भी पैसा मिला दिया जाए, तो देश में अमीरों की भरमार हो जाएगी. लेकिन फिर वे भाजपा को वोट नहीं देने वाले, क्योंकि फिर उन्हें धर्म की जरूरत नहीं रह जाएगी और भाजपा को इस के सिवा कुछ और आता नहीं, जो पूरे चुनाव प्रचार में मुसलिमों का डर दिखाते रामश्याम और राधेराधे करती रही. उस का मकसद पंडेपुजारियों की आमदनी पक्की करना है.

पब्लिक मीटिंगों में विपक्षियों को कोसते रहना नरेंद्र मोदी की कोई सियासी मजबूरी नहीं, बल्कि चालाकी है कि ये अगर सत्ता में आए, तो मुफ्त की तगड़ी कमाई वाला धर्म और मंदिर खत्म कर देंगे, फिर सब बैठ कर चिमटा हिलाते रहना. अगर इस पैसे की, इस सनातनी सिस्टम की हिफाजत चाहते हो, तो मुझे वोट दो, मैं गरीबी बनाए रखूंगा, यह मेरी गारंटी है.

लोकसभा चुनाव : मुसलिम वोटरों की खामोशी क्यों

सा ल 2024 का लोकसभा चुनाव जीतने के लिए सभी दल एड़ीचोटी का जोर लगा रहे हैं, मगर जीत का सेहरा किस के सिर बंधेगा, यह बड़ेबड़े राजनीतिक जानकार भी नहीं भांप पा रहे हैं. दलितों और मुसलिमों को साधने की कोशिश तो

सब की है, लेकिन उन के मुद्दे सिरे से गायब हैं. तीन तलाक को खत्म कर के भाजपा की मोदी सरकार मुसलिम औरतों की नजर में हीरो बनी थी, लेकिन अब चुनाव के वक्त तीन तलाक खारिज करने का गुणगान कर के वह मुसलिम मर्दों को भी नाराज नहीं कर सकती.

औरतें वोट डालने जाएं या न जाएं, ज्यादातर मुसलिम परिवारों में यह बात मर्द ही तय करते हैं. यही वजह है कि भाजपा की चुनावी रैलियों में तीन तलाक किसी नेता के भाषण का हिस्सा नहीं है.

उधर समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव मुसलिमों के दिल में जगह बनाने लिए पिछले दिनों  बाहुबली नेता मुख्तार अंसारी की मौत के बाद उन के घर तक जा पहुंचे थे. उन की मौत का गम मनाया था. उस के बाद मुसलिम वोट साधने के लिए लखनऊ के कई नवाबी खानदानों से भी मुलाकातें की थीं, ईद की सेवइयां चखी थीं, लेकिन इन कवायदों

का आम मुसलिम पर कितना असर होगा, वह जो बिरयानी का ठेला लगाता है या साइकिल का पंचर जोड़ता है या सब्जी बेचता है या फिर काश्तकारी करता है, इस का अंदाजा अखिलेश यादव खुद नहीं लगा पाए थे.

असल माने में तो वोट देने वाला यही तबका है. नवाबी खानदानों से तो एकाध कोई वोट डालने बूथ तक जाए तो जाए. अब कांग्रेस की बात करें तो वह अगर मुसलिमों के लिए कोई बात करती है, तो भाजपाई नेता सीधे गांधी परिवार पर हमलावर हो उठते हैं और उसे मुसलिम बताने लगते हैं, इसलिए कांग्रेस भी मुसलिमों और उन के मुद्दों को ले कर तेज आवाज में नहीं बोल रही है.

एक तरफ राजनीतिक दल पसोपेश में हैं कि मुसलिम किस के कितने करीब हैं, दूसरी तरफ मुसलिम अपने वोट को ले कर खामोशी ओढ़े हुए हैं.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुसलिम बहुल इलाकों में भी खामोशी पसरी हुई है. इस खामोशी में किस की जीत छिपी है, यह वोटिंग का नतीजा आने के बाद ही पता चल सकेगा.

कुछ दिनों पहले उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने मदरसा शिक्षा पर रोक लगाने की कोशिश की थी और राज्यभर के सभी 16,000 मदरसों के लाइसैंस रद्द कर दिए थे. मामला हाईकोर्ट होता हुआ सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा. सुप्रीम कोर्ट ने ‘यूपी बोर्ड औफ मदरसा ऐजूकेशन ऐक्ट 2004’ को असंवैधानिक करार देने वाले इलाहाबाद हाईकोर्ट के 22 मार्च, 2024 के फैसले पर रोक लगा दी.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट के फैसले से 17 लाख मदरसा छात्रों पर असर पड़ेगा और छात्रों को दूसरे स्कूल में ट्रांसफर करने का निर्देश देना उचित नहीं है.

मदरसे बंद करने के योगी सरकार की कोशिश पर सरकार में मंत्री दानिश आजाद अंसारी ने सफाई पेश की. उन्होंने कहा कि सरकार चाहती थी कि मुसलिम बच्चों को भी उसी तरह सरकारी स्कूलों में हिंदी, इंगलिश, साइंस, भूगोल, इतिहास, कंप्यूटर वगैरह की तालीम मिले, जैसी हिंदू और दूसरे धर्मों के बच्चों को मिलती है. बच्चों के अच्छे भविष्य के लिए मदरसा तालीम को कमतर किया जा रहा था.

बेहतर तालीम मुसलिम नौजवानों को मिले, इस के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में योगी सरकार हमेशा पौजिटिव काम करती रही है. मगर सरकार सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का पालन करेगी.

सरकार की एकतरफा कार्यवाही

वहीं दूसरी ओर इस मामले में मुसलिम धर्मगुरुओं और नेताओं की कई प्रतिक्रियाएं आईं. मौलाना खालिद रशीद फरंगी महली ने कोर्ट के फैसले का स्वागत किया. मुसलिमों के कई बड़े रहनुमाओं ने सुप्रीम कोर्ट का शुक्रिया अदा किया कि उस ने मदरसा तालीम को बरकरार रखा.

केंद्रीय स्कूल के शिक्षक मोहम्मद अकील कहते हैं, ‘‘मदरसों में बहुत गरीब मुसलिम परिवारों के बच्चे पढ़ने जाते हैं. मुसलिम यतीमखानों के बच्चे भी वहां पढ़ते हैं. वहां उन को दोपहर का भोजन मिल जाता है. किताबें और कपड़े मिल जाते हैं.

‘‘ज्यादातर बच्चों के परिवार इतने पिछड़े, गरीब और अनपढ़ हैं कि वे अपने बच्चों को दीनी तालीम और एक वक्त की रोटी के नाम पर मसजिदमदरसों में तो भेज देंगे, मगर किसी सरकारी स्कूल में नहीं भेजेंगे.

‘‘वे अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में भेजने को तैयार हों, इस के लिए पहले सरकार इन परिवारों की काउंसलिंग करे, इन की जिंदगी को सुधारे, उन में तालीम की जरूरत की सम?ा पैदा करे, फिर उन के बच्चों को मदरसा जाने से रोके और सरकारी स्कूल में दाखिला दे.

‘‘ऐसे ही एक आदेश पर मदरसे बंद कर देने से आप इन बच्चों के मुंह से एक वक्त की रोटी भी छीने ले रहे हैं. सरकार का यह कदम बहुत ही गलत है. उस

को पहले हिंदुओं के गुरुकुल बंद करने चाहिए, फिर मदरसों की ओर देखना चाहिए.’’

भाजपा सरकार की मदरसा नीति पर भी मुसलिम तबका बंटा हुआ है. हो सकता है कि सरकार की मंशा मुसलिम बच्चों को बेहतर तालीम देने की हो मगर ज्यादातर इस कदम को मुसलिमों पर हमले के तौर पर ही देख रहे हैं. ऐसे में भाजपा से मुसलिम तबका इस वजह से भी छिटक गया है.

बीते रमजान के आखिरी पखवारे में हिंदुओं का नवरात्र भी शुरू हो गया था. उन के भी व्रत थे. लिहाजा, सरकार ने मीटमछली की दुकानें बंद करवा दीं. यहां तक कि ठेलों पर बिरयानी बेचने वालों को भी घर बिठा दिया गया. ईद के दिन 90 फीसदी मीट की दुकानें बंद थीं. कई मुसलिम घरों में बिना नौनवैज के ईद मनी.

मुसलिम तबके ने कोई शिकायत नहीं की, मगर कांग्रेस के समय को जरूर याद किया. ऐसा अनेक बार हुआ होगा, जब ईद और नवरात्र इकट्ठे पड़े, लेकिन कांग्रेस के वक्त ईद के रोज मीट की दुकानें बंद नहीं हुईं.

पश्चिम बंगाल में सालोंसाल मछली बिकती है, फिर चाहे नवरात्र हों या दीवाली, क्योंकि वहां के हिंदुओं का मुख्य भोजन मछली है. आखिर जिस का जैसा खानपान है, वह तो वही खाएगा, उस पर रोकटोक करने वाली सरकार कौन होती है?

मगर भाजपा सरकार मुसलिमों के खानपान पर बैन लगाने में उस्ताद है. हलाल और झटके के मामले में भी उस ने मुसलिमों को परेशान किया. ऐसे में उन के वोट भाजपा को कैसे मिल सकते हैं.

कम होते मुसलिम नुमाइंदे पश्चिमी उत्तर प्रदेश, जहां से सब से ज्यादा मुसलिम प्रतिनिधि संसद पहुंचते रहे हैं, उस मुसलिम बहुल इलाके में भी खामोशी है. साल 2013 के सांप्रदायिक दंगों के बाद हुए ध्रुवीकरण के माहौल

में साल 2014 के चुनाव में इस इलाके से एक भी मुसलिम प्रतिनिधि नहीं चुना गया.

साल 2019 में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल ने मिल कर चुनाव लड़ा, तो 5 मुसलिम सांसद पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सीटों से जीत कर संसद पहुंचे थे. सहारनपुर से हाजी फजलुर रहमान, अमरोहा से दानिश अली, संभल से

डा. शफीकुर्रहमान बर्क, मुरादाबाद से एसटी हसन और रामपुर से आजम खान ने जीत दर्ज की थी.

लेकिन साल 2024 का चुनाव आतेआते राजनीतिक समीकरण बदल गए हैं. समाजवादी पार्टी कांग्रेस के साथ ‘इंडिया’ गठबंधन में है, राष्ट्रीय लोकदल अब भाजपा के साथ है और बहुजन समाज पार्टी अकेले चुनाव लड़ रही है.

ऐसे में सवाल उठता है कि क्या नए बदले समीकरणों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश से मुसलिम सांसद फिर से चुन कर संसद पहुंच पाएंगे? यह सवाल और गंभीर तब हो जाता है, जब कई मुसलिम बहुल सीटों पर समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के मुसलिम उम्मीदवार आमनेसामने हैं.

सहारनपुर में कांग्रेस के उम्मीदवार इमरान मसूद हैं, तो बहुजन समाज पार्टी ने माजिद अली को टिकट दिया है. वहीं, अमरोहा में मौजूदा सांसद दानिश अली इस बार कांग्रेस के टिकट पर मैदान में हैं और बसपा ने मुजाहिद हुसैन को उम्मीदवार बनाया है.

संभल में सांसद रह चुके और अब इस दुनिया में नहीं रहे डा. शफीकुर्रहमान बर्क के पोते जियाउर्रहमान बर्क को समाजवादी पार्टी ने टिकट दिया है, तो बसपा ने यहां सौलत अली को उम्मीदवार बनाया है.

मुरादाबाद से समाजवादी पार्टी ने मौजूदा सांसद एसटी हसन का टिकट काट कर रुचि वीरा को उम्मीदवार बनाया है, जबकि यहां बसपा ने इरफान सैफी को टिकट दिया है.

रामपुर में आजम खान जेल में हैं. समाजवादी पार्टी ने यहां मौलाना मोहिबुल्लाह नदवी को टिकट दिया है, जबकि बसपा से जीशान खां मैदान में हैं. कई सीटों पर मुसलिम उम्मीदवारों के आमनेसामने होने की वजह से यह सवाल उठा है कि क्या पश्चिमी उत्तर प्रदेश से एक बार फिर मुसलिम प्रतिनिधि चुन कर संसद पहुंच सकेंगे?

संसद में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व लगातार घटता जा रहा है, क्योंकि पिछले कुछ सालों में ऐसा माहौल बनाया गया है कि जहां कोई मुसलिम उम्मीदवार होता है, वहां सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने की साजिश की जाती है. यह बड़ा सवाल है कि देश की एक बड़ी आबादी का प्रतिनिधित्व लगातार घट रहा है.

भारतीय जनता पार्टी नारा देती है कि ‘कांग्रेस मुक्त भारत’, लेकिन असल में इस का मतलब है ‘विपक्ष मुक्त भारत’ और ‘मुसलिम मुक्त विधायिका’. मुसलिम भाजपा की सोच से वाकिफ हैं. वे खामोश हैं, मगर उन की खामोशी का यह मतलब नहीं कि सरकार बनाने या बिगाड़ने में उस का रोल नहीं होगा.

लोकसभा चुनाव : क्या औरतों के रहमोकरम पर हैं मर्द नेता?

चुनाव जैसे ही नजदीक आते हैं, सभी पार्टियां जीतने के लिए बड़ेबड़े वादे करती हैं. 13 मार्च, 2024 को कांग्रेस ने औरतों के लिए ‘नारी न्याय गारंटी’ योजना का ऐलान किया. बताया गया कि यह पार्टी के घोषणापत्र का हिस्सा भी है. इस व दूसरे और वादों को राहुल गांधी ने अनाउंस किया.

‘नारी न्याय गारंटी’ योजना का वादा तो खासकर औरतों की आर्थिक व सामाजिक बैकग्राउंड को मजबूत करने को ले कर था, जिस में 5 बिंदु रखे गए :

– देश की गरीब औरतों को सालाना एक लाख रुपए की माली मदद.

– केंद्र सरकार की नई नियुक्तियों में 50 फीसदी औरतों को हक.

– आंगनबाड़ी, आशा और मिड डे मील वर्कर्स के मासिक वेतन दोगुने.

– हर पंचायत में औरतों की जागरूकता के लिए कानूनी सहायक की नियुक्ति.

– हर जिले में औरतों के लिए कम से कम एक होस्टल.

एक तरह से देखा जाए तो ये वादे अपनेआप में खासा दिलचस्प हैं, क्योंकि जिस तरह संपत्ति और तमाम हकों पर मर्दों का कब्जा है, उसे एक हद तक बैलेंस करने के लिए इस तरह के काम किए जाने जरूरी हैं.

दूसरे, यह जरूरी इसलिए भी है कि आज आम लोगों के पास परचेजिंग पावर कम हो रही है. मार्केट में वैल्थ सर्कुलेशन हो नहीं पा रहा है. पैसा कुछ खास लोगों के हाथों में ही सिमट रहा है.

ऐसे में गरीबों को डायरैक्ट कैश ट्रांसफर से देश की अर्थव्यवस्था को चलाए रखना बेहद जरूरी भी है. पर समस्या यह कि इस तरह के बड़े वादे अकसर डूबते खेमे से ही आते हैं, जिस पर बहुत ज्यादा उम्मीदें नहीं लगाई जा सकतीं.

हालांकि इस से एक सवाल तो बनता ही है कि आजादी के 75 साल बाद भी ऐसी नौबत क्यों है कि पक्षविपक्ष द्वारा औरतों के लिए ऐसे वादे करने पड़ रहे हैं? आखिर क्यों देश की आधी आबादी यानी औरतों को लुभाने के लिए चुनावी पार्टियों को तरहतरह के वादे करने पड़ रहे हैं?

इसी तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 8 मार्च, 2024 को सिलैंडर पर 100 रुपए की छूट देने का ऐलान किया. अपने चुनावी घोषणापत्र में भाजपा की तरफ से कहा गया है कि वह जीतने के बाद

सभी बीपीएल परिवारों की छात्राओं को केजी से पीजी तक मुफ्त तालीम का फायदा देगी.

पीएम उज्ज्वला योजना में औरतों को 450 रुपए में सिलैंडर दिया जाएगा.

15 लाख ग्रामीण औरतों को लखपति योजना के  तहत कौशल प्रशिक्षण दिया जाएगा. एक करोड़, 30 लाख से ज्यादा औरतों को माली मदद के साथसाथ आवास का फायदा मिलेगा. बीपीएल परिवारों की लड़कियों को 21 साल तक कुल 2 लाख रुपए का फायदा दिया जाएगा.

हालांकि सवाल यह भी है कि भाजपा की घोषणाओं से कितनी उम्मीद लगाई जाए? साल 2014 से पहले भाजपा ने ‘अच्छे दिन’, ‘हर साल 2 करोड़ नौकरियां’, ‘महंगाई कम करने’, ‘काला धन वापस लाने’ और ‘हर किसी के बैंक अकाउंट में 15 लाख रुपए डालने’ जैसे तमाम वादे किए थे. हालांकि, चुनाव के बाद सवाल पूछा गया, तो तब के भाजपा अध्यक्ष व वर्तमान में गृह मंत्री अमित शाह ने इसे चुनावी जुमला बता दिया था.

चुनाव में औरतों को लुभाने के लिए राष्ट्रीय पार्टियां ही कोशिश नहीं कर रही हैं, बल्कि क्षेत्रीय पार्टियां भी वादे कर रही हैं. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अपने ट्विटर हैंडल से 4 मार्च, 2024 को ट्वीट करते हुए कहा, ‘महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए आप की दिल्ली सरकार ने एक कदम आगे बढ़ते हुए अब महिलाओं को सालाना 12,000 रुपए की सौगात दी है. 18 साल से अधिक उम्र की हमारी सभी बहनबेटियों, माताओं और बहनों को अब मुख्यमंत्री सम्मान योजना के तहत 1,000 रुपए प्रतिमाह दिए जाएंगे.’

इसी तरह तमिलनाडु में भी द्रविड़ मुनेत्र कषगम सरकार व पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस सरकार हर महीने 1,000 रुपए डायरैक्ट ट्रांसफर कर रही हैं. तकरीबन सभी पार्टियां औरतों के लिए जरूरी घोषणाएं कर रही हैं.

यह सोचा जा सकता है कि अचानक इन पार्टियों में औरतों के प्रति ऐसा रु?ान क्यों होने लगा? इस की वजह पिछले एक दशक में औरतों के चुनावी भागीदारी में बड़ा बदलाव आना है. वे सब से बड़ा वोट बैंक बन कर उभरी हैं. इतना ही नहीं, विधानसभा चुनाव में बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल जैसे बड़े राज्यों में औरतों ने पिछले कुछ चुनावों में मर्दों से ज्यादा वोट डाले.

लोकसभा से ले कर विधानसभा चुनाव तक सभी जगह इन की वोटिंग में 10 से 15 फीसदी तक का भारी इजाफा देखने को मिला है. इसे इन आंकड़ों से सम?ाते हैं कि साल 2014 के लोकसभा चुनाव में मर्द और औरत वोटरों के वोटिंग फीसदी में सिर्फ डेढ़ फीसदी का फर्क था, जबकि साल 2019 में वे मर्दों से आगे निकल गईं. साल 2019 के चुनाव में मर्दों का वोटिंग फीसदी जहां 67.02 था, वहीं औरतों का 67.18 फीसदी था.

इस बढ़ते ट्रैंड और औरतों को ले कर हो रही घोषणाओं से ऐसा लग रहा है कि साल 2024 के चुनाव में औरत वोटरों की तादाद पिछली बार की तुलना में ज्यादा होगी. चुनाव आयोग के मुताबिक, साल 2024 के चुनाव में कुल 96.8 करोड़ वोटर हिस्सा ले सकते हैं. इन में 49.7 करोड़ मर्द और 47.1 करोड़ औरत वोटरों के होने का अंदाजा है.

खासकर, ग्रामीण क्षेत्रों में तो इन की तादाद और भी बढ़ी है. आज किसी भी पार्टी की सियासत को ऊपर या नीचे करने में औरत वोटर बड़ा रोल निभा रही हैं. कहा जाता है कि नरेंद्र मोदी के सत्ता में रहने की एक बड़ी वजह औरतें ही हैं. यही वजह भी है कि केंद्र से ले कर राज्य सरकारों में सरकार चला रही पार्टियां औरतों के लिए कई खास योजनाएं व घोषणाएं कर रही हैं.

अगर इस का क्रेडिट साल 2005 में आए मनरेगा ऐक्ट व पैतृक संपत्ति पर बेटी के अधिकार और साल 2009 में मिले शिक्षा के अधिकार जैसे अधिकारों को दिया जाए, जिन्होंने औरतों को आगे बढ़ाने में बड़ा योगदान दिया तो गलत न होगा, क्योंकि इन अधिकारों ने निचले से निचले तबके को छूने की कोशिश की, जिन में दोयम दर्जे में औरतें ही थीं.

एक तरह से औरतों के लिए ये नीतियां संजीवनी बूटी बन कर आईं, जिन्होंने उन्हें राजनीतिक रूप से ज्यादा सजग और अपने हकों के लिए लड़ना सिखाया, उन के हाथों में थोड़ीबहुत आर्थिक ताकत देने की कोशिश की, सही माने में अपने पैरों पर खड़ा करने में योगदान दिया.

मगर इस के बावजूद अगर साल 2024 के चुनावों में औरतों के लिए स्पैशल घोषणाएं की जा रही हैं, तो यह जरूर सोचा जा सकता है कि आज भी औरतें उस लैवल पर नहीं पहुंच पाई हैं जहां उन्हें होना चाहिए था.

आज भी सारी आर्थिक और कानूनी ताकत मर्दों के हाथों में हैं. इस की पुष्टि वर्ल्ड बैंक द्वारा जारी की गई नई रिपोर्ट ‘वीमेन, बिजनैस ऐंड द ला’ और उस के आंकड़े भी करते हैं.

इस रिपोर्ट ने खुलासा किया है कि काम करने वाली जगह पर औरतों और मर्दों के बीच का फर्क पहले की तुलना में ज्यादा बढ़ा है, वहीं जब हिंसा और बच्चों की देखभाल से जुड़े कानूनी मतभेदों को ध्यान में रखा जाता है, तो औरतों को मर्दों की तुलना में दोतिहाई से भी कम हक हासिल हैं.

हैरानी यह है कि दुनिया का कोई भी देश ऐसा नहीं है, जो इस गैरबराबरी से अछूता हो, यहां तक कि दुनिया की अमीर अर्थव्यवस्थाएं भी इस फर्क को दूर करने में कामयाब नहीं हो पाई हैं. भारत में मामला गंभीर है, क्योंकि यहां लैंगिक गैरबराबरी दुनिया के कई देशों के मुकाबले बेहद खराब हालत में है.

‘वैश्विक लैंगिक अंतर रिपोर्ट 2023’ में भारत का नंबर 146 देशों में शर्मनाक 127वें नंबर पर है. भारत के कामकाजी और बड़े पदों पर गैरबराबरी का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि संसद में औरतों की भागीदारी महज 14 फीसदी है, वहीं देश के कुल 119 अरबपतियों की लिस्ट में महज 9 औरतें अरबपति हैं.

आंकड़े साफ करते हैं कि मर्दों के पास औरतों के मुकाबले ज्यादा मौके हैं, वरना देश की कामकाजी औरतों की भागीदारी महज 23 फीसदी और मर्दों की 72 फीसदी न होती.

यानी, देखा जाए तो 50 फीसदी औरतें चुनावी घोषणाएं करने वाली पार्टियों के मुखिया से ले कर संसद में चुने गए मर्द नेताओं के रहमोकरम पर हैं, जो औरतों के लिए गुलामी से कम नहीं.

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