रिजर्वेशन की मांग कर रहे है लोग

एक सर्वे में यह पाया गया है कि राजस्थान में 93′ लोग अपनी जाति के हिसाब सरकारी नौकरियों, स्कूलोंकालेजों में सीटों के हिसाब से रिजर्वेशन मांग रहे है और अगर यही रहा तो जिन्हें मेरिट वाली सीट कहां जाता है वे बस 7′ बचेंगी यानी 100 में से 7.

शड्यूल कास्ट जो पहले अछूत कहे जाते थे और आज भी समाज में अछूत ही हैं और हिंदू वर्ण व्यवस्था के हिस्सा भी नहीं थे राजस्थान की आबादी में 1.28 करोड़ हैं. इन्हें 16′ आरक्षण मिलता है और इसी के बल पर रिजर्व सीटों की वजह से 34 विधायक और 4 सांसद हैं.

आदिवासी आबादी का 12′ यानी 71 लाख हैं. इन के 33 विधायक और 3 सांसद हैं. ये लोग गांवों में रहने लगे है पर पहले जंगलों या रेगिस्तान में रहते थे. 75 सालों में कुछ कपड़ों और बरतनों के अलावा इन्हें कुछ ज्यादा मिला हो, ऐसा नहीं लगता. अदर बैकवर्ड कास्ट में ऊपरी जातियों की गिनती 3.5 करोड़ यानी 21′ है और ये आबादी के हिसाब से 27′ आरक्षण चाहते हैं. इन्हीं में से कट कर बनाई गई मोस्ट वैकवर्ड कास्ट को 56′ रिजर्वेशन मिला है पर इन की गिनती नहीं हुई है क्योंकि जाति जनगणना में जाति पूछी जाती है पर जनता को बताई नहीं जाती.

ईडब्लूएस को 10′ का आरक्षण मिला है जो ऊंची जातियों के लिए जिन में ज्यादातर ब्राह्मïण ही आते हैं जो पूजापाठ से दान बसूल नहीं पाते. ये लोग आबादी का शायद 3-4′ है पर 14′ रिजर्वेशन मनवां रहे हैं. लड़ाई मोटे तौर पर उन 36′ सीटों के लिए हो जो ऊंची जातियों के लिए उलटे रिजर्वेशन की शक्ल ले चुकी है और आबादी का 8-9′ होने पर भी मलाईदार पोस्टें इन्हीं के हाथों में आती हैं. ये लोग पहले 100′ पोस्टों पर होते को पर अब धीरेधीरे इन की गिनती घट रही है पर ताकत नहीं क्योंकि इन में भयंकर एकजुटता है और अपने मनमुटाव से बाहर नहीं आने देते.

3′ ब्राह्मïणों ने, 3-4′ राजपूतों ने सारी मोटी पोस्टों पर कब्जा कर रखा है क्योंकि ये कई पीढिय़ों से पढ़ेलिखे हुए है और इन के घरों में पढ़ाई पर बहुत जोर दिया जाता है. राजस्थान के बनिए आरक्षण के चक्कर में नहीं पड़ते और वे दुकानदारी में सफल हो जाते हैं और देशभर में फैले हुए हैं जहां बनिए की अकल, बचत, सूझबूझ से ये एक तरह से सब से अमीर वर्ग है बिना रिजर्वेशन के. रिजर्वेशन सिर्फ सरकारी नौकरियों के लिए मांगा जाता है क्योंकि इन में पक्की नौकरी के साथसाथ हर जगह ऊपरी रिश्वत की कमाई का मौका है. शायद ही कोई सरकारी दफ्तर होगा जहां से ऊपरी कमाई की जा सकती. बच्चों के बाल गृहों तक में खाने के टैंडर से ले कर बच्चों को सेक्स के लिए भेज कर कमाई की जाती है.

दिक्कत यह है कि सरकारी पैसे का लालच स्वर्ग पाने के लालच की तरह है. अगर मंदिरों, मसजिदों, चर्चों की स्वर्ग मिलने की कहानियां सही हैं और अगर पूजापाठियों की गिनती देखी जाए तो तर्कों में तो सन्नाटा छाया हुआ होगा क्योंकि हर कोई स्वर्ग में पूजापाठ के बल पर पहुंच रहा है. जैसे इस झूठ, फरेब से सदियों से धर्म का धंधा का चल रहा है, नेताओं का धंधा रिजर्वेशन के नाम पर चल रहा है. मुट्ठी भर सरकारी नौकरियों के लालच में पूरी जनता से वोट बसूले जाते हैं और इसीलिए राजस्थान में 93′ सीटों पर दावेदारी है. ऐसा हर राज्य में है जबकि रिजर्वेशन के बल पर फायदा थोड़ों को ही हो पाता है.

नेताओं के पास पंडेपादरियों की तरह इस से अच्छी आसान बात कहने के अलावा वैसे ही कुछ नहीं होता.

सियासी अनदेखी के शिकार मुस्लिम

राजस्थान में कांग्रेस की अशोक गहलोत सरकार है और यह भी एक तथ्य है कि कांग्रेस विधानसभा चुनाव में हारतीहारती बची थी तथा उसे मतगणना के दिन 200 सीटों में से जो 99 सीटें मिली थी, उन में से 96 सीटें ऐसी हैं जहां मुस्लिम वोट 15 हज़ार या इस से ऊपर हैं और इन 96 सीटों को जिताने में मुस्लिम वोटर कांग्रेस का सब से बड़ा मददगार साबित हुआ है।

इस के बावजूद सरकार बनने के बाद मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और कांग्रेस के बड़े नेताओं, मंत्रियों व अधिकतर विधायकों ने मुसलमानों को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया है। जिस से मुसलमानों में बड़ा रोष है और जो मुसलमान कांग्रेस से जुड़े हुए हैं वे भी दबी जुबान यह स्वीकार करते हैं कि हां, कांग्रेस राज में मुसलमानों की पूरी तरह से अनदेखी हो रही है और ऐसा लग रहा है कि हम ने कांग्रेस को चुनाव जीता कर बहुत बड़ा गुनाह कर दिया है।

कांग्रेस पूरी तरह से भाजपा की बी टीम बन गई है और वो भी भाजपा की तरह मुसलमानों को दूर कर हिन्दू और हिन्दुवाद के नाम पर वोट बटोरना चाहती है, हालांकि पश्चिम बंगाल, यूपी, बिहार आदि राज्यों में वो इस बदलाव से फायदे की बजाए और कमजोर हुई है।

ताज़ा चोट उस ने गुजरात में खाई है, जहां कांग्रेस का ऐतिहासिक सफाया हुआ है। साल 2021 में 12 दिसंबर को जयपुर के विद्याधर नगर स्टेडियम में आयोजित कांग्रेस की राष्ट्रीय महारैली में राहुल गांधी ने जो भाषण दिया था, तब यह स्पष्ट हो गया था कि कांग्रेस अब भाजपा के रास्ते पर चल कर सुसाइड करेगी।

उस महारैली में राहुल गांधी ने हिंदू और हिंदुत्ववाद को ले कर लंबा व्याख्यान दिया तथा यह साबित करने की कोशिश कि कांग्रेस “सिर्फ हिंदुओं की पार्टी है और हिंदुओं का ही राज लाना है।”

तब राहुल गांधी के भाषण के बाद कांग्रेसी मुसलमान अपने आप को ठगा हुआ महसूस करने लग गए थे और आम मुसलमान तो यह खुल कर कहने लग गया कि कांग्रेस का असली चेहरा यही था, जो राहुल गांधी ने बताया है।

वहीं जो मुसलमान शुरू से ही कांग्रेस की नीतियों के खिलाफ थे, वे अब और मजबूती से अपनी बात लोगों के बीच में रख रहे हैं और बता रहे हैं कि मुसलमानों की सियासी अनदेखी जो राजस्थान में हो रही है, उस का खात्मा तभी होगा जब मुसलमान पूरी तरह से कांग्रेस से अलग हो जाएगा।

अब सवाल यह पैदा होता है कि मुसलमान कांग्रेस से अलग हो कर जाएं कहां ? जहां तक भाजपा का सवाल है तो उस की डिक्शनरी में मुसलमानों की सुनवाई और विकास जैसे शब्द ही नहीं छपे हुए हैं। भाजपा की पूरी सियासी इमारत मुस्लिम विरोध पर टिकी हुई है, उस के चाल, चरित्र और चेहरे को देख कर यह स्पष्ट है कि भाजपा को मुसलमानों का देश में वजूद ही पसंद नहीं है।

ऐसे में जाहिर है कि मुसलमान धड़ल्ले से भाजपा की तरफ नहीं जा सकता। अब बात उन मुस्लिम पार्टियों की जो मुसलमानों के मुद्दे खुलेआम उठा रही हैं, बेबाकी से उठा रही हैं। लेकिन मुसलमान बड़ी संख्या में उन से भी नहीं जुड़ रहा है, जिस की वजह यह है कि राजस्थान गंगाजमुनी तहजीब वाला राज्य है, जहां सभी कौमें मिलजुल कर रहती हैं।

साथ ही राजस्थान में एक भी विधानसभा सीट ऐसी नहीं है, जिस में मुस्लिम वोट 40 प्रतिशत या उस से अधिक हों, यानी यह तय है कि मुस्लिम वोट के बलबूते पर मुस्लिम पार्टी के जरिए विधानसभा की सीट निकालना इतना आसान नहीं है, जितना यह मुस्लिम पार्टियां बता रही हैं।

राजस्थान में इस वक्त तीन मुस्लिम पार्टियां काम कर रही हैं। जिन में पहली एसडीपीआई और दूसरी वेलफेयर पार्टी ऑफ इंडिया। यह दोनों पार्टियां करीब 10 साल से राजस्थान में काम कर रही हैं और इन दोनों का वजूद कई राज्यों में है, हालांकि 10 साल में किसी भी राज्य में इन का एक भी विधायक नहीं बन पाया है।

दोनों पार्टियों के पास राजस्थान में अच्छाखासा कैडर भी है। कैडर के मामले में एसडीपीआई एक बड़ा संगठन है तथा ऐसा समर्पित कैडर भाजपा के बाद राजस्थान में सिर्फ एसडीपीआई के पास ही है। लेकिन इन दोनों ही पार्टियों के पास जो नेतृत्व है, वह एक तरह का गैरसियासी है और नेतृत्व में सियासी क्षमता का पूरी तरह से अभाव है। यही वजह है कि पिछले 10 साल में दोनों ही पार्टियां राजस्थान में कुछ खास नहीं कर पाई हैं।

तीसरी पार्टी एमआईएम है, जिस की चर्चा राजस्थान में खूब है। क्योंकि एमआईएम के चीफ असदुद्दीन ओवैसी मुसलमानों के मुद्दों पर संसद से ले कर विभिन्न कार्यक्रमों में खुल कर बोलते हैं, बेबाक बोलते हैं। उन की बेबाकी से प्रभावित हो कर बड़ी संख्या में एमआईएम समर्थक राजस्थान में सक्रिय हो चुके हैं।

एमआईएम राजस्थान में अपने पांव पसारने की तैयारी कर चुकी है। गत महीनों असदुद्दीन ओवैसी का जयपुर, सीकर, नागौर, चूरू और झुंझुनूं जिलों में दौरा भी हो चुका है और राजस्थान में पार्टी का गठन भी हो चुका है। जज़्बाती मुसलमान बड़ी संख्या में अपने आप को एमआईएम का समर्थक या एमआईएम का नेता बता रहे हैं तथा एमआईएम को राजस्थान में खड़ा कर मुसलमानों को सियासी कयादत देने के दावे भी कर रहे हैं, लेकिन यहां हालात ऊपर वाली दो पार्टियों से भी खराब हैं। जो लोग एमआईएम से जुड़े हुए हैं, उन में अधिकतर पूरी तरह से गैरसियासी हैं और उन में सियासी दूरदर्शिता की पूरी तरह से कमी है।

सब से अनोखी बात यह है कि यह तीनों पार्टियां मुस्लिम नेतृत्व की हैं, मुसलमानों की बात करती हैं, बेबाकी से बात करती हैं। लेकिन तीनों में आपसी तालमेल, लीडरशिप और दूरदर्शिता की कमी है। साथ ही ऐसा भी नहीं लग रहा है कि यह तीनों पार्टियां गठबंधन कर लेंगी। जिस की सब से बड़ी वजह यह है कि तीनों पार्टियां बात तो मुसलमानों की करती हैं, लेकिन सियासी व सांगठनिक विचारधारा के तौर पर तीनों अलगअलग हैं और सच तो यह है कि तीनों ही पार्टियां अंदरखाने एकदूसरे की मुखालफत भी करती हैं।

अब सवाल यह है कि ऐसे हालात में राजस्थान में मुसलमानों की सियासी सुनवाई कैसे हो ? उन के मुद्दों पर राजनेता खुल कर बात कैसे करें ? मुसलमानों की सत्ता और सियासत में भागीदारी कैसे हो ?

इस के लिए पहली बात तो यह है कि मुसलमानों का सियासी वजूद और सत्ता व सियासत में भागीदारी सिर्फ और सिर्फ छोटी क्षेत्रीय पार्टियों का साथ देने में है, जो अपनेअपने इलाके में काम कर रही हैं। दूसरी बात यह है कि उक्त तीनों मुस्लिम पार्टियों (एसडीपीआई, वेलफेयर पार्टी और एमआईएम) को पहले खुद आपस में गठबंधन करना चाहिए और उस के बाद अन्य क्षेत्रीय पार्टियों के साथ गठबंधन करना चाहिए।

इस तरह से यह तीनों पार्टियां राजस्थान की अन्य छोटी पॉलिटिकल पार्टियों को साथ ले कर कांग्रेस व भाजपा के खिलाफ़ महागठबंधन बनाएं और फिर पूरी ताक़त से विधानसभा चुनाव में उतरें। पूरे प्रदेश में कांग्रेस व भाजपा के खिलाफ एक लम्बी यात्रा निकालें, जो कमोबेश सभी 200 विधानसभा सीटों पर जाए।

अगर ऐसा महागठबंधन बनता है, तो न सिर्फ मुसलमानों को बल्कि सभी वंचित लोगों को सत्ता में भागीदारी मिल सकती है तथा राजस्थान को कांग्रेस व भाजपा के “5 साल तुम और 5 साल हम” वाले कंधाबदली राज से छुटकारा भी मिल सकता है।

नरेंद्र दामोदरदास मोदी और आवाम की खुशियां

अब जब आम चुनाव में तकरीबन एक वर्ष बचा रह गया है प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी की केंद्र की सरकार की अगर हम भारत के आम लोगों की खुशियों के तारतम्य में विवेचना करें तो पाते हैं कि आम आदमी का जीवन पहले से ज्यादा दुश्वार  हो गया है. उसके चेहरे की खुशियां विलुप्त होती जा रही हैं. नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद सर्वप्रथम संसद के चौबारे पर मस्तक झुका करके देश की संसद के प्रति आस्था व्यक्त की थी इसका मतलब यह था कि देश की आवाम की खुशियों के लिए वह सतत प्रयास करेंगे और इसलिए श्रद्धानवत हैं. मगर इन 9 वर्षों में देश की आवाम और खास तौर पर आम आदमी के चेहरे की खुशियां विलुप्त होती चली गई है. आग्रह है कि आप जहां कहीं भी रहते हों, आप चौराहे पर निकलिए लोगों से मिलिए लोगों को देखिए आपको इस बात की सच्चाई की तस्दीक हो जाएगी.

अगर हम आज संयुक्त राष्ट्र वर्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट का अवलोकन करें तो पाते हैं कि 2023 की रिपोर्ट में भारत देश दुनिया के देशों में 125 में नंबर पर है जो यह बताता है कि देश का आम आदमी खुशियों से कितना  महरूम है. अगर देश का आम आदमी खुश नहीं है तो इसका मतलब यह है कि देश की सरकार अपने दायित्व को नहीं निभा पा रही है. अरबों खरबों  की अर्जित टेक्स और विकास की बड़ी बड़ी बातें करने के बाद अगर आम आदमी को खुशियां नहीं है तो फिर देश की केंद्र सरकार पर प्रश्न चिन्ह लगना स्वाभाविक हो जाता है.

 खुशियां ढूंढता आम आदमी   

दरअसल,  संयुक्त राष्ट्र वर्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट 2023 में फिनलैंड ने लगातार छठी बार दुनिया का सबसे खुशहाल देश का दर्जा हासिल कर लिया किया है. यह रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र सतत विकास समाधान नेटवर्क ने  जारी की है. व‌र्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट 2023 में 137 देशों को आय, स्वास्थ्य और जीवन के प्रमुख निर्णय लेने की स्वतंत्रता की भावना सहित कई मानदंडों के आधार पर रैंक किया गया है. 137 देशों की लिस्ट में भारत को 125वें स्थान पर रखा गया है.

2022 में भारत की रैंक 136 लें नंबर पर थी. दूसरी तरफ भारत अभी भी अपने पड़ोसी देशों जैसे नेपाल, चीन, बांग्लादेश आदि से नीचे है दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ती तकलीफों और दिक्कतों के बीच भारत की स्थिति अच्छी नहीं कही जा सकती देश को आजादी दिलाने वाले वीर शहीदों ने शायद यह कभी कल्पना भी नहीं की होगी कि आजादी के बाद भी देश का आम आदमी एक स्वतंत्र मनुष्य के रूप में एक अच्छे जीवन से महरूम रहेगा. आम आदमी के लिए मुश्किलें बढ़ती चली जा रही हैं सत्ता में बैठे हुए लोग की सुविधाएं बढ़ती चली जा रही हैं यह जबले कहां जा रहा है छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से प्रकाशित अखबारों में सुर्खियां है कि विधानसभा में विधेयक पारित कर के पूर्व विधायकों की पेंशन को 35000 से बढ़ाकर के 58000 रूपए  लगभग कर दिया गया है. देश की चाहे कोई भी विधायिका और संसद हो आम लोगों के खुशियों को बढ़ाने का काम नहीं बल्कि बड़े लोगों की सुविधाओं के लिए अब काम करने लगी है यही कारण है कि आम आदमी का जीवन मुश्किल तो मुश्किल चुनौतियों से घिरा हुआ है जिसका अक्स वर्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट में भी दिखाई दे रहा है.

 हजारों करोड़ों रुपए का घोटाला

छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता बीके शुक्ला के मुताबिक देश में आज आम आदमी आर्थिक स्थिति दयनीय हो चली है, देश के बड़े आदमी , उद्योगपति जिस तरह सत्ता के संरक्षण में हजारों करोड़ों रुपए का घोटाला कर रहे हैं उसका भुगतान ही आम आदमी कर रहा है.

दरअसल, वर्ल्ड हैप्पीनेस इंडेक्स को तैयार करने में संयुक्त राष्ट छह प्रमुख कारकों का उपयोग करता है. इसमें  स्वस्थ जीवन की अनुमानित उम्र, सामाजिक सहयोग, स्वतंत्रता, विश्वास और उदारता शामिल हैं. रिपोर्ट में कहा गया है कि हैप्पीनेस इंडेक्स तैयार करने में औसत जीवन मूल्यांकन के लिए की फैक्टर माना गया है. इसमें फोविड-19 के तीन वर्ष (2020-2022) का औसत भी शामिल है. इस साल रिपोर्ट तैयार करने में इस बात का खास ध्यान रखा गया है कि कोविड- 19 ने जन कल्याण को कैसे प्रभावित किया है. लोगों के बीच परोपकार बड़ा है या घटा है लोगों के बीच विश्वास, परोपकार और सामाजिक संबंधों को भी प्रमुख पैमानों के तौर पर इस्तेमाल किया गया है.

उल्लेखनीय है कि एक साल ज्यादा समय से जंग लड़ रहा यूक्रेन और गंभीर आर्थिक संकट में फंसा पाकिस्तान रिपोर्ट के मुताबिक भारत से ज्यादा खुशहाल हैं. गैलप लुंड पोल जैसे स्रोतों के आंकड़ों के आधार पर बनी रिपोर्ट में नॉर्डिक देशों को शीर्ष स्थानों में सूचीबद्ध किया गया है. रिपोर्ट में फिनलैंड को लगातार छठी बार दुनिया का सबसे खुशहाल देश माना गया है. कुल मिलाकर के देश की आवाम को और सरकारों को मिलजुल कर के सकारात्मक दिशा में काम करना चाहिए.

‘राहुल गांधी माफी मांगो’ का अनोखा मजाक: सत्ता पक्ष का उतरा नकाब

राहुल गांधी को ले कर जिस तरह देश की संसद में सरकार में बैठे हुए ‘बड़े चेहरे’ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से ले कर रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और दूसरों ने ‘माफी मांगो’ और ‘देशद्रोह का मामला’ कहने की गूंज लगाई है, वह बताती है कि भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी की सरकार राहुल गांधी से कितना डरी हुई है. राहुल गांधी के लिए ‘पप्पू’ शब्द का इस्तेमाल कर के उन्हें राजनीति में नकारा साबित करने की सोच वाले ये चेहरे आज राहुल गांधी के बयान के बाद बेबस और बेचारे दिखाई दे रहे हैं.

कहते हैं कि चोर की दाढ़ी में तिनका. ऐसे ही अगर राहुल गांधी की बातों में कोई सच नहीं है तो भाजपा के ये कद्दावर नेता इतना चिंतित क्यों हैं? जब देश राहुल गांधी को गंभीरता से नहीं लेता तो फिर इतने घबराने का काम ये बड़ेबड़े चेहरे क्यों कर रहे हैं? संसद में हुई कार्यवाही को देखने से साफ हो जाता है कि राहुल गांधी ने जो कहा है, उस से ये चेहरे डरे हुए हैं, क्योंकि सच सामने खड़े हो कर जवाब मांग रहा है और देश की जनता में यह संदेश जा रहा है कि राहुल गांधी की बातें कितनी सच्ची और गंभीर हैं.

जैसे, देश में इन दिनों सब से गंभीर मामला है गौतम अडानी का जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आशीर्वाद से दुनिया के दूसरे नंबर के पैसे वाले बन गए हैं, मगर पोल खुलते ही वे 40वें नंबर पर पहुंच गए. इस पर नरेंद्र मोदी कुछ बोलने को तैयार हैं और न ही सरकार कुछ ऐक्शन लेने को गंभीर दिखाई देती है. कुल जमा धीरेधीरे राहुल गांधी देश और दुनिया में अपने सच और साहस के चलते इज्जत की नजर से देखे जाने लगे हैं और दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी, जिन्हें देश ने बड़े विश्वास के साथ प्रधानमंत्री बनाया और सत्ता की चाबी दी, धीरेधीरे नीचे की ओर आ रहे हैं.

राहुल गांधी की लोकप्रियता

दरअसल, जैसा कि कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके राहुल गांधी की टिप्पणी को ले कर ‘संसद’ में जम कर हंगामा सत्ता  पक्ष द्वारा किया गया, यह अपनेआप में एक बड़ी ऐतिहासिक घटना है. यह सब राहुल गांधी की लोकप्रियता को दिखाता है. यह एक अनोखा नजारा था कि राज्यसभा के साथ लोकसभा में सत्तापक्ष के सांसदों ने लंदन में की गई राहुल गांधी की टिप्पणी को ले कर सदन के अंदर ‘माफी मांगो’ के नारे लगाए. वह सब देश और दुनिया में देखा गया गया और अब सरकार के चेहरे से नकाब उतरने लगे हैं.

दूसरी तरफ लोकसभा में विपक्षी सदस्यों ने अडाणी समूह मामले में संयुक्त संसदीय समिति गठन की मांग की और हंगामा करते हुए अध्यक्ष ओम बिरला के आसन के सामने आ गए. हंगामे की वजह से दोनों सदन एक बार स्थगित कर दिए गए और शून्यकाल हंगामे की भेंट चढ़ गया.

राहुल गांधी पर सब से बड़ा हमला रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह द्वारा किया गया. लोकसभा में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा, ‘लोकसभा सदस्य राहुल गांधी ने लंदन में भारत को बदनाम करने की कोशिश की है. उन्होंने (राहुल गांधी) कहा है कि भारत में लोकतंत्र पूरी तरह से तहसनहस हो गया है और विदेशी ताकतों को आ कर लोकतंत्र को बचाना चाहिए.’

राजनाथ सिंह ने आगे कहा, ‘उन्होंने (राहुल गांधी) भारत की गरिमा व प्रतिष्ठा पर गहरी चोट पहुंचाने की कोशिश की है. पूरे सदन को उन के (राहुल गांधी) इस व्यवहार की निंदा करनी चाहिए और आप की (अध्यक्ष) ओर से यह निर्देश दिया जाना चाहिए कि राहुल संसद के मंच पर क्षमायाचना करें.’

हंगामे के बीच ही संसदीय कार्यमंत्री प्रल्हाद जोशी ने भी राहुल गांधी पर विदेशी धरती पर भारत का अपमान करने का आरोप लगाया. दूसरी तरफ हंगामे के बाद लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष अधीर रंजन चौधरी ने अध्यक्ष ओम बिरला को एक चिट्ठी लिखी, जिस में अनुरोध किया गया कि सदन में राहुल गांधी को ले कर रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और प्रल्हाद जोशी ने जो टिप्प्णी की है, उसे सदन की कार्यवाही से हटा दिया जाना चाहिए.

भाजपा के बड़े नेताओं का राहुल गांधी के बयान से चिंतित होना यह दिखाता है कि राहुल की बातों में उन के चेहरे से नकाब उतारने का काम हुआ है और दुनियाभर में भारत में जो हो रहा है, वह चर्चा का विषय है, जिस से ये चेहरे मुंह दिखाने के काबिल नहीं हैं. अच्छा है सत्ता पक्ष का एकएक शब्द आज लोकसभा और राज्यसभा के रिकौर्ड में अंकित हो गया है. यह एक तरह से लोकतंत्र के लिए एक काले दिन के रूप में जाना जाएगा, जब सत्ता पक्ष ही राहुल गांधी के लिए प्रलाप कर रहा था.

फेसबुक पोस्ट : राहुल गांधी ने ब्रिटेन में जो कहा है, उस से भारत में बैठे सत्ता पक्ष के दिग्गज हिल गए हैं और वे संसद में ‘गांधी माफी मांगो’ के नारे लगाने पर मजबूर हो गए हैं. यह भारत के लोकतंत्र के लिए ऐतिहासिक तौर पर ‘काला दिन’ कहा जाएगा. तो क्या अब भारतीय जनता पार्टी को अपनी सत्ता खोने का डर सताने लगा है?

आरक्षण : पिछड़े और दलितों को लड़ाने की साजिश

सुप्रीम कोर्ट ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) यानी गरीब सवर्ण तबके के आरक्षण को बरकरार रखने का फैसला देते हुए आरक्षण के मामले में 50 फीसदी की सीमा रेखा को पार करने को जायज ठहरा दिया है, जबकि ओबीसी वर्ग को 50 फीसदी सीमा पार करने की जब बात होती है, तब सुप्रीम कोर्ट इस सीमा को संवैधानिक सीमा मान लेता है.

सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले से साल 1993 के अपने ही उस फैसले को पलट दिया है, जिस में सुप्रीम कोर्ट के 9 जजों की पीठ ने 27 फीसदी पिछड़े वर्ग, 15 फीसदी दलित वर्ग और 7.5 फीसदी अतिदलित वर्ग के कुल योग 49.5 फीसदी आरक्षण से आगे बढ़ाने से मना कर दिया था.अब सवर्ण गरीबों के 10 फीसदी आरक्षण को सुप्रीम कोर्ट से भी हरी ?ांडी मिलने के बाद आरक्षण 50 फीसदी की सीमा रेखा को लांघ कर 59.5 फीसदी पर पहुंच गया है. 7 नवंबर, 2022 को ईडब्ल्यूएस आरक्षण की वैधता पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया. सुप्रीम कोर्ट के सवर्ण जजों ने सवर्णों के हक में स्वर्णिम फैसला सुना कर मोदी सरकार द्वारा साल 2019 में संविधान में संशोधन कर ईडब्ल्यूएस सवर्णों को जो 10 फीसदी आरक्षण दिया था, उस को जायज करार दे दिया.

मतलब, अब देश में 60 फीसदी आरक्षण हो गया है, जबकि इसी सुप्रीम कोर्ट ने साल 1992 में, जब मंडल आयोग की सिफारिशों के अनुसार ओबीसी को उस की आबादी के अनुपात में 52 फीसदी आरक्षण दिया जाना था, ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण देने का फैसला सुनाया था कि देश में कुल आरक्षण 50 फीसदी से ज्यादा नहीं होना चाहिए, क्योंकि एससीएसटी का 22-50 फीसदी आरक्षण पहले से ही था. इस का मतलब हुआ कि कुल 110 स्थानों में जहां पहले पिछड़ों और दलितों के 55 स्थान होते थे, अब 50 ही रह जाएं.

देश में ओबीसी विधायकों और सांसदों की संख्या 1,500 से भी ज्यादा है, लेकिन दुख की बात है कि ये नेता विधानसभाओं और लोकसभा में कभी भी ओबीसी के अधिकारों की लड़ाई नहीं लड़ते. कमोबेश यही हालत एससीएसटी विधायकसांसदों की है.

देश के ओबीसी अब यह अच्छी तरह सम?ा लें कि उन के अधिकारों की लड़ाई कोई राजनीतिक दल या उन के समाज के विधायकसांसद न कभी पहले लड़े थे और आगे भी कभी नहीं लड़ेंगे. जिस तरह एससीएसटी के लोगों ने अपने ऐट्रोसिटी ऐक्ट को बचाने के लिए 2 अप्रैल, 2018  को बिना किसी नेता और राजनीतिक दल के पूरे देश में सड़कों पर उतर कर आंदोलन किया था और जिस के बाद मोदी सरकार को सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए मजबूर होना पड़ा था और संविधान में संशोधन कर ऐट्रोसिटी ऐक्ट को बहाल किया था, वैसा ही अब कुछ करना होगा.

देखा जाए तो कुल जनसंख्या अनुपात में ओबीसी का आंकड़ा बड़ा है. भारत में समाज कल्याण की जितनी भी योजनाएं फेल हो रही हैं, उस का मुख्य कारण भी यही है कि ओबीसी समाज के पास जातिगत जनसंख्या का कोई आंकड़ा नहीं है. केंद्र में ओबीसी के लिए मंत्रालय बना है, ओबीसी आयोग बना है, विभिन्न राज्यों में ओबीसी मंत्रालय, विभाग व आयोग बने हुए हैं, मगर ओबीसी का आंकड़ा उपलब्ध न होने के कारण कम फंड जारी होता है, और जो जारी होता है वह या तो विभागों के वेतन पर ही खर्च हो जाता है या केंद्र का फंड राज्य के लिए उपयोग में ले लेते हैं, क्योंकि जनसंख्या का आंकड़ा उपलब्ध न होने का बहाना जरूर उपलब्ध है.

आज तो ओबीसी नेताओं और ओबीसी के जातीय संगठनों का हाल यह है कि वे ऊंचे वर्ग के सामने पूरी तरह से समर्पण कर चुके हैं और जो न्यायपूर्ण तरीके से 27 फीसदी आरक्षण मिला था, उस को भी नहीं बचा पा रहे हैं. ओबीसी का बुद्धिजीवी वर्ग सचाई लिखता तो है, मगर कोई सम?ाने या लड़ने वाला नहीं है. उस के वर्ग के अफसर बहुत हैं, पर वे हकों के लिए लड़ने को तैयार नहीं हैं.

ब्राह्मणवाद के शिकंजे में पिछड़ा समाज

साल 2011 की जनगणना में ओबीसी की गिनती को ले कर लालू प्रसाद यादव ने दबाव बनाया था और गिनती हुई भी, लेकिन उस को जारी नहीं किया गया. उस के बाद लालू प्रसाद यादव को कई केसों में फंसा दिया गया. बाद में राजद के दबाव में नीतीश सरकार ने ओबीसी की जनगणना का प्रस्ताव बिहार विधानसभा में पास कर के भेजा, लेकिन उस के बाद की प्रक्रिया पर विचारविमर्श बंद कर दिया गया.

अब पिछले दिनों केंद्र सरकार ने साफ कर दिया है कि ओबीसी की जनगणना के आंकड़े साल 2021 के सैंसैक्स में शामिल नहीं किए जाएंगे. ऊंचे वर्गों की सरकारें ओबीसी समुदाय को पढ़ाई और सरकारी नौकरी के हकों में शामिल नहीं करना चाहती हैं, जबकि धर्मों की दुकानों में जाने के रास्ते खुले हैं.

अंगरेजों ने साल 1881 में जाति आधारित जनगणना की शुरुआत की थी और उन आंकड़ों से जो सचाई सामने आई, उन को आधार बना कर महात्मा ज्योतिबाराव फुले ने सब से पहले विभिन्न जातियों को आबादी में उन के हिस्से के मुताबिक सरकारी सेवाओं में आरक्षण दिए जाने की मांग उठाई थी.

आंकड़ों से साफ हो गया था कि सरकारी नौकरियों में जाति विशेष का एकछत्र कब्जा है. उन्होंने इस बारे में अपनी पुस्तक ‘शेतकर्याचा असुड़’ (किसान का चाबुक, 1883) में लिखा है.

साल 1901 की जनगणना को आधार बना कर कोल्हापुर के राजा शाहूजी महाराज ने साल 1902 में अपने राज्य में 50 फीसदी आरक्षण लागू किया था, जिस के लिए उन्हें ब्राह्मणों के कड़े विरोध का सामना करना पड़ा था. कांग्रेस के कद्दावर ब्राह्मण नेता बाल गंगाधर तिलक ने भी उन का विरोध किया था.

जाति आधारित जनगणना अंतिम बार साल 1931 में हुई थी और उस के अनुसार भारत में ओबीसी की संख्या

52 फीसदी थी. साल 1941 में द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण जनसंख्या का विवरण अटक गया और आजादी के बाद 1951 में पहली जनगणना हुई, मगर जाति आधारित जनगणना छोड़ दी गई.

भीमराव अंबेडकर ने संविधान में अनुच्छेद-340 के तहत ओबीसी के उत्थान का प्रावधान किया था, जिस के तहत सरकार को संविधान लागू करने के एक साल के भीतर ओबीसी आयोग का गठन करना था.

साल 1951 में जाति आधारित जनगणना न करने व ओबीसी आयोग का गठन न करने के कारण दुखी हो कर अंबेडकर ने 10 अक्तूबर, 1951 को केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया था.

नेहरू सरकार ने दबाव में आ कर 1953 में काका कालेलकर की अध्यक्षता में ओबीसी आयोग का गठन किया व इस आयोग ने 1955 में अपनी रिपोर्ट दी. कांग्रेस के ब्राह्मण नेताओं, हिंदू महासभा आदि ने यह कह कर इस को लागू करने से रोक दिया कि ओबीसी जनसंख्या के आंकड़े साल 1931 के हैं.

साल 1955 से ले कर साल 1977 तक जनगणना के समय जाति आधारित गिनती का यह कह कर विरोध करते रहे कि इस से देश कमजोर होगा व ओबीसी को हक देने की बात आती तो यह कह कर विरोध करने लग जाते कि नवीनतम आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, इसलिए लागू नहीं किया जा सकता.

साल 1977 में समाजवादियों के दबाव में वीपी मंडल की अध्यक्षता में दोबारा ओबीसी आयोग बनाया और उठापटक के बीच साल 1980 में रिपोर्ट देते हुए मंडल ने कहा कि मैं यह रिपोर्ट विसर्जित कर रहा हूं.उन को अंदेशा था कि कुछ होगा नहीं, मगर साल 1989 में वीपी सिंह की सरकार बनी और समाजवादियों के दबाव में मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करने का आदेश दे दिया गया.

मंडल के खिलाफ ब्राह्मण वर्ग ने कमंडल आंदोलन शुरू कर दिया और 1993 में सुप्रीम कोर्ट ने ओबीसी के आंकड़ों का हवाला देते हुए 27 फीसदी तक आरक्षण सीमित कर दिया और ऊपर से क्रीमीलेयर थोप दिया गया. सब से बड़ा खेल यह किया गया कि ओबीसी आरक्षण को महज सरकारी नौकरियों तक सीमित कर दिया गया.

कम्यूनिस्ट पार्टियों का इन आंकड़ों से कोई लेनादेना ही नहीं है, क्योंकि वे जाति संबंधी मुद्दों को नजरअंदाज करने का ढोंग करती आई हैं. एक तरह से मंडल आयोग की सिफारिशों के खिलाफ अभियान में कांग्रेस व भाजपा के साथ उन के ज्यादातर नेता ब्राह्मण वर्ग के ही थे. आरएसएस व सभी हिंदू समूह और ब्राह्मण सभाएं मंडल विरोधी आंदोलन की अगली लाइन में थीं.

एससीएसटी वर्ग के लोग जितने मंडल आयोग के समर्थन में बढ़चढ़ कर हिस्सा ले रहे थे, वे अब ओबीसी की जनगणना को ले कर उतने मुखर नजर नहीं आते हैं. इस के 2 कारण हो सकते हैं. पहला तो एससीएसटी की जनसंख्या की गणना होती है व दूसरा मंडल आयोग के समर्थन से जो ओबीसी नेताओं से उम्मीद थी, वह धूमिल हुई है.

नजरअंदाज ओबीसी की सरकार में भागीदारी

आंकड़ों के अनुसार, केंद्रीय मंत्रालयों में अवर सचिव से ले कर सचिव व निदेशक स्तर के 747 अफसरों में महज 60 अफसर एससी, 24 अफसर एसटी व 17 अफसर ओबीसी समुदाय के हैं यानी ऊंचे सरकारी पदों पर दलितों का प्रतिनिधित्व महज 15 फीसदी है, जबकि सामान्य वर्ग से तकरीबन 85 फीसदी अफसर इन पदों पर कार्यरत हैं और ओबीसी समुदाय तो कहीं नजर ही नहीं आता है.

केंद्र सरकार में सचिव रैंक के

81 अधिकारी हैं, जिस में केवल 2 अनुसूचित जाति के और 3 अनुसूचित जनजाति के हैं व ओबीसी शून्य. 70 अपर सचिवों में केवल 4 अनुसूचित जाति के और 2 अनुसूचित जनजाति के हैं व 3 ओबीसी के हैं. 293 संयुक्त सचिवों में केवल 21 अनुसूचित जाति के और 7 अनुसूचित जनजाति के व 11 ओबीसी के हैं. निदेशक स्तर पर 299 अफसरों में 33 अनुसूचित जाति के और 13 अनुसूचित जनजाति के और 22 ओबीसी के अधिकारी हैं.

केंद्र सरकार की ग्रुप ए की नौकरियों में अनुसूचित जाति की भागीदारी का फीसदी 12.06 है, पिछड़ा वर्ग की भागीदारी 8.37 फीसदी है. सामान्य वर्ग की हिस्सेदारी 74.48 फीसदी है. गु्रप बी की नौकरियों में अनुसूचित जाति की भागीदारी का फीसदी 15.73 है, पिछड़ा वर्ग की भागीदारी का 10.01 फीसदी है, जबकि सामान्य वर्ग की हिस्सेदारी 68.25 फीसदी है. गु्रप सी की नौकरियों में अनुसूचित जाति की भागीदारी का फीसदी 17.30 है, पिछड़ा वर्ग की भागीदारी का 17.31 फीसदी है, जबकि सामान्य वर्ग की हिस्सेदारी 57.79 फीसदी है.

वहीं केंद्र सरकार के उपक्रमों की नौकरियों में अनुसूचित जाति की भागीदारी का फीसदी 18.14 है, पिछड़ा वर्ग की भागीदारी 28.53 फीसदी है, जबकि सामान्य वर्ग की हिस्सेदारी 53.33 फीसदी है. यूजीसी के आरटीआई द्वारा मिले जवाब के मुताबिक, देशभर में कुल 496 कुलपति हैं. इन 496 में से केवल

6 एससी, 6 एसटी और 36 ओबीसी कुलपति हैं. इस के अलावा बाकी बचे सभी 448 कुलपति सामान्य वर्ग के हैं. मतलब, देश की 85 फीसदी आबादी (एससी, एसटी और ओबीसी) से 48 कुलपति और 11 फीसदी आबादी (सामान्य) से 448 कुलपति. प्रधानमंत्री के कार्यालय में एक भी ओबीसी अधिकारी नहीं है. जहां से पूरे देश के लिए नीति निर्माण के फैसले होते हैं, वहां देश की 65 आबादी का कोई प्रतिनिधित्व ही नहीं है. न्यायपालिका आजादी के समय ही दूर चली गई थी. सोशल जस्टिस की लड़ाई को धार्मिक ?ांडों के हवाले कर दिया गया है.

गरीबी का दोहरा मापदंड क्यों

जस्टिस दिनेश माहेश्वरी ने ईडब्ल्यूएस के 10 फीसदी आरक्षण को बरकरार रखने के अपने फैसले में कहा कि आरक्षण गैरबराबरी वालों को बराबरी पर लाने का लक्ष्य हासिल करने का एक औजार है. इस के लिए न सिर्फ सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग को समाज की मुख्यधारा में शामिल किया जा सकता है, बल्कि किसी और कमजोर क्लास को भी शामिल किया जा सकता है. जानकारों का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट के ईडब्ल्यूएस के पक्ष में फैसले और खासकर जस्टिस दिनेश माहेश्वरी की टिप्पणी के बाद आने वाले दिनों में अन्य जातियां भी खुद को आरक्षण के दायरे में लाने की मांग करने लगेंगी और मुमकिन है कि इन में से कुछ नए वर्गों को आरक्षण के दायरे में लाने का रास्ता साफ हो, क्योंकि सरकार को अपनी वोट बैंक की राजनीति करनी है और इस के लिए वह किसी भी ऐसे तबके को नाराज नहीं करना चाहेगी, जिस का वोट बैंक किसी राज्य में हार या जीत तय करने की ताकत रखता हो. मसलन, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान में जाट इस निर्णायक भूमिका में रहते हैं.

केंद्र सरकार के सामने बड़ी चुनौती

अब आने वाले दिनों में आरक्षण के बंटवारे को ले कर देश में एक बड़ा विवाद छिड़ सकता है, जिसे शांत करने में सरकार के पसीने छूटेंगे, क्योंकि हर तबके के लोग अपने हिस्से की नौकरियों में किसी दूसरे तबके का किसी भी हालत में दखल नहीं चाहते हैं, इसलिए हर जाति और तबके के लोग अपनेअपने लिए आरक्षण की मांग सरकार से करते रहे हैं.

इस में कोई दोराय नहीं है कि आज पूरे देश में धर्म और जाति की राजनीति हो रही है, ऊपर से हर जाति के लोग अपने लिए आरक्षण की मांग कर रहे हैं. ऐसे में सवर्णों के इस 10 फीसदी आरक्षण ने आग में घी का काम किया है, जिस के नतीजे अच्छे तो नहीं होने वाले, क्योंकि अगर आप को याद हो, तो ओबीसी आरक्षण लागू होने के समय को याद कीजिए, जब सुप्रीम कोर्ट ने साल 1992 में ओबीसी आरक्षण की

52 फीसदी की मांग को घटा कर खुद 27 फीसदी किया था और कहा था कि आरक्षण को 50 फीसदी से ज्यादा नहीं किया जा सकता. आज यही आरक्षण 50 फीसदी के पार जा कर 59.5 फीसदी पर पहुंच चुका है. ऐसे में जाहिर है कि इस से अब आरक्षण को ले कर नएनए विवाद पैदा होंगे और बहुत सी जातियों के लोग, जिन्होंने अब तक अलग आरक्षण की मांग नहीं की है, सब के सब अब अलगअलग आरक्षण की मांग कर सकते हैं, जिस का असर आगामी आम चुनाव में साफसाफ दिखाई देगा.

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