पान मसाला : कम कीमत का जहर

लोग जितनी कीमत का पान मसाला रोज खा जाते हैं उस से कम खर्च में अपने घर की औरतों के लिए माहवारी में इस्तेमाल होने वाले सैनेटरी पैड खरीद सकते हैं.

पान मसाला खाने से सेहत को नुकसान होता है, जबकि सैनेटरी पैड का इस्तेमाल कर के घर की औरतों को अंदरूनी बीमारियों से बचाया जा सकता है. पान मसाले का प्रचार इस के सेवन को बढ़ाने का काम करता है.

दिल्ली प्रैस एक ऐसा प्रकाशन समूह है जो अपनी किसी भी पत्रिका में पान मसाले का प्रचार नहीं करता है. जब देश में तंबाकू मिले पान मसालों का प्रचार धड़ल्ले से होता था, तब भी दिल्ली प्रैस समूह पान मसाले का बिलकुल प्रचार नहीं करता था.

कोर्ट के बहुत सारे फैसले और बैन भी पान मसाले को बिकने से नहीं रोक पाए हैं. इस की सब से बड़ी वजह पान मसाले का होने वाला प्रचार है. सैरोगेट इश्तिहारों के जरीए समाज में इन का धड़ल्ले से प्रचार हो रहा है.

सब से बड़ी बात यह है कि समाज के हीरोहीरोइन समझे जाने वाले चेहरे और समाज को सही राह दिखाने वाला चौथा स्तंभ मीडिया भी इस प्रचार में बराबर का कुसूरवार है.

कानून ने तंबाकू मिले पान मसालों के प्रचार पर रोक लगाई है. अब पान मसाले का प्रचार करने वाले एक जगह छोटा सा ‘तंबाकू रहित’ लिख कर उसी पाउच का प्रचार करते हैं जिस में तंबाकू मिला पान मसाला बेचा जाता है.

कानून से बचने के लिए सैरोगेट इश्तिहार का सहारा केवल पान मसाले के प्रचार में ही नहीं, बल्कि शराब के इश्तिहार में भी दिखता है.

साल 1983 के आसपास की बात है. पान मसाला पाउच के रूप में बिकने के लिए बाजार में उतारा गया था. कम कीमत में लोगों तक पहुंचाने की होड़ में सभी एकदूसरे को पछाड़ने के लिए मैदान में उतर आए थे. उस समय इस की कीमत रिटेल बाजार में 50 पैसे प्रति पाउच से ले कर एक रुपए तक रखी गई थी. इसी कीमत में पान मसाला बनाने वाली कंपनी, छोटीछोटी दुकानों तक पान मसाला पहुंचाने वाले डीलरों और पान की दुकान वालों का फायदा भी शामिल होता है.

इस के अलावा बाजार में अपने सामान को सब से ज्यादा बेचने के लिए प्रचारप्रसार का खर्च भी करना पड़ता है. पान मसाला, सुपारी, कत्था, इलायची, केसर और तंबाकू को मिला कर बनाया जाता है. अगर साल 1983 और साल 2018 में इन सामानों की कीमत को देखा जाए तो यह अब तकरीबन कई गुना बढ़ चुकी है.

सरकार ने शुरुआत में इस कारोबार को हर तरह के टैक्स से भी अलग रखा था. पान मसाला कारोबार की तरक्की देख कर सरकार को लगा कि इस पर टैक्स लगा कर कमाई की जा सकती है.

इस के बाद गुटका और पान मसाला कारोबार पर टैक्स भी लगा दिया गया, पर इस के बाद भी गुटका और पान मसाला बनाने वालों ने इस की कीमत को बढ़ाने का जोखिम नहीं लिया था. उन को लगता था कि अगर गुटका और पान मसाला के दाम बढ़ जाएंगे तो लोग इस को खाना कम कर सकते हैं. कम कीमत के बावजूद भी यह उद्योग दिन दूनी रात चौगुनी रफ्तार से तरक्की करता रहा.

आज के समय में सब से कम कीमत का पान मसाला 3 रुपए और सब से ज्यादा कीमत वाला पान मसाला 15 रुपए से ऊपर प्रति पाउच तक हो सकता है.

कम कीमत का राज

देश में पान मसाला और गुटका के 2,500 से ज्यादा ब्रांड बिकते हैं. यह कारोबार अब 500 अरब रुपए से भी ज्यादा का हो गया है.

सवाल उठता है कि जब गुटका और पान मसाला में डाली जाने वाली हर चीज के दाम बढ़ गए हैं तो इस की कीमत कम कैसे रखी जा रही है?

दरअसल, यही बात साबित करती है कि गुटका को सस्ती कीमत का जहर क्यों कहा जाता है. जानकारी के हिसाब से गुटका बनाने में 15 से 30 रुपए किलो मिलने वाली सुपारी और कत्था की जगह पर कम कीमत के गैंबियर का इस्तेमाल किया जाता है.

यह सामान मलयेशिया, इंडोनेशिया और थाईलैंड से मंगाया जाता है. इन देशों में सुपारी को इतना खराब माना जाता है कि इस को सड़क बनाने में भी इस्तेमाल नहीं किया जाता है.

गैंबियर एक किस्म का पत्थर होता है, जिस का इस्तेमाल चमड़ा उद्योग में चमड़े को रंगने में किया जाता है. गैंबियर चमड़े में खिंचाव पैदा करता है. जो गैंबियर चमड़े में खिंचाव पैदा कर सकता है, वह खाने वाले के मुंह का क्या हाल करता होगा, इस को आसानी से समझा जा सकता है.

इस उद्योग पर सरकार कुछ इस तरह से मेहरबान है कि इस के लिए कोई नियमकानून नहीं बनाया है. गैंबियर से कत्थे के पेस्ट को बनाने का काम भी किया जा रहा है जिस का इस्तेमाल पान की दुकान चलाने वाले भी पान लगाने में करते हैं.

पान मसाले को बनाने का काम कानपुर और गाजियाबाद में गलत तरीके से किया जा रहा है. पनवाड़ी महंगे कत्थे की जगह इस में सस्ते किस्म का कत्था पेस्ट इस्तेमाल करते हैं.

सेहत के लिए जहर

अमेरिका के हौकिंस इंस्टीट्यूट ने कानपुर के रीजनल कैंसर सैंटर और तिरुअनंतपुरम के डाक्टरों द्वारा देश के कुछ प्रीमियम पान मसालों और गुटकों की जांच कराई थी. जांच में इन सभी में कुछ न कुछ कैंसर बढ़ाने वाली वजहें पाई गई थीं. जांच में इन में गैंबियर भी पाया गया.

कैंसर इंस्टीट्यूट के डाक्टरों की रिपोर्ट भी यही कहती है कि गैंबियर ‘बकल म्यूकोसा’ को बढ़ाता है. इस से धीरेधीरे मुंह का खुलना बंद हो जाता है. मुंह के अंदर भूरे और सफेद रंग के चकत्ते पड़ जाते हैं. इस को खाने वाला ‘सबम्यूकस फाइब्रोसिस’ का शिकार हो जाता है. यही आगे चल कर कैंसर में बदल जाता है.

गैंबियर का इस्तेमाल इसलिए किया जाता है क्योंकि यह मुंह के अंदर ज्यादा लार बनाता है. खतरनाक बात यह है कि गैंबियर का लंबे समय तक सेवन करने के चलते इस को छोड़ना आसान नहीं होता है.

पान मसाले और गुटके की लत मर्दों और औरतों में खतरनाक ढंग से फैल चुकी है. बच्चे और किशोरों के साथसाथ नौजवान भी इस की चपेट में आ चुके हैं. यही वजह है कि मुंह के कैंसर के मरीजों की तादाद 15 सालों में दोगुनी हो चुकी है. इन में बड़ी तादाद नौजवानों की है.

पान मसाला और गुटका बेचने वाले कई तरह की दूसरी बंदिशों का भी पालन नहीं करते हैं. कत्था पेस्ट तो बिना किसी तरह की जानकारी के बेचा जा रहा है.

कत्था पेस्ट के इन डब्बों और पाउचों पर बनाने वाली कंपनी का नाम, पता और कीमत तक नहीं लिखी रहती है. इस को किस चीज से बनाया गया है, इस में यह भी नहीं लिखा जाता है.

बेफिक्र सरकार

पान मसाला और गुटका कारोबार में तमाम तरह की गड़बडि़यों से सरकार बेफिक्र नजर आती है. पीने के पानी और दूसरी चीजों के लिए तमाम तरह के मानक तय किए गए हैं. सरकार ने गुटका कारोबार के लिए किसी तरह का मानक तय नहीं किया है. इस के चलते इस का कारोबार करने वाले कई तरह का खराब सामान इस में मिला देते हैं.

उत्तर प्रदेश में जब मायावती की सरकार थी, उस समय गुटका और पान मसाला के कारोबार को बंद करने का फैसला किया गया था.

मायावती सरकार अपने फैसले को अमल में लाती, इस के पहले उन्हें मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ गया था.

इस के बाद दूसरी सरकारों ने गुटका कारोबार पर पाबंदी लगाने के बारे में कोई नियमकानून नहीं बनाया. अगर पान और गुटका बनाने वाले इसी तरह खराब चीजों को इस में मिलाते रहे तो लोगों की जान जाती रहेगी.

पान मसाला के पाउच पर चेतावनी लिखने के बाद भी खाने वालों की सेहत पर कोई खास असर नहीं पड़ा है. इस की वजह यह है कि गुटका और पान मसालों का प्रचार बहुत ही शानदार तरीके से किया जाता है.

कई इश्तिहारों में तो पान मसाला खाने को शान की बात बताई जाती है. इस को कामयाबी से भी जोड़ा जाता है. वहीं दूसरी ओर मीडिया में इस का प्रचार बहुत होता है. देश में बड़ीबड़ी जगहों पर भी इस का प्रचारप्रसार होता है.

जेब पर भारी कहने के लिए पान मसाला और गुटका की कीमत औसतन 3 रुपए से 5 रुपए प्रति पाउच होती है, पर यह नशा जेब पर भारी पड़ता है. दिनेश नामक एक लड़का बताता है, ‘‘मैं दिन में 25 पाउच गुटका खा जाता हूं. कुछ लोग तो एकसाथ 2-2 पाउच खाते हैं. इस तरह वे दिन में 75 से 100 रुपए के पाउच खा जाते हैं. यानी एक आदमी तकरीबन 100 रुपए का पान मसाला रोज खा जाता है.’’

गुटका खाने वाले गरीब और मिडिल क्लास परिवार के लोग होते हैं. उन के लिए 50 रुपए रोज का गुटका जेब पर भारी पड़ता है. महीने में कम से 1,500 से 3,000 रुपए का गुटका ये लोग खा जाते हैं. बहुत दिन गुटका खाने से बीमारियां भी हो जाती हैं. उन के इलाज में भी काफी रुपए खर्च हो जाते हैं.

अगर किसी को कैंसर जैसी खतरनाक बीमारी हो जाती है तो उस का इलाज कराने के लिए घर और जमीन तक बेचने के हालात बन जाते हैं. इस तरह का नशा करने वाले अपनी सेहत के साथसाथ सामाजिक हालत को भी खराब करते हैं. इस को छोड़ना आसान होता है, केवल यह तय करना होता है कि इस का आदी शख्स इस नशे को छोड़ना चाहता है.

नशे को पूरी तरह से छोड़ने की कोई दवा नहीं होती है. नशा छोड़ने के बाद शरीर में कुछ बदलाव होता?है. शरीर पर इस के बुरे असर को दूर करने के लिए दवा दी जाती है.

पान मसाला से ज्यादा जरूरी है सैनेटरी पैड

‘नई रोशनी’ संस्था को चलाने वाली सोनिया सिंह कम कीमत पर माहवारी में इस्तेमाल होने वाले सैनेटरी पैड तैयार कर के जरूरतमंद औरतों को देती हैं. पान मसाला और सैनेटरी पैड की तुलना को ले कर उन से 3 सवाल :

लोगों को आप कैसे समझाती हैं?

हम ने अपनी संस्था की लड़कियों का एक नाटक तैयार किया है. हम उस को जगहजगह दिखाते हैं. इस के जरीए सैनेटरी पैड की जरूरत को समझाते हैं. इन का इस्तेमाल न करने से किस तरह की बीमारियों का खतरा होता?है, यह बताते हैं.

लोगों पर क्या असर पड़ता है?

पान मसाला एक तरह का नशा होता है. हमारे बताने पर लोग सहमत तो होते हैं, पर यह बात उन को ज्यादा समय तक याद नहीं रहती है. आदमी ही नहीं, बल्कि औरतों को भी यह याद नहीं रहता कि उन के लिए सैनेटरी पैड पान मसाला खाने से ज्यादा जरूरी है.

खर्च की तुलना करें तो कितना फर्क आता है?

पान मसाला खाना वाले लोग कम से कम 50 रुपए से 100 रुपए हर रोज खर्च करते हैं जबकि सैनेटरी पैड में यह खर्च पूरे महीने का होता है. हम यही बात सब को समझाते हैं. बारबार समझाने से इस का अच्छा असर पड़ रहा है.

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