महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन चल रहा है. जबकि जनता ने शिवसेना और बीजेपी के गठबंधन को पूर्ण बहुमत दिया. लेकिन सीएम पद की खींचतान के बीच महाराष्ट्र की जनता को इनाम स्वरूप राष्ट्रपति शासन मिल गया जबकि जनता का इसमे कोई दोष नहीं है. राजनीति के इतिहास में जाकर खोजना होगा कि आखिरकार गठबंधन की राजनीति का सूर्योदय कब हुआ और आखिरकार क्या ये वही एनडीए है जिसने कभी 24 दलों के साथ मिलकर सरकार बनाई थी और सफलतापूर्वक पांच साल भी पूरे किए थे.
देश में गठबंधन की राजनीति 1977 में ही शुरू हो गई थी, जब इंदिरा गांधी के खिलाफ सभी पार्टियों ने मिलकर चुनाव लड़ा था और इंदिरा गांधी को सत्ता से हटा दिया था. इस गठबंधन ने इंदिरा को कुर्सी से हटा दो दिया लेकिन गठबंधन सरकार चलाने में असफल रहे और 1980 में दोबारा इंदिरा प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में वापिस काबिज हो गईं.
गठबंधन को सफल राजनीति करने के मामले में सबसे पहले नाम आता है पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का. वाजपेयी ने 24 दलों को साथ लाकर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए बनाया और पांच साल तक सरकार चलाई. अटल की यह उपलब्धि इसलिए भी खास थी क्योंकि उनसे पहले कोई भी गठबंधन सरकार पांच साल का अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई थी.
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उन 24 दलों में कुछ प्रमुख पार्टियों के नाम में यहां लेना चाहूंगा. जनता दल (यूनाइटेड), शिवसेना, तेलगू देशम पार्टी, एआईडीएमके या अन्नाद्रमुक, अकाली दल. ये वो सहयोगी थे जिन्होंने बीजेपी को समर्थन दिया था और पहली बार 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में पांच साल गठबंधन हुआ था. लेकिन अब वक्त कुछ बदल गया. एनडीए के ज्यादातर सहयोगी उससे दूर होते जा रहे हैं.
इसका प्रमुख कारण है सत्ता का एकाधिकार. 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी ने सभी सहयोगियों को समान अधिकार दिए और सभी की बात सुनी. 2004 में हुए चुनावों में बीजेपी को हार का मुंह देखना पड़ा. उसके बाद सबसे बड़ा राजनीतिक बदलाव तब आया जब 2014 में बीजेपी पूर्ण बहुमत से सत्ता पर काबिज हुई. देखते ही देखते कई राज्यों में बीजेपी की सरकार बनती चली गई. नॉर्थ ईस्ट में कभी भाजपा एक-एक सीट को मोहताज रहती थी लेकिन बाद में वहां भी सरकार बनाई.
आखिरकार क्यों एनडीए लगातर बिखरता जा रहा है
मेरे अनुसार दो बातें हो सकती हैं. पहली बात बीजेपी का बढ़ता जनाधार जिसकी वजह से बीजेपी को ये लगता है कि वो बिना की सहयोगी के भी चुनाव जीत सकती है और सरकार बना सकती है. दूसरी बात बीजेपी को अब गठबंधन पसंद ही नहीं है. क्योंकि उसमें दूसरे दल का भी बराबर से दखल होता है. शिवसेना इसका जीता जागता उदाहरण है.
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बीजेपी-शिवसेना सबसे पक्के दोस्त माने जाते थे. लेकिन राजनीतिक लालच से दोनों को जुदा कर दिया है. शिवसेना को लग रहा था कि बीजेपी को अगर दोबारा चांस मिला था राज्य से उसकी सियासी जड़ें समाप्त हो जाएंगी. शिवसेना अपनी सियासी जमीन को किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहती थी इसी वजह से शिवसेना ने ऐसी मांग रख दी जो बीजेपी को नागवार गुजरी.
बिहार में जनता दल (युनाइटेड)
एनडीए में शामिल दूसरी पार्टी जद(यू) है. यहां भी बीजेपी और जदयू के बीच सब कुछ अच्छा नहीं चल रहा है. एकबार तो दोनों का गठबंधन टूट भी चुका था और नीतीश कुमार ने अपने धुर विरोधी लालू प्रसाद यादव से हाथ मिलाया और सरकार का गठन किया लेकिन ये बेमेल जोड़ी नहीं चल सकी और नीतीश कुमार ने बीजेपी से हाथ मिला ही लिया. लेकिन अब क्या हो रहा है. बेगूसराय से भाजपा सांसद गिरिराज सिंह समय-समय पर नीतीश कुमार को घेरते रहते हैं. नीतीश की पार्टी के भी कई नेता बीजेपी पर अपना गुस्सा जाहिर करते रहते हैं. दोनों के बीच मनमुटाव चर रहा है. जनता दल बीजेपी से अपनी नाराजगी भी व्यक्त कराती रहती है.
अब यहां हम बात कर लेते हैं झारखंड की. यहां पर भाजपा आजसू के साथ मिलकर चुनाव लड़ रही है. सीटों के बंटवारे के मसले पर भाजपा के बैकफुट पर न आने के बाद पार्टी से जुड़े सूत्र इस सवाल का जवाब हां में दे रहे हैं. राज्य की कुल 81 सीटों में भाजपा अब तक 71 सीटों पर उम्मीदवार उतार चुकी है. सिर्फ 10 सीटें छोड़कर भाजपा ने गेंद आजसू के पाले में डाल रखी है.
अगर इन सीटों पर आजसू ने रुख साफ नहीं किया तो भाजपा अपने दम पर सभी सीटों पर लड़ने की तैयारी में है. भाजपा को लगता है कि चुनाव पूर्व गठबंधन से ज्यादा बेहतर है जरूरत के हिसाब से चुनाव बाद गठबंधन करना.
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2014 में भाजपा को सबसे ज्यादा 37 सीटें मिलीं थीं. भाजपा ने स्थिर सरकार देकर जनता के दिल में जगह बनाई है. भाजपा मजबूत है और अकेले लक्ष्य हासिल कर सकती है.” झारखंड में सहयोगी आजसू ने कुल 19 सीटें मांगीं थीं, जबकि पिछली बार भाजपा ने उसे आठ सीटें दीं थीं, जिसमें से उसे पांच सीटों पर जीत मिली थी.
भाजपा को लगा कि महाराष्ट्र की तरह अगर झारखंड में भी उसने गठबंधन में अधिक सीटों पर समझौता किया तो फिर मुश्किल हो सकती है. चुनावी नतीजों के बाद जब शिवसेना साथ छोड़ सकती है तो फिर झारखंड में सहयोगी दल आजसू भी आंख दिखा सकती है.
इसी वजह से पार्टी ने पिछली बार से दो ज्यादा यानी अधिकतम 10 सीट ही आजसू को ऑफर की है. यही वजह है कि भाजपा ने 10 सीटें फिलहाल छोड़ी हैं. मगर आजसू ने भी सीटों के बंटवारे पर झुकने का फैसला नहीं किया. नतीजा रहा कि आजसू ने भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मण गिलुवा के खिलाफ भी चक्रधरपुर से अपना प्रत्याशी उतार दिया.
भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और राज्य के विधानसभा चुनाव प्रभारी ओम माथुर सीटों के बंटवारे और गठबंधन के भविष्य की गेंद फिलहाल आजसू के पाले में डाल चुके हैं. पत्रकारों से बातचीत में वह कह चुके हैं, “भाजपा ने कुछ सीटें छोड़ी हैं, अब हम आजसू के रुख का इंतजार कर रहे हैं.”