गहरी पैठ

दिल्ली में तुगलकाबाद के एक मंदिर को ले कर जमा हुए दलितों के समाचारों को जिस तरह मीडिया ने अनदेखा किया और जिस तरह दलित नेता मायावती ने पहले इस आंदोलन का समर्थन किया और फिर हाथ खींच लिए, साफ करता है कि दलितों के हितों की बात करना आसान नहीं है. ऊंची जातियों ने पिछले 5-6 सालों में ही नहीं 20-25 सालों में काफी मेहनत कर के एक ऐसी सरकार बनाई है जिस का सपना वे कई सौ सालों से देखते रहे हैं और वे उसे आसानी से हाथ से निकलने देंगे, यह सोचना गलत होगा.

दलित नेताओं को खरीदना बहुत आसान है. भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, कम्यूनिस्ट पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल आदि में दलित हैं पर उन के पास न तो कोई पद है और न उन की चलती है. कांशीराम के कारण पंजाब और उत्तर प्रदेश में दलित समर्थक बहुजन समाज पार्टी ने अपनी जगह बनाई पर उस में जल्दी ही ऊंची जातियों की घुसपैठ इस तरह की हो गई कि वह आज ऊंची जातियों का हित देख रही है, दलितों का नहीं.

दलितों की समस्याएं तुगलकाबाद का मंदिर नहीं हैं. वे तो कदमकदम पर समस्याओं से घिरे हैं. उन पर हर रोज अत्याचार होते हैं. उन्हें पढ़नेलिखने पर भी सही जगह नहीं मिलती. ऊंची जातियां उन्हें हिकारत से देखती हैं. उन को जम कर लूटा जाता है. उन का उद्योगों, व्यापारों, कारखानों में सही इस्तेमाल नहीं होता. उन्हें पहले शराब का चसका दिया हुआ था अब धर्म का चसका भी दे दिया गया है. उन्हें भगवा कपड़े पहनने की इजाजत दे कर ऊंची जातियों के मंदिरों में सेवा का मौका दे दिया गया है पर फैसलों का नहीं.

हर समाज में कमजोर वर्ग होते ही हैं. गरीब और अमीर की खाई बनी रहती है. इस से कोई समाज नहीं बच पाया. कम्यूनिस्ट रूस भी नहीं. वहां भी कमजोर किसानों को बराबरी की जगह नहीं मिली. पार्टी और सरकार में उन लोगों ने कब्जा कर लिया था जिन के पुरखे जार राजाओं के यहां मौज उड़ाते थे. कम्यूनिज्म के नाम पर उन्हें बराबरी का ओहदा दे दिया गया पर बराबरी तो जेलों में ही मिली.

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आज भारत में संविधान के बावजूद धर्मजनित एक व्यवस्था बनी हुई है, कायम है और अब फलफूल रही है. दिल्ली का आंदोलन इसी का शिकार हुआ. इसे दबाना पुलिस के बाएं हाथ का काम रहा क्योंकि इस में हल्ला ज्यादा था. पुलिस ने पहले उन्हें खदेड़ा और फिर जैसा हर ऐसी जगह होता है, उन्हें हिंसा करने का मौका दे कर 100-200 को पकड़ लिया. उन के नेता को लंबे दिनों तक पकड़े रखा जाएगा. दलितों का यह आंदोलन ऐसे ही छिन्नभिन्न हो जाएगा जैसे 20-25 साल पहले महेंद्र सिंह टिकैत का किसान आंदोलन छिटक गया था.

जब तक ऊंचे ओहदों पर बैठे दलित आगे नहीं आएंगे और अपना अनुभव व अपनी ट्रेनिंग पूरे समाज के लिए इस्तेमाल न करेंगे, चाहे चुनाव हों या सड़कों का आंदोलन, वे सफल न हो पाएंगे. हां, दलितों को भी इंतजार करना होगा. फिलहाल ऊंची जातियों को जो अपनी सरकार मिली है वह सदियों बाद मिली है. दलितों को कुछ तो इंतजार करना होगा, कुछ तो मेहनत करनी होगी. कोई समाज बिना मेहनत रातोंरात ऊंचाइयों पर नहीं पहुंच सकता.

देशभर में पैसे की भारी तंगी होने लगी है. यह किसी और का नहीं, सरकार के नीति आयोग के वाइस चेयरमैन राजीव कुमार का कहना है. पिछले 70 सालों में ऐसी हालत कभी नहीं हुई जब व्यापारियों, उद्योगों, बैंकों के पास पैसा न हो. हालत यह है कि अब किसी को किसी पर भरोसा नहीं है. सरकार के नोटबंदी, जीएसटी और दिवालिया कानून के ताबड़तोड़ फैसलों से अब देश में कोई कहीं पैसा लगाने को तैयार ही नहीं है और देश बेहद मंदी में आ गया है.

राजीव कुमार ने यह पोल नहीं खोली कि पिछले 2-3 दशकों में जिस तरह पैसा धर्म के नाम पर खर्च किया गया है वह अब हिसाब मांग रहा है. पिछले 5-7 सालों में तो यह खर्च कई गुना बढ़ गया है क्योंकि पहले यह पैसा लोग खुद खर्च करते थे पर अब सरकार भी खर्च करती है.

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कश्मीर में ऐक्शन से पहले सरकार को अमरनाथ यात्रा पर गए लोगों को निकालना पड़ा. हजारों को लौटना पड़ा. पर ये लोग क्या देश को बनाने के लिए गए थे? देश तो खेतों, कारखानों, बाजारों से बनता है. जब आप किसानों को खेतों में मंदिरों को बनवाने को कहेंगे, कारखानों में पूजा करवाएंगे, बाजारों में रामनवमी और हनुमान चालीसा जुलूस निकलवाएंगे तो पैसा खर्च भी होगा, कमाई भी कम होगी ही.

जो समाज निकम्मेपन की पूजा करता है, जो समाज काम को निचले लोगों की जिम्मेदारी समझता है, जो समाज मुफ्तखोरी की पूजा करता है, वह चाहे जितने नारे लगा ले, जितनी बार चाहे ‘जय यह जय वह’ कर ले भूखों मरेगा ही. चीन में माओ ने यही किया था और बरसों पूरी कौम को भूखा मरने पर मजबूर किया था. जब चीन कम्यूनिज्म के पाखंड के दलदल से निकला तो ही चमका.

भारत का गरीब आज काम के लिए छटपटा रहा है. पहली बार उस ने सदियों में आंखें खोली हैं. उसे अक्षरज्ञान मिला है. उसे समझ आया है कि काम की कीमत केवल आधा पेट भरना नहीं, उस से कहीं ज्यादा है. धर्म के नाम पर उस का यह सपना तोड़ा जा रहा है और नतीजा यह है कि वह फिर लौट रहा है दरिद्री की ओर और साथ में पूरे बाजार को डुबा रहा है.

सरकार की कोई भी स्कीम काम करने का रास्ता नहीं बना रही है. सब रुकावटें डाल रही हैं. कश्मीर के नाम पर देश का अरबों रुपया हर रोज बरबाद हो रहा है. अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट दिनोंदिन खर्च कर रहा है. बड़ी मूर्तियां बनाई जा रही हैं. कारखाने न के बराबर लग रहे हैं. उलटे छंटनी हो रही है. पहले अमीरों के उद्योग गाडि़यों के कारखानों में छंटनी हुई अब बिसकुट बनाने वाले भी छंटनी कर रहे हैं. नीति आयोग के राजीव कुमार में इतनी हिम्मत कैसे आ गई कि उन्होंने सरकार की पोल खोल दी. अब उन की छुट्टी पक्की पर जो उन्होंने कहा वह तो हो ही रहा है. अमीरों के दिन तो खराब होंगे पर गरीब भुखमरी की ओर बढ़ चलें तो बड़ी बात न होगी.

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कश्मीर में धारा 370 समाप्त

देश के एक बड़े वर्ग की इच्छा को भुनाते हुए भारतीय जनता पार्टी ने अपने संसदीय बहुमत के सहारे कश्मीर के 1947 के विलय के अनुबंधों को तोड़ते हुए जम्मूकश्मीर को अलग संवैधानिक स्थान देने वाले अनुच्छेद 370 और 35ए को एक झटके में कुछ घंटों में समाप्त कर के जम कर वाहवाही लूटी. 1947 से ही कश्मीर भारत के लिए नासूर बना हुआ है और मुसलिमबहुल जनता वाला यह राज्य भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद का केंद्र बना हुआ है.

इस ऐतिहासिक फैसले का परिणाम इस समस्या को सुलझाने में हो या न हो कश्मीर के अलावा बाकी भारतीयों को जो खटका रहता था कि उन को विशिष्ट स्तर पर क्यों रखा जा रहा है, समाप्त हो गया है. भारतीय जनता पार्र्टी ने यह कदम उठा कर उन भारतीयों को संतोष दिया है जो एक देश एक संविधान का नारा देते थे. ये लोग बाकी संविधान को कितना मानते थे, कितना समझते थे, यह बात न आज पूछने की है, न कहने की.

भारत सरकार को अंदाजा है कि इस कदम को उठाने के बाद कश्मीर में और आग सुलगेगी. इसीलिए कश्मीर को पूरी छावनी बना डाला गया है और वहां से पर्यटकों को निकाल दिया गया है. यहां तक कि अचानक अमरनाथ यात्रा भी स्थगित कर दी गई. भारत सरकार को अब पूरा एहसास है कि कश्मीर विवाद और उलझेगा, तभी तो वहां भारी संख्या में सेना व अर्धसैनिक बल तैनात किए गए हैं.

देश का हर नागरिक देश की अखंडता व एकता में विश्वास रखता है और जब अरसा पहले तमिलों ने या पंजाब में सिखों ने अलग होने की मांग रखी थी तो भारत सरकार ने बल व कूटनीति दोनों का इस्तेमाल कर के इन इलाकों को शांत किया था. आशा की जानी चाहिए कि यही कश्मीर के साथ होगा.

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कश्मीर का वैसे तो भारत में विलय 1947 में ही हो गया था पर जो संवैधानिक रेखा खिंची थी उस के हटने से वही फर्क पड़ेगा जो गोवा, पुडुचेरी या सिक्किम पर पड़ा. कभी विदेशी ताकतों के अधीन रहे या स्वतंत्र इन भूभागों के भारत में पूर्ण विलय के बाद न वहां के जनमानस पर कोई असर पड़ा है और न बाकी देश पर. कश्मीर के अनुच्छेदों 370 व 35ए की समाप्ति के बाद कश्मीर की हालत सुधरेगी यह तो आशा नहीं पर बाकी भारत को भारी संतोष होगा कि उस ने एक संवैधानिक विजय पाई है.

भारतीय जनता पार्टी को वही लाभ होगा जैसा इंदिरा गांधी को 1969-71 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण, प्रिवी पर्स समाप्त करने, कपड़ा मिलों व खानों

का राष्ट्रीयकरण और बंगलादेश

को अलग कराने से हुआ था.

इंदिरा गांधी के इन ऐतिहासिक

कदमों का देश में जो स्वागत हुआ

था, वैसा ही अब हो रहा है, पर इंदिरा गांधी ने यह अपनी गद्दी की खातिर किया था.

कश्मीर के बारे में निर्णय लेने में अब दिल्ली को दो बार नहीं सोचना पड़ेगा कि संविधान आड़े आ रहा है. केंद्र सरकार को किसी तरह की अनुमति नहीं लेनी पड़ेगी. हां, कश्मीरी इसे कैसे पचाएंगे, यह कहना कठिन है. भारतीय जनता पार्टी फिलहाल तो कश्मीरियों को पुचकारने या मनाने के मूड में नहीं है.

कर्नाटक में करा नाटक

भारतीय जनता पार्टी ने आखिरकार कर्नाटक में पौराणिक परंपरा के अनुसार सुग्रीवों व विभीषणों के सहारे कांग्रेस और जनता दल सैक्युलर की गठबंधन सरकार को गिरा कर लंका को जीत ही लिया है. अब किसी विभीषण को राज्य का उपमुख्यमंत्री बना कर रामराज्य स्थापित कर दिया जाएगा. जब लोकसभा में भारी बहुमत हो और अधिकांश राज्यों में भाजपा की ही सरकारें हों, ऐसे में भाजपा की कर्नाटक की बेचैनी और विधायकों की खरीद समझ से परे है.

यह स्पष्ट है कि भाजपा उस कल्पित चक्रवर्ती राज के सपने देख रही है जिस में कश्मीर से कन्याकुमारी तक भाजपा का राज हो और कामगार खुश हों या न हों, ऋषिमुनियों को लगातार प्रतिष्ठा, दान और पैसा सब मिलता रहे. ऐसे में कर्नाटक क्यों हाथ से दूर रहे. 5 गांव मांगने वाले पांडवों ने कहनेसुनने पर अपने पूरे खानदान को मरवा दिया था और महाभारत के युद्ध के अंत में बचे पांडवों को हिमालय पर जा कर आत्महत्या करनी पड़ी थी.

जहां चुनावों में विधिवत जीत मिली हो वहां तो कुछ नहीं कहा जा सकता. पर जहां बहुमत न मिला हो वहां भी सरकार बनाने की जो जिद भाजपा ने पकड़ ली है, वह देश को भारी पड़ेगी. इस जिद के चलते साम, दाम, दंड व भेद अपनाए जाएंगे और यही साम, दाम, दंड, भेद भाजपा की शासन संस्कृति बन जाएंगे. ये राज्य के हर अंग पर चलेंगे.

सरकार पहले ही जाति व धर्म का भेद भुना कर पूरे समाज को दीवारों से बांट रही है. हर धर्म ही नहीं, हर जाति के लोग भी अपने में सिमट रहे हैं कि कहीं उन के अस्तित्व पर आंच न आ जाए, उन की किसी कमजोरी या गलती को तिल का ताड़ न बना दिया जाए. कर्नाटक में कांग्रेस के बागी विधायक भाजपा से इसीलिए जा मिले ताकि उन को संरक्षण मिल सके.

जब भी कोई शासक अति शक्तिशाली होता है, वह थोड़े से विरोध को भी नहीं सह सकता. उस के लिए लोकतंत्र एक सीढ़ी मात्र होता है जिसे चढ़ने के बाद उसे जला देना ठीक रहता है ताकि और कोई उस का इस्तेमाल कर चुनौती न दे सके. कर्नाटक में सरकार का फेरबदल अनावश्यक था. एक लोकतांत्रिक पार्टी सत्तारूढ़ पार्टी मेंहो रही उठापटक को चुनावों में भुना सकती है, अपनी सरकार बनाने के लिए नहीं.

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कांग्रेस और जनता दल सैक्युलर अपनी पार्टियों में घुसे सैकड़ों सुग्रीवों और विभीषणों से मुकाबला नहीं कर सकते. जाति का सवाल उठे बिना यह स्पष्ट है कि आज जो दलबदल हो रहे हैं उन में वही सब से बड़ा कारण है. कांग्रेस और दूसरे दलों की अब खैर नहीं, क्योंकि भाजपा अपना एकछत्र राज चाहती है. यही सपना कभी 1977 में मोरारजी देसाई ने देखा था और यही राजीव गांधी ने 1984 में संसद में भारी बहुमत पा कर देखा था.

धार्मिक कट्टरता

रांची की जिला अदालत के एक मजिस्ट्रेट मनीश कुमार सिंह ने कट्टरपंथी बनती 19 वर्षीया हिंदू लड़की रिचा भारती को फेसबुक पर अनापशनाप पोस्ट करने से रोकने के लिए जो कदम उठाया, वह सही होते हुए भी अजीब था. इसलाम को बदनाम करने के प्रयास में अगर पहली पेशी में बिना पूरी सुनवाई के सिर्फ जमानत की शर्त पर कुरान की 5 प्रतियां बांटने को कहा जाए तो यह एक तरह की सजा ही होगी. जो मजिस्ट्रेट को नहीं देनी चाहिए थी.

अदालत के इस फैसले का लाभ देशभर के हिंदूवादी लोगों ने जम कर उठाया. वे  व्हाट्सऐप, इंस्टाग्राम, ट्विटर, फेसबुक पर मजिस्ट्रेट का मखौल उड़ाने, उन की भर्त्सना करने और रिचा भारती को महान बताने में जुट गए. 2 दिनों बाद मजिस्ट्रेट ने फैसला तो बदला लेकिन तब तक धर्म के दुकानदारों को भरपूर बारूद मिल चुका था.

मजिस्ट्रेट की नीयत खराब न थी. वे इतना ही चाहते होंगे कि 19 वर्षीया लड़की धर्म की दुकानदारी के पचड़े में न पड़े और कुरान बांटने के बहाने मुसलमानों के संपर्क में आए. पर, हिंदू कट्टरों ने लगातार खोदी जा रही खाई में इसे रुकावट समझा.

ट्विटर, फेसबुक, व्हाट्सऐप ऐसी पोस्टों से भरे पड़े हैं जिन में मुसलिम कपड़े पहने युवक बुराभला कह रहे हैं. ये पोस्ट असली हैं, इस को साबित करना असंभव है. यह संभव है कि किसी भी हिंदू को टोपी पहना कर, दाढ़ी बढ़वा कर कुछ भी कहते रिकौर्डिंग कर लें और फिर दुष्प्रचार के लिए डाल दें. आज का डरा हुआ मुसलमान, दलित, पिछड़ा इतनी हिम्मत नहीं रखता कि वह पाखंडियों के बारे में कुछ कह सके, धमकियां देना तो बहुत दूर की बात है. पर, हिंदू धर्म के प्रचारकों के लिए इस नए प्रकार का नाटक कराना वैसा ही आसान है जैसा वे रामलीला में राक्षसों की पोशाक पहना कर युवाओं से कराते हैं.

देश का टुकड़ेटुकड़े गैंग उदारवादियों में नहीं है जो मानवता की बात करते

हैं. टुकड़ेटुकड़े गैंग तो धर्म के अंधविश्वासियों में है जो हर रोज भारत माता की जय और जय श्रीराम के नारे लगवाते हैं.

सुरक्षा कहां जरूरी

नेताओं के चारों ओर काली या खाकी वरदी में बंदूकधारी गार्डों की भीड़ कई बार नेताओं को छिपा देती है और उन्हें अपने समर्थकों से दूर कर देती है. फिर भी न जाने क्यों ज्यादातर नेता इस सिक्योरिटी को अपने लिए तमगा समझते रहे हैं जबकि यह उन के और समर्थकों के बीच अकसर दीवार भी बन जाती है. साथ ही, इस भीड़ में मौजूद गुप्तचर सत्तारूढ़ दल के नेताओं के लिए घातक भी हो सकते हैं.

देश में कानूनव्यवस्था ऐसी नहीं है कि तालियां बजाई जाएं. पर 10-15 गार्डों की सुरक्षा को रखना न केवल सरकार पर निरर्थक बोझ है, यह लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ भी है. सुरक्षा मन से होती है. गांधी की हत्या हो गई थी. इंदिरा गांधी की हत्या सुरक्षाकर्मियों ने ही कर दी थी. राजीव गांधी तमाम सुरक्षा के बावजूद मारे गए थे.

सुरक्षा केवल मानसिक बल से मिलती है, सरकारी गार्डों से नहीं. आज जिस तरह से आत्मघाती हत्यारों को तैयार किया जा रहा है, उस से कोई

भी सुरक्षित नहीं है. आज बाजार में राइफलें खुलेआम उपलब्ध हैं जो काफी दूर तक अचूक निशाना साध सकती हैं. वहीं, पुलिस व सेना से ऐसी राइफलों को चुरानाछीनना भी आम  है. इन की, चाहो तो, तस्करी भी आसानी से हो सकती है.

अगर सरकार ने बहुत से नेताओं

व दूसरे लोगों की सुरक्षा का स्तर घटाया है तो सही किया है. यह चाहे राजनीतिक विरोध के चलते किया गया हो या सुरक्षा कर्मियों की निरर्थकता के लिए, फैसला सही ही है. सुरक्षा तो वहां होनी चाहिए जहां पैसा है, कमजोर लोग हैं, बच्चे हैं. आमतौर पर वे जगहें असुरक्षित रहती हैं.

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हमारे यहां महल्लों में पुलिस की नियमित गश्त लगना बंद हो गई है. घरवाले अपने आसपास तैनात पुलिसमैन का नाम व नंबर जानना तो क्या, शक्ल भी नहीं पहचानते. हर 100-200 घरों के आसपास एक नियमित गश्त करने वाला नेताओं की सुरक्षा से ज्यादा जरूरी है. वह अपरोक्ष रूप में नेताओं को भी सुरक्षा देगा क्योंकि पुलिसमैन बहुत कुछ पता कर सकता है.

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