आज की एकलव्य: क्या था फातिमा की बेटी का मकसद

कहां चली जाती है यह लड़की. शाम हो चली है, मगर यह है कि घर आने का नाम ही नहीं लेती. रोटियां भी सूख गई हैं,’’ फातिमा ने कहा.

‘‘क्यों बेकार में परेशान होती हो? कहीं खेल रही होगी वह. मैं देख कर आता हूं,’’ मुनव्वर बोला, जो तबस्सुम का पिता था.

मुनव्वर की सड़क किनारे मोटरसाइकिलों की मरम्मत और पंचर लगाने की छोटी सी दुकान थी. उस के 2 बच्चे थे. 5 साल की तबस्सुम और 2 साल का अनवर.

मुनव्वर जयपुर जाने वाले हाईवे के किनारे रहता था. पास में ही निशानेबाजी सीखने वालों के लिए शूटिंग रेंज बनी हुई थी. गांव के ज्यादातर बच्चे गुल्लीडंडा और कंचे खेलने में मस्त रहते थे.

तबस्सुम निशानेबाजी देखे बिना नहीं रह पाती थी और सुबहसवेरे शूटिंग रेंज में चली जाती थी.

‘‘अच्छा, यहां चुपचाप बैठी है. तेरी मां घर पर इंतजार कर रही है,’’ मुनव्वर ने कहा, तो तबस्सुम चौंक पड़ी.

तबस्सुम बोली, ‘‘पापा, मु?ो भी बंदूक दिला दो न. मैं भी इन की तरह निशानेबाज बनूंगी.’’

‘‘चल उठ यहां से. बड़ी आई निशांची बनने. पता है, तेरी मम्मी कितनी परेशान हैं. एक तमाचा दूंगा, सब अक्ल ठिकाने आ जाएगी,’’ मुनव्वर ने कहा.

‘‘महारानी कहां गई थीं. राह देखतेदेखते मेरी आंखें पथरा गईं,’’ घर की तरफ आते देख फातिमा उन दोनों की तरफ लपकी.

छोटी सी बच्ची क्या कहती, सो पापा के पैरों में लिपट गई.

मुनव्वर का दिल पसीज गया और बोला, ‘‘अब बस भी कर फातिमा. ऊपर से तो गुस्सा दिखाती है, पर मैं जानता हूं कि दोनों बच्चों के लिए तेरे मन में कितना प्यार है.’’

‘‘मैं कह देती हूं कि मु?ो बताए बिना तू कहीं नहीं जाएगी,’’ फातिमा ने तबस्सुम को पकड़ कर ?ाक?ोर दिया और पलट कर कहने लगी, ‘‘देखोजी, इसे सरकारी स्कूल में पढ़ने के लिए भरती करा दो. कुछ जमात पढ़ लेगी, तो ठीक रहेगा.’’

‘‘बेटी तबस्सुम, हाथमुंह धो कर आ. बापबेटी और मम्मी तीनों मिल कर एकसाथ खाना खाएंगे,’’ मुनव्वर ने कहा, तो फातिमा ने ‘हां’ में सिर हिलाया और रोटियां, दालसब्जी फिर से गरम कर के कमरे में ले आई.

अगले दिन ही मुनव्वर पहली जमात की किताबें बाजार से खरीद लाया और तबस्सुम का दाखिला कराने के लिए उसे ले कर स्कूल पहुंचा.

स्कूल के सामने हैडमास्टर का कमरा था. मुनव्वर ने स्कूल में दाखिले के लिए कहा, तो हैडमास्टर ने फार्म भर कर देने और फीस जमा करने को कहा.

मुनव्वर अपना काम खत्म कर के तबस्सुम को स्कूल में ही छोड़ आया.

तबस्सुम धीरेधीरे बड़ी हो रही थी. उस का मन अब पढ़ाई में नहीं लग रहा था. वह चुपचाप शूटिंग रेंज की तरफ निकल जाती और मास्टर उसे ढूंढ़ने के लिए बच्चों को इधरउधर दौड़ाते.

आखिरकार तंग आ कर क्लास टीचर ने मुनव्वर को बुलावा भेजा कि वह जल्दी से आ कर हैडमास्टर से मिले.

‘‘मुनव्वर, हम तबस्सुम को नहीं पढ़ा सकते. अच्छा होगा कि तुम इसे घर ले जाओ,’’ हैडमास्टर ने कहा.

हैडमास्टर का फैसला सुन कर मुनव्वर बोला, ‘‘मैं जानता हूं कि तबस्सुम का मन पढ़ाई में नहीं लगता है. मगर इसे सुधरने का एक मौका दीजिए. शायद वह मन लगा कर पढे़गी.’’

‘‘नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. यह चुपके से शूटिंग रेंज की तरफ निकल जाती है. वहां बैठ कर घंटों तक निशानेबाजी देखती रहती है,’’ हैडमास्टर ने कहा.

‘‘मैं जानता हूं कि इस का मन निशानेबाजी में लगता है. यह एकलव्य बनने का सपना संजोए हुए है. कच्ची उम्र की है. इस के लिए पढ़नालिखना ठीक है, न कि भारीभरकम बंदूक उठाना,’’ मुनव्वर ने कहा और हैडमास्टर को राजी कर लिया.

घर लौटा, तो फातिमा ने पूछ ही लिया, ‘‘क्यों री, कहां चली जाती है? स्कूल में पढ़ने भेजा जाता है या घूमनेफिरने? अरे, पढ़ लेगी, तो कुछ बन जाएगी, नहीं तो मेरी तरह चूल्हाचक्की में पिसती रहेगी.’’

‘‘मां, मैं पढ़ना नहीं चाहती, बंदूक चलाना सीखूंगी. मैं बड़ी हो कर निशानेबाजी की बड़ी प्रतियोगिताओं में भाग ले कर ढेर सारे मैडल जीतूंगी,’’ तबस्सुम ने कहा, जो छोटा मुंह बड़ी बात लग रही थी.

तबस्सुम धीरेधीरे बड़ी हो रही थी. एक दिन मुनव्वर के साथ मेला देखने गई, तो खिलौना बंदूक के लिए मचल गई.

पिता को आखिरकार मजबूर हो कर वह खिलौना दिलाना पड़ा. अब वह चुपचाप घर के एक कोने में निशाना लगाया करती.

एक दिन तबस्सुम अकेले ही खिलौना बंदूक से निशानेबाजी की प्रैक्टिस कर रही थी. वह जब भी छर्रा छोड़ती, जो सीधा निशाने पर लगता. मुनव्वर और फातिमा सांस साधे चुपचाप उसे देख रहे थे.

‘शाबाश बेटी, क्या निशाना लगाती हो, एकलव्य की तरह. बिना किसी गुरु के,’ मुनव्वर और फातिमा बोले.

खिलौना बंदूक से ही तबस्सुम निशानेबाजी सीखती रही और माहिर होती रही. इस का पता उस के स्कूल के टीचरों को भी चल गया. वे भी तबस्सुम को निशानेबाजी के लिए बढ़ावा देते रहे.

कुछ दिन बीते. टीचरों को अखबार के जरीए जिलास्तरीय निशानेबाजी प्रतियोगिता के बारे में पता चला. टीचर संजय मुनव्वर के घर जा पहुंचे.

‘‘क्या बात है मास्टरजी, आज मु?ा गरीब के घर कैसे आए?’’ मुनव्वर बोला.

‘‘स्कूल के सभी टीचरों ने आप की बेटी तबस्सुम के हुनर को पहचाना है, इसीलिए सब ने मिल कर चंदा इकट्ठा किया है. मैं वह पैसा तुम्हें देने आया हूं. आप तबस्सुम को निशानेबाजी सीखने के लिए बंदूक खरीद कर दिला देना,’’ संजय बोले.

‘‘मगर मास्टरजी, आप खड़े क्यों हैं? अंदर आइए और चायपानी लीजिए,’’ मुनव्वर ने कहा.

टीचर संजय अंदर गए. मुनव्वर एक छोटा सा लकड़ी का बना हुआ स्टूल ले आया.

‘‘हैडमास्टर साहब अच्छी तरह जान चुके हैं कि तबस्सुम उन के स्कूल का नाम जरूर रोशन करेगी, इसीलिए मु?ो आप के पास चंदे का पैसा दे कर भेजा है,’’ संजय ने स्टूल पर बैठते हुए कहा.

‘‘आप की मेहरबानी हुई मु?ा गरीब पर, मगर मु?ो नहीं पता कि बंदूक कहां मिलेगी. आप खुद खरीद कर ले आते, तो अच्छा होता,’’ मुनव्वर ने कहा.

‘‘मैं कल तबस्सुम को बंदूक ला कर दे दूंगा. मगर ध्यान रखना कि अगले हफ्ते 20 तारीख को उदयपुर में जिलास्तरीय प्रतियोगिता हो रही है. वहां तबस्सुम को ले जाना मत भूलना,’’ टीचर संजय ने सम?ाते हुए कहा.

अगले दिन संजय उदयपुर जा कर बंदूक ले आए और तबस्सुम को बंदूक दे दी. उस ने बंदूक को चूम लिया.

तबस्सुम बंदूक पा कर प्रैक्टिस में जुट गई. उसे खाना खाने तक की चिंता न रहती. लकड़ी के एक फट्टे पर काले रंग से गोले खींच लिए. उसे खड़ा कर के निशाना लगाती रहती.

‘‘पापा, मु?ो शूटिंग रेंज ले चलिए न. मैं शूटर बनना चाहती हूं,’’ तबस्सुम ने कहा.

‘‘छोटी सी उम्र में इतना बड़ा सपना,’’ मुनव्वर बोला.

‘‘इस की दिमागी ताकत तो देखिए कितने गजब की है. इतनी तो बड़ों की भी नहीं होती है. मेरी मानो तो बच्ची की इच्छा को पूरा करना ही अच्छा रहेगा. इसे शूटिंग रेंज के अफसरों से मिल कर वहां भरती करवा दो,’’ फातिमा बोली.

‘‘मगर फातिमा, यह सब इतना आसान नहीं है, एक तो इस की उम्र कम है. दूसरे, हमारे पास इतने पैसे भी नहीं हैं कि निशानेबाजी सीखने के लिए वहां फीस भर सकें. लेदे कर महीने में 2-3 हजार रुपए कमाता हूं,’’ मुनव्वर बोला.

‘‘कुछ भी सही, बच्ची का दिल मत तोड़ो. उस की इच्छा है, तो चाहे कर्ज लेना पड़े, इसे किसी भी कीमत पर शूटिंग रेंज में भरती करवा दो,’’ फातिमा ने कहा, जो बच्ची का हुनर देख कर उस से प्रभावित हो चुकी थी.

‘‘तुम ठीक कह रही हो फातिमा. यह शूटर बन कर ही रहेगी. मगर क्या करूं, घर की माली हालत तो तुम देख रही हो. मैं मोटरसाइकिलों के पंचर लगा कर ही तो पैसे कमाता हूं. उसी छोटी सी आमदनी से घर का खर्च चला रहा हूं.’’

‘‘मैं तो कहती हूं, आप मुखियाजी से बात करो. शायद, कुछ बात बन जाए,’’ फातिमा बोली.

मुनव्वर अगले दिन ही मुखिया के यहां जा पहुंचा. वहां मसजिद के इमाम हाफिज भी बैठे थे.

मुनव्वर हिम्मत बटोर कर धीरे से बोला, ‘‘मुखियाजी, मेरी बेटी निशानेबाज बनना चाहती है. मैं इसे शूटिंग रेंज में भरती कराना चाहता हूं. आप मेरी मदद करेंगे, तो मु?ो अच्छा लगेगा.’’

इस से पहले कि मुखियाजी कुछ कहते, इमाम हाफिज कहने लगे, ‘‘भाई मुनव्वर, यह ठीक है कि आप अपनी बेटी को शूटर बनाना चाहते हैं. मेरी मानो, तो अभी इस की उम्र शूटिंग सीखने की नहीं है.

‘‘अच्छा होगा कि आप इसे कुरान याद कराओ. नहीं तो इस की शादी कर दो. बुजुर्गों ने कहा है कि बेटी की

शादी करना मांबाप के लिए जन्नत जाने जैसा है…’’

‘‘हमें बच्ची के सपनों के बीच नहीं

आना चाहिए. मैं तेरे साथ चलने को तैयार हूं,’’ मुखिया ने इमाम की बात काटते हुए कहा.

थोड़ी देर में वे सब शूटिंग रेंज के अफसर के पास पहुंच गए.

अफसर अपने केबिन में बैठे थे. सामने मेहमानों के बैठने के लिए सोफा रखा था. उन के शूटरों ने प्रतियोगिताओं में जो ट्रौफियां जीती थीं, वे सब कांच की अलमारी में रखी थीं.

अफसर खुद मजबूत कदकाठी के थे. वे बोले, ‘‘कहिए, मैं आप की क्या सेवा कर सकता हूं?’’

‘‘हम आप के पास एक गुजारिश ले कर आए हैं. अगर आप मान लेंगे, तो हम अपने को खुशनसीब सम?ोंगे,’’ मुनव्वर ने कहा.

‘‘हां, हां कहो, क्या बात है?’’

‘‘मेरी बेटी तबस्सुम अच्छी निशानेबाज है. आप इसे शूटिंग रेंज में प्रैक्टिस करने की इजाजत दे दें, तो हमें अच्छा लगेगा,’’ मुनव्वर बोला.

अफसर ने तबस्सुम को एक नजर नीचे से ऊपर तक देखा. परखने के बाद वे बोले, ‘‘इस की उम्र क्या है?’’

‘‘8 साल.’’

‘‘इस लड़की की उम्र खेलनेकूदने की है, न कि बंदूक उठाने की.’’

यह सुन कर मुनव्वर का तो चेहरा ही उतर गया. वह हिम्मत बटोर कर बोला, ‘‘मैं जानता हूं सर, तबस्सुम कम उम्र

की है. मगर फिर भी आप उस की निशानेबाजी देख लें, उस के बाद किसी फैसले पर पहुंचें.’’

‘‘तो क्या आप चाहते हैं कि मैं इस लड़की को प्रैक्टिस कराने और बंदूक साधने के लिए कोई आदमी लगा दूं?’’

‘‘मैं ने ऐसा तो नहीं कहा.’’

‘‘फिर क्या मतलब है आप का?’’

‘‘तबस्सुम को निशानेबाजी में प्रैक्टिस की सख्त जरूरत है. इसे तकनीकी जानकारी चाहिए.’’

‘‘मुनव्वर मियां, इसे स्कूल में पढ़ने दो. इस के कंधों में इतनी ताकत नहीं है कि वे बंदूक का ?ाटका ?ोल सकें.’’

‘‘आप एक बार फिर अपने फैसले पर विचार करें और इसे प्रैक्टिस के लिए इजाजत दे दें,’’ मुखिया ने कहा, तो खेल अफसर ने सिर पकड़ लिया. वे बोले, ‘‘तुम्हारी यही जिद है, तो कल से इसे प्रैक्टिस के लिए भेज दो.’’

उस अफसर का फैसला सुन कर तबस्सुम उछल पड़ी. मुखिया, मुनव्वर और हाफिज के चेहरों पर मुसकान आ गई.

अगले दिन से मन लगा कर तबस्सुम निशानेबाजी की प्रैक्टिस करने लगी. उसे जिलास्तरीय प्रतियोगिता में भाग जो लेना था.

मुनव्वर तबस्सुम को ले कर निश्चित समय पर उदयपुर पहुंच गया. पर दिल्ली से आए कोच ने मना कर दिया, ‘‘तबस्सुम छोटी है और उस से बंदूक नहीं उठती है. उसे सहयोगी नहीं दिया जा सकता, इसलिए वह प्रतियोगिता में भाग नहीं ले सकती.’’

‘‘देखिए, मेरी बेटी को एक बार प्रतियोगिता में उतरने तो दीजिए. फिर देखना उस का हुनर,’’ मुनव्वर बोला.

‘‘खेलों के भी कुछ नियम होते हैं. तुम्हारे लिए नियम बदले तो नहीं जा सकते,’’ कोच ने कहा.

‘‘मैं आप को सिर्फ इतना कहूंगा कि आप एक बार उस की निशानेबाजी देख लें. आप को शिकायत का मौका नहीं मिलेगा,’’ मुनव्वर ने कहा.

काफी मानमनौव्वल के बाद कोच राजी हो गया.

अगले दिन मुनव्वर समय से प्रतियोगिता की जगह पर पहुंच गया. तबस्सुम को टीम में शामिल कर लिया गया. वह क्या निशाने पर निशाना साधे जा रही थी. कोच ने दांतों तले उंगली दबा ली.

उसे प्रतियोगिता में भाग लेने की रजामंदी दे दी गई.

तबस्सुम ने प्रतियोगिता में गोल्ड मैडल जीता. दिल्ली से आए कोच और खेल अफसर दोनों खुश थे. तबस्सुम, मुनव्वर और फातिमा के तो पैर जमीन पर नहीं टिक रहे थे.

 

रंगों के अरमान: क्या पूरे हो पाएं जमालुद्दीन के अरमान

आज 78 साल के जमालुद्दीन मियां बहुत खुश थे. यूक्रेन से उन का पोता कामरान सहीसलामत घर वापस आ रहा था. कामरान के साथ उस का दोस्त अभिनव भी था. अभिनव को टिकट नहीं मिलने के चलते कामरान भी 4 दिनों तक वहीं रुका रहा.

जमालुद्दीन मियां बाहर चौकी पर लेटे थे कि आटोरिकशा आ कर रुका. सैकड़ों लोगों ने आते ही उन्हें घेर लिया. ऐसा लग रहा था कि ये बच्चे जंग से जान बचा कर नहीं, बल्कि जंग जीत कर आ रहे हैं.

‘‘अस्सलामु अलैकुम दादू,’’ आते ही कामरान ने अपने दादा को सलाम किया. उस के बाद अभिनव ने भी सलाम दोहराया.

‘‘अच्छा, यही तुम्हारा दोस्त है,’’ जमालुद्दीन मियां ने कहा.

‘‘जी दादाजी.’’

जमालुद्दीन मियां को उन दोनों का चेहरा साफ नहीं दिख रहा था. नजर कमजोर हो चली थी. उन्होंने दोनों को चौकी पर बिठाया और बारीबारी से अपने हाथों से उन का चेहरा टटोला.

वे बहुत खुश हुए, फिर कहा, ‘‘सब लोग तुम्हारी बाट जोह रहे हैं. नहाखा कर आराम कर लो.’’

अम्मी कामरान को गले से लगा कर रोने लगीं. जैसे गाय अपने बछड़े को चूमती है, वैसे चूमने लगीं. दोनों बहनें भी अगलबगल से लिपट गईं.

अब्बू कुरसी पर बैठे इंतजार कर रहे थे कि उधर से छूटे तो इधर आए. कामरान की निगाहें भी अब्बू को ढूंढ़तेढूंढ़ते कुरसी पर जा कर ठहर गईं. अम्मी के आंसू थमने के बाद उस ने अब्बू के पास जा कर सलाम किया.

इधर कामरान की बहनें अभिनव के सत्कार में जुटी रहीं. अभिनव को अभी यहां से अपने घर जाना था. यहां से

40 किलोमीटर दूर उस का गांव था.

4 घंटे के बाद अभिनव के घर जाने के लिए दोनों निकले, तो दादाजी के पास दुआएं लेने के लिए ठहर गए.

‘‘अच्छा तो तुम्हें टिकट नहीं मिली थी?’’ जमालुद्दीन मियां ने अभिनव से सवाल किया.

अभिनव ने कहा, ‘‘जी दादाजी. मैं तो कामरान से कह रहा था कि तुम चले जाओ. जब मुझे टिकट मिलेगी तो आ जाऊंगा, पर यह मुझे छोड़ कर आने के लिए तैयार नहीं था.’’

इस पर जमालुद्दीन मियां ने कहा, ‘‘ऐसे कैसे छोड़ कर आ जाता. साथ पढ़ने गए थे, तो तुम्हें कैसे मौत के मुंह में छोड़ कर आ जाता. इसे दोस्ती नहीं मौकापरस्ती कहते हैं.’’

कामरान ने कहा, ‘‘दादाजी, होली सिर पर है. मैं ने सोचा कि मुझ से ज्यादा तो इस का घर जाना ज्यादा जरूरी है.’’

जमालुद्दीन मियां ने कहा, ‘‘अच्छा… होली आ गई है.

कब है?’’

अभिनव बोला, ‘‘18 मार्च को है…’’

जमालुद्दीन मियां ने दोहराया,

‘‘18 मार्च…’’ इतना कह कर उन की आंखें शून्य में कुछ ढूंढ़ने लगीं. उन्हें यह भी खयाल नहीं रहा कि पास में बच्चे बैठे हुए हैं. उन्होंने गमछा उठाया और चेहरे पर रख लिया.

यह देख कर कामरान ने पूछा, ‘‘क्या हुआ दादाजी?’’

जमालुद्दीन बोले, ‘‘कुछ नहीं हुआ बबुआ. तुम लोग जाओ, नहीं तो देर हो जाएगी.’’

कामरान चौकी पर दादाजी की पीठ से लग कर बैठ गया और पूछने लगा, ‘‘दादाजी, होली के बारे में सुन कर आप की आंखें क्यों भर आईं? होली से कोई याद जुड़ी है क्या?’’

जमालुद्दीन मियां ने जबरदस्ती की हंसी हंसते हुए कहा, ‘‘कुछ नहीं बुड़बक.’’

अभिनव बोला, ‘‘दादाजी, अब तो हम आप का किस्सा सुन कर ही जाएंगे.’’

जमालुद्दीन मियां ने कहा, ‘‘अरे बुड़बक, तुम ने तो बात का बतंगड़ बना दिया है… पर जिद ही करते हो तो सुनो. कुसुम का बड़ा मन था हमारे साथ होली खेलने का.

बाकी हमारे घर के लोग बोले थे कि रंग छूना गुनाह है. रंग लगा

कर घर में घुस भी मत जाना, यह हराम है.

‘‘कुसुम के घर के लोग उस से बोले कि मियां के संग होली खेलना तो दूर, साथ होना भी पाप है. खबरदार जो होली के दिन जमलुआ के घर गई तो.’’

अभिनव ने पूछा, ‘‘फिर क्या हुआ?’’

जमालुद्दीन मियां ने आगे बताया, ‘‘होना क्या था. लगातार

3 साल तक हम दोनों ने होली खेलने की कोशिश की, पर मौका ही नहीं मिला. फिर उस की शादी हो गई. वह अपनी ससुराल चली गई और मन के अरमान मन में ही धरे रह गए.’’

कामरान ने पूछा, ‘‘फिर?’’

इस पर जमालुद्दीन मियां बोले, ‘‘अरे फिर क्या… कहानी खत्म.’’

अभिनव बोला, ‘‘उन की शादी कहां हुई थी?’’

जमालुद्दीन ने बताया, ‘‘अरे, यहां से 16 किलोमीटर दूर है मुसहरी टोला… वहीं.’’

अभिनव हैरान हो कर बोला, ‘‘मुसहरी टोला?’’

जमालुद्दीन ने कहा, ‘‘तब तो

नदी से हो कर जाते थे, अब पुल बन गया है.’’

अभिनव ने कहा, ‘‘दादाजी, आप की कुसुम मेरी दादी हैं.’’

यह सुन कर जमालुद्दीन मियां के साथसाथ कामरान भी हैरान रह गया.

जमालुद्दीन मियां ने पहलू बदलते हुए कहा, ‘‘भक बबुआ, यह क्या बोल रहे हो…’’

अभिनव ने कहा, ‘‘यह सच है दादाजी.’’

जमालुद्दीन ने पूछा, ‘‘अच्छा तो यह बताओ कि तुम्हारे दादाजी का नाम

क्या है?’’

अभिनव ने कहा, ‘‘रामाशीष… अब वे इस दुनिया में नहीं हैं.’’

जमालुद्दीन ने धीरे से कहा, ‘‘सही कह रहे हो. उस के पति का नाम रामाशीष ही है.’’

अभिनव बोला, ‘‘दादाजी, अब की होली में आप दोनों का अरमान जरूर पूरा होगा.’’

जमालुद्दीन मियां बोले, ‘‘नहीं बबुआ, बुड़बक जैसी बात न करो. यह किस्सा तो जमाना हुए खत्म हो

गया था.’’

अभिनव के मन में कुछ और ही था. उस ने कामरान का हाथ पकड़ कर उसे उठाया और दोनों वहां से चल दिए.

मुसहरी टोला में जैसे जश्न का माहौल था. गाजेबाजे के साथ उन का स्वागत किया गया. कोई फूलों का हार पहना रहा था, तो कोई उन्हें गोद में उठा रहा था.

रात होने के चलते कामरान वहीं रुक गया और अगली सुबह घर जाने के लिए तैयार हुआ.

अभिनव की मम्मी ने कामरान को झोला भर कर सौगात थमा दी, जिस

में खानेपीने की कई चीजें थीं.

फिर अभिनव ने दादी की कहानी अपनी मम्मी को सुनाई. मम्मी भी मुसकरा कर रह गईं. फिर अभिनव ने कामरान को बुलाया और वे तीनों आपस में कुछ बतियाने लगे. इस के बाद वे दादी के कमरे में गए.

कामरान ने अभिनव की दादी को सलाम करते हुए कहा, ‘‘दादी, अब की बार होली में अपने मायके चलो.’’

दादी बोलीं, ‘‘अब क्या रखा है गांव में. माईबाप, भाईभौजाई… कोई भी तो नहीं रहा.’’

कामरान ने कहा, ‘‘अरे दादी, हमारे घर में रहना.’’

दादी ने कहा, ‘‘अब 75 साल

की उम्र में कहीं भी जाना पहाड़

चढ़ने के बराबर है बबुआ. बिना

लाठी के सीधा खड़ा नहीं हुआ जाता अब तो.’’

अभिनव ने कहा, ‘‘दादी, मैं ले

कर चलता हूं. हम दोनों यार एकसाथ होली खेल लेंगे और तुम्हें गांव घुमा देंगे. क्या पता तुम्हारा कोई पुराना जानकार मिल जाए.’’

‘‘बहू, तुम्हारा क्या विचार है?’’ दादी ने अभिनव की मां से पूछा.

अभिनव की मम्मी ने कहा, ‘‘चले जाओ. बच्चों की बात मान लो. इसी बहाने मन बहल जाएगा.’’

दादी बोलीं, ‘‘अच्छा अभिनव, तू ले चल. देख लूं मैं भी मायके की होली. अब इस जिंदगी का क्या भरोसा.’’

फिर कामरान अपने गांव लौट गया.

17 तारीख की शाम को अभिनव अपनी दादी के साथ कामरान के घर

आ गया. रात हो चली थी. अगली

सुबह जब अजान हुई और कामरान की अम्मी नमाज पढ़ने लगीं, तब दादी को यह जान कर हैरानी हुई कि ये लोग तो मुसलमान हैं.

‘‘अरे, तुम लोग भी होली खेलते हो?’’ दादी के इस सवाल पर कामरान की अम्मी मुसकरा कर रह गईं. उन्होंने दादी को चाय बना कर पिलाई और बरामदे में ले आईं.

उधर नमाज से फारिग होने के बाद अभिनव और कामरान भी दादाजी को बरामदे में ले कर आ गए. दादाजी ने आते ही सवाल किया, ‘‘यह कौन नया मेहमान है?’’

अभिनव ने खुश हो कर कहा, ‘‘दादाजी, पहचाना?’’

जमालुद्दीन मियां बोले, ‘‘साफ दिखेगा तो ही पहचानूंगा न…’’

‘‘जमालु…’’ दादी की अचरज भरी आवाज सुन कर जमालुद्दीन मियां चौंके और बोले, ‘‘कुसुम… अच्छा… समझ गया. अभिनव के साथ आई हो. सब समझ गया…’’

तभी कामरान की दोनों बहनें

थाली में रंग और पिचकारी लिए हाजिर हो गईं.

यह देख कर दादी ने कहा, ‘‘यह तो तुम लोगों ने हमारे साथ बहुत धोखा किया है.’’

अभिनव बोला, ‘‘लोगों को गोली मार दादी, आगे बढ़ और हिम्मत कर.’’

तभी जमालुद्दीन मियां वहां से उठ कर निकलने की कोशिश करने लगे, लेकिन इतने में घर के सारे लोग कमरे से बाहर निकले और दरवाजा बंद कर दिया. वे खिड़की पर आ कर खड़े हो गए, फिर जोरजोर से चिल्लाने लगे, ‘कम औन दादी… कम औन दादा…’

बच्चों के कोलाहल के बीच दोनों बूढ़ाबुढि़या ने पिचकारी उठा लीं और आंखों में आंखें डाल कर रंगों की बौछार एकदूसरे पर न्योछावर कर दी.

तभी दरवाजा खुला, पर दादादादी को तब कोई शोर सुनाई नहीं दिया, न ही दरवाजा खुलने की आवाज सुनाई दी. सदियों की प्यासी चाह पूरी होने लगी और बच्चे जश्न मनाने लगे.

साधना कक्ष : क्या मां बन पाई अंजलि

अंजलि की शादी को 5 साल बीत चुके थे, लेकिन उसे मां बनने का सुख अब तक नहीं मिल पाया था. उस ने अपने पति मोहन से डाक्टर के पास चल कर चैकअप कराने के लिए कई बार कहा, लेकिन वह कन्नी काटता रहा.

बच्चा न ठहरने के चलते अंजलि को अकसर मोहन के ताने भी सुनने पड़ रहे थे इसलिए वह कुछ दिनों के लिए मायके में अपनी मां के पास चली आई.

मां को जब इस की वजह पता चली तो उस ने अंजलि से कहा कि वह एक पहुंचे हुए बाबा को जानती है जो बहुत सी औरतों की गोद हरी कर चुके हैं.

अंजलि झाड़फूंक करने वाले बाबाओं और पीरफकीरों पर जरा भी यकीन नहीं करती थी इसलिए उस ने मां को साफ मना कर दिया.

मां ने उस से कहा कि अगर वह बाबा के पास नहीं जाना चाहती है तो अपने पति के घर वापस लौट जाए.

जब अंजलि ने मोहन से बात की तो उस ने कहा कि वह उस से तलाक लेना चाहता है क्योंकि उसे बच्चा नहीं हो रहा है. ऐसे में अंजलि के पास मां की बात मानने के सिवा कोई दूसरा रास्ता ही नहीं बचा था.

एक दिन जब अंजलि मां के साथ बाबा के आश्रम पहुंची तो पता चला कि उस आश्रम में मर्दों के आने की मनाही थी. उस आश्रम में उस बाबा को छोड़ उस के तीमारदारों में सिर्फ औरतें ही शामिल थीं.

बाबा की शिष्याओं ने अंजलि से एक कागज के टुकड़े पर बिना किसी को दिखाए अपनी मनपसंद मिठाई का नाम लिखने को कहा.

अंजलि को कुछ समझ नहीं आ रहा था लेकिन वह मां की इच्छा रखने के लिए सबकुछ करती गई.

अंजलि ने उस कागज पर मनपसंद मिठाई का नाम लिख कर उसे एक डब्बे में रख दिया जिस में बाबा की शिष्याओं ने ताला लगा कर अंजलि को यह कहते हुए उस के हाथ में थमा दिया कि वह इस डब्बे को ले कर साधना कक्ष में जाए.

बाबा अपनी चमत्कारी ताकतों की बदौलत यह जान गए होंगे कि उस ने इस कागज में क्या लिखा है.

साधना कक्ष में पहुंचने पर उसे वही मिठाई खाने को मिलेगी, जो उस ने इस कागज पर लिखी है.

अंजलि जब बाबा के पास साधना कक्ष में जाने लगी तो उस की मां भी उस के साथ हो ली.

बाबा ने अंजलि को वही मिठाई खाने को दी जो उस ने उस कागज पर लिखी थी तो वह हैरान रह गई, क्योंकि अंजलि के सिवा किसी को भी यह नहीं पता था कि उस ने उस कागज पर क्या लिखा है. उस ने बहुत दिमाग दौड़ाया लेकिन गुत्थी सुलझ नहीं.

समस्या जान कर बाबा ने अंजलि से कहा, ‘‘अगर तुम पेट से होना चाहती हो तो तुम्हें रातभर इस कमरे में अकेले ही रहना होगा क्योंकि यह मेरा साधना कक्ष है. इस कक्ष में सोने से तुम्हारी गोद यकीनन हरी हो जाएगी.’’

अंजलि को इस कमरे में अकेले रात बिताने पर एतराज था. इस पर बाबा ने कहा, ‘‘इस कमरे में कोई और दरवाजा नहीं है और तुम अकेली ही रहोगी. तुम इस कमरे में अपने साथ लाए गए ताले को लगा लेना, जिस की एक चाबी तुम्हारी मां के पास रहेगी. कमरे में किसी के घुसने का सवाल ही नहीं उठता है.’’

अंजलि बेमन से कमरे में रात बिताने को तैयार हुई. बाबा और उस की मां जब कमरे से बाहर निकलने लगे तो बाबा बोला, ‘‘अंजलि, जो प्रसाद मैं ने तुम्हें दिया है, उसे अभी खा लो.’’

अंजलि ने मिठाई खा ली. बाबा ने बाहर निकलने के बाद कमरे में ताला लगा कर चाबी अंजलि की मां को दे दी.

उधर मिठाई खाने के बाद अंजलि पर अजीब सी खुमारी छाने लगी थी. वह अपनी सुधबुध खोने लगी थी और उस की नींद तब खुली, जब दूसरे दिन की सुबह उस की मां ने बंद कमरे का दरवाजा खोला.

अंजलि कमरे से बाहर निकलते समय सोच रही थी कि उस मिठाई में ऐसा क्या था, जिसे खाने के बाद उसे अजीब सी खुमारी छा गई और इस के बाद क्या हुआ, उसे पता नहीं चला. लेकिन वह बेफिक्र भी थी, क्योंकि उस कमरे की चाबी उस की मां के पास थी और कमरे में घुसने का कोई दूसरा दरवाजा भी नहीं था.

अंजलि को बाबा के आश्रम से लौटे 2 महीने बीत चुके थे कि एक दिन अचानक उसे उलटियां होने लगीं. उस ने अपने डाक्टर दोस्त रमेश से जब चैकअप कराया तो पता चला कि वह पेट से है.

डाक्टर रमेश की बात का अंजलि को यकीन ही नहीं हुआ क्योंकि उसे पति से अलग हुए 5 महीने से ऊपर बीत चुके थे, फिर वह पेट से कैसे हो सकती है?

अंजलि ने डाक्टर रमेश से कहा, ‘‘डाक्टर साहब, आप एक बार फिर से रिपोर्ट देख लीजिए. कहीं ऐसा न हो कि जांच रिपोर्ट में कोई खामी हो.’’

लेकिन डाक्टर रमेश ने कहा कि उस की रिपोर्ट बिलकुल सही है और वह पेट से है.

घर पहुंचने पर अंजलि ने अपनी मां से पेट से होने की बात बताई तो मां की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. लेकिन जब अंजलि बोली कि वह मोहन से 5 महीने से मिली ही नहीं है, तो ऐसा कैसे हो सकता है.

अंजलि बोली, ‘‘मां, बाबा के आश्रम में मेरे साथ रेप किया गया है. कहीं तुम ने बाबा के साधना कक्ष की चाबी किसी को दी तो नहीं थी?’’

मां बोली, ‘‘नहींनहीं, मैं ने सारी रात चाबी अपने पास ही रखी थी और सुबह दरवाजा भी मैं ने ही खोला था.’’

अंजलि यह बात मानने को तैयार न थी. उस का कहना था कि बाबा के आश्रम में ही रेप हुआ है, जिस के चलते वह पेट से हुई है. लेकिन उस की मां बाबा के खिलाफ एक बात सुनने को राजी न थी. वह तो इसे बाबा का चमत्कार मान रही थी.

अंजलि ने यह बात जब मोहन को फोन कर के बताई तो उस ने उस पर ही चरित्रहीन होने का लांछन लगा दिया और कभी भी फोन न करने की बात कह कर फोन काट दिया.

उधर अंजलि को अब पूरा यकीन हो चुका था कि उस रात बाबा के आश्रम में उस के साथ कोई तो हमबिस्तर हुआ था. हो न हो, उस कमरे में कोई गुप्त दरवाजा है जिस के रास्ते कोई उस कमरे में घुसता है और साधना कक्ष में पेट से होने के लालच में रात बिताने वाली औरतों के साथ रेप करता है.

अंजलि ने अब निश्चय कर लिया था कि वह उस पाखंडी बाबा की हकीकत दुनिया के सामने ला कर रहेगी.

अंजलि ने अपने मन की बात मां को बताई तो मां बाबा के खिलाफ जाने को तैयार न हुई, पर जब अंजलि ने अपनी जान देने की बात कही तो मां उस का साथ देने को तैयार हो गई.

अंजलि इस बार फिर बाबा के आश्रम पहुंची और उस ने बाबा को बताया कि वह उन के चमत्कार से पेट से तो हो गई है, लेकिन उस का पति उस से तलाक लेकर दूसरी शादी करने जा रहा है. ऐसे में वह नहीं चाहती है कि वह पेट से हो, इसलिए वह चमत्कार कर के उसे पेट से होने से रोक लें.

बाबा ने अंजलि को एक पुडि़या दे कर कहा, ‘‘तुम इस चमत्कारी भभूत का सेवन करो. इस से तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो जाएंगे और पेट में पल रहा बच्चा भी अपनेआप छूमंतर हो जाएगा.’’

अंजलि बाबा के आश्रम से घर आई और उस बाबा द्वारा दी गई भभूत को डाक्टर रमेश के पास ले गई.

डाक्टर रमेश ने उस भभूत को लैब में टैस्ट के लिए भेजा तो उस में बच्चा गिराने की दवा निकली.

अब अंजलि को पूरा यकीन हो चुका था कि बाबा के आश्रम में औरतों के साथ जबरदस्ती सैक्स संबंध बनाने का खेल खेला जा रहा है.

अंजलि दोबारा उस बाबा के आश्रम में पहुंची और बाबा से बोली, ‘‘बाबा, आप की चमत्कारी भभूत के चलते पेट में पल रहा मेरा बच्चा अपनेआप छूमंतर हो गया है. मेरे पति मुझे अपनाने को तैयार हो गए हैं. उन्होंने एक शर्त रखी है कि इस बार मुझे वे तभी वापस ले जाएंगे, जब मैं वहां जाने पर पेट से हो जाऊं.

‘‘मैं चाहती हूं कि आप के चमत्कार से एक बार फिर मैं पेट से हो जाऊं, क्योंकि इस बार अगर मैं पेट से न हुई तो वे मुझे हमेशा के लिए छोड़ देंगे.’’

बाबा ने कहा, ‘‘तुम दोबारा पेट से हो सकती हो. बस, एक रात साधना कक्ष में गुजारनी होगी.’’

अंजलि साधना कक्ष में रात गुजारने को तैयार हो गई, पर इस बार उस ने पुलिस से मिल कर उस बाबा की असलियत बता दी थी. लेकिन पुलिस बिना सुबूत उस बाबा पर हाथ नहीं डाल सकती थी इसलिए पुलिस ने अंजलि को सुबूत इकट्ठा करने के लिए फिर से बाबा के पास जाने को कहा था.

इस बार अंजलि पूरी तैयारी के साथ बाबा के आश्रम में आई थी और बोली कि उस की माहवारी आने के बाद का 13वां दिन है.

साधना कक्ष में बैठा बाबा अंजलि के साथ आई दूसरी औरत को देख कर चौंक गया और पूछा, ‘‘यह कौन है?’’

अंजलि ने बताया, ‘‘ये मेरी मौसी हैं. आज मां की तबीयत खराब होने के चलते मौसी के साथ आना पड़ा.’’

हकीकत तो यह थी कि अंजलि के साथ आई वह औरत पुलिस वाली थी. बाबा के आश्रम में महिला पुलिस भी श्रद्धालुओं के रूप में फैली हुई थी.

बाबा ने अंजलि को फिर वही मिठाई खाने को दी जो उस ने परची पर लिखी थी. लेकिन इस बार अंजलि को जरा भी हैरानी नहीं हुई क्योंकि उसे यह पता चल चुका था कि बाबा को परची पर लिखी गई हर बात पता चल जाती है. इस के पीछे कोई न कोई राज जरूर था, जिस से आज परदा उठने वाला था.

अंजलि इसी सोच में डूबी थी कि बाबा की आवाज उस के कानों में गूंजी, ‘‘अब तुम रात बिताने को तैयार हो. जाओ और मिठाई खा कर आराम करो.’’

इतना कह कर बाबा बाहर चला आया और अंजलि के साथ आई मौसी से साधना कक्ष में ताला लगवा कर अपनी आरामगाह में चला गया.

साधना कक्ष में बंद अंजलि ने इस बार बाबा की दी हुई मिठाई नहीं खाई. वह बाबा का हर राज जान लेना चाहती थी. उस ने जब कमरे को बारीकी से देखा तो ऐसा कुछ नजर नहीं आया जिस से उस कमरे में आने के दूसरे रास्ते के बारे में पता चल पाए.

तभी अंजलि की नजर बाबा के साधना कक्ष के कोने में रखी अलमारी पर गई. उस ने जैसे ही अलमारी के दरवाजे का हैंडल पकड़ कर खोला तो दरवाजा खुल गया.

यह देख कर अंजलि चौंक गई, क्योंकि वह नाममात्र की अलमारी थी. इस कमरे में घुसने का एक खुफिया दरवाजा था, जो दूसरे कमरे में जा कर खुलता था. बगल वाले कमरे में एक बड़ी सी स्क्रीन लगी हुई थी जो पूरे आश्रम का नजारा दिखा रही थी.

तभी अंजलि की नजर एक छोटी सी स्क्रीन पर गई. उस ने उस स्क्रीन पर चल रहे नजारों में जो देखा, उस के बाद उसे परची पर लिखी हर बात के बारे में बाबा को पता चल जाने का सारा राज सम?ा में आ गया था, क्योंकि जहां पर बैठ कर औरतें अपनी मनपसंद मिठाई का नाम लिखती थीं, वहां आसपास छिपा हुआ कैमरा लगा था.

बाबा इस कमरे में बैठ कर जान लेता था कि किस ने कौन सी मिठाई का नाम लिखा है, फिर उस में वह बेहोशी की दवा मिला कर खुफिया दरवाजे से साधना कक्ष में आ जाता था.

अंजलि को उस कमरे में तरहतरह की मिठाइयां एक फ्रिज में रखी हुई भी मिल गई थीं. तभी उसे बगल के कमरे से कुछ खटपट की आवाज सुनाई दी. वह समझ गई कि इस कमरे में बाबा के आने का समय हो गया है. वह बड़ी सावधानी से साधना कक्ष में लौट आई. वह अपने साथ आई महिला पुलिस को फोन करना नहीं भूली.

अंजलि साधना कक्ष के बिस्तर पर बेहोशी का नाटक कर के पड़ी थी. बाबा साधना कक्ष में आ चुका था.

अंजलि सबकुछ कनखियों से देख रही थी. बाबा अपने कपड़े उतार चुका था. वह अंजलि के ऊपर झांकने ही वाला था कि अंजलि का झन्नाटेदार थप्पड़ बाबा के कान पर पड़ा.

बाबा खुद को संभालते हुए अंजलि पर झपटा लेकिन अंजलि का पैर बाबा के अंग वाले हिस्से पर पड़ा और वह गश खा कर गिर गया.

अंजलि जोर से चिल्लाई. इसी के साथ कमरे का दरवाजा भड़ाक से खुल गया और एकसाथ कई पुलिस वाले कमरे में धड़धड़ाते हुए घुस आए.

बाबा खुद को संभालते हुए खुफिया दरवाजे की तरफ लपका. पुलिस वाले भी उसे पकड़ने के लिए उस तरफ लपके, लेकिन तब तक बाबा कहां छूमंतर हो गया, पता ही नहीं चला.

पुलिस चारों तरफ से आश्रम को घेर चुकी थी लेकिन बाबा आश्रम में कहीं नहीं मिला. तभी आश्रम की एक साध्वी ने जो बताया, उस से पुलिस वाले भी चौंक गए.

उस साध्वी ने बताया, ‘‘मेरी बहन भी इस बाबा के चक्कर में पड़ कर इस की शिष्या बन गई थी. लेकिन वह एक दिन बाबा का राज जान गई और उस ने बाबा की सारी करतूतों का वीडियो भी बना लिया था. तभी बाबा को यह बात पता चल गई और उस ने मेरी बहन को गायब करा दिया.

‘‘तब से मैं अपनी बहन की खोज में यहां पर बाबा की शिष्या बन कर उस के खिलाफ सुबूत इकट्ठा कर रही हूं. इसी दौरान आश्रम में बनाए गए खुफिया ठिकानों के बारे में भी मुझे पता चला.

‘‘बाबा ने आश्रम के अंदर एक खुफिया कमरा बना रखा है जिस में वह खुद के खिलाफ जाने वालों को न केवल कैद करता है बल्कि उन की हत्या कर के उन्हें वहीं दफना भी देता है.’’

उस शिष्या ने पुलिस वालों को आश्रम के पीछे झड़झखाड़ में बने एक गुप्त रास्ते से उस खुफिया कमरे तक पहुंचा दिया. वहां छिपा बाबा धर दबोचा गया. उस कमरे से पुलिस को भारी मात्रा में हथियार और कैद की गई औरतें भी मिलीं. उस कमरे में कई कब्रें भी थीं जिन की खुदाई से कई औरतों की अस्थियां बरामद हुईं.

अंजलि की सूझबूझ से पाखंडी बाबा के साधना कक्ष में औरतों के पेट से होने का राज खुल चुका था.

जीवन संघर्ष : एक मां की दर्दभरी दास्तान

आज मेरे यूट्यूब चैनल की पहली पेमेंट आई थी. मैं बहुत खुशी थी. जिंदगी में पहली बार अपनी कमाई को अपने हाथों में लेने का सुख अलग ही था.आज मैं ने खीर बनाई. अपने ढाई साल के बेटे मेहुल को खिलाई. फिर उसे पलंग पर सुला दिया. मैं भी उस के पास लेट गई.

इतने में श्रेया का फोन आया.श्रेया मेरे बड़े जेठ की बेटी थी और मुझ से 3 साल बड़ी. मेरे लिए वह मेरी सहेली और बड़ी बहन से कम नहीं थी.श्रेया ने मुझे पहली पेमेंट आने पर बधाई दी. मैं ने उसे धन्यवाद दिया. बात होने के बाद मैं फिर मेहुल के पास लेट गई.मैं ने जोकुछ भी किया, अपने बेटे के लिए किया. मैं बेटे को सहलाते हुए यादों की गलियों में खो गई.मेरे घर में मेरे पिता, मां और बड़े भाई राहुल समेत मैं यानी रितिका 4 ही लोग थे. मेरे पापा हलवाई थे. हमारे घर का खर्चा आराम से चलता था.

मैं 7 साल की थी, जब पिताजी हमें हमेशा के लिए छोड़ कर चले गए. मैं अपने पिता के बहुत करीब थी. मैं बहुत रोई थी. मां का भी रोरो कर बुरा हाल था. भैया भी बहुत उदास थे. वे 13 साल के थे और 7वीं क्लास में पढ़ते थे.धीरेधीरे हम सब ने खुद को संभाला. मम्मी सिलाई का काम कर के हम दोनों भाईबहन को पालने लगीं. मेरे भाई का पढ़ने में मन नहीं लगता था.

वह किसी होटल में बरतन धोने का काम करने लगा. मेरी पढ़ने में दिलचस्पी थी. मेरी जिद देख कर मम्मी ने मुझे पढ़ने भेजा.समय तेजी से बीता. मेरे भैया की शादी रीना नाम की लड़की से हो गई. कुछ दिन तो घर का माहौल अच्छा रहा, पर बाद में रीना भाभी ने अपने लक्षण दिखाने शुरू कर दिए.रीना भाभी हर वक्त घर में कलह बनाए रखतीं. मेरी पढ़ाई को ले कर मुझे ताने देती रहतीं.

इन्हीं तानों के चलते मेरा मन भी पढ़ाई से ऊब गया.रीना भाभी के जब पहला बच्चा हुआ, तो उस की देखभाल के बहाने मेरी पढ़ाई छुड़वा दी गई.इतने में मेरा मुंहबोला मामा मेरी मां के पास आया. उस ने मां को मेरे लिए गुजरात के किसी परिवार में रिश्ता बताया. तब मैं खुद भी शादी कर के परिवार के इस माहौल से निकलना चाहती थी. वे लोग बिना दहेज के शादी करने को तैयार थे.

बदले में एक लाख रुपए देने के लिए तैयार थे. मम्मी व भैया शादी के लिए तैयार हो गए.मैं ने अपने होने वाले पति को कभी नहीं देखा था. मामा ने एक लाख में से 50,000 रुपए मम्मी को थमा दिए. बाकी के 50,000 शादी की तैयारी में खर्च हो गए.

मंदिर में हमारी शादी हुई. मैं तब भी अपने पति का चेहरा ठीक से देख नहीं पाई. घूंघट और रीतिरिवाज आड़े आए. न ही मायके वालों ने चेहरा देखने की जहमत उठाई.मैं शादी कर के अपनी ससुराल गुजरात आ गई. जब मैं ने अपनी ससुराल में कदम रखा, तब मेरी उम्र 16 साल की थी. मेरे गृहप्रवेश के बाद शादी की सारी रस्में की गईं. मैं कुछ डरी सी, सहमी सी, शरमाती हुई घर की कुछ औरतों के साथ अपने कमरे में चली आई.मुझे उन्हीं औरतों से पता चला कि मेरे आदमी की उम्र 39 साल है.

मेरे सासससुर की उम्र मेरे दादादादी जितनी है. मेरे जेठ और जेठानी मेरे मम्मीपापा की उम्र के हैं. मेरे जेठ के बच्चे मेरी उम्र के हैं. मैं ने तो अभी ठीक से जाना ही नहीं था कि उन औरतों में से किस के साथ मेरा कौन सा रिश्ता है? बातों से ही समझ में आया उन में से एक मेरी ननद और एक मेरी जेठानी थी. मेरा दिल अंदर से कांप उठा.थोड़ी देर बाद मेरे पति कमरे में आए.

मैं ने उन्हें ध्यान से देख. उम्र के इस दौर में वे जवान तो नहीं लगते थे. मैं इसे घर वालों के साथ धोखा भी नहीं मानती थी. रुपयों की चमक ने उन्हें अंधा कर दिया था. उन्होंने इन्हें देखने की जहमत ही नहीं उठाई थी. देखते तो पता चल जाता कि वे 22 साल के नहीं हैं, बल्कि अधेड़ हैं. मेरे पिताजी होते तो वे ऐसा कभी नहीं होने देते. यह बेमेल ब्याह था.मेरी सुहागरात का समय आया. मैं पीरियड में थी. पीरियड के समय दर्द से बेहाल थी. मुझे रोना आ रहा था. मैं ने अपने पति को बताया भी, लेकिन उन्होंने जबरदस्ती मुझ से संबंध बनाया. उन्हें मेरे शरीर के दर्द और पीरियड होने से कोई मतलब नहीं था.

मैं मुरदा सी हो गई थी. पति संतुष्ट हो कर सो गए, लेकिन मैं नहीं सो पाई. मेरी आंखों में बहुत सारा पानी था, जो तकिए के साथ मेरी पूरी जिंदगी को भिगो कर चला गया. मैं पूरी रात बैठी रोती रही.अगली सुबह मैं ने सुना कि ससुराल वालों ने मुझे 2 लाख रुपए में खरीदा था. डेढ़ लाख मेरे मुंहबोले मामा ने रख लिए और 50,000 मेरी मां को दे दिए.

यह कैसी मां और कैसे मामा हैं?पति आते और एक मुरदा के साथ सैक्स कर के सो जाते. मुझे घर की सारी औरतें मुरदा लगीं. बहुत बार मरने का खयाल मन में आया, लेकिन मैं मरने की हिम्मत न जुटा पाई.धीरेधीरे मुझे पता चला कि इस घर में सब से ज्यादा मेरी ननद की चलती है.

ननद के 3 बेटियां हैं. बूढ़े सासससुर हैं. पति भी हैं, जो पेंटिंग का काम करते हैं, फिर भी मेरी ननद ज्यादातर अपने मायके में पड़ी रहती है. मेरी इस ननद की उम्र 41 साल है. लड़के की चाहत में वह लड़कियों की सेना तैयार कर रही है.मैं ने अपनी ब्याही गई सखियों से सुना था कि जब घर में बहू आ जाती है, तो सभी औरतें घर में काम करने की हड़ताल कर लेती हैं.

मेरे साथ भी ऐसा हुआ. मेरी मेहंदी भी नहीं उतरी थी कि पूरे घर के काम की जिम्मेदारी मुझ पर आ पड़ी. मैं पूरे घर का काम कर के खाना खाती थी. थोड़ी सी गलती हो जाती, तो ननद मुझ पर चिल्लाती. मैं पीड़ा से भर जाती. मन में अनेक तीखे सवाल उठते.

उन में से एक यह भी था कि यही बात प्यार से भी तो समझाई जा सकती थी?मुझे खरीदा भी गया है तो इस के पैसे मेरे ससुर और पति ने दिए होंगे? ननद का मुझ पर इस तरह चिल्लाने का कोई हक नहीं है. पर एक दिन कुछ अलग हुआ. मैं रो रही थी कि किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा. मैं ने पीछे मुड़ कर देखा तो हैरान रह गई कि यह अनजान लड़की कौन है? अपना परिचय दिया तो पता चला कि वह मेरे जेठ की बेटी श्रेया थी. उस दिन हम पहली बार मिले थे.

श्रेया इस बेमेल ब्याह से खुश नहीं थी, इसीलिए वह मेरे ब्याह में भी नहीं आई थी. केवल टैलीफोन पर बात होती थी.श्रेया ने कहा, ‘‘जो हुआ उसे मैं बदल नहीं सकती हूं. रिश्ते में तो आप मेरी चाची लगती हैं, मेरी मां जैसी, लेकिन हम दोस्त बन कर रहेंगी. दोस्त के साथ बहन की तरह,’’ इतना हौसला दे कर श्रेया चली गई.मेरे पति ने मुझे मोबाइल फोन दिलवा दिया था.

उन के मन में डर था कि मैं कहीं भाग न जाऊं. बुढ़ापे की शादी में आमतौर पर असंतुष्ट हो कर लड़कियां भाग जाती हैं. वे हमेशा मेरे टच में रहना चाहते थे. मेरी शादी को मुश्किल से 15 दिन हुए थे कि मुझे उलटी आई. अगले 15 दिन भी यही हालत रही. मेरी सासू मां ने अंदाजा लगा लिया कि उन के घर में पोता आने वाला है. पोती क्यों नहीं आ सकती? बस, इसी सवाल का जवाब नहीं मिलता है.

किसी ने मुझे डाक्टर के पास ले जाना जरूरी नहीं समझा. मैं इस हालत में भी मैं पूरे घर का काम करती रही, बिना किसी की हमदर्दी के. पति भी मेरे शरीर को नोचते और सो जाते. उन्हें अपनी संतुष्टि से मतलब था. केवल श्रेया सब से छिपा कर कभी चौकलेट, कभी कुल्फी, कभी कोल्ड ड्रिंक, तो कभी फल ला कर देती. वह कहती,

‘‘समय पर खाना खाया करो. जल्दी सोया करो. कुछ खाने का मन करे तो चाचाजी को बोल दिया करो. मैं दे जाया करूंगी.’’मैं रात को जल्दी सोने लगी.

पति रात को आते और सो जाते. 3 दिन तक यही चला रहा. तीसरे दिन वे उखड़ेउखड़े लगे. वजह मुझे पता नहीं चली. रात को पति ने कंधा पकड़ कर खड़ा किया. मैं हड़बड़ा कर उठ गई. उन्होंने कहा, ‘‘3 दिन से मैं तुम्हारा नाटक देख रहा हूं. तुम रोज जल्दी सो जाती हो. यह सब मुझे बरदाश्त नहीं है. हमारे यहां सभी रात के 10 बजे सोते हैं.’’मैं पति का यह रूप देख कर डर गई.

मैं रोते हुए बोली, ‘‘मुझे दिन में बहुत थकान महसूस होती है. सिरदर्द होता है. मैं सारे घर का काम कर के खुद खाना खा कर सोती हूं.’’पति ने कहा, ‘‘वह मैं कुछ नहीं जानता. कल से 10 बजे के बाद सोना.’’मैं समझ ही नहीं पाई कि यह कैसा पति है, जो अपनी पत्नी की तकलीफ को समझ ही नहीं पा रहा है. मेरे पास सहने के अलावा कोई चारा नहीं था.

मैं 10 बजे के बाद सोने लगी. मैं दिन में सो कर अपनी नींद पूरी कर लेती. इस हालत में मेरा अलगअलग चीजें खाने का दिल करता. कभी वे ला देते, कभी कहते कि पैसे नहीं हैं. इन चीजों में पैसे लगते हैं, फ्री में कुछ नहीं मिलता है.कभीकभार जब ननद अपनी ससुराल जाती तो पति मेरे लिए पानीपुरी, रसगुल्ले, मिर्ची बड़ा, फल वगैरह ला देते थे. पर ननद को पता चलता तो भी मुझे, कभी मेरे पति को डांटती रहती, ‘‘इतना सब खर्च करने की क्या जरूरत थी? खाएगी तो उलटी कर देगी.

पैसे बचाओगे तो काम आएंगे.’’मेरा मन गुस्से से भर जाता. मैं किचन में काम कर रही होती. मन होता कि हाथ की कड़छी ननद के सिर पर दे मारूं.धीरेधीरे मेरी डिलीवरी का समय नजदीक आने लगा. मुझे इस हालत में खाना खाने को नहीं मिलता था. एक दिन मुझे भयंकर दर्द हुआ. मेरे पति स्कूटर पर अस्पताल ले कर गए. इतना भी नहीं हुआ कि वे मुझे आटोरिकशा में ले जाते.डाक्टर को पता चला तो उन्होंने पति को जबरदस्त डांट लगाई,

‘‘इतनी तो समझ होनी चाहिए थी कि पत्नी को आराम से लाते हैं. बस, बच्चे पैदा करने आते हैं.’’मेरे पति कुछ बोल नहीं पाए थे. बोलते भी क्या? फिर धीरे से बोले, ‘‘मेरे घर में गाड़ी नहीं है.’’‘‘तो किराए की ले लेते. हालत देखी है इस की? कुछ हो जाता तो कौन जिम्मेदार होता?’’

डाक्टर ने फिर डांटा.डिलीवरी हुई. लड़का हुआ था. वह टुकुरटुकुर मेरी तरफ देख रहा था. यह देख कर मेरी छाती से दूध बह निकला. मैं करवट ले कर दूध पिलाने लगी.डिलीवरी के बाद मेरा बड़ा मन था कि अपने बच्चे को गुड़ या शहद चटाने की रस्म मैं करूं.

लेकिन मैं बेहोश थी. होश में आई तो ननद यह रस्म पूरी कर चुकी थी. मैं बहुत रोई. मेरे मन के भीतर की चाह सपना बन गई थी.मैं ने पति से कहा, ‘‘आप को इतना तो पता होना चाहिए था कि बच्चे को गुड़ या शहद चटाने की रस्म उस की मां करती है?’’पहली बार पति को मेरे भीतर के गुस्से का सामना करना पड़ा था. काफी देर तक वे बोल नहीं पाए थे, फिर कहा, ‘‘अब पूरी कर लो यह रस्म.

गुड़ भी है और शहद भी है.’’मैं डिलीवरी के बाद घर आई. मुश्किल से अभी 15 दिन हुए थे कि ननद घर में काम करने का गुस्सा छोटीछोटी बच्चियों पर निकालने लगी. एक वजह यह भी थी कि मेरे पहला ही बेटा हो गया था. इस में किसी का क्या कुसूर था?मेरी ननद मेरा सब से बड़ा सिरदर्द थी. उस की 3 लड़कियां थीं और लड़के की चाहत में लड़कियों की फौज इकट्ठी कर ली थी. उस की ससुराल में सासससुर थे, तो अकसर बीमार रहते थे. पति अच्छाखासा कमाता था.

पर मेरी ननद में इतनी बुद्धि नहीं थी कि लड़कियों की अच्छी देखभाल करे, पढ़ाई करवाए, सासससुर की सेवा करे. पति थकाहारा आए तो उस के लिए खना बनाए. मायके में भी आए तो हंसतेखेलते शांति से आए. 41 साल की हो गई थी. इतनी अक्ल तो होनी चाहिए थी न.

न ही मेरे सासससुर उसे कुछ कहते थे.मुझे ठीक से खाना न मिलने के चलते छाती में दूध ठीक से नहीं आता था. मैं भी अपनी भूख को बरदाश्त कर लेती, लेकिन जब मेरा मेहुल छाती को मुंह में डालता, तो उस में कुछ नहीं आता. यह मैं बरदाश्त नहीं कर पाती. मैं छाती को जोर से दबाती तो कुछ दूध आता. मैं खुश हो जाती, लेकिन फिर वह भूख के चलते अपनी उंगली मुंह में डाल कर चूसता रहता.

मैं ने पति को भी इस के बारे बताया, लेकिन वे कुछ नहीं बोले. उन्हें भी मेरा शरीर नोचने के अलावा और कोई मतलब नहीं था.मेरे लिए सब से बड़ी समस्या मेरी ननद थी. मैं ने उसे घर से निकालने की ठान ली. मैं बीमार होने का बहाना करने लगी. घर का सारा काम ननद को करना पड़ता.

मेहुल के लिए श्रेया ने ऊपर का फीड देने के लिए फैरेक्स ला दिया था. मैं उसे दूध में मिला कर देती रही. मन में तसल्ली थी कि बच्चे का पेट भर रहा है. मैं भी चुपचाप खाना चोरी कर के अपने कमरे में ला कर खा लेती. सीधी उंगली से घी न निकले, तो उंगली टेढ़ी करनी पड़ती है.

ननद भी रोजरोज घर का काम करने से तंग आ गई थी. उस ने आव देखा न ताव अपना सामान पैक किया और अपनी ससुराल चली गई. जब तक यहां रही वह ताने देती रही. मेहुल रोता था तो मैं दौड़ कर उसे संभालने चली जाती. गोद में उठाती, फैरेक्स देती और खेलने के लिए अपने साथ ले आती. मेरी सास और ननद मुझे सुना कर आपस में बातें करतीं, ‘यह बच्चे को बिगाड़ रही है.

हम ने भी बच्चे पैदा किए हैं. हम ने कभी ऐसा नहीं किया.’मैं ने बहुत कोशिश की कि एक कान से सुनूं और दूसरे कान से निकाल दूं, लेकिन शब्द इतने तीखे होते कि सीधे दिल पर लगते.मेहुल 5 महीने का हो गया था. एक दिन मैं कमरे में बैठी रो रही थी. इतने में श्रेया आई.

उस ने बातोंबातों में मेरे हुनर के बारे पूछा. ‘‘मैं खाना बहुत अच्छा बनाती हूं,’’ मैं बोली.उस ने यूट्यूब पर अपने वीडियो अपलोड करने के लिए कहा. इस से आमदनी बढ़ेगी. हाथ में चार पैसे होंगे. सब के मुंह बंद हो जाएंगे.उस ने मुझे मोबाइल पर काम कैसे करना है, सब समझाया. मैं अपने पति और सास से छिप कर काम करने लगी और बिजी रहती. मेहुल को ठीक से देख नहीं पाती थी.मेहुल जैसेजैसे बड़ा होता गया, अच्छी खुराक मिलने से प्यारा लगने लगा.

सभी उसे प्यार करने लगे. ससुरजी उस के लिए खिलौने ले कर आने लगे. ननद को पता चला तो उस ने अपने पिता को बुरी तरह डांटा, ‘‘बच्चे पर इतना पैसा बरबाद करने की कोई जरूरत नहीं है.’’उस के बाद ससुरजी ने कुछ भी लाना छोड़ दिया. मैं ने अपनी सास को अपनी कमाई के बारे में बताया. वे परेशान तो हुईं, लेकिन पैसा आने से खुश भी हो गईं. मैं ने एक दिन बैंक से पैसा निकाला. अपनी सास के लिए एक जोड़ी पायल, अपने मेहुल के लिए अच्छेअच्छे कपड़े लिए.

अपने पति के लिए 2 शानदार कमीजें लीं और रात को पहनने के लिए पाजामाकुरता भी लिया. अपने और इन के लिए अंडरगारमैंट भी लिए.घर आ कर सभी को दिखाया, तो वे बहुत खुश हुए. उन्हें एहसास होने लगा कि बहू समझदार है. पति, सासू मां, ससुरजी को एहसास होने लगा कि खुद की बेटी की भी ससुराल है. उस का अपना घर है. उसे यहां हमारे घर में बोलने का कोई हक नहीं है.

एक दिन किसी बात पर ननद ने मुझे ले कर झगड़ा किया, तो न केवल मेरे पति ने, बल्कि सासू मां और ससुरजी ने साफ शब्दों में समझा दिया कि उसे हमारे घर में बोलने की जरूरत नहीं है. वह ऐसी रूठी कि फिर लौट कर नहीं आई.मेरे पति और सासू मां मुझे सहयोग करने लगे.

मेहुल का खयाल रखा जाने लगा. मेरी माली हालत अच्छी होने लगी, लेकिन मैं अपने मन के भीतर की इस टीस को कभी नहीं भूल पाई कि मेरी मां और मामा ने मुझे बेच दिया है. बीच में दलाली खाई है. यह भी कि मेरा पति अधेड़ उम्र का है. जब मैं जवान होऊंगी तो यह बूढ़ा हो जाएगा.

मेरी जवान हसरतों और उमंगों का क्या होगा? मन के भीतर की इच्छाओं को कैसे दबाऊं कि मुझे रात को बूढ़े मर्द की नहीं, बल्कि जवान मर्द की जरूरत होगी? इस हालत को कैसे संभाल पाऊंगी? इन सवालों के जवाब नहीं मिलते हैं. मैं जिंदगी के आखिरी पलों तक संघर्ष करती रहूंगी.

राख अभी ठंडी नहीं हुई : जब लक्ष्मी की शादी किशन से हुई

लक्ष्मी के पति लक्ष्मण की चिता की राख अभी ठंडी भी नहीं हुई थी कि वह अपने प्रेमी किशन के घर में बैठ गई. सारी जातबिरादरी में उस की थूथू हो रही थी. लक्ष्मी की गोद में अभी सालभर की बेटी थी. एक बूढ़ी सास थी. परिवार में और कोई नहीं था. वह अपनी बेटी को भी साथ ले गई थी.

दरअसल, लक्ष्मी और किशन के बीच इश्कबाजी बहुत पहले से चल रही थी. जब वह लक्ष्मण से ब्याह कर आई थी, उस के पहले से ही यह सब चल रहा था. वह लक्ष्मण से शादी नहीं करना चाहती थी. एक तो लक्ष्मण पैसे वाला नहीं था, दूसरे वह शादी किशन से करना चाहती थी. वह दलित था, मगर पंच था और उस ने काफी पैसा बना लिया था. मगर मांबाप के दबाव के चलते लक्ष्मी को लक्ष्मण, जो जाति से गूजर था, के साथ शादी करनी पड़ी.

लक्ष्मी तो शादी के बाद से ही किशन के घर बैठना चाहती थी, मगर समाज के चलते वह ऐसा नहीं कर पाई थी. पर उस ने किशन से मेलजोल बनाए रखा था.

शादी की शुरुआत में तो वे दोनों चोरीछिपे मिला करते थे. बिरादरी के लोगों ने उन को पकड़ भी लिया था, मगर लक्ष्मी ने इस की जरा भी परवाह नहीं की थी.

जब लक्ष्मी ज्यादा बदनाम हो गई, तब भी उस ने किशन को नहीं छोड़ा. लक्ष्मण लक्ष्मी का सात फेरे वाला पति जरूर था, मगर लोगों की निगाह में असली पति किशन था.

जब शादी के 5 साल तक लक्ष्मी के कोई औलाद नहीं हुई, तब लक्ष्मण को बस्ती व बिरादरी के लोगों ने नामर्द मान लिया था. शादी के 6 साल बाद जब लक्ष्मी ने एक लड़की को जन्म दिया, तब समाज वालों ने इसे किशन की औलाद ही बताया था.

फिर भी लक्ष्मी लक्ष्मण की परवाह नहीं करती थी, इसलिए दोनों में आएदिन झड़पें होती रहती थीं. अब तो किशन भी उन के घर खुलेआम आनेजाने लगा था.

लक्ष्मण कुछ ज्यादा कहता, तब लक्ष्मी भी कहती थी, ‘‘ज्यादा मर्दपना मत दिखा, नहीं तो मैं किशन के घर बैठ जाऊंगी. तू मुझे ब्याह कर के ले तो आया हैं, मगर दिया क्या है आज तक? कभीकभी तो मैं एकएक चीज के लिए तरस जाती हूं. किशन कम से कम मेरी मांगी हुई चीजें ला कर तो देता है. तू भी मेरी हर मांग पूरी कर दिया कर. फिर मैं किशन को छोड़ दूंगी.’’

यहीं पर लक्ष्मण कमजोर पड़ जाता. बड़ी मुश्किल से मेहनतमजदूरी कर के वह परिवार का पेट भरता था. ऐसे में उस की मांग कहां से पूरी करे. स्त्रीहठ के आगे वह हार जाता था. अंदर ही अंदर वह कुढ़ता रहता था मगर लक्ष्मी से कुछ नहीं कहता था. मुंहफट औरत जो थी. उस की जरूरतें वह कहां से पूरी कर पाता, इसलिए किशन उस के घर में घंटों बैठा रहता था.

रहा सवाल लक्ष्मी की सास का, तो वह भी नहीं चाहती थी कि किशन उस के घर में आए.

एक दिन उस की सास ने कह भी दिया था, ‘‘बहू, पराए मर्द के साथ हंसहंस कर बातें करना, घर में घंटों बिठा कर रखना एक शादीशुदा औरत को शोभा नहीं देता है.’’

सास का इतना कहना था कि लक्ष्मी आगबबूला हो गई और बोली, ‘‘बुढि़या, ज्यादा उपदेश मत ?ाड़. चुपचाप पड़ी रह. तेरा बेटा जब मेरी मांगें पूरी नहीं कर सकता है, तब क्यों की तू ने उस के साथ मेरी शादी? अगर तेरा बेटा मेरी मांगें पूरी कर दे, तब मैं छोड़ दूंगी उसे.

‘‘एक तो मैं तेरे बेटे के साथ फेरे नहीं लेना चाहती थी, मगर मेरे मातापिता ने दबाव डाल कर तेरे बेटे से फेरे करवा दिए. अब चुपचाप घर में बैठी रह. अपनी गजभर की जबान मत चलाना, वरना मैं किशन के घर में बैठने में जरा भी देर नहीं करूंगी.’’

उस दिन लक्ष्मी ने अपनी सास को ऐसी कड़वी दवा पिलाई कि वह फिर कुछ न बोल सकी.

किशन अब बेझिझिक लक्ष्मी के घर आने लगा. लक्ष्मी की हर मांग वह पूरी करता रहा. वह बनसंवर कर रहने लगी. कभीकभी वह किशन के साथ मेला और बाजार भी जाने लगी.

शुरूशुरू में तो बस्ती वालों ने भी उन पर खूब उंगलियां उठाईं, पर बाद में वे भी ठंडे पड़ गए. बस्ती वाले अब कहते थे कि लक्ष्मी के एक नहीं, बल्कि 2-2 पति हैं. फेरे वाला असली पति और बिना फेरे वाला दूसरा पति, मगर बिना फेरे वाला ही उस का असली पति बना हुआ था.

इस तरह दिन बीत रहे थे. जब शादी के 5 साल बाद लक्ष्मी पेट से हुई तब उस का बां?ापन तो दूर हुआ, मगर एक कलंक भी लग गया. लक्ष्मी के पेट में जो बच्चा पल रहा था, वह लक्ष्मण का नहीं, किशन का था. मगर लक्ष्मी जानती थी कि वह बच्चा लक्ष्मण का ही है.

बस्ती वालों ने एक यही रट पकड़ रखी थी कि यह बच्चा किशन का ही है, मगर जहर का यह घूंट उसे पीना था. बस्ती वाले कुछ भी कहें, मगर सास को खेलने के लिए खिलौना मिल गया, लक्ष्मण पिता बन गया और नामर्दी से उस का पीछा छूट गया.

बस्ती वाले और रिश्तेदार सब लक्ष्मण को ही कोसते कि तू कैसा मर्द है, जो अपनी जोरू को किशन के पास जाने से रोक नहीं सकता. घर में आ कर किशन तेरी जोरू पर डोरे डाल रहा है, फिर भी तू नामर्द बना हुआ है. निकाल क्यों नहीं देता उसे. लक्ष्मण को तू अपनी लुगाई का खसम नहीं लगता है, बल्कि तेरी जोरू का खसम किशन लगता है.

लक्ष्मण इस तरह के न जाने कितने लांछन बस्ती वालों और रिश्तेदारों के मुंह से सुनता था. मगर वह एक कान से सुनता और दूसरे से निकाल देता, क्योंकि लक्ष्मी किसी का कहना नहीं मानती थी.

कई महीनों से एक पुल बन रहा था. वहां लक्ष्मण भी मजदूरी कर रहा था. मगर अचानक एक दिन पुल का एक हिस्सा गिर गया. 6 मजदूर उस में दब गए. उन में लक्ष्मण भी था. हाहाकार

मच गया. पुलिस तत्काल वहां आ गई. पत्रकार उस पुल की क्वालिटी पर सवाल उठा कर ठेकेदार को घेरने लगे और फिर गुस्साई भीड़ वहां जमा हो गई.

पुल का टूटा मलबा उठाया गया. उन 6 लाशों का पुलिस ने पोस्टमार्टम कराया और उन के परिवारों को लाशें सौंप दीं.

जब लक्ष्मण की लाश उस की ?ोंपड़ी में लाई गई, तब उस की मां पछाड़ें मार कर रोने लगी. लक्ष्मी लाश पर रोई जरूर, मगर केवल ऊपरी मन से. लोकलाज के लिए उस की आंखों में आंसू जरूर थे, मगर वह अब खुद को आजाद मान रही थी.

समाज की निगाहों में लक्ष्मी विधवा जरूर हो गई थी, मगर वह अपने को विधवा कहां मान रही थी. पति नाम का जो सामाजिक खूंटा था, उस से वह छुटकारा पा गई थी.

लक्ष्मण तो मिट्टी में समा गया, मगर समाज के रीतिरिवाज के मुताबिक तेरहवीं की रस्म भी निकली थी. समाज के लोग जमा हुए. रसोई क्याक्या बनाई जाए. मिठाई कौन सी बनाई जाए, यह सब लक्ष्मण की मां से पूछा गया, तब उस ने अपनी बहू से पूछा, ‘‘बहू, कितना पैसा है तेरे पास.’’

मुंहफट लक्ष्मी बोली, ‘‘तुम तो ऐसे पूछ रही हो सासू मां जैसे तुम्हारा बेटा मुझे कारू का खजाना दे गया है.’’

‘‘तेरा क्या मतलब है?’’ सास जरा तीखी आवाज में बोली.

‘‘मतलब यह है सासू मां, मेरे पास फूटी कौड़ी भी नहीं है.’’

‘‘मगर, रस्में तो पूरी करनी पड़ेंगी.’’

‘‘तुम करो, वह तुम्हारा बेटा था,’’ लक्ष्मी ने जवाब दिया.

‘‘जैसे तेरा कुछ भी नहीं लगता था वह?’’ सवाल करते हुए सास बोली, ‘‘करना तो पड़ेगा. बिरादरी में नाक कटवानी है क्या?’’

‘‘देखो अम्मां, तुम जानो और तुम्हारा काम जाने. मैं ने पहले ही कह दिया है कि मेरे पास देने को फूटी कौड़ी नहीं है,’’ इनकार करते हुए लक्ष्मी बोली.

‘‘ऐसे इनकार करने से काम कैसे चलेगा. तेरहवीं तो करनी पड़ेगी. चाहे तू इस के लिए अपने गहने बेच दे,’’ सास बोली.

‘‘मैं गहने क्यों बेचूं, बेटा आप का भी था. आप अपने गहने बेच कर बेटे की तेरहवीं कर दीजिए,’’ उलटे गले पड़ते हुए लक्ष्मी बोली.

सासबहू के बीच लड़ाई सी छिड़ गई. दोनों इसी बात पर अड़ी रहीं. बिरादरी वालों ने देखा, दोनों जानीदुश्मन की तरह अपनीअपनी बात पर अड़ी हुई थीं. लोगों के समझाने का कोई असर

भी नहीं पड़ रहा है, तब वे ‘तुम दोनों मिल कर फैसला कर लेना’ कह कर चले गए.

सास ने कभी अपनी बहू के सामने मुंह नहीं खोला. लक्ष्मी भी कम नहीं पड़ी. एक का बेटा था, तो दूसरे का पति, मगर किसी को लक्ष्मण के मरने का गम नहीं था. तब लक्ष्मी ने एक फैसला लिया. कुछ कपड़े बैग में रखे, साथ में गहने भी और अपनी बच्ची को उठा कर वह बोली, ‘‘अम्मांजी, मैं जा रही हूं.’’

‘‘कहां जा रही है?’’ सास ने जरा गुस्से से पूछा.

‘‘मैं किशन के घर में बैठ रही हूं. आज से मेरा वही सबकुछ है.’’

‘‘बेहया, बेशरम, इतनी भी शर्म नहीं है, अपने खसम की राख अभी ठंडी भी नहीं हुई और तू किशन के घर बैठने जा रही है. बिरादरी वाले क्या कहेंगे?’’ सास गुस्से से उबल पड़ी थी. आगे फिर उसी गुस्से से बोली, ‘‘जब से इस घर में आई है, न बेटे को सुख से जीने दिया और न मुझे. न जाने किस जनम का बैर निकाल रही?है मुझ से…’’

सास का बड़बड़ाना जारी था. मगर लक्ष्मी को न रुकना था, न वह रुकी. चुपचाप झोंपड़ी से वह बाहर चली गई. सारी बस्ती ने उसे जाते देखा, मगर कोई कुछ भी नहीं बोला.

क्रेजी कल्चर : टीचर की अनकहीं कहानी

इंदौर की एक सरकारी कालोनी के पास वाला मैदान. शाम का समय. एक घने पेड़ के नीचे बैठे हुए बाबा.तभी ‘बचाओबचाओ’ की आवाज आने लगी. एक पेड़ के नीचे ट्यूशन पढ़ते हुए बच्चे और टीचर घबरा गए. बाबा भी घबरा गए. उन्होंने लड़खड़ाते हुए कुरसी से उठने की कोशिश की, तो हड़बड़ा कर गिर गए. बाबा का एक पैर घुटनों के नीचे से कटा जो हुआ था.देखा तो सामने से एक लड़की जलती हुई ‘बचाओबचाओ’ की आवाज लगाते हुए मैदान में यहांवहां भाग रही थी.

खुले मैदान में चलती तेज हवा ने उस आग को भड़का दिया था.मैदान में बचाव का कोई साधन नहीं था. बाबा जोरजोर से चिल्लाने लगे, ‘‘कोई मेरी बैसाखी लाओ रे…

’’टीचर वहीं पास में खड़े थे. उन्होंने बाबा को बैसाखी पकड़ाई. इसी बीच बाबा चिल्लाने लगे, ‘‘कोई मेरी बेटी को बचाओ… बेटी आशु… मेरी बेटी आशु…’’

और वे बैसाखी के सहारे बदहवास से इधरउधर भागने लगे.तभी मैदान के किनारे बने पुलिस थाने से कुछ लोग दौड़ते हुए आए, तब तक आशु जमीन पर गिर चुकी थी.

किसी पुलिस वाले ने उस पर कंबल डाल कर आग बुझाने की कोशिश की…लंबी सुरंग… घुप अंधेरा… मां की हंसी की आवाज… रोने की आवाज… ‘मेरी आशु’… मां की आवाज फिर गूंज रही थी… ‘अगर हम से कोई भूल हुई है और हम उसे बताते नहीं हैं, अगर सुधारते नहीं हैं, तो यह उस से भी बड़ी भूल है…‘ईशा… तुम ऐसी भूल कभी मत करना बेटी. ईशा… सुनो बेटी, मेरी बेटी ईशा…’‘मां…’ मां अचानक उस के नजदीक आईं, फिर एकदम से दूर होती चली गईं.

तभी बाबा की बैसाखी की ‘ठकठक’ नजदीक आती गई. ‘ठकठक’ बढ़ने लगी… और बढ़ने लगी. इतनी बढ़ने लगी कि उस के दिमाग में उस की आवाज गूंजने लगी.‘‘बाबा…’’ ईशा चिल्लाई… चारों तरफ घुप अंधेरा.‘‘मां…’’ ईशा जोर से चिल्लाई.‘‘क्या हुआ ईशा?’’

ईशा की नींद खुल गई. वह पूरी तरह पसीने से भीगी हुई थी. सांसें तेजतेज चल रही थीं. सामने देखा तो बाबा कुरसी पर बैठे थे. उन की बैसाखी पास ही दीवार के सहारे रखी थी. मां ईशा का सिर अपनी गोद में ले कर बैठी थीं. मां घबरा गईं और पूछा, ‘‘क्या हुआ ईशा?

कोई बुरा सपना देखा था क्या, जो डर गई हो?’’ईशा ने देखा कि सुबह के 7 बज रहे थे. मतलब, रात को सपने में वही देख रही थी… आशु को.‘‘मां… मां…’’

कहते हुए ईशा ने मां को कस कर पकड़ लिया और जोरजोर से रोने लगी.मां ने उसे रोने दिया. जब रो कर मन थोड़ा हलका हुआ तो ईशा बोली, ‘‘मां, मैं आशु को नहीं भूल पाती हूं. आज भी रात को मुझे सपने में वह सब दिखा… जलती हुई आशु…’’ ईशा बोली.‘‘ईशा, आशु तेरी बहन थी. हम उसे कैसे भूल सकते हैं… मेरी बेटी थी, तेरी बड़ी बहन थी. उस का दर्द,

उस की तकलीफ हम सब ने अपनी आंखों से देखी है… बाबा को देखो, कैसे हिम्मत से काम लिया उन्होंने. बाबा तो वहीं थे मैदान में.’’तभी ईशा का बड़ा भाई गजेंद्र चाय ले कर आ गया. प्यार से सब उसे गज्जू कहते थे.‘‘नहीं भैया, अभी चाय का मूड नहीं है,’’ ईशा बोली.‘‘चाय पी लोगी, तो मन अच्छा रहेगा. थकीथकी लग रही हो, फ्रैश हो जाओगी,’’ कह कर गज्जू ने चाय का कप ईशा को पकड़ा दिया. ईशा चाय पीने लगी.‘‘ईशा, आज कालेज जाओगी न?

अगर घर पर रैस्ट करने का मूड हो तो रैस्ट करो,’’ मां ने कहा.‘‘जाऊंगी मां…’’ ईशा ने चाय खत्म कर ली थी, ‘‘आज ऐक्स्ट्रा क्लास भी है.’’‘‘तो ठीक है, तू नहा कर तैयार हो जा. मैं तेरे लिए नाश्ता बनाती हूं,’’ कह कर मां किचन में चली गईं.ईशा के गजेंद्र भैया उर्फ गज्जू पुलिस में थे.

नजदीकी थाने में उन की पोस्टिंग थी. वे तैयार हो कर वहां के लिए निकल गए थे.ईशा के बाबा भी पुलिस में थे, पर एक हादसे में एक पैर कटने से उन की नौकरी नहीं रही थी. प्रशासन ने उन के बेटे को पुलिस में नौकरी दे दी थी, इसलिए जो सरकारी मकान बाबा के नाम अलौट था,

वह अब गज्जू के नाम हो गया था.नाश्ता कर के ईशा अपनी सरकारी कालोनी पार कर सड़क पर आटोरिकशा का इंतजार कर रही थी. तकरीबन 18 साल की ईशा देखने में खूबसूरत थी. कदकाठी भी अच्छी थी. रंग गेहुंआ था और उस की मुसकान बड़ी प्यारी थी.

ईशा में एक और बात खास थी, जो उस की खूबसूरती में चार चांद लगाती थी और वह थी उस की घुटनों तक लंबी चोटी. ईशा के बाल बड़े ही काले और घने थे..

ईशा उन का बड़ा ध्यान रखती थी. उसे जींसटीशर्ट पहनना कम पसंद था, जबकि सूटसलवार चाहे रोज पहनवा लो.ईशा जावरा कंपाउंड के देवी अहिल्या गर्ल्स कालेज में पढ़ती थी. कालेज में उस की सहेली मारिया उस का इंतजार का रही थी. वे दोनों बीएससी की पढ़ाई कर रही थीं.लैक्चर खत्म होने के बाद ईशा मारिया के साथ कालेज के गार्डन मे आ गई.

‘‘चल ईशा, कैंटीन में कुछ खाते हैं…’’ मारिया बोली.‘‘नहीं यार, मैं घर से नाश्ता कर के आई हूं. पेट में बिलकुल भी जगह नहीं है,’’ ईशा बोली.‘‘तेरी मां वक्त की बड़ी पाबंद हैं… रोज टाइम पर नाश्ता,’’ मारिया ने कहा.‘‘मां मेरा बहुत ध्यान रखती हैं.’’

‘‘अच्छा, चाय तो पी सकती है न मेरा साथ देने के लिए?’’ मारिया ने पूछा.‘‘ठीक है, चाय पी लेंगे,’’ ईशा ने कहा और मारिया के साथ कालेज की कैंटीन में आ गई. 2 चाय और एक सैंडविच का टोकन ले कर मारिया काउंटर पर पहुंची. और्डर आने पर ईशा ने उस के हाथ से चाय का गिलास ले लिया.ईशा चाय पीने में बिजी हो गई और मारिया सैंडविच खाने में.

थोड़ी देर बाद मारिया बोली, ‘‘यार ईशा, एक बात पूछूं, अगर बुरा नहीं मानेगी तो?’’‘‘बुरा क्यों मानूंगी…’’ ईशा ने चाय का घूंट भरते हुए कहा.‘‘तेरे घर में सब इतना ध्यान रखते हैं तेरा, पर मेरे घर वालों को फुरसत ही नहीं है. मम्मी किटी पार्टियों में ज्यादा बिजी रहती हैं और डैड अकसर टूर पर.

घर का नाश्ता मिले तो महीनों बीत जाते हैं. नौकरों के हाथ का नाश्ता खाखा कर बोर हो जाती हूं…’’‘‘तू पूछ रही है या बता रही है?’’ ईशा ने टोका.‘‘मेरा मतलब यह था कि तेरे घर वाले इतने अच्छे हैं, फिर तेरी बहन आशु ने सुसाइड क्यों किया था? क्या प्रौब्लम थी? लोग बातें बनाते हैं…’’‘‘देख मारिया, इस टौपिक पर बात मत कर… मुझे पसंद नहीं…’’ कहते हुए ईशा चिढ़ गई.‘‘नहीं यार, तू मेरी फ्रैंड है, इसलिए सोचा कि सीधे तेरे से ही पूछ लूं. इधरउधर की बातों से बेहतर है,’’ मारिया थोड़ी सहम गई.ईशा ने कुछ नहीं कहा और कैंटीन से उठ कर कालेज के मैदान में एक पेड़ के नीचे रखी बैंच पर जा कर बैठ गई.

मारिया ने उस के जख्मों को कुरेदना ठीक नहीं समझा और वह वहीं रह गई.ईशा को आशु के साथ बिताए पल याद आने लगे. फास्ट फूड की तरह आशु ने अपनी जिंदगी को भी फास्ट फूड जैसा बना लिया था. उसे हर बात में जल्दी होती है. उसे हर चीज तुरंत चाहिए होती थी.

सीढ़ी दर सीढ़ी मिली कामयाबी में उसे यकीन नहीं था. पर चूंकि वह एक मिडिल क्लास परिवार की थी, तो सब से बड़ी कमी पैसे की थी.कालेज में अमीर घरों की लड़कियों को कार से आतेजाते देख कर आशु को अपनी किस्मत पर बहुत गुस्सा आता था.

उसे महंगे रेश्मी कपड़े पहनना और महंगे ब्यूटी पार्लर में जाना पसंद था. इन खर्चों को पूरा करने के लिए उस ने सेल्स गर्ल का काम चुन लिया था, वह भी घर पर बताए बिना.एक दिन आशु अपने प्रोडक्ट ले कर एक घर में गई. एक अधेड़ आदमी ने बाहर आ कर पूछा,

‘‘बोलो बेबी, क्या काम है?’’‘‘जी अंकल, मेरे पास किचन में काम आने वाले कुछ प्रोडक्ट हैं… आप देखिए न प्लीज और आंटीजी को भी दिखाइए,’’ आशु ने कहा.‘‘आओ… अंदर आ जाओ…’’ वह अधेड़ बोला, ‘‘अरे, सुनती हो…’’ जैसे उस ने अपनी पत्नी को आवाज लगाई हो.आशु ने जैसे ही घर के ड्राइंगरूम के अंदर कदम रखा, उस आदमी ने दरवाजा बंद कर दिया… आशु घबरा गई और वहां से जाने को हुई कि तभी वह आदमी बोला, ‘‘कहां जा रही हो, प्रोडक्ट तो दिखाओ…’’जब अंदर से उस आदमी की पत्नी वहां आई, तो आशु की जान में जान आई और वह तुरंत सोफे पर बैठ गई.तभी वह आदमी भी आशु के पास सोफे पर आ कर बैठ गया और उस ने आशु के गले में अपनी बांहें डाल दीं.

‘‘अंकल, यह क्या कर रहे हैं आप?’’ आशु एकदम से उठने की कोशिश करने लगी.‘‘बैठी रहो चुपचाप…’’ उस आदमी की पत्नी चिल्लाई. तब तक अंकल ने आशु को जकड़ कर उस पर चुम्मों की बरसात कर दी थी. वे बहुत देर तक आशु के शरीर को यहांवहां टटोलते रहे और आंटी अपने मोबाइल फोन से फोटो खींचती रहीं.‘‘चलो, उठो अब यहां से,’’

आंटी आशु से बोलीं.आशु तुरंत उठ गई.‘‘रुको… प्रोडक्ट कितने के हुए?’’ अंकल ने पूछा.घबराई आशु ने धीरे से कहा, ‘‘2,000 रुपए के.’’‘‘ये लो 5,000 पकड़ो… 2,000 तुम्हारे प्रोडक्ट के, 3,000 तुम्हारी टिप… जो चुम्मे दिए अंकल को…’’ आंटी बोलीं, ‘‘क्योंकि ये चुम्मा लेने के अलावा कुछ कर भी नहीं सकते… नामर्द हैं… उम्र हो गई है… ठीक है न…’’

कह कर आंटी ने ‘भड़ाक’ से दरवाजा बंद कर दिया.आशु सोचती रह गई, पर जब वह वापस घर पहुंची तो बड़ी खुश थी. उस के पास 3,000 रुपए जो थे.

उसे याद आया कि कालेज में एक रईसजादा उस पर लाइन मारता है, पर वह उसे भाव नहीं देती है. अगर वह चुम्मे के बदले उस से पैसे वसूले तो… यह सब सोचते हुए आशु को रात को नींद नहीं आई.

उस ने फैसला किया कि पैसे की कमी में वह उन अंकल के पास भी कभीकभी चली जाएगी, लेकिन कल उस कार वाले रईसजादे से ‘हैलो’ से शुरुआत की जाए.

अगले दिन जब आशु कालेज से बाहर निकली तो कार वाला लड़का गेट के बाहर खड़ा था. आशु ने उसे देख कर एक मुसकराहट उछाली. कार वाला लड़का उस के पास पहुंचा और हाथ आगे बढ़ाते हुए बोला, ‘‘हैलो, मैं नीरज…’’‘‘और मैं आशु,’’ कह कर उस ने भी अपना हाथ आगे बढ़ा दिया.नीरज ने कहा, ‘‘अगर फ्री हो, तो कहीं चल कर कौफी पी जाए?’’

आशु ने ‘हां’ कर दी, तो नीरज ने कार का दरवाजा खोला. आशु ने कार के अंदर बैठ कर खुद को राजकुमारी सा महसूस किया. वह पहली बार किसी लड़के के साथ कार में बैठी थी.कौफी पीने के दौरान नीरज ने बताया कि उस के पापा के कई पैट्रोल पंप हैं और वह एकलौता लड़का है. उस ने यह भी बताया कि वह गुजराती साइंस ऐंड कौमर्स कालेज का स्टूडैंट है.

आशु बड़ी प्रभावित हुई. नीरज ने आशु को पहला गिफ्ट एक मोबाइल फोन दिया. कुछ महीने तक मिलनेमिलाने का सिलसिला चलता रहा.

कभीकभी कार चलाते चलाते सूने रास्तों पर नीरज ने उस के कई बार चुम्मे लिए थे.आशु ने अपने घर पर बताया था कि दोनों बहनों ने बचत कर के यह मोबाइल फोन खरीदा था. इस तरह से ईशा भी उस का राज जान गई थी.एक दिन नीरज आशु को अपने घर ले गया.

उस समय वहां कोई नहीं था. उस ने आशु के लिए एक नाइटी खरीदी थी. पहले तो आशु झिझकी, पर नीरज की अमीरी उस पर हावी थी. वह जैसे ही नाइटी पहन कर बैडरूम में गई, नीरज ने मौके का फायदा उठा कर आशु की इज्जत तारतार कर दी.नीरज ने अपनी हवस का वीडियो बनाया और बोला, ‘‘मेरी जान, हमारे प्यार की याद अमर बनाने के लिए यह वीडियो जरूरी है.

तुम डिजिटल लड़की हो…’’ इस के बाद नीरज के साथसाथ उस के कई दोस्तों ने आशु को अपनी हवस का शिकार बनाया.इधर ईशा को आशु पर शक होने लगा कि वह कुछ गलत कर रही है, क्योंकि रात में जब आशु कपड़े चेंज कर के नाइटी डाल कर बिस्तर पर आती थी, तो उस के गले, पीठ और छाती पर काटने के लाल निशान दिखते थे. धीरेधीरे ईशा को आशु के क्रेजी होने पर नफरत सी होने लगी.एक दिन ऐसा आया कि अचानक आशु ने खुदकुशी कर ली.

सरकारी कालोनी में बाथरूम घर में नहीं बने हो कर, घर के बाहर बने थे. आशु ने बाथरूम में जा कर कैरोसिन छिड़क कर खुद को आग के हवाले कर लिया था… जब सहन नहीं हुआ तो वह बाहर चिल्लाती हुई मैदान में भागने लगी, पर उस की जान नहीं बच पाई.

तभी अचानक ईशा अपनी यादों से बाहर निकल आई. वह पसीने से तरबतर थी. वह तेजी से कालेज से बाहर भागी और सड़क पर आटोरिकशा का इंतजार करने लगी.जब तक ईशा घर पहुंची, तब तक उस का बदन तपने लगा था. वह सीधी अपने बिस्तर में जा घुसी.

‘‘यह कौन सा समय है सोने का…’’ कहते हुए मां ने ईशा के चेहरे से कंबल हटाया, ‘‘चल उठ ईशा, चाय पी ले.’’ईशा ने कोई जवाब नहीं दिया.मां ने जैसे ही ईशा के माथे पर हाथ रखा, तो वे घबरा गईं और तुरंत ही गज्जू को आवाज लगाई. गज्जू और बाबा दोनों कमरे में आ गए.घर से कुछ ही दूर एक क्लिनिक था. गज्जू ईशा को वहीं ले गया. कुछ मैडिसिन ले कर ईशा गज्जू के साथ वापस आ गई.दवा लेने के बाद भी ईशा का बुखार कम नहीं हो रहा था.

आखिर में किसी ने मनोचिकित्सक के पास जाने की सलाह दी और कहा कि शायद ईशा पर किसी घटना का बुरा असर पड़ा है और वह उस बात को भुला नहीं पा रही है.मां बड़ी मुश्किल से राजी हुईं. शहर के मशहूर मनोचिकित्सक डाक्टर रमन जैन के पास ईशा को ले जाया गया.

डाक्टर रमन जैन ने ईशा के बारे में नौर्मल जानकारी ली और ईशा के लंबे बालों की जम कर तारीफ की. उन्होंने ईशा से कहा, ‘‘मेरी बेटी ने तो मौडर्न बनने के चक्कर में अपने बालों को छोटा करवा दिया है. कुछ टिप्स मेरी बेटी को भी देना, ताकि उस के बाल भी लंबे और खूबसूरत हो जाएं.’’

‘‘जी डाक्टर साहब,’’ इतनी देर से चुपचाप ईशा के चेहरे पर हलकी सी मुसकराहट आ गई.‘‘अगली मुलाकात में अपनी बेटी से तुम्हारी बात करवाऊंगा,’’ डाक्टर रमन जैन बोले.जब ईशा घर पहुंची, तो उसे हलकापन महसूस हो रहा था. मां प्यार से उस का सिर सहलाने लगीं. रात को खाना खाने के बाद ईशा ने दवा ली और सो गई. उसे सपने में आशु नहीं दिखी, क्योंकि उस ने नींद आने की दवा भी खाई थी. यह सिलसिला 10 दिनों तक चलता रहा. पूरा परिवार ईशा की देखभाल करता रहा. उसे अकेला नहीं छोड़ा गया.

आज 11वें दिन फिर डाक्टर के पास जाना था.‘‘आज पता है ईशा क्या हुआ?’’ डाक्टर रमन जैन ने कहा.‘‘क्या हुआ…’’ ईशा ने पूछा.‘‘जब मैं क्लिनिक आ रहा था, तब एक डौगी मेरी गाड़ी के नीचे आतेआते बचा…’’ डाक्टर रमन जैन बोले.‘‘ओह…’’ ईशा के मुंह से निकला.

‘‘वह भूखा और कमजोर लग रहा था. मैं ने गाड़ी रोक कर उसे चाय की गुमटी से दूधब्रैड खिलाया…’’‘‘बेचारा…’’ ईशा बोली.‘‘उस को कहीं चोट भी लगी थी… पैर के पास ऊपर,’’ डाक्टर रमन जैन बोले, ‘‘लेकिन, उस का मुंह घाव तक जा सकता था, इसलिए वह चाटचाट कर उसे ठीक कर लेगा.’’‘‘कितने परेशान हो जाते हैं डौगी बेचारे…’’

ईशा के मुंह से निकला.‘‘बिलकुल. लेकिन, वे सुसाइड नहीं करते,’’ डाक्टर रमन जैन ने बात बदली.‘‘मतलब…?’’ ईशा चौंक गई.‘‘मतलब यह कि बहुत से जानवर गाड़ी के नीचे आ कर हाईवे पर कुचले जाते हैं, पर क्या कभी खुद जानवर किसी गाड़ी के नीचे जाते हैं मरने के लिए?’’ डाक्टर रमन जैन ने पूछा.‘‘नहीं, कभी नहीं,’’ ईशा बोली.भैया और मां चुपचाप देख रहे थे.‘‘तो क्या हम जानवरों से भी गएगुजरे हैं, जो संघर्ष को छोड़ कर मौत को गले लगा लें?’’

डाक्टर रमन जैन ने पूछा.‘‘पर, वह आशु…’’ ईशा की आंखों में आंसू भरने लगे.‘‘वह संघर्ष नहीं कर पाई अपने विचारों से और गलत राह पर चलने लगी. अगर किसी टैंशन में रहने लगी थी तो मातापिता से शेयर करती. समाधान जरूर मिलता,’’ डाक्टर रमन जैन ने कहा.‘‘लेकिन, सुखसुविधाओं की उम्मीद करना क्या बुरी बात है?’’ ईशा ने पूछा.‘‘कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन आशु का तरीका गलत था. जितने भी महान लोग हुए हैं, उन सब ने संघर्ष किया है. अच्छा यह बताओ कि जब से तुम बीमार हुई हो, परिवार ने कोई कमी की देखभाल करने में? मां के प्यार में कमी लगी? भैया ने कमी की?’’ डाक्टर रमन जैन ने पूछा.

‘‘नहींनहीं, सब प्यार करते हैं मुझे,’’ कह कर ईशा रोने लगी. मां उठने ही वाली थीं कि डाक्टर ने इशारे से मना कर दिया.थोड़ी देर के बाद डाक्टर रमन जैन फिर बोले, ‘‘कई बच्चे ऐसे भी होते हैं, जिन के जीवन में मातापिता का साया ही नहीं रहता. तुम्हारे साथ ऐसा नहीं है ईशा…

तुम्हारी कालेज की फीस, तुम्हारे दूसरे खर्चों में कोई कमी…?’’‘‘भैया ध्यान रखते हैं मेरा,’’ ईशा बोली.‘‘तो बेटा, परिवार का हक पहले है तुम पर. जिंदगी अनमोल है

. क्या हमारा शरीर आत्महत्या करने के लिए है?’’ डाक्टर रमन जैन ने पूछा.‘‘जी नहीं, बात तो ठीक है आप की,’’ ईशा बोली.‘‘सुधा चंद्रन, तसलीमा नसरीन, महाश्वेता देवी… सभी की जिंदगी में उतारचढ़ाव आए, पर इन्होंने संघर्ष का रास्ता अपनाया,’’ डाक्टर रमन जैन ने आगे बात बढ़ाई.‘‘पढ़ाई के अलावा ऐसा क्या करूं, जिस से मुझे सुकून मिले?’’ ईशा ने पूछा.‘‘तुम्हारी हौबी क्याक्या हैं?’’ डाक्टर रमन जैन ने पूछा.‘‘मतलब…?’’

ईशा बोली.‘‘तुम्हारे बाल खूबसूरत हैं. इन्हें हैल्दी रखने के टिप्स के वीडियो बनाओ और सोशल मीडिया पर अपलोड करो. पैसा भी मिल सकता है आगे जा कर…’’‘‘क्यों नहीं..’’ भैया बोले, ‘‘अब तुम्हारा गिफ्ट नया मोबाइल इंतजार कर रहा है घर पर…’’ यह सुन कर मां भी मुसकराईं.‘‘खूबसूरत बालों के टिप्स सब से पहले मैं सीखूंगी,’’ अंदर से आवाज आई और परदा हटा कर एक मौडर्न लड़की दाखिल हुई.‘‘मेरी बेटी… तुम्हारी पहली कस्टमर,’’ डाक्टर रमन जैन बोले.ईशा मुसकराने लगी. उस की जिंदगी से अंधेरा दूर हो रहा था और उम्मीदों की किरण जगमगाने लगी थी.

संस्कारी बहू : रघुवीर गुरुजी और पूर्णिमा की अय्याशी

पूर्णिमा को लोग रोज दुत्कारते थे. कोई भी उसे अपने दरवाजे पर नहीं ठहरने देता था. फिर भी वह जैसेतैसे इन झोंपडि़यों की बस्ती में एक कोने में जिंदा थी.

एक एनजीओ में काम करने की वजह से वह मेरी नजर में आई थी. मेरे लिए किसी को भूखे रहते देखना गवारा नहीं था. मैं ने बैग से रोटियों का एक पैकेट निकाल कर दिया कि तभी पड़ोस की एक झोंपड़ी से एक औरत ने मेरा हाथ रोक दिया और मुझे अंदर आने को कहा.

मैं ने उसे रोटियां पकड़ाईं और फिर उस औरत की झुग्गी में घुस गई. वहां एक पंडितनुमा जना भी बैठा था. वह बोला, ‘‘व्यभिचारात्तु भर्तु: स्री लोके प्रापोन्ति निन्द्यताम्, श्रृगालयोनिं प्रापोन्ति पापरोगैश्च पीडयते.

‘‘‘मनुस्मृति’ में ऐसा कहा गया है. तुम शहरी लड़कियों को क्या मालूम सनातन धर्म क्या होता है. इस का मतलब है कि जो औरत अपने पति को छोड़ कर किसी दूसरे मर्द के साथ रिश्ता बनाती है, वह श्रृंगाल यानी गीदड़ का जन्म पाती है. उसे पाप रोग यानी कोढ़ हो जाता है.’’

इस बस्ती के लोगों पर उस पंडित का बहुत असर दिख रहा था. ‘मनुस्मृति’ के ही आधार पर उस औरत के संबंध में जो कहानी बताई जा रही थी वह यह थी कि किसी औरत का मर्द कितना भी बदचलन क्यों न हो, औरत को उस की खिलाफत करने का हक नहीं है.

औरत तो गंवार, अनपढ़ और पशु की तरह पीटने लायक ही है. और जब कोई औरत मर्दों के इस अहम की खिलाफत में उतर आती है तो उस का मुकाबला इंद्र के समान कपटी भी नहीं कर सकता.

मैं अपनी एनजीओ का काम बंद नहीं कराना चाहती थी वरना क्या मुझे मालूम नहीं था. भारत में मठाधीशों, गुरुओं और साधुमहात्माओं की करतूतें जगजाहिर हैं.

ये धर्मगुरु अपने शिष्यों को त्याग, बलिदान और मोक्ष के प्रवचन देते हैं और खुद रंगीन जिंदगी बिताते हैं. ये महाशय भी पक्का इसी तरह की जिंदगी जी रहे हैं और इसीलिए पागल की बगल में झोंपड़ी में बैठे हैं.

इस झुग्गीझोंपड़ी के लोग भी निपट बेवकूफ हैं. वे गुरुओं की फौर्चुनर, मर्सिडीज गाड़ी, सोने के सिंहासन और चांदी के बरतनों की ओर खिंचते हैं और अपनी जिंदगीभर की सारी कमाई इन के चरणों में धर देते हैं.

कुछ साल पहले इस बस्ती के ज्यादातर परिवार रघुवीर गुरुजी के भक्त थे. हां, यही नाम बताया था उन त्रिपुंडधारी महाशय ने. रघुवीर गुरुजी ने बस्ती के तालाब के किनारे शिवालय बना कर जमीन पर कब्जा कर के एक विशाल आश्रम बना लिया था.

यह आश्रम नशे, हथियार और ऐयाशी का अड्डा था. बाद में मुझे पता चल गया कि उस पंडित ने नकली चमत्कार दिखा कर बस्ती की भोलीभाली जनता को अपना अंधभक्त बना लिया था. धीरेधीरे मुझे पूरी कहानी पता चली थी.

उस समय रघुवीर गुरुजी के इस आश्रम में हर 2-3 महीने में धर्म की आड़ में नशे और सैक्स के लिए पार्टियों का आयोजन किया जाता था, जिस में इस बस्ती की गरीब कमसिन लड़कियों को बुला कर परोसा जाता था. यह काम पिछले बहुत सालों से चल रहा था.

शहर के अमीर, ताकतवर और सरकारी अफसर रघुवीर गुरुजी के इस कारोबार के मुनाफे में साझेदार थे. रघुवीर गुरुजी के खिलाफ बोलने वाले लोग अकसर एक्सिडैंटों में मारे जाते थे और उन्हें ट्रैफिक तोड़ने वालों की लापरवाही का नाम दे दिया जाता था.

बस्ती की भोलीभाली औरतें अपनी बहूबेटियों को आश्रम की सेवा में भेज देती थीं. कुछ तो रघुवीर गुरुजी का स्वाद खुद भी चख आई थीं और वह उन्हें ब्लैकमेल कर उन की बेटियों को भी बुलाता था.

रघुवीर गुरुजी के शिष्यों द्वारा देवताओं के नाम पर शारीरिक शोषण मनमरजी से किया जाता था और ऊपर से उन की पैसे से मदद की जाती थी.

एक समय यहां एक आश्रम था, जिस का नाम बहुत दूरदूर तक था. रघुवीर गुरु के आश्रम में देशी शराब, अफीम और गांजे के लालच में आसपास का बस्तियों के दर्जनों गुंडे पलते थे. वे गुरुजी के गैरकानूनी साम्राज्य के सैनिक थे. इस तरह रघुवीर गुरुजी के जितने विरोधी थे, उस से ज्यादा उन के पाखंडी समर्थक थे.

पुरुषोत्तम मास में कृष्ण की सखियां बनाने के नाम पर एक महीने तक औरतों को सूरज उगने से पहले आश्रम में बुला कर बिना कपड़ों के स्नान और ध्यान के लिए मजबूर किया जाता था.

लोग कहते थे कि गुरुजी के पास सम्मोहन की कला थी, पर असलियत में औरतों को प्रसाद और धुएं से नशा दिया जाता था. नशे में मदहोश औरतों के पोर्नोग्राफिक वीडियो बना कर औनलाइन बेचे जाते थे.

जिन औरतों ने रघुवीर गुरुजी के जोरजुल्म के खिलाफ बोलने की हिम्मत की थी, उन्हें बदनाम कर दिया जाता था. ऐसी औरतों को अपनी जान या इज्जत गंवाने का खमियाजा भुगतना पड़ता था.

यही वजह थी कि ज्यादातर औरतों ने उस समय आश्रम की रंगीन दुनिया को अपना लिया था. गुरुजी का समर्थन कर के वे न सिर्फ अपने शौक पूरे कर सकती थीं, बल्कि पैसे भी मिलते थे. बदले में उन्हें सिर्फ शर्म छोड़नी होती थी.

जिन औरतों ने गुरुजी के खिलाफ बोलने की हिम्मत की, उन्हें न तो बस्ती के लोग और न उन के ही परिवार वालों ने स्वीकार किया. मतलब पूरी बस्ती ने ही गुरुभक्ति की आड़ में अपने परिवार की इज्जत को ताक पर रख दिया था.

रघुवीर गुरुजी के एक प्रकांड भक्त पांडेयजी, जो मोक्ष, वेद और उपनिषद के ज्ञाता थे, ने अपने लड़के की शादी में भरपूर दहेज लिया था, पर फिर भी वे और ज्यादा दहेज के लिए अपनी बहू पूर्णिमा को सताते थे.

पांडेयजी को अपनी खूबसूरत और पढ़ीलिखी बहू की कोई कद्र नहीं थी. परंपरा के मुताबिक पांडेयजी की बहू को भी शादी के बाद अपना कुंआरापन खोने से पहले 3 दिनों तक आश्रम में देवताओं की उपासना के लिए जाना पड़ा था.

शहर के स्कूल में पलीबढ़ी पांडेयजी की बहू पूर्णिमा ने तुरंत ही आश्रम में पल रहे गिद्धों को पहचान लिया. उस ने अपनी ससुराल और बस्ती के लोगों को रघुवीर गुरुजी के ढोंग से बचाने की भरसक कोशिश की, लेकिन उस की एक न सुनी गई.

पूर्णिमा ने साइंस के प्रयोगों द्वारा रघुवीर गुरुजी के चमत्कारों को समझाने की कोशिश की, लेकिन उसे झुठला दिया गया. इतना ही नहीं, उसे ही आवारा और बदचलन कहते हुए उस के मायके के लोगों को भलाबुरा कहा जाने लगा.

पूर्णिमा की इस करतूत पर गुस्सा हो कर एक दिन पूर्णिमा की सास और पति ने लातघूंसों से पिटाई कर दी, तब जा कर उस का समाज सुधार का भूत उतरा. तब हार कर उसे रघुवीर गुरुजी की बुराई करने के लिए कान पकड़ कर माफी मांगनी पड़ी, पर मन ही मन बदला लेने के लिए वह नागिन की तरह तड़प उठी.

एक बार सालाना जलसे के लिए बस्ती में रघुवीर गुरुजी ने पूर्णिमा के घर का चुनाव किया था. पूर्णिमा के पति और सास खुशी से फूले न समा रहे थे. पूर्णिमा को उन्होंने खातिरदारी में कोई कमी न रखने की सख्त हिदायत दी.

पूर्णिमा यह अच्छी तरह जान चुकी थी कि अगर घर से अपनी इस बेइज्जती का बदला चुकाना है तो इस ढोंगी गुरुजी की कृपा हासिल करनी ही होगी.

पूर्णिमा ने गुरुजी के चरण गोद में रख कर पानी से साफ किए. चरणों को अपने उभारों का सहारा देते हुए तौलिया से सुखाया और फिर माथे से लगा लिया. पूर्णिमा के इस बदले हुए मिजाज से सब बहुत खुश हुए.

रघुवीर गुरुजी ने पूर्णिमा की सेवा से गदगद होते हुए अपने चरणों की गंदगी से गंदे हुए चरणामृत को ग्रहण करने और पूरे घर में उस गंदे पानी छिड़काव करने का आदेश दिया.

रघुवीर गुरुजी ने पूर्णिमा के हाथों से स्वादिष्ट भोजन और प्रसाद ग्रहण किया. वह भी अब तन व मन से उन की खुशामद में लगी हुई थी. अपने साथ दहेज में आए सुहागरात के बिस्तर को उस ने गुरुजी के आराम के लिए तैयार कर दिया.

पति को बाहर के कमरे में सुला कर पूर्णिमा देर रात तक गुरुजी की सेवा करती रही. पहली ही रात में गुरुजी को अपने काबू में लेने के लिए उस ने कामशास्त्र का इस्तेमाल किया.

रघुवीर गुरुजी को सपने में भी अंदाजा नहीं था कि यह शहरी लड़की इतनी धार्मिक हो चुकी हैं. गुरुजी से उम्र में आधी पूर्णिमा ने रात के 12 बजे तक उन्हें स्वर्ग की अप्सरा के जैसा आनंद दिया. उस ने सारे कपड़े उतार कर रख कर दिए, पर उन कपड़ों में मोबाइल छिपा था और उस का वीडियो औन था. 2 घंटे की रिकौर्डिंग हुई.

दोपहर को आराम के समय पूर्णिमा गुरुजी के लिए आम का शरबत ले कर हाजिर हुई तो काम के जोश में गुरुजी ने उसे जबरदस्ती अपनी गोद में बैठा लिया और उस के कपड़ों को हटा कर उस

के शरीर को अपनी प्रेमिका की तरह दुलारना शुरू कर दिया. अगले ही दिन गुरुदीक्षा और समाधि के नाम पर पूर्णिमा को अपने साथ कमरे में बंद कर उन्होंने उस का पूरी तरह फिर उपभोग किया.

इस के बाद तो पूर्णिमा महीनों गुरुजी के आश्रम पर रह कर उन की सेवाभक्ति कर लाभ लेने लगी. अब उसे अपनी ससुराल के कामकाज से भरी हुई जिंदगी अच्छी नहीं लगती थी, बल्कि उसे तो गुरुजी की सखी की तरह रहने में मजा आता था, जहां कोई काम नहीं. सास और पति की दखलअंदाजी भी नहीं. पैसे की कमी नहीं. लेकिन वह लगातार मोबाइल पर वीडियो पर वीडियो बनाए जा रही थी.

पूर्णिमा की इस गुरुभक्ति के चलते पांडेयजी के पूरे परिवार को आश्रम में सब से ज्यादा इज्जत मिलने लगी थी. गुरुजी के आशीर्वाद से पूर्णिमा के बेरोजगार पति को एक फैक्टरी में नौकरी मिल गई थी. पूर्णिमा के धार्मिक संस्कारों की अब हर जगह तारीफ होने लगी थी.

यही वजह थी कि रघुवीर गुरुजी की सभी शिष्याएं अपनीअपनी बहुओं को पूर्णिमा की तरह बनने के लिए उकसाती थीं. पूर्णिमा भी बेवकूफ औरतों का

पूरा फायदा उठाने लगी, पर उन में से उस ने 3-4 जवान बहुओं को अपने साथ मिला लिया.

जैसजैसे युवतियां बढ़ने लगीं, वैसेवैसे रघुवीर गुरुजी के आश्रम पर भौतिक सुखसुविधाओं का अंबार लगने लगा. उन के सोने के कमरे में ऐशोआराम की सभी सुविधाएं आ गई थीं. हमेशा जवान बनाए रखने के लिए चीन से लाई गई मसाज मशीनें खरीद ली गई थीं. अमेरिका से लाया गया एक करोड़ का सोना बाथ आ गया था.

उन के कमरे में सोने और चांदी के गहनों और बरतनों की भरमार थी. चढ़ावे के नोट गिनने की मशीन, सोने को तौलने और गलाने की मशीन लगी हुई थी. रेशम के कालीन और सोने की नक्काशी के परदे टंगे हुए थे. चांदी के रत्नजडि़त अनेक पात्रों में शराब भरी रहती थी.

गुरुजी की गाडि़यों का काफिला, पर्सनल जिम, खेल के सामान, स्विमिंग पूल और दूसरे तमाम ऐशोआराम का इंतजाम पूर्णिमा के हाथों में आने लगा था. उस

की योजना तो अपनी ससुराल वालों को सबक सिखाने की थी, लेकिन यहां तो भोग की अलग ही दुनिया उस का इंतजार कर रही थी.

आश्रम के गर्भगृह में गुरुजी को खुश रखने के लिए भाड़े की कालगर्ल लड़कियों को बुलाया जाता था. पर पूर्णिमा से मिलने के बाद वे पूरी तरह उस पर लट्टू हो चुके थे. उन्होंने पूर्णिमा को आश्रम के गर्भगृह की मल्लिका बना दिया था. आश्रम के सभी सेवकों को उस की आज्ञा के पालन के लिए खड़ा कर दिया था.

एक खास तरह के गुरुजी पर्व के आयोजन की तैयारियां जोरशोर से चल रही थीं. आयोजन का सारा इंतजाम गुरुजी के जिन सेवादारों द्वारा किया जा रहा था. वे सभी रघुवीर गुरुजी की तरह ही गोरे, चिकने, लंबी कदकाठी के अमीर और ताकतवर मर्द थे. ऐसे लोग सेवादार बनने के लिए गुरुजी को चढ़ावा चढ़ाते थे.

देवदासियों के नाम पर शहर से कालगर्ल्स को लाया जाता था, जो चुने गए भक्तों को खुश करती थीं, जिन में अफसर और सेठ होते थे. पढ़ीलिखी पूर्णिमा को तुरंत समझ आ गया था कि प्रसाद और अगरबत्तियों के बहाने भांग, गांजे और शराब का नशा कराने के लिए यह आयोजन एक तरह की ‘रेव पार्टी’ थी, जिसे पुलिस से बचने के लिए धार्मिक आयोजन का नाम दे दिया गया था.

पूर्णिमा ने रघुवीर गुरुजी को इस गुरुजी पर्व में अपनी 4 साथियों को साथ रखने के लिए चुटकियों में मना लिया. घर वाले तो इस बात से फूले नहीं समा रहे थे कि उन की पूर्णिमा को मुख्य शिष्या बनाया गया है.

पूर्णिमा के पति को तो इस मामले में उसे रोकने की हिम्मत ही नहीं थी. वह जब भी पूर्णिमा के पास रात को आता, तो वह उसे कपड़ों के बिना धकेल देती थी. उसे कितनी ही रातें बिस्तर के नीचे नंगधड़ंग गुजारनी पड़ी थीं.

गुरुजी पर्व आयोजन के दौरान आश्रम के गर्भगृह में रघुवीर गुरुजी अपने प्रमुख शिष्य और शिष्याओं के साथ पूरी तरह अज्ञातवास में थे. गर्भगृह में सभी दूसरी भक्तनों को केवल एक साड़ी में दाखिल होने की इजाजत थी.

गुरुजी पर्व के दौरान गर्भगृह में देवताओं के राजा इंद्र की सभा की तरह नृत्य, गायन, मद्यपान, सुरा और संभोग का नाटक किया जाता था. पूर्णिमा की साथी, जो वैसे सैक्स वर्कर थीं, गुरुजी के शिष्यों का भरपूर मनोरंजन करती थीं.

अब तक अपने पति के साथ पूर्णिमा की ठीक से सुहागरात भी नहीं हुई थी, जबकि गुरुजी के साथ वह हर रोज 2-4 बार हमबिस्तर होती थी. पूर्णिमा के दूध के समान सफेद और संगमरमर जैसे चिकने बदन को रेशम और सोने के गहनों से ढक दिया गया था. अब वह अपनी ससुराल लौटना ही नहीं चाहती थी. गुरुजी ने उसे अपना उत्तराधिकारी बना कर देवी का दर्जा दे दिया था.

आम जनता के बीच, धार्मिक प्रतीकों और कपड़ों के साथ माला जपते हुए पिता और पुत्री का रिश्ता निभाने वाले रघुवीर गुरुजी और पूर्णिमा भोगविलास के आदी हो चुके थे.

पर जल्द ही उन के बारे लोग कानाफूसी करने लगे थे. गुरु और शिष्या के संबंधों से परेशान पूर्णिमा की ससुराल वाले बाधा पैदा करने लगे थे.

इस बात से गुस्साए गुरुजी ने पूर्णिमा के पति को आश्रम में बंधक बना लिया और पूर्णिमा ने अपने पति के सामने ही गुरुजी के साथ संबंध बनाते हुए अपने पति के सीने में मौत का खंजर उतार दिया. अपने ससुर और सास को आश्रम के तहखाने में भोजन और पानी के लिए तरसाते हुए मार डाला. ससुराल की जायदाद उन की विधवा ‘संस्कारी बहू’ पूर्णिमा के नाम हो गई.

इस के बाद पूर्णिमा ने अपनी ससुराल की पहचान को मिटाते हुए धार्मिक आवरण ओड़ लिया, अपने केश त्याग दिए. पूर्णिमा का आश्रम की गद्दी पर अभिषेक हो गया.

पूर्णिमा अब पूर्णिमा देवी हो गई थी, जिस के मठाधीश बनने के बाद हर महीने पूर्णमासी की रात को आयोजित होने वाले गुरुजी पर्व कार्यक्रम में अलग ही जोश आ गया था. कार्यक्रम को रोचक बनाने के लिए पूर्णिमा देवी ने आसपास के इलाके की कुंआरी लड़कियों और शादीशुदा औरतों को फंसा कर गुरुदीक्षा देना शुरू कर दिया. उस का साथ वे

4 भक्तनें देती थीं. पूर्णिमा का डर उन पहलवान सेवादारों से था, जो गुरुजी से ज्यादा प्यार करते थे. उन सभी के गुरुजी से समलैंगिक संबंध थे.

पूर्णिमा ने बस्ती की और अंधविश्वासी लड़कियों को सबक सिखाने के लिए बहलाफुसला कर गुरुजी पर्व में शामिल होने के लिए सहमत कर लिया.

पूर्णिमा सेवा में हाजिर होने के लिए तैयार सेविकाओं के रूप में तैयार करने का काम बहुत ही दिलचस्पी से कर रही थी. शहर से लाई गई ब्यूटीशियन ने सभी सेविकाओं को 2 दिनों तक रोमरहित करने के बाद हलदी, बेसन और शहद के पानी से स्नान करा कर उन्हें आइसोलेट कर दिया. सेविकाओं की माहवारी रोकने के लिए उन्हें रोजाना दूध के साथ दवाएं दी जा रही थीं.

गुरुजी पर्व की रात को नृत्य और गायन के दौरान बहुत सी लड़कियों को प्रसाद के रूप में भांग पिला दी गई. आश्रम की इस हाईप्रोफाइल पार्टी में इस साल बड़ेबड़े अफसर, तिलकधारी सांसद और मंत्री, अमीर कारोबारी आए हुए थे.

बस्ती की भोलीभाली लड़कियों के आने के बाद नशे और जिस्म की इन पार्टियां में रहस्य और रोमांच और ज्यादा बढ़ गया था.

पूर्णिमा के निर्देश पर शिष्याओं ने आरती के बाद गर्भगृह में मेहमानों का मनोरंजन करना शुरू किया. खुद पूर्णिमा देवी ने जोश में आ कर अपने कपड़े उतार दिए. गुरुजी को अपने पैर, छातियों, जांघों से छूते हुए वह पूजन की ऐक्टिंग करने लगी. गुरुजी और उन के सेवादारों के कपड़े भी धीरेधीरे उतार दिए गए.

रघुवीर ने अपनी पूर्णिमा को चूमने की कोशिश की, लेकिन नशे में चूर पूर्णिमा देवी ने गुरुजी को पहचानने के बजाय उन के सब से खास एक मेहमान के साथ संबंध बनाना शुरू कर दिया और फिर देखते ही देखते नशे में चूर सभी मेहमान गिद्धों के की तरह, देवताओं के मुखौटे में, बस्ती की भोलीभाली अंधविश्वासी लड़कियों की इज्जत को लूटने के लिए टूट पड़े. रघुवीर गुरुजी अपनी इस बेइज्जती पर तिलमिला उठे. यह पूर्णिमा का पहला बदला था.

देवताओं का अभिनय करते हुए रघुवीर गुरुजी और सेवादारों ने दासियों के साथ कामलीला शुरू कर दी. नशे में चूर बस्ती की अनपढ़, भोलीभाली लड़कियों को लग रहा था कि गुरुजी की कृपा से स्वर्ग के देवता धरती पर उतर कर उन के साथ संबंध बना रहे हैं.

लेकिन रघुवीर गुरुजी को नहीं मालूम था कि पूर्णिमा ने उसी समय हाईकोर्ट में एक एप्लीकेशन डलवा रखी थी, जिस में लोकल जजों पर निर्भर रहने की वजह बताते हुए एसपी के नेतृत्व में छापा मारने की रिक्वैस्ट की गई थी.

यह याचिका शाम 6 बजे हाईकोर्ट के एक जज के पास पहुंची. साथ में वीडियो भी थे. जज उदार और सख्त थे. उन्होंने तुरंत और्डर टाइप कराया और जिला जज, जिला मजिस्ट्रेट और एसपी के साथ छापा मारने का हुक्म दिया.

तकरीबन 500 पुलिस वालों ने आश्रम घेर लिया. सेवादार भाग भी नहीं सके थे, क्योंकि पूर्णिमा की साथियों ने सारे कपड़े उठा कर नाले में फेंक दिए थे.

पूर्णिमा के परिवार के गायब होने की खोज पहले से चल रही थी. गुरुजी को पुख्ता सुबूतों के साथ पकड़ लिया गया. उस के बाद पूर्णिमा कहां गई किसी को पता नहीं लगा, पर उस की 4 साथियों ने मुकदमा लड़ा और गुरुजी को आजीवन कारावास की सजा मिली.

आश्रम से मिले कंकालों की गितनी इतनी थी कि डीएनए टैस्ट करने वालों को महीनों लगे.

उम्रकैद के दौरान रघुवीर गुरुजी की मौत हो गई, लेकिन पूर्णिमा कोढ़ की बीमारी से पीडि़त होने के बरसों बाद बस्ती में लौट आई. यह कोढ़ उसे एक सेवादार से लगा था. पूर्णिमा को अपने पर गर्व था, पर शायद ही कोई जानता था कि रघुवीर को जेल उसी ने पहुंचाया था.

उस पागल औरत ने धीधीरे मुझे यह सारी कहानी सुनाई थी, क्योंकि मैं रोज उसे खाना देने लगी थी, जबकि गांव वालों को भी बुरा लगता था और रघुवीर गुरुजी के उजड़े आश्रम के एक कोने को दबोचे था वह पंडितनुमा जना जो मुझे रोक रहा था.

पूर्णिमा ने बताया कि उस लड़के को 10 साल की उम्र में कहीं से पकड़ कर लाया गया था. पर वह सालों ड्रग्स लेने के चलते बहुत सी बातों को आज भी याद नहीं कर पा रहा.

पुल : ईमानदारी की सजा

‘‘शुक्रिया जनाब, लेकिन मैं शराब नहीं पीता,’’ मुस्ताक ने अपनी जगह से थोड़ा पीछे हटते हुए जवाब दिया.

‘‘कमाल की बात करते हो मुस्ताक भाई, आजकल तो हर कारीगर और मजदूर शराब पीता है. शराब पिए बिना उस की थकान ही नहीं मिटती है और न ही खाना पचता है.

‘‘कभीकभार मन की खुशी के लिए तुम्हें भी थोड़ा सा नशा तो कर ही लेना चाहिए,’’ ऐसा कहते हुए ठेकेदार ने वह पैग अपने गले में उड़ेल लिया.

‘‘गरीब आदमी के लिए तो पेटभर दालरोटी ही सब से बड़ा नशा और सब से बड़ी खुशी होती है. शराब का नशा करूंगा तो मैं अपना और अपने बच्चों का पेट कैसे भरूंगा?’’

‘‘खैर, जैसी तुम्हारी मरजी. मैं ने तो तुम्हें एक जरूरी काम के लिए बुलाया था. तुम्हें तो मालूम ही है कि इस पुल के बनने में सीमेंट के हजारों बैग लगेंगे. ऐसा करना, 2 बैग बढि़या सीमेंट के साथ 2 बैग नकली सीमेंट के भी खपा देना. नकली सीमेंट बढि़या सीमेंट के साथ मिल कर बढि़या वाला ही काम करेगी.

‘‘इसी तरह 6 सूत के सरिए के साथ 5 सूत के सरिए भी बीचबीच में खपा देना. पास खड़े लोगों को भी पता नहीं चलेगा कि हम ऐसा कर रहे हैं,’’ ठेकेदार ने उसे अपने मन की बात खोल कर बताई.

रात का समय था. पुल बनने वाली जगह के पास खुद के लिए लगाए गए एक साफसुथरे तंबू में ठेकेदार अपने बिस्तर पर बैठा था. नजदीक के एक ट्यूबवैल से बिजली मांग कर रोशनी का इंतजाम किया गया था.

ठेकेदार के सामने एक छोटी सी मेज रखी हुई थी. मेज पर रम की खुली बोतल सजी हुई थी. पास में ही एक बड़ी प्लेट में शहर के होटल से मंगाया गया लजीज चिकन परोसा हुआ था.

‘‘ठेकेदार साहब, यह काम मुझ से तो नहीं हो सकेगा,’’ मुस्ताक ने दोटूक जवाब दिया.

‘‘क्या…?’’ हैरत से ठेकेदार का मुंह खुला का खुला रह गया. हाथ की उंगलियां, जो चिकन के टुकड़े को नजाकत के साथ होंठों के भीतर पहुंचाने ही वाली थीं, एक   झटके के साथ वापस प्लेट के ऊपर जा टिकीं.

ठेकेदार को मुस्ताक से ऐसे जवाब की जरा भी उम्मीद नहीं थी. एक लंबे अरसे से वह ठेकेदारी का काम करता आ रहा था, पर इस तरह का जवाब तो उसे कभी भी नहीं मिला था.

‘‘क्यों नहीं हो सकेगा तुम से यह काम?’’ गुस्से से ठेकेदार की आंखें उबल कर बाहर आने को हो गई थीं.

‘‘साहब, आप को भी मालूम है और मुझे भी कि इस पुल से रेलगाडि़यां गुजरा करेंगी. अगर कभी पुल टूट गया तो हजारों लोग बेमौत मारे जाएंगे. मैं तो उन के दुख से डरता हूं. मुझे माफ कर दें,’’ मुस्ताक ने हाथ जोड़ कर अपनी लाचारी जाहिर कर दी.

खुद का मनोबल बनाए रखने के लिए ठेकेदार ने रम का एक और पैग डकारते हुए कहा, ‘‘अरे भले आदमी, तुम खुद मेरे पास यह काम मांगने के लिए आए थे… मैं तो तुम्हें इस के लिए बुलाने नहीं गया था. तब तुम ने खुद ही कहा था कि तुम अपने काम से मुझे खुश कर दोगे.

‘‘पहले जो कारीगर मेरे साथ काम करता था, उसे जब यह पता चला कि मैं ने तुम्हें इस काम के लिए रख लिया है, तो वह दौड़ता हुआ मेरे पास आया और मुझे सावधान करते हुए कहने लगा कि यह विधर्मी तुम्हें धोखा देगा…

‘‘पर, मैं ने उस की एक न सुनी… वह नाराज हो कर चला गया… तुम्हारे लिए अपने धर्मभाइयों को मैं ने नाराज किया और तुम हो कि ईमानदारी का ठेकेदार बनने का नाटक कर रहे हो.’’

‘‘मैं कोई नाटक नहीं कर रहा साहब. यह ठीक है कि मैं आप के पास खुद काम मांगने के लिए आया था… आप ने मेहरबानी कर के मुझे यह काम दिया… मैं इस का बदला चुकाऊंगा, पर दूसरी तरह से…

‘‘मैं वादा करता हूं कि मैं और मेरे साथी कारीगर हर रोज एक घंटा ज्यादा काम करेंगे. इस के लिए हम आप से फालतू पैसा नहीं लेंगे… इस तरह आप को फायदा ही फायदा होगा,’’ मुस्ताक ने यह कह कर ठेकेदार को यकीन दिलाना चाहा.

‘‘अच्छा, इस का मतलब यह कि तू चाहता है कि मैं लुट जाऊं… बरबाद हो जाऊं और तू तमाशा देखे… क्यों?’’ ठेकेदार खा जाने वाली नजरों से मुस्ताक को घूर रहा था.

कारीगर मुस्ताक यह देख कर डर गया. उस ने हकलाते हुए कहा, ‘‘नहीं… मेरा मतलब यह नहीं था कि…’’

‘‘और क्या मतलब है तुम्हारा? क्या तुम्हें मालूम नहीं कि ईमानदारी के रास्ते पर चल कर पेट तो भरा जा सकता है, पर दौलत नहीं कमाई जा सकती. जिस तरह तू काम करने की बात कर रहा है, वह तो सचाई और ईमानदारी का रास्ता है. उस से हमें क्या मिलेगा?

‘‘तुम्हें मालूम होना चाहिए कि इंजीनियर साहब पहले ही मुझ से रिश्वत के हजारों रुपए ले चुके हैं. ‘वर्क कंप्लीशन सर्टिफिकेट’ देने से पहले न जाने कितने और रुपए लेंगे. कहां से आएंगे वे रुपए? क्या तुम दोगे? नहीं न? तब क्या मैं तुम्हारी ईमानदारी को चाटूंगा? बोलो, क्या काम आएगी ऐसी वह ईमानदारी?

‘‘मुस्ताक मियां, मुझे ईमानदारी बन कर बरबाद नहीं होना है. मुझे तो हर हाल में पैसा कमाना है. याद रखना, ऐसा करने से तुम्हें भी कोई फायदा नहीं होने वाला है.’’

मुस्ताक ने जवाब देने के बजाय चुप रहना ही बेहतर समझा. ठेकेदार ने मन ही मन सोचा कि मुस्ताक को उस के तर्कों के सामने हार माननी ही पड़ेगी. आखिर कब तक नहीं मानेगा? उसे भूखा थोड़े ही मरना है.

अपने लिए एक पैग और तैयार करते हुए ठेकेदार ने मुस्ताक से कहा, ‘‘तुम ने जवाब नहीं दिया.’’

‘‘मैं मजबूर हूं साहब,’’ मुस्ताक ने धीरे से कहा.

‘‘मुस्ताक मियां, मजबूरी की बात कर के मुझे बेवकूफ मत बनाओ. मैं जानता हूं कि तुम जैसे गरीब तबके के लोगों की नीयत बहुत गंदी होती है. तुम्हें हर चीज में अपना हिस्सा चाहिए. ठीक है, वह भी तुम्हें दूंगा और पूरा दूंगा.

‘‘इसीलिए तो तुम लोग सच्चे और ईमानदार बनने का नाटक करते हो. घबराओ मत, मैं भी जबान का पक्का हूं, जो कह दिया, सो कह दिया.’’

ठेकेदार अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ. उस ने अपना दायां हाथ मुस्ताक के कंधे पर रख दिया. इस तरह वह उस का यकीन जीतना चाहता था.

मुस्ताक को चुप देख कर ठेकेदार ने कहा, ‘‘पुल के गिरने वाली बात को अपने मन से निकाल दो. अगर यह पुल गिर भी गया, तब भी न तो मेरा कुछ बिगड़ेगा और न ही तुम्हारा.

‘‘मेरे पास तो अपनी 2 कारें हैं, इसलिए मैं कभी भी रेलगाड़ी में नहीं बैठूंगा. रही बात तुम्हारी, तो तुम्हारे पास इतना पैसा ही नहीं होता कि तुम रेल में बैठ कर सफर करो.’’

ठेकेदार को अचानक महसूस हुआ कि वह मुस्ताक के सामने कुछ ज्यादा ही झुक गया है. मुस्ताक इस बात को उस की कमजोरी मान कर उस पर हावी होने की कोशिश जरूर करेगा, इसलिए उस ने अपना हाथ मुस्ताक के कंधे से दूर किया. फिर अपने लहजे को कुछ कठोर बनाते हुए ठेकेदार ने कहा, ‘‘और अगर अब भी तुम यह काम नहीं करना चाहते, तो कल से तुम्हारी छुट्टी. और कोई आ जाएगा यह काम करने के लिए. कोई कमी नहीं है यहां कारीगरों की. अब जाओ, मेरा सिर मत खाओ.’’

ऐसा कहते हुए ठेकेदार बेफिक्र हो कर फिर से अपने बिस्तर पर जा बैठा और प्लेट से चिकन का टुकड़ा उठा कर आंखें बंद कर के चबाने लगा.

‘‘तो ठीक है साहब, कल से आप किसी और कारीगर को बुला लें.’’

अचानक मुस्ताक मियां के मुंह से निकले इन शब्दों को सुन कर ठेकेदार को ऐसा लगा, मानो उस के गालों पर कोई तड़ातड़ तमाचे जड़ रहा हो. उस की आंखें अपनेआप खुल गईं. उस ने देखा कि मुस्ताक वहां नहीं था. उस के लौटते कदमों की दूर होती आवाज साफ सुनाई पड़ रही थी.

पुराने नोट : कालेधन की मार

‘‘यह बुढ़िया भी बड़ी अजीब थी. जाने कहांकहां का… जाने क्यों ये चिथड़ेगुदड़े संभाल कर रखे हुए थी,’’ भुनभुनाते हुए सुमन अपनी मर चुकी सास के पुराने बक्से की सफाई कर रही थी.

तभी सुमन की नजर बक्से के एक कोने में मुड़ेतुड़े एक तकिए पर पड़ी जिस के किनारे की उखड़ी सिलाई से 500 का एक पुराना नोट बत्तीसी दिखाता सा झांक रहा था.

सुमन ने बड़ी हैरत से उस तकिए को उठाया, हिलायाडुलाया, फिर किसी अनहोनी के डर से जल्दीजल्दी उस तकिए की सिलाई उधेड़ने लगी.

अब सुमन के सामने 1000-500 के पुराने नोटों का ढेर था. वह फटी आंखों से उसे हैरानी से देखे जा रही थी. थोड़ी देर तक उस का दिमाग शून्य पर अटक गया, फिर उस की चेतना लौटी.

सुमन ने फौरन आवाज लगाई, ‘‘अरे भोलू के पापा, जल्दी आओ… जरा सुनो तो…’’

‘‘क्या आफत आ गई. अभी खाना दे कर गई है और पुकारने लगी है. यह औरत जरा भी सुकून से खाना नहीं खाने देती है,’’ पति  झुंझलाया.

‘‘अरे, जल्दी आओ,’’ सुमन ने दोबारा कहा.

‘‘पता नहीं, कोई सांपबिच्छू तो नहीं है…’’ बड़बड़ाता हुआ पति वहां पहुंचा. सुमन सिर पर हाथ रखे अपने सामने 1000-500 के पुराने नोटों के ढेर को बड़ी हैरानी से देख रही थी.

पति ने यह नजारा देखा तो उस के भी होश उड़ गए. सारा गुस्सा ठंडा हो गया. फिर अटकतेअटकते वह बोला, ‘‘यह सब क्या है सुमन…’’

‘‘तुम्हारी मां ने बड़े अरमान से हमारी गरीबी दूर करने के लिए ये पैसे जोड़जोड़ कर अपने तकिए में रखे थे. लेकिन 2 साल पहले बेचारी मरते समय यह राज हमें न बता पाई. दिल में यही अरमान रहे होंगे कि बहू, बेटे और उन के बच्चों की इन रुपयों से गरीबी दूर हो जाएगी. पर हाय रे नोटबंदी का दानव मेरी सासू मां के सारे अरमानों को खा गया.’’

यह देख पति भारी मन से बोला, ‘‘अम्मां को मैं ही दवादारू के लिए थोड़ेबहुत पैसे देता रहता था, पर मुझे क्या पता था कि वे हमारी गरीबी दूर के लिए पैसे जोड़ रही थीं.’’

सुमन डबडबाई आंखों से बोली, ‘‘सचमुच अम्मां का दिल बहुत बड़ा था.’’

पति ने कहा, ‘‘हां, शायद हम लोगों से भी ज्यादा बड़ा…’’

सुमन बोली, ‘‘आप सही कहते हो.’’

अब वहां वे दोनों फूटफूट कर रोने लगे, जिसे सिर्फ घर की दीवारें ही सुन पा रही थीं.

नरेंद्र मोदी की सरकार ने सोचा था कि वह नोटबंदी से अमीरों का काला धन निकालेगी, पर यहां तो गोराचिट्टा धन एक रात में काला हो गया था.

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