दो लाख की डकैती : शर्माजी को नहीं हुआ विश्वास

जैसे ही घर पहुंचा, पत्नी ने बताया कि अपनी कालोनी में मिस्टर गुलाटी के यहां चोरी हो गई है. मैं ने पूछा, ‘‘चोरों का कोई पता चला?’’

‘‘अभी तक तो मुझे कोई जानकारी नहीं मिली है,’’ पत्नी बोली, ‘‘आप आ गए हो तो सारी जानकारी मिल जाएगी. कोई कह रहा था कि चोरी हो गई और कोई बता रहा था डकैती पड़ी है. मुझे तो दोनों में अंतर ही पता नहीं चलता.’’

पत्नी के साथ यही दिक्कत है. अंतर करने से चूक जाती है. मुझे सीआईडी का आदमी समझती है. अखबारों में पढ़े समाचारों को कभी मनोरंजक और कभी खौफनाक ढंग से मिर्चमसाला लगा कर बता देता हूं. इसलिए पत्नी को ऐसा भ्रम हो जाता है कि मैं जासूसी भी करने लगा हूं.

मैं ने तुरंत पूछा, ‘‘तुम हालचाल जानने के लिए उन के घर गई थीं?’’ उस ने वर्षों पुराना घिसापिटा रिकार्ड दोहरा दिया, ‘‘घर के काम से फुर्सत नहीं मिली. बच्चे धींगामस्ती कर रहे थे. पड़ोसिन बैठने आ गई थीं.’’

मैं ने कहा, ‘‘क्या पड़ोसिन सुबह से शाम तक बैठी रही थीं. रही बात बच्चों की तो तुम्हीं बताओ, किस के घर के बच्चे धींगामस्ती नहीं करते. यह तो गनीमत है कि अपने बच्चे बाहर लड़तेझगड़ते नहीं. वरना दिनभर शिकायतों का ही तांता लगा रहता. तुम जानती नहीं, अपने पड़ोसी वर्माजी कितने परेशान रहते हैं बच्चों की कंपलेंट से.’’

चोरी और किसी के घर होती तो जाने, न जाने की बात अलग थी. गुलाटी का पारा तो इसी बात को ले कर 108 डिगरी तक पहुंच गया होगा कि न शर्माजी आए न उन की श्रीमतीजी. पिछली बार गुलाटी को फ्लू हो गया था. समाचार कुछ देर से मिला. हम दोनोें घर गए तो ठीक हो चुका था. देखते ही बरस पड़ा, ‘‘अब फुर्सत मिली है. अच्छा होने के बाद देखने आए हो. आधी कालोनी आ कर चली गई. अब कोई बहाना मत बनाना और मेरी अगली बीमारी का ध्यान रखना.’’

चोरी तो हो चुकी थी लेकिन चोरों की तरह डरतेसहमते गुलाटी के घर पहुंचा. वह 4-5 अतिथियों से घिरे बैठे थे. उन के सामने की मेज पर अखबारों का ढेर पड़ा था. रसोईघर से कुछ बनने की महक कमरे में आ रही थी. मेरी ओर देख कर भी वह बिलकुल चुप थे. नाराज हो जाने  पर यह गुलाटी की खास किस्म की आदत थी यानी जिस से नाराज हो जाओ, उस की ओर देखो जरूर लेकिन बातों का सिलसिला शुरू न करो.

गुलाटी ने पड़ोसियों को विस्तार से डकैती का हाल बताया कि किधर से डकैत आए, किधर गए होंगे, संख्या कितनी रही होगी. डकैती के अभिनय से ले कर पुलिस की भूमिका तक सरगर्म चर्चा हो गई. इतने में नाश्ता आ गया. उस का तामझाम देख कर मुझे तो ऐसा लगा नहीं कि गुलाटी के यहां चोरी हुई है. नाश्ते की सजी हुई प्लेटों और उस के चेहरे के हावभाव से लग रहा था डैकती का माल बरामद हो चुका है. उसी के उपलक्ष्य में स्वल्पाहार का आयोजन है.

पड़ोसियों ने वही किया जो ऐसे मौके पर किया जाता है. नाश्ता ठूंसते हुए प्रशासन की जम कर आलोचना हुई. गुलाटी को सांत्वना और डकैतों के पकड़े जाने का आश्वासन देते हुए वे एकएक कर विदा हो गए. हालांकि उन्हें इशारा मिल जाता तो इसी विषय पर बहस करते हुए कम से कम 1 घंटा और जम सकते थे. पड़ोसियों के जाते ही गुलाटी ने खबरों का ढेर मेरी ओर पटक दिया और कहा, ‘‘कल चोरी हुई है और आज दर्शन दे रहे हो. अच्छी दोस्ती निभाते हो.’’

अखबार पलटते हुए मैं ने कहा, ‘‘भाई, शहर के बाहर था. पहुंचते ही पत्नी ने डकैती का समाचार बताया और तुरंत यहां आया हूं. पूरा समाचार तो अभी अखबार पढ़ कर ही जान पाया.’’

‘‘देख लिया न तुम ने अखबार वालों का हाल. पूरे 2 लाख की डकैती हुई है. पूरी कालोनी में सनसनी है. आनेजाने वालों का तांता लगा है और समाचार इतना छोटा. न्यूज देख कर तो ऐसा लगता है कि जैसे 100-50 मुरगियों की चोरी का हलकाफुलका समाचार हो.’’

मैं ने कहा, ‘‘ठीक कह रहे हो यार. सारा अखबार तो पी.एम. के समाचारों और तसवीरों से भरा है. कहीं उद्घाटन है, कहीं शिलान्यास. पूरे फ्रंट पेज पर उन के भाषण, स्वागत और झलकियों की झलक है. इसी वजह से डकैती के समाचार को स्थान ठीक से नहीं मिल सका.’’

मेरी बातें सुन कर गुलाटी हां में हां मिलाते हुए बोला, ‘‘मेरे साथ यही दिक्कत है. अखबारों ने कभी मेरे साथ न्याय नहीं किया. पिछली बार जब मैं मेयर पद का उम्मीदवार बना था तो अखबारों ने सतही ढंग से लिया. मेरी उम्मीदवारी का समाचार भी नहीं बना और जब 15 पार्षदों ने मेरे पक्ष में वातावरण बनाया, हस्ताक्षर अभियान चलाया तो अखबारों में भी हरकत बढ़ी तब कहीं फोटो सहित समाचार आया,’’ इतना कह कर उस ने राहत की सांस ली और 2 लाख की डकैती के दुख को कुछ कम किया.

मैं ने झिड़कते हुए कहा, ‘‘गड़े मुर्दे उखाड़ने से क्या फायदा, अतीत को छोड़ कर अपने वर्तमान में आजा और डकैती का सार संक्षेप में बता.’’

‘‘देख लो दुर्भाग्य, डकैतों ने भी कैसा दिन चुना. दिन भर पी.एम. नगर में रहे, रात में डकैत आए. 1-2 दिन आगेपीछे आ जाते तो अपने को इतना अफसोस नहीं होता,’’ इतना कह कर उस ने आज का अखबार दिखाया.

अखबार में पुलिस दल के निरीक्षण और डाकुआें का कोई सुराग न मिलने का समाचार छपा था. मैं ने कहा, ‘‘आज के अखबार में भी डकैती को विशेष स्थान नहीं मिला. सी.एम. की खबर से अखबार भरा पड़ा है.’’

अपने घर की डकैती का समाचार तो पी.एम. और सी.एम. के दौरे के बीच दब कर दम तोड़ चुका है. पुलिस वाले भी देर से आए. 2 दिन के थकेहारे खानापूर्ति कर के चले गए. 2 पुलिस के नौसिखिए भी आए. एक तो पूछ रहा था कि डकैती का सही समय बताइए. उस की बात सुन किसी को भी गुस्सा आ सकता है. फिर भी अपने को संयत कर मैं ने कहा, ‘‘ठीक समय मालूम होता तो जान पर खेल कर पकड़ नहीं लेता डकैत को, डाकुओं के आने के लिए अलार्म लगा कर तो सोए नहीं थे. ठीक समय क्या बताएंगे. सो कर उठे तो मालूम हुआ, सुबह के 5 बज चुके थे.’’

दूसरे ने पूछा, ‘‘सुना है, कालोनी के कुछ लोगों ने डकैतों को भागते भी देखा है. क्या डकैत सशस्त्र थे?’’ मैं ने कह दिया, ‘‘यह आप उन्हीं से पूछ लीजिए, जिन्होंने देखा है. अब भला यह भी कोई पूछने की बात है कि डकैत सशस्त्र थे? सशस्त्र नहीं होंगे तो क्या चकलाबेलन ले कर रोटी बेलने आएंगे. यह हाल है अपने नए अफसरों का. फिल्मों में कामेडियन कम हो गए हैं पुलिस विभाग में ज्यादा.’’

पत्नी और बच्चे भी पहुंच चुके थे. वे लोग अंदर मिसेज गुलाटी के साथ नाश्ता करते हुए डकैतों के जाने के बाद का आंखोंदेखा हाल सुन रहे थे. बच्चों को मिस्टर गुलाटी का लड़का वह खिड़की दिखा रहा था जिधर से डकैत आए थे. मैं मिस्टर गुलाटी का साथ दे रहा था. कालोनी के अनेक परिचित अभी तक नहीं आ पाए थे. गुलाटी को इसी बात की चिंता सता रही थी. बारबार उस की नजर दरवाजे की ओर उठ जाती थी. वह स्वागत के लिए कमर कस कर बैठा था. तभी अचानक कुत्ते के भौंकने की आवाज आई. मैं ने कहा, ‘‘यार गुलाटी, तुम्हारी पामेरियन नस्ल का कुत्ता क्या कर रहा था. तेज कुत्ता है जरूर भौंका होगा डकैतों की आहट सुन कर.’’

खीजते हुए गुलाटी बोला, ‘‘पामेरियन और अल्सेशियन बस, नाम के रह गए हैं. हमारा जानी तो दिन में आनेजाने वालों को भौंकता है और रात को खर्राटे भरता है. दरअसल, विदेशी नस्ल का भी भारतीयकरण हो गया है. रात को बिलकुल ही नहीं भौंकता. मुझे तो लगता है कि यह कुत्ता डकैतों से मिला हुआ है.’’

मैं ने अपनी हंसी दबाते हुए कहा, ‘‘पुलिस के कुत्ते तो आए होंगे. उन्होंने क्या डिटेक्ट किया?’’

‘‘अरे, यार, पी.एम. और सी.एम. के दौरे में कुत्ता ज्यादा व्यस्त और सक्रिय रहा. सुना है 2-3 दिन से बीमार चल रहा है. एक पशु चिकित्सक की सतत निगरानी मेें है. उस के लिए राजधानी से इंजेक्शन आ रहे हैं.’’

मैं ने कहा, ‘‘तुम्हारी तो तकदीर ही खराब है. 2 लाख की डकैती हो गई, अभी तक पुलिस के जासूसी कुत्ते भी नहीं पहुंचे.’’

गुलाटी ने तैश में आ कर कहा, ‘‘शर्माजी, पैसा तो अपने हाथ में नाचता है. गहने और नकदी मिला कर 2 लाख के करीब गए हैं. ये तो ट्रांसफर के सीजन में फिर कमा लेंगे. मानसून के आनेजाने से मामले में धोखा हो सकता है. गरज के साथ सिर्फ छींटे पड़ सकते हैं लेकिन अपना सीजन ठीक समय में आता है. आंगन में अच्छी बारिश हो जाती है. इसलिए सवाल 2 लाख की डकैती का नहीं है. अपन तो अखबारों में ठीक कवरेज न आने से दुखी हैं.’’

ऐसे ही सही (भाग-1)

पार्किंग में अपना स्कूटर खड़ा कर के मैं इमरजेंसी वार्ड की तरफ बढ़ा. काफी पूछने पर पता चला कि जिस व्यक्ति को मैं ने यहां भरती कराया था वह अब आई.सी.यू. में है. रात को हालत ज्यादा बिगड़ जाने के कारण उसे वहां शिफ्ट कर दिया गया था. आई.सी.यू. चौथी मंजिल पर था. मैं लिफ्ट का इंतजार करने के बजाय तेजी से सीढि़यां चढ़ता हुआ वहां पहुंचा.

थोड़ा सा ढूंढ़ने पर मैं ने उन की पत्नी को एक कोने में मायूस गुमसुम बैठे देखा. मैं तेजी से उन के पास गया और उन का हाल पूछा. वह पहले तो मुझे अजनबियों की तरह देखती रहीं फिर याद आने पर मेरे साथ उठ कर एक तरफ आ कर फूटफूट कर रोने लगीं.

‘‘क्या हुआ. सब ठीक तो है न?’’ मैं थोड़ा चिंतित हो गया.

‘‘कुछ भी ठीक नहीं है. आप के जाने के बाद कई डाक्टर आए. कई टैस्ट किए फिर भी कमर से नीचे के हिस्से में कोई हरकत नहीं हो रही है. उन्हें रात को ही यहां शिफ्ट कर दिया गया था. बस, तब से यहीं बैठी हूं. क्या करूं…एकदम नया शहर और आते ही यह हादसा,’’  कह कर वह पुन: साड़ी का पल्लू मुंह में दबाए सिसकने लगीं. मेरी समझ में नहीं आ रहा था, मैं क्या कहूं.

सब से पहले मैं ने कैंटीन से चाय और बिस्कुट ला कर उन्हें दिए. लग रहा था जैसे रात से उन्होंने कुछ खाया नहीं है. उन के पास ही उन की 10 साल की बेटी बैठी हुई थी, जो थोड़ीथोड़ी देर में सहमे हुए मां का हाथ पकड़ लेती थी. उन के पास कुछ देर बैठ कर मैं डाक्टर से मिलने चला गया.

डाक्टर से पता चला कि उन की स्पाइनल कौर्ड में कोई गहरी चोट आई है जिस के कारण यह हादसा हुआ है. यह भी कह पाना मुश्किल है कि वह कब तक ठीक हो पाएंगे और ठीक भी हो पाएंगे या नहीं.

‘‘तो क्या यह उम्र भर यों ही पड़े रहेंगे,’’ मैं ने बेचैनी से पूछा.

‘‘अभी कुछ भी कहना संभव नहीं,’’ डाक्टर बोला, ‘‘कुछ विशेषज्ञ बुलाए हैं…शायद वे कुछ सलाह दे सकें.’’

‘‘तो आप उन्हें कब तक यहां आई.सी.यू. में रखेंगे?’’

‘‘ज्यादा से ज्यादा 3 दिन,’’ कह कर डाक्टर वहां से चला गया.

एक बीमा एजेंट होने के नाते उन की बीमारी के प्रति जानकारी रखना मेरे लिए स्वाभाविक बात थी. और तब ज्यादा जब सबकुछ मेरी आंखों के सामने हुआ.

कल दोपहर को आफिस जाते समय अचानक स्पीड ब्रेकर सामने आ गया तो मुझे तेजी से ब्रेक लगाने पड़े, क्योंकि स्पीड ब्रेकर ठीक से नहीं बना था. इतने में देखा कि एक तेज गति से आती वैन उस स्पीड ब्रेकर से टकराई और चलाने वाला व्यक्ति उछल कर बाहर जा गिरा. वैन सामने पेड़ से टकरा गई. यह हादसा मुझ से कुछ ही दूरी पर हुआ था.

मैं ने वहां जा कर उस व्यक्ति को  देखा जो मूर्च्छितावस्था में एक तरफ पड़ा हुआ था. मैं ने कुछ लोगों की सहायता से उसे एक आटोरिकशा में लिटाया और पास ही एक नर्सिंग होम में ले गया. उस व्यक्ति के सिर पर गहरी चोट का निशान था.

वहां मौजूद डाक्टरों को मैं ने पूरी घटना का विवरण दिया और उसे लिटा दिया. उस की जेब से एक परिचयपत्र निकला जिस पर उस के आफिस का पता और फोन नंबर लिखा था. पता चला कि वह एक सरकारी संस्थान में डिप्टी डायरेक्टर है और उस का नाम विनोद शर्मा है.

मैं ने उस संस्थान से उन के घर का फोन नंबर लिया और उन की पत्नी को इस हादसे के बारे में बताया. थोड़ी ही देर में वह वहां आ गईं. उन को सबकुछ बताने के बाद मैं ने उन से इजाजत मांगी. वह मन भर कर बोलीं, ‘‘मैं आप की बहुत शुक्रगुजार हूं कि आप ने इन्हें यहां तक पहुंचा दिया, वरना आज के व्यस्त जीवन में कौन ऐसा करता है.’’

‘‘अरे, यह तो मेरा फर्ज था. बस, यह ठीक हो जाएं तो समझूंगा कि मेरा लाना सफल हुआ.’’

‘‘एक मेहरबानी और कर दीजिए,’’ वह कहने लगीं, इन की गाड़ी किसी तरह घर पहुंचा दीजिए…जो भी खर्च आएगा, मैं दे दूंगी.’’

‘‘ठीक है, मैम, अभी तो देखना होगा कि वह चलने लायक है या नहीं,’’ कह कर मैं ने अपने एक परिचित को वर्कशाप में फोन कर के गाड़ी को वहां से निकालने का इंतजाम किया. बीमा एजेंट होने के नाते यह सब काम करना, करवाना मैं अच्छी तरह जानता था.

इस सारी प्रक्रिया से निबट कर मैं जब घर पहुंचा तो 8 बज चुके थे. संगीता ने दरवाजा खोलते ही अपने चिरपरिचित स्वर में मुंह बना कर कहा, ‘‘तो आज क्या बहाना है देर से आने का?’’

इतना सुनना था कि मेरा मन  कसैला हो गया. उस का यह स्वभाव और व्यवहार सर्पदंश की तरह मुझे हर बार डंस जाता. मेरे विवाह को 4 साल हो चुके थे और इन 4 सालों में मैं ने कभी उस के मुंह से फूल झड़ते नहीं देखे. हमेशा किसी न किसी बात को ले कर वह ताने देती रहती थी.

शुरुआत में मैं ने बड़ी कोशिश की कि उस के पास बैठ कर कोई प्यार की बात कर सकूं. मगर हर बात मायके से शुरू हो कर मायके पर ही खत्म होती. बातों को तूल न देने के लिए मैं खामोश हो जाता और इस खामोशी का उस ने भरपूर फायदा उठाया.

हद तो तब हो गई जब मेरी सास और साली ने मुझ पर संगीता को खुश रखने का दबाव बनाना शुरू कर दिया. उसे अच्छे कपडे़े, जेवर और घुमानेफिराने, घर जल्दी लौटने का सिलसिलेवार क्रम भी उन्होंने ही तय कर दिया. मैं हर बात का जवाब देना जानता था पर मर्यादाओं में रह कर और वह अमर्यादित हो चुकी थी.

‘‘यह बात तो तुम प्यार से भी पूछ सकती हो. पर मेरे किसी उत्तर से तुम संतुष्ट तो होगी नहीं इसलिए कोई बहाना नहीं बनाऊंगा,’’ मैं ने मेज पर अपना बैग रखते हुए बड़ी नरमी से कहा.

‘‘5 बजे तुम्हारा आफिस बंद हो जाता है और 7 बजे से पहले तुम कभी आते नहीं हो. सुबह भी 8 बजे चले जाते हो. तुम से तो मजदूर अच्छे होते हैं जिन का कोई समय तो होता है.’’

‘‘तो फिर किसी मजदूर से ही शादी कर लेतीं. वह तुम्हारे घर वालों के इशारों पर नाचता और समय पर आ भी जाता. तुम्हें अच्छी तरह मेरे काम और व्यक्तिगत संपर्क के बारे में पता है.’’

‘‘पता नहीं तुम्हारी कौन सी बात से प्रभावित हो कर पापा ने शादी के लिए हां कर दी. आज इस घर में जो कुछ भी है, पापा का दिया हुआ है वरना तुम तो उन के सामने खड़े भी नहीं हो सकते.’’

‘‘जानता हूं…तभी तो तुम्हारी मां से सारा दिन ताने और आदेश सुनने पड़ते हैं. सभी कुछ तो हमारे घर पर था. कमी किस बात की थी. तुम्हीं ने जिद कर के मुझे अलग कर दिया था. सुखसुविधाओं को जुटा लेने से भी कहीं गृहस्थी चलती है. पहले पति से नहीं बनी तो मेरे पल्ले बांध दिया…और यह बात भी हम से छिपा ली. तुम ने अलग किया है तो घरगृहस्थी के सामान की व्यवस्था भी तुम करोगी. मैं ने तो पहले ही कह दिया कि…’’

‘‘मेरे पास तो कुछ भी नहीं है. यही न. कौन से मांबाप अपनी बच्ची को ऐसी हालत में देख सकते हैं. तुम्हारे मांबाप ने क्या किया,’’ वह बात काट कर तेज आवाज में बोली.

‘‘उन्होंने अपने इकलौते बेटे की जुदाई का गम सहन किया…’’ कहतेकहते मेरी आंखें भर आईं और मैं बिना कोई बात किए दूसरे कमरे में चला गया. मेरा मौन हमेशा कह देता कि शादी की कीमत चुका रहा हूं.

हमारी रातें यों ही करवटें बदलते निकल जातीं और सुबह बिना किसी बात के…मैं ने मन ही मन यह फैसला किया कि टकराव की स्थिति पैदा न होने देने के लिए कम से कम घर पर रहूं.

एक दिन उत्सुकतावश मैं ने शर्माजी को फोन किया. पता चला कि उन की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ है. अब उन्हें एक बडे़ प्राइवेट नर्सिंग होम में शिफ्ट कर दिया गया है जहां पर ज्यादा सुविधाएं थीं. देश के कई बडे़ डाक्टर उन्होंने अपनी जांच के लिए बुलवाए पर कोई फायदा नहीं हुआ. मैं उसी समय उन के नर्सिंग होम में पहुंचा. उन की हालत देख कर मन कसैला सा हो उठा.

उन की कमर से नीचे का हिस्सा निष्क्रिय हो चुका था. पेशाब की थैली लगी हुई थी. उन की पत्नी सपना भी ऐसी स्थिति में नहीं थीं कि उन से कोई बात की जा सके. जिसे सारी उम्र पति की ऐसी हालत का सामना करना हो, भीतरबाहर के सारे काम उन्हें स्वयं करने हों, इन सब से बदतर पति को खींच कर उठाना, मलमूत्र साफ करना, शेव और ब्रश के लिए सबकुछ बिस्तर पर ही देना और गंदगी को साफ करना हो, उस की हालत क्या होगी.

मैं उन के पास जा कर बैठ गया. चेहरे पर गहन उदासी छाई हुई थी. मुझे देखते हुए बोले, ‘‘आप यदि उस दिन न होते तो शायद मेरी जिंदगी भी बदतर हालत में होती.’’

‘‘नहीं सर. मैं तो सामने से गुजर रहा था…और मैं ने जो कुछ भी किया बस, मानवता के नाते किया है.’’

‘‘ऐसी जिंदगी भी किस काम की जो ताउम्र मोहताज बन कर काटनी पडे़. मैं तो अब किसी काम का नहीं रहा,’’ कहतेकहते वह रोने लगे तो उन की पत्नी आ कर उन के पास बैठ गईं.

माहौल को हलका करने के लिए मैं ने पूछा, ‘‘आप लोगों के लिए चायनाश्ता आदि ला दूं क्या?’’

सपना पति की तरफ देख कर बोलीं, ‘‘जब इन्होंने खाना नहीं खाया तो मैं कैसे मुंह लगा सकती हूं.’’

‘‘ये दकियानूसी बातें छोड़ो. जो होना था वह हो चुका. पी लो. सुबह से कुछ खाया भी तो नहीं,’’ वह बोले.

‘‘तो फिर मैं ला देता हूं,’’ कह कर मैं चला गया. उन के अलावा 1-2 और भी व्यक्ति वहां बैठे थे. थोड़ी देर में जब मैं वहां चाय ले कर पहुंचा तो वे सब धीरेधीरे सुबक रहे थे.

मैं ने थर्मस से सब के लिए चाय डाली और वितरित की. मैं ने शर्माजी को चाय देते हुए कहा, ‘‘आप को कोई परहेज तो बताया होगा.’’

‘‘कुछ भी नहीं. आधे शरीर के अलावा सबकुछ ठीक है. बस, इतना हलका खाना है कि पेट साफ रहे,’’ फिर पत्नी की तरफ देख कर कहने लगे, ‘‘इन को चाय के पैसे तो दे दो…पहले भी न जाने कितना…’’

‘‘क्यों शर्मिंदा करते हैं, सर. यह कोई इतनी बड़ी रकम तो है नहीं.’’

बातोंबातों में मैं ने अपना संक्षिप्त परिचय दिया और उन्होंने अपना. पता चला कि वह एक प्रतिष्ठित सरकारी संस्थान में ऊंचे ओहदे पर हैं. कुछ माह पहले ही उन का तबादला इस शहर में हुआ था. मूल रूप से वह लखनऊ के रहने वाले हैं.

‘‘अब क्या करेंगे आप? वापस घर जाएंगे?’’ मैं ने पूछा.

‘‘मैं वापस जा कर किसी के तरस का पात्र नहीं बनना चाहता. रिश्तेदारनातेदार और दोस्तों के पास रहने से तो अच्छा है कि यहीं पूरी जिंदगी काट दूं. नियमानुसार मैं विकलांग घोषित कर दिया जाऊंगा और सरकार मुझे नौकरी से रिटायर कर देगी.’’

‘‘पर पेंशन तो मिलेगी न?’’ मैं ने पूछा.

‘‘वह तो मिलेगी ही. मैं तो सपना से भी कह रहा था कि अब उसे कोई नौकरी कर लेनी चाहिए.’’

‘‘आप को यों अकेला छोड़ कर,’’ वह रोंआसी सी हो कर बोलीं, ‘‘जो ठीक से करवट भी नहीं बदल सकता है. हमेशा ही जिसे सहारे की जरूरत हो.’’

‘‘तो क्या तुम सारी उम्र मेरे साथ गांधारी की तरह पास बैठेबैठे गुजार दोगी. यहां रहोगी तो मुझे लाचार देखतेदेखते परेशान होगी. कहीं काम पर जाने लगोगी तो मन बहल जाएगा,’’ कह कर वह मेरी तरफ देखने लगे.

मैं वहां से जाने को हुआ तो शर्माजी बोले, ‘‘अच्छा, आते रहिएगा. मेरा मन भी बहल जाएगा.’’

दिन बीतते गए. इसी बीच मेरे संबंध अपनी पत्नी संगीता के साथ बद से बदतर होते चले गए. मैं लाख कोशिश करता कि उस से कोई बात न करूं पर उसे तो जैसे मेरी हर बात पर एतराज था. उस की मां की दखलंदाजी ने उसे और भी निर्भीक और बेबाक बना दिया था. मैं इतना सामर्थ्यवान भी नहीं था कि उस की हर इच्छा पूरी कर सकूं. यह मेरा एक ऐसा दर्द था जो किसी से बांटा भी नहीं जा सकता था.

एक दिन हमारे बडे़ साहब अपने परिवार के साथ छुट्टियां मनाने मलयेशिया जाना चाहते थे. उन्होंने मुझे बुला कर पासपोर्ट बनवाने का काम सौंप दिया. मैं ने एम.जी. रोड पर एक एजेंट से बात की, जो ऐसे काम करवाता था. उस एजेंट ने बताया कि यदि मैं किसी राजपत्रित अधिकारी से फार्म साइन करवा दूं तो यह पासपोर्ट जल्दी बन सकता है. अचानक मुझे शर्माजी का ध्यान आया और मैं सारे फार्म ले कर उन के घर गया और अपनी समस्या रखी.

‘‘मैं तो अब रिटायर हो चुका हूं. इसलिए फार्म पर साइन नहीं कर सकता,’’ उन्होंने अपनी मजबूरी जतला दी.

-क्रमश:

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