फिल्म रिव्यू फेयर इन लव: अच्छी कहानी पर बेजान फिल्म

रेटिंगः एक

निर्माताः आशुतोष मिश्रा

निर्देकः ए. के. मिश्रा

कलाकारः फिरोज खान, कनुप्रिया र्मा, डौली आर्या, श्विन धीर, रूनव शा

अवधिः एक घंटा, 59 मिनट

ए. के. मिश्रा ने कुछ साल पहले बांझपन और बलात्कार पर ज्वलंत सामाजिक मुद्दे पर एक नारी प्रधान उपन्यास ‘‘अल्पना’’ लिखा था. जिसे काफी सराहा गया था. उसी उपन्यास पर अब वह फिल्म ‘‘फेयर इन लव’’ लेकर आए हैं. मगर साहित्यिक कृति का फिल्मीकरण करते समय विषय के साथ साथ फिल्म का भी बंटाधार कर दिया गया है.

कहानीः

फिल्म की कहानी उत्तर प्रदेश के महिला कल्याण मंत्री की बेटी अल्पना (कनुप्रिया शर्मा) की है, जिसके लिए अपने आत्मसम्मान से बढ़कर कुछ भी नहीं है. अल्पना नक्सलवादी संगठन के प्रमुख के बेटे देव (फिरोज खान) से प्रेम विवाह कर लेती है. देव और यश( अश्विन धीर) बचपन के दोस्त हैं. साथ में पढ़े हैं और आज भी दोस्ती बरकरार है. यश अपनी प्रेमिका लीजा (डौली शाह) से शादी करते हैं. अब देव, अल्पना, यश और लीजा के बीच अपनापन है. पर देव के बच्चा पैदा करने में असमर्थता के चलते शादी के ग्यारह साल बाद भी अल्पना बांझ है. उसे ताने दिए जाते हैं. अल्पना व देव के बीच इतना प्यार है कि अल्पना चाहकर भी घर नहीं छोड़ना चाहती.

एक दिन देव के पिता यश को बुलाकर कह देते हैं कि यदि अल्पना मां नही बनी, तो वह उसकी हत्या कर देंगे. तब यश और लीजा मिलकर एक निर्णय लेते हैं, जिससे देव और अल्पना की पारिवारिक जिंदगी बर्बाद न हो. उसके बाद जब एक माह के लिए देव सिंगापुर जाते हैं, तभी एक रात यश चोरों की तरह अल्पना के घर में घुसकर उसे बेहोश कर उसका बलात्कार कर देते हैं. जब सुबह अल्पना होश में आती है, तो उस अपने साथ हुई घटना के लिए क्रोध आता है. वह देव को फोन पर सच बताना चाहती है, पर उसकी सहेली नियति उसे ऐसा करने से मना कर देती है. जिसके बाद अल्पना एक बेटे की मां बन जाती है.

बलात्कारी ने उसकी पारिवारिक जिंदगी को बचाने व उसे मां बनाने के लिए ही उसका बलात्कार किया था. लेकिन अल्पना का जमीर उसे ललकारता रहता है और वह अपने तरीके से पता लगाने की कोशिश करती है कि उसके साथ बलात्कार किसने किया. सच सामने आता है और अंततः यश की भी मौत हो जाती है. मगर तीन साल तक अल्पना अपने बेटे को अपना नही पाती.

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लेखन व निर्देनः

फिल्म के कुछ अच्छे संवादों को यदि दरकिनार कर दिया जाए, तो इसकी पटकथा में खामियां ही खामियां हैं. एक बेहतरीन कथा को बहुत ही घटिया अंदाज में पेश किया गया है. जहां तक निर्देशन का सवाल है, तो फिल्म देखकर लगता है कि यह किसी नौसीखिए ने अपने हाथ की सफाई की है. बतौर निर्देशक किरदार के अनुरूप सही कलाकारों का चयन नहीं किया गया है. फिल्म के एडिटर ने भी अपनी कमजोरियों के चलते फिल्म का बंटाधार करने में कोई कसर नही छोड़ी. विषयवस्तु को देखते हुए फिल्म का नाम भी गलत है. फिल्म सिर्फ बोर करती है. लेखक व निर्देशक की अपनी कमियों के चलते फिल्म जिस मुद्दे पर बनायी गयी है. वह मुद्दा उभर कर आता ही नही है. फिल्म के सभी गाने जबरन ठूंसे हुए नजर आते हैं.

एक्टिंग

अल्पना के किरदार में कनुप्रिया शर्मा पूरी फिल्म में सिर्फ आंसू बहाते ही नजर आती हैं. कनुप्रिया शर्मा की प्रतिभा को पूरी तरह से जाया किया गया है. डौली आर्या प्रभावित नही कर पाती. फिरोज खान व अश्विन धीर का चयन गलत है. वह अपने अभिनय से निराश ही करते हैं.

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