Social Inequality: पूरन कुमार की मौत: ऊंचे ओहदे पर भारी जाति के सवाल

Social Inequality, लेखक – शकील प्रेम

एससी तबके को सताने की खबरें आएदिन अखबारों में छपती रहती हैं. कहीं दूल्हे को घोड़ी पर नहीं चढ़ने दिया जाता है, तो कहीं किसी एससी को बेरहमी से पीटा जाता है. यह आम एससी समाज के हालात हैं.

कहते हैं कि आम और खास में फर्क होता है, लेकिन दुख तो इस बात का है कि इस तबके को सताने के मामले में आम और खास में कोई फर्क नहीं दिखता. एससी अगर आईपीएस अफसर भी बन जाए, तो वहां भी उस का शोषण होता है. एससी अगर राष्ट्रपति भी हो तो भी दबाया जाता है. सेना, पुलिस, यूनिवर्सिटी या देश का कोई भी इंस्टिट्यूटशन हो, हर जगह एससी तबके के साथ भेदभाव और शोषण होता ही है. बस, सताने के तरीके बदल जाते हैं.

7 अक्तूबर, 2025 को हरियाणा के सीनियर आईपीएस अफसर वाई. पूरन कुमार ने चंडीगढ़ के सैक्टर 11 के अपने सरकारी आवास के बेसमैंट में अपनी सर्विस रिवौल्वर से खुद को गोली मार कर खुदकुशी कर ली थी.

वाई. पूरन कुमार 2001 बैच के एडीजीपी रैंक के अफसर थे. 8 पन्नों के सुसाइड नोट में उन्होंने 8 आईपीएस और 2 आईएएस अफसरों के नाम लिए थे. इस नोट के मुताबिक इन तमाम बड़े अफसरों ने उन्हें लगातार सताया था.

सुसाइड नोट में वाई. पूरन कुमार ने कैरियर में भेदभाव और अपने सीनियरों के द्वारा जातिवादी बरताव का जिक्र किया था. उन की पत्नी आईएएस अमनीत पी. कुमार ने भी अपनी शिकायत में कहा था कि उन के पति की खुदकुशी ‘सिस्टमैटिक उत्पीड़न’ का नतीजा है.

वाई. पूरन कुमार की खुदकुशी से 24 घंटे पहले उन के गनमैन हैड कांस्टेबल सुशील कुमार को रोहतक में शराब कारोबारी से ढाई लाख रुपए रिश्वत लेने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. पूछताछ में गनमैन ने
वाई. पूरन कुमार का नाम लिया था.

गनमैन सुशील कुमार के इसी बयान के आधार पर एफआईआर दर्ज हुई.

वाई. पूरन कुमार की पत्नी अमनीत पी. कुमार ने इस एफआईआर को एक साजिश बताया और उन्होंने कहा, ‘पूरन कुमार पहले से ही सिस्टम के खिलाफ आवाज उठाते रहे थे. उन्होंने कोर्ट में कई याचिकाएं और शिकायतें लगाई हुई थीं, जिस से वे बड़े अफसरों के लिए मुसीबत बने हुए थे, इसलिए उन्हें रिश्वतखोरी की झूठी साजिश में फंसाया गया.’

वाई. पूरन कुमार ने अपने सुसाइड नोट में आला अफसरों पर जो गंभीर आरोप लगाए हैं, वे बेहद चिंताजनक हैं. एससी समाज के अफसरों को प्रशासनिक तौर पर किस तरह का उत्पीड़न झेलना पड़ता है, वाई. पूरन कुमार इस बात का उदाहरण हैं.

वाई. पूरन कुमार की खुदकुशी के कुछ ही दिनों के अंदर रोहतक में हरियाणा पुलिस के एएसआई संदीप कुमार लाठर ने सर्विस रिवौल्वर से खुद को गोली मार कर खुदकुशी कर ली. संदीप कुमार ने 6 मिनट का वीडियो और 4 पन्नों का सुसाइड नोट छोड़ा. इन में उन्होंने वाई. पूरन कुमार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए. इस घटना से एडीजीपी वाई. पूरन कुमार की खुदकुशी का मामला और पेचीदा हो गया है.

एससी समाज से निकले आईपीएस वाई. पूरन कुमार भ्रष्टाचार में शामिल थे या नहीं यह तो जांच के बाद ही पता चल पाएगा, पर अगर वे भ्रष्ट अफसर थे तो भी उन के साथ हुए जातीय भेदभाव से इनकार नहीं किया जा सकता.

अगर वाई. पूरन कुमार जैसे बड़े सरकारी अफसर ही जातिवाद की सोच का शिकार हो सकते हैं, तो निचले लैवल पर एससी मुलाजिमों के हालात का अंदाजा लगाना भी मुश्किल है. एससी तबके को कार्पोरेट सैक्टर में भी कोई राहत नहीं है. वहां भी हर लैवल पर भेदभाव होता है.

विवेक राज जो बैंगलुरु में एक कार्पोरेट अफसर थे. वे लाइफस्टाइल इंटरनैशनल प्राइवेट लिमिटेड में पोस्टेड थे. विवेक राज को उन के अपर कास्ट सीनियरों द्वारा इतना उत्पीड़न झेलना पड़ा कि उन्होंने साल 2023 में खुदकुशी कर ली थी. पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज की गई थी, लेकिन कोई गिरफ्तारी नहीं हुई.

पिछले 10 सालों में आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थानों में 20 से ज्यादा एससी छात्रों ने जातिवाद के चलते खुदखुशी की. वैसे भी एससी छात्रों के साथ जाति आधारित भेदभाव तो प्राथमिक कक्षाओं से शुरू हो जाता है. यही वजह है कि देश की बड़ी यूनिवर्सिटियों तक एससी तबके के छात्रों का पहुंचना भी मुश्किल होता है.

एससी तबके के छात्रों का प्राइमरी लैवल से ऊंची पढ़ाई तक पहुंचने का फीसदी काफी कम है. ताजा आंकड़ों के मुताबिक, 2023-24 में एससी छात्रों का ग्रौस इनरोलमैंट रेशियो प्राइमरी लैवल (कक्षा 1-5) पर 96.8 फीसदी, सैकंडरी लैवल (कक्षा 9-10) पर 80.6 फीसदी और हायर सैकंडरी लैवल (कक्षा
11-12) पर 57.9 फीसदी है. इस के बाद ऊंची पढ़ाईलिखाई (18-23 साल) में एससी छात्रों का ग्रौस इनरोलमैंट रेशियो महज 25.9 फीसदी है.

इस का मतलब है कि प्राइमरी लैवल से शुरू करने वाले एससी छात्रों में से तकरीबन 26 फीसदी ही देश की बड़ी यूनिवर्सिटियों या उच्च शिक्षा संस्थानों तक पहुंच पाते हैं, जबकि बाकी स्टूडैंट्स इस से आगे नहीं बढ़ पाते.

देश के टौप संस्थानों जैसे आईआईटी या आईआईएम में पहुंचने वाले स्टूडैंट्स का फीसदी तो 0.1 फीसदी से भी कम है, क्योंकि इन टौप की यूनिवर्सिटियों में सीटें सीमित होती हैं और रिजर्वेशन के बावजूद कंपीटिशन ज्यादा होता है.

इतनी जद्दोजेहद के बाद कुछ छात्र इन यूनिवर्सिटियों तक पहुंच भी गए तो उन्हें हर कदम पर जातिवाद झेलना पड़ता है या उन की संस्थागत हत्याएं कर दी जाती हैं. साल 2016 में रोहित वेमुला और साल 2023 में दर्शन सोलंकी इस बात के उदाहरण हैं.

घोड़ी चढ़ने का हक नहीं

गुजरात के सांदीपाडा गांव में आकाश कोटडिया नाम के एससी नौजवान की शादी थी. गांव के ही कुछ ऊंची जाति के लोगों ने आकाश को शादी के दौरान घोड़ी पर चढ़ने से मना कर दिया. मामला इतना बढ़ा कि पुलिस को अतिरिक्त बल बुलाना पड़ा.

हालांकि, यह मामला फरवरी, 2020 का है, लेकिन इस मामले में खास बात यह है कि आकाश आर्मी का जवान था और जम्मूकश्मीर में तैनात था. वह कुछ दिन पहले छुट्टी ले कर शादी के लिए गांव आया था.

16 दिसंबर, 2024 को उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में एक दलित पुलिस कांस्टेबल के बेटे नंदराम सिंह की बरात के दौरान ऊपरी जाति के तकरीबन 40 लोगों ने हमला किया. उन्होंने दूल्हे को घोड़ी से जबरन उतार दिया. जातिवादी गालियां दीं. डीजे सिस्टम तोड़ा. औरतों से छेड़छाड़ की और बरातियों पर पथराव किया. इस मामले में पुलिस ने एफआईआर दर्ज की और 5 लोगों को गिरफ्तार किया.

फरवरी, 2022 को मध्य प्रदेश के छतरपुर में 24 साल के दलित पुलिस कांस्टेबल दयाचंद अहिरवार की बरात में ऊपरी जातियों ने जम कर हंगामा किया और दूल्हे को घोड़ी से उतार दिया. अगले दिन प्रशासन ने भारी पुलिस सुरक्षा में उन्हें घोड़ी पर चढ़ाया.

इन तीनों मामलों में दूल्हे आर्मी या पुलिस में थे, इसलिए इन तीनों मामलों में पुलिस ने सक्रिय भूमिका निभाई और मामला सुर्खियों में आया. आम एससी तबके के ऐसे अनेक मामले तो खबरों में ही नहीं आ पाते या इन मामलों में कोई मुकदमा ही दर्ज नहीं होता.

इन वारदात को रोकने के लिए कई जिलों में ‘समानता समितियां’ बनाई गई हैं और एससी दूल्हों को पुलिस सुरक्षा दी जाती है फिर भी हर साल दर्जनों ऐसे मामले दर्ज किए जाते हैं.

संविधान के अनुच्छेद 17 में अस्पृश्यता को गैरकानूनी घोषित किया गया है, लेकिन एनसीआरबी डाटा के मुताबिक हर 20 मिनट में एससी तबके के खिलाफ ऐसे अपराध दर्ज होते हैं.

राष्ट्रपति होते हुए जातीय भेदभाव

रामनाथ कोविंद, जो 2017 से साल 2022 तक भारत के 14वें राष्ट्रपति रहे, केआर नारायणन के बाद वे भारत के दूसरे ऐसे राष्ट्रपति थे जो एससी तबके से आते थे. वे भाजपा द्वारा समर्थित राष्ट्रपति थे. यही वजह थी कि रामनाथ कोविंद की नियुक्ति को भाजपा ने ‘दलित उत्थान’ के प्रतीक के रूप में पेश किया था.

साल 2018 में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद जगन्नाथ पुरी मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश करना चाहते थे, लेकिन मंदिर के पुजारियों ने उन्हें रोक दिया था. मंदिर के परंपरागत नियमों के अनुसार गैरहिंदू या निचली जाति के लोगों को गर्भगृह में जाने की इजाजत नहीं है.

इसी तरह वर्तमान राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, जो संथाल जनजाति से आती हैं, भारत की पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति हैं, जो 2022 में राष्ट्रपति चुनी गईं.

जून, 2023 में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने दिल्ली के श्री जगन्नाथ मंदिर में पूजा की. एक तसवीर वायरल हुई, जिस में वे मंदिर के गर्भगृह के बाहर पूजा करती दिखीं, जबकि केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव और धर्मेंद्र प्रधान गर्भगृह के अंदर पूजा करते दिखे. आदिवासी होने के कारण उन्हें गर्भगृह में प्रवेश नहीं दिया गया.

हालांकि, विवाद बढ़ने पर मंदिर के पुजारियों ने साफ किया कि राष्ट्रपति के साथ कोई भेदभाव नहीं हुआ, बल्कि उन्होंने ऐसा करते हुए सामान्य प्रोटोकौल का पालन किया.

सितंबर, 2023 में नए संसद भवन का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया. इस दौरान राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को न्योता ही नहीं दिया गया, जबकि देश का राष्ट्रपति संसद के दोनों सदनों का सर्वोच्च प्रतिनिधि होता है. इस हिसाब से नए बने संसद का उद्घाटन राष्ट्रपति को ही करना चाहिए.

तमिलनाडु के मंत्री उदयनिधि स्टालिन ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के साथ हुए इस भेदभाव को ‘सनातन धर्म आधारित जातीय भेदभाव’ कहा और दावा किया कि आदिवासी महिला होने के चलते उन्हें इस समारोह से दूर रखा गया.

इस राष्ट्रपति के साथ जातीय भेदभाव

केआर नारायणन भारत के 10वें राष्ट्रपति (1997से 2002) थे, जो एससी बैकग्राउंड से आए थे. वे केरल के उ झावूर गांव में एक अछूत परिवार में जनमे थे. उन की पूरी जिंदगी भारत की जाति व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष की मिसाल है. उन्होंने प्राइमरी ऐजूकेशन से ले कर हायर ऐजूकेशन और फिर लैक्चरर की नौकरी तक में सताया जाना और भेदभाव झेला और राष्ट्रपति बनने के बाद भी वे जातीय तानों का शिकार बने रहे.

साल 1943 में ट्रावणकोर यूनिवर्सिटी (अब केरल यूनिवर्सिटी) से एमए करने के बाद केआर नारायणन को उन की जाति के चलते लैक्चरर की नौकरी से निकाल दिया गया था. डिगरी समारोह में भी उन्हें बेइज्जत किया गया था. अपने आत्मसम्मान के लिए उन्होंने डिगरी लेने से ही इनकार कर दिया था.

बाद में, राष्ट्रपति बनने पर केआर नारारणयन उसी यूनिवर्सिटी में लौटे और अपने भाषण में उन्होंने कहा था, ‘‘मैं उन जातिवादियों को यहां नहीं देख पा रहा हूं, जिन्होंने मु झे अछूत होने के चलते नौकरी से निकाल दिया था.’’

साल 1948 में लंदन स्कूल औफ इकोनौमिक्स से अपनी पढ़ाई पूरी कर के केआर नारायणन आईएफएस के लिए चुने गए थे, लेकिन यहां भी वे सताए जाने का शिकार हुए थे. भारतीय विदेश सेवा (आईएफएस) में प्रवेश के लिए उन्हें ऊपरी जातियों के अफसरों का विरोध झेलना पड़ा था. तब डाक्टर बीआर अंबेडकर की मदद से वे आईएफएस में शामिल हुए.

साल 1997 में भारत के 10वें राष्ट्रपति के चुनाव में केआर नारायणन को 95 फीसदी वोट मिले थे, लेकिन तब उन पर आरोप लगे थे कि उन का चुनाव एससी कोटे के चलते हुआ न कि उन की काबिलीयत से. एक विदेशी यात्रा के दौरान उन्हें जहर देने की साजिश रची गई थी. इस साजिश के लिए दक्षिणपंथी ताकतों की भूमिका नजर आई थी.

गुजरात दंगों को रोकने के लिए राष्ट्रपति केआर नारायणन ने प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से सेना भेजने की मांग की थी, लेकिन उन की बात पर कोई कार्रवाई नहीं हुई थी. यही वजह थी कि साल 2002 में दूसरे कार्यकाल के लिए उन का नाम प्रस्तावित हुआ, लेकिन भाजपा ने उन्हें दोबारा राष्ट्रपति नहीं बनने दिया था. केआर नारायणन ने बाद में इसे साजिश बताया था.

ओहदे पर जाति भारी

एससीएसटी तबका सदियों से अछूत रहा है. भारत के गांव अछूतों के लिए यातना केंद्र रहे हैं. यही वजह थी कि डाक्टर भीमराव अंबेडकर ने अछूतों को शहरों में बस जाने पर जोर दिया. शहरों में बस जाने से अछूतपन खत्म नहीं होता, लेकिन गांवों की बजाय रोजगार के मौके ज्यादा थे.

आजादी के बाद एससी तबके ने बड़ी तादात में शहरों की ओर पलायन किया. राहत जरूर मिली, लेकिन शहरों में भी सताया जाना खत्म नहीं हुआ.

लोकतांत्रिक नियमों के मुताबिक पढ़ाईलिखाई के दरवाजे सब के लिए खुले थे, लेकिन अछूतों के लिए सामाजिक नियम इतने कठोर थे कि उन के लिए स्कूल तक पहुंचना आसान नहीं था. गांव हो या शहर एससी तबके की पढ़ाईलिखाई के मामले में दोनों जगह जातिवादी सोच कायम रही.

इस सब के बावजूद एससी तबके के लोग ऊंची तालीम की दहलीज तक पहुंचे और सिस्टम का हिस्सा बने, लेकिन उन्हें सताए जाने का दर्द भी झेलना पड़ा.

आज भी एससीएसटी तबके के लिए मुश्किलें कम नहीं हुई हैं. शुरुआती पढ़ाईलिखाई तक पहुंच आसान हुई है, लेकिन इस से आगे का रास्ता बेहद मुश्किल है. इन मुश्किल रास्तों पर चलते हुए कुछ लोग सिस्टम का हिस्सा बन भी रहे हैं, तो वहां भी जातिवाद उन का पीछा नहीं छोड़ रहा है. सब से बड़ा सवाल यह है कि क्या इस जातिवाद को खत्म करने का कोई समाधान है?

समाधान यही है की एससीएसटी तबके को पढ़ाईलिखाई की अहमियत को सम झना होगा. प्राइमरी लैवल की पढ़ाईलिखाई में 97 फीसदी एससी बच्चे पहुंच रहे हैं, लेकिन ऊंची पढ़ाईलिखाई में यही रेशियो महज 26 फीसदी रह जाता है.

एससी तबके को सब से पहले प्राइमरी से ऊंची पढ़ाईलिखाई के बीच के इस ड्रौपआउट रेशियो को कम करना होगा. जो समाज जितना कमजोर होता है, उस के लिए संघर्ष उतना ही बड़ा होता है.

यूनिवर्सिटी की पढ़ाई तक जितने ज्यादा एससी छात्र पहुंचेंगे, उन को सताया जाना उतना ही कम होगा. नौकरियों में भी ज्यादा से ज्यादा हिस्सेदारी हासिल करनी होगी. हर लैवल पर संगठन को मजबूत करना होगा, ताकि भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाई जा सके.

एससी तबके के सांसदों और विधायकों पर लगातार दबाव बनाए रखना होगा, ताकि वे सिर्फ सत्ता सुख न भोगें, बल्कि समाज के हित में काम करें. समय लगेगा, लेकिन हालात जरूर बदलेंगे.

रहनसहन में बदलाव जरूरी

एससीएसटी और मुसलिम तबके मुख्यधारा से कटे हुए नजर आते हैं, तो इस में किस का दोष है? भारत के कल्चर का हिस्सा होते हुए भी कल्चर से अलग दिखने की नौटंकी क्यों? यहीं से समस्याएं शुरू होती हैं.

एससीएसटी और मुसलिम तबका खुलेपन और नएपन से परहेज करता है. मुसलिम अपने अकीदों के आगे किसी तरह का सम झौता नहीं कर पाते तो एससी तबका भी इसी रास्ते पर निकल पड़ा है.

एससीएसटी और मुसलिम तबके को शहरों में घर किराए पर लेना मुश्किल होता है, तो इस की वजह सिर्फ मकान मालिकों के अंदर भेदभाव भरी सोच ही नहीं है. ये लोग खुद ही मुख्यधारा से नहीं जुड़ पाते.

खानपान, पहनावा और रहनसहन की आदतें नहीं बदल पाते. साफसफाई के तौरतरीके नहीं सीख पाते. घर में लड़ाई झगड़े, घर की औरतों को पीटना, घर में हमेशा शोरशराबा होना और ज्यादा बच्चे होना यह आम बात होती है, इसीलिए इन्हें कोई किराए पर नहीं रखता.

वर्ग संघर्ष कितना जरूरी

दुनिया के किसी भी समाज में इनसानों की कीमत उस की प्रोडक्टिविटी से तय होती है. परिवार भी ऐसे ही चलते हैं. आज के समय परिवार में जो जितना प्रोडक्टिव होता है उस की इज्जत भी उसी हिसाब से होती है.

परिवार का जो सदस्य प्रोडक्टिव नहीं तो वह अपने परिवार में ही हाशिए पर चला जाएगा. कोई समाज अगर प्रोडक्टिव नहीं है, तो वह भी बाकी समाजों के बीच हाशिए पर चला जाएगा.

जो जाति या समाज टौप पर है, तो उस ने अपनी जायज या नाजायज प्रोडक्टिविटी को साबित किया है और जो जाति या समाज हाशिए पर है, वह अपनी प्रोडक्टिविटी को साबित नहीं कर पाया. यही लोग वर्ग संघर्ष की बात करते हैं. किसी भी संघर्ष की कीमत होती है. जिन के पास बहुतकुछ है वे आसानी से अपना दबदबा नहीं छोड़ेंगे और जिन के पास कुछ नहीं वे किसी भी संघर्ष के लायक भी नहीं हैं, इसलिए वर्ग संघर्ष की बात ही बेमानी है.

इज्जत और सा झेदारी के लिए अपने भीतर का संघर्ष जरूरी है. प्रोडक्टिविटी में भागीदार बनना जरूरी है. इस के लिए प्रोडक्टिव होना जरूरी है. आज जमाना बदल गया है. क्रांतियां किताबों में ही अच्छी लगती हैं. धरातल पर तो जू झना होता है. एससीएसटी और मुसलिम समाज को यह बात सम झनी होगी. बराबरी के हकदार बराबरी के लोग ही होते हैं. यह कड़वी हकीकत है.

‘घेटो’ की घुटन से बाहर निकलना जरूरी

16वीं सदी में इटली के वेनिस शहर में यहूदियों को अलगथलग इलाकों, जिन्हें ‘घेटो नुओवो’ (यहूदियों की नई बस्ती) कहा जाता था, में रहने के लिए मजबूर किया गया था. ये इलाके दूर से पहचाने जा सकते थे.

इटली से ही ‘घेटो शब्द इतना मशहूर हुआ कि यह अमेरिका के नीग्रो गुलामों की अलगथलग बस्तियों के लिए भी इस्तेमाल होने लगा. ब्रिटिश, डच और फ्रांसीसी उपनिवेशों में किसी कबीलाई समुदाय या धार्मिक अल्पसंख्यक को जबरन साथ रहने के लिए मजबूर किया जाता, तो यही इलाके घेटो बन जाते थे.

घेटो की घुटनभरी गलियों में कोई भी बाहरी नहीं घुसना चाहता था. अमेरिका में घेटो गुलामों की फैक्टरियां थीं, तो यूरोप के घेटो यहूदियों को अलगथलग रखने के डिटैंशन कैंप थे. यहां केवल एकजैसे लोग रहते थे, जो घेटो में पैदा होते और यहीं मर जाते थे.

आज भी शहरोंकसबों के आसपास ऐसे इलाके मौजूद होते हैं, जो अनपढ़ता, गरीबी और अपराध के लिए बदनाम होते हैं. ये इलाके आज के घेटो हैं. अमेरिका में अफ्रीकीअमेरिकी या हिस्पैनिक समुदाय के लोग जिन इलाकों में रहते हैं, उन्हें आज भी घेटो कहा जाता है.

भारत में भी ऐसे ‘घेटो’ की कमी नहीं है. यहां तो सदियों से घेटो मौजूद रहे हैं. गांव हो या शहर एससी तबके के लिए हर लैवल पर घेटो बनाए गए थे. शहरों के घेटो आगे चल कर झुग्गी झोंपडि़यों में बदल गए. हर गांव में एक घेटो नजर आ जाएगा.

शहरों में मुसलिम बहुल इलाकों को ही देख लीजिए. ये भी घेटो ही हैं. कई दलित बहुल महल्ले भी ऐसे ही हैं, जहां घुसने में भी घुटन होती है, जबकि वहां ये लोग आराम से जीते हैं. आज के इन घेटो की पहचान खराब बुनियादी ढांचे, अनपढ़ता, सेहत से जुड़ी सेवाओं की कमी और अपराध दर में बढ़ोतरी से होती है.

भारत के घेटो एससीएसटी और मुसलिमों के लिए किसी डिटैंशन कैंप से कम नहीं हैं. आखिर मजबूरी क्या है? घेटो की दीवारों को तोड़ कर मुख्यधारा तक पहुंचना मुश्किल तो नहीं है, लेकिन घेटो में जीने की आदत पड़ गई है. यहां से निकलने का एकमात्र जरीया पढ़ाईलिखाई है, लेकिन इन समाजों को तालीम की सम झ ही नहीं है.

समस्या आप की, हल भी आप ही निकालें

एससीएसटी तबके के साथ इतिहास में गलत हुआ या आज भी गलत हो रहा है, इस बात का रोना रोते रहने से कुछ नहीं बदलेगा. मुसलिम बादशाहों ने हजार साल तक इस देश पर हुकूमत की, इस बात पर इतराने से मुसलिमों के आज के हालात नहीं बदल जाएंगे. एससीएसटी तबके और मुसलिमों को यह तय करना होगा कि वर्तमान में उन के समाज की परफौर्मैंस और प्रोडक्टिविटी क्या है?

यह इस बात से तय होगा कि आप के समाज में पढ़ाईलिखाई और सम झदारी का लैवल क्या है?

पढ़ाईलिखाई और सम झदारी का रास्ता मुश्किल है, लेकिन इस के अलावा और कोई रास्ता ही नहीं है. हालात का रोना रोते रहने से हालात नहीं बदलते. नेता आते हैं और अपना उल्लू सीधा कर गायब हो जाते हैं. समाज इन नेताओं का पिछलग्गू बना रहता है. समस्या आप की है, तो बदलाव भी खुद से शुरू करना होगा. Social Inequality

दर्शन सोलंकी की मौत : क्यों करते हैं दलित छात्र खुदकुशी

वह इतना मासूम और खूबसूरत था कि जो देखता वह मुंह से कहे न कहे, लेकिन एक बार मन ही मन सोचता जरूर था कि इस लड़के को तो मौडलिंग या फिल्मों में होना चाहिए था. सफेद रंगत, घने बाल, मजबूत कदकाठी वाला 18 साल का वह लड़का पिछले साल दीवाली के दिनों में अहमदाबाद से मुंबई गया था तो उस की आंखों में ढेर सारे सपने थे. मसलन, अब से तकरीबन 4-5 साल बाद जब नौकरी लग जाएगी तो घर के खर्चों में हाथ बंटाएगा, अच्छेअच्छे कपडे पहनेगा, बहन को उस की पसंद के चीजें खिलाएगा और मम्मी को उन की पसंद के खूब सारे कपड़े खरीद कर देगा.

ये छोटेछोटे सपने देखने का हक उसे था, क्योंकि हाड़तोड़ मेहनत और पढ़ाई में दिनरात एक कर देने के बाद वह आईआईटी मुंबई तक पहुंचा था और उसे अपनी मनचाही ब्रांच कैमिकल इंजीनयरिंग भी मिल गई थी. पर दाखिले के बाद जब दर्शन सोलंकी नाम का यह लड़का होस्टल पहुंचा, तो कुछ दिनों बाद ही उस के सारे सपने एकएक कर के टूटने लगे. इसलिए नहीं कि उस में कोई कमी थी, बल्कि इसलिए कि उस के साथ वालों में एक भयंकर कमी थी, जो पुश्तों से नहीं बल्कि सदियों से चली आ रही है. वे अपने ऊंची जाति का होने पर गुरूर करते थे. यह दर्शन के लिए एतराज की बात नहीं थी, बल्कि परेशानी और टैंशन की बात यह थी कि वे उस पर उस के एससी होने के चलते ताने मारने लगे थे.

धीरेधीरे सहपाठी दर्शन सोलंकी से और ज्यादा कन्नी काटने लगे तो वह और परेशान रहने लगा और यह बेहद कुदरती बात भी थी. अब सोचने में उसे अपने पिता रमेश भाई सोलंकी नहीं दिखते थे, जो पेशे से प्लंबर हो कर और सारा दिन लोगों के रसोईघर और लैट्रिनबाथरूम में पाइपलाइन ठीक करते, माथे पर आया पसीना पोंछते रहते थे. अब खयालों में भी उसे अपने वे साथ पढ़ने वाले ही दिखते थे जो उस पर फब्तियां कस रहे होते थे.

दर्शन सोलंकी को जिंदगी के आखिरी लमहों तक यह समझ नहीं आया होगा कि आखिर एससी होने पर उस की अपनी क्या गलती या गुनाह था और इन ‘दोस्तों’ को उसे तंग करने में कौन सा सुकून मिलता था? इस से उन्हें हासिल क्या होता था? हद तो तब हो गई जब उस के रूम पार्टनर ने भी बेरुखी दिखानी शुरू कर दी.

दुनियादारी के बुनियादी उसूलों से नावाकिफ दर्शन सोलंकी इतना छोटा था कि वह अभी अकेले अहमदाबाद से मुंबई नहीं जा सकता था. 10 फरवरी, 2023 को जब सैमेस्टर के इम्तिहान खत्म हुए, तो वह 14 फरवरी का बेसब्री से इंतजार करने लगा, क्योंकि इस दिन उस के पापा उसे लेने आने वाले थे. 12 फरवरी को दिन में कोई 12 बज कर, 20 मिनट पर उस ने पापा से वीडियो काल से बात भी की थी, जिस में उस ने उन्हें बताया था कि इम्तिहान अच्छा हुआ और आज वह दोस्तों के साथ जुहू, चौपाटी और गेटवे औफ इंडिया घूमने जाएगा.

खुदकुशी या कत्ल

पापा से बात करने के एक घंटे बाद ही दर्शन ने खुदकुशी कर ली. होस्टल की 7वीं मंजिल पर जा कर उस ने छलांग लगा दी और नीचे गिरते ही अपने सपनों के साथ उस ने भी दम तोड़ दिया. इस तरह एक और एकलव्य की कहानी खत्म हुई, पर पीछे ढेरों सवाल छोड़ गई जो कई शक पैदा करती है. पहला तो यही कि उस ने मरने के पहले सुसाइड नोट क्यों नहीं छोड़ा जैसा कि आमतौर पर खुदकुशी करने वाले करते हैं. तो क्या दर्शन की हत्या हुई थी जैसा कि उस के घर वाले आरोप लगा रहे हैं.

और अगर यह खुदखुशी थी तो उस की कोई वजह भी होना चाहिए जो कि फौरीतौर पर नहीं दिखी. दिखती भी कैसे, क्योंकि मामला कानूनी लफ्जों में कहें तो सरासर जातिगत प्रताड़ना का था. इस बात की चर्चा दर्शन ने घर वालों से भी की थी और होस्टल के अपने मैंटर से शिकायत भी की थी, लेकिन उम्मीद के मुताबिक कोई कार्यवाही नहीं हुई.

बेटे की मौत की खबर भी रमेश भाई सोलंकी को किस्तों में दी गई. पहले उन्हें फोन पर यह बताया गया कि आप के बेटे का ऐक्सीडैंट हो गया है. असल बात तीसरी बार फोन पर ही बताई गई कि दर्शन 7वीं मंजिल से गिर गया है जिस से उस के बचने की उम्मीद न के बराबर है. रमेश भाई सोलंकी, उन की पत्नी और बेटी पर क्या गुजरी होगी, इस बात का अंदाजा लगाना हर किसी के लिए मुमकिन नहीं है. ये लोग भागेभागे मुंबई गए तो वहां जवान बेटे की लाश उन का इंतजार कर रही थी. दर्शन की लाश का पोस्टमार्टम हुआ जिस की रिपोर्ट में बताया गया कि मौत चोट लग जाने की वजह से हुई.

हैरानी की बात तो यह थी कि इस पोस्टमार्टम के लिए घर वालों का इंतजार करना तक मुनासिब नहीं समझा गया. इस पर रमेश भाई सोलंकी ने रोते हुए कहा, “मेरे पहुंचने से पहले ही पोस्टमार्टम कर दिया गया. मुझे नहीं लगता कि यह खुदकुशी का मामला है. अगर आप सातवी मंजिल से गिरेंगे, तो आप को कई चोटें लगेंगी, लेकिन पोस्टमार्टम के बाद जब मैं ने अपने बेटे का चेहरा देखा तो मुझे चोट के निशान नहीं दिखे. यह कैसे मुमकिन है? पोस्टमार्टम बेहद जल्दबाजी में मेरी इजाजत के बिना किया गया और मुझे उस का चेहरा भर देखने दिया गया.”

रमेश भाई सोलंकी की नजर में यह साजिशन की गई हत्या है और इस में काफीकुछ छिपाया और ढका जा रहा है.

दर्शन सोलंकी की मां तरलिका बेन और बहन जाह्नवी ने भी यही बातें दोहराते यह भी कहा कि छोटी जाति की वजह के चलते यह हादसा हुआ. दरअसल, जैसे ही दर्शन के सहपाठियों को यह पता चला कि वह शैड्यूल कास्ट से आता है, तो सभी ने उस से दूरी बनाना शुरू कर दी और ये ताने मारने भी शुरू कर दिए कि तुम तो फ्री वाले हो, हमें तो फीस भरना पड़ती है. इन तानों से दर्शन परेशान हो उठता था लेकिन बकौल रमेश भाई सोलंकी फोन पर बात करते हुए वह नौर्मल नजर आ रहा था और अहमदाबाद आने को ले कर खुश था.

फिर थोड़ी ही देर में ऐसा क्या हो गया जो उसे खुदकुशी करने पर मजबूर होना पड़ा? इस सवाल का जवाब अब शायद ही कभी मिले, क्योंकि हादसे के बाद से ही सारे रिकौर्ड आईआईटी मुंबई के मैनेजमेंट और पुलिस वालों की मुट्ठी में थे. इसी साल मकर संक्रांति पर जब वह घर गया था तो घर वालों से इस बात की चर्चा की थी कि छोटी जाति का होने के चलते कैंपस में सभी उसे नापसंद करने लगे हैं.

पिता से बात करने के बाद कौनकौन दर्शन सोलंकी से मिला था, यह बताने को कोई तैयार नहीं और कोई नहीं भी भी मिला था तो एकाएक ही उस ने खुदकुशी क्यों कर ली? अगर जातिगत प्रताड़ना के चलते उसे दिमागी तौर पर परेशान किया जा रहा था जैसा कि उस के घर वाले दावा कर रहे हैं और नाम न छापने की शर्त पर कुछ छात्रों ने भी कुछ मीडिया वालों को बताया तो उस पर गौर क्यों नहीं किया गया?

कमेटी की करतूत

हल्ला मचा और आईआईटी मुंबई पर उंगली उठने लगी तो मैनेजमैंट ने दूसरे दिन ही 12 लागों की जांच कमेटी बना दी. असल में एपीपीएसएस यानी अंबेडकर पेरियार फुले स्टडी सर्किल ने दर्शन सोलंकी की मौत पर सवाल भी उठाए थे और विरोध भी किया था. इस संस्था का काम खासतौर से दलित छात्रों के हितों की निगरानी करना है. जो कमेटी बनाई गई उस में सारे लोग आईआईटी मुंबई के ही थे और दलित 10 फीसदी भी नहीं थे, लिहाजा उन्होंने उम्मीद के मुताबिक संस्थान की साख और इज्जत पर तवज्जुह देते हुए अपनी रिपोर्ट में कहा कि दर्शन सोलंकी के साथ कोई जातिगत टीकाटिप्पणी या भेदभाव कर रहा था, बल्कि वह अपनी पढ़ाई को ले कर तनाव में था.

कमेटी ने कुछ छात्रो के हवाले से यह भी कहा कि दर्शन सोलंकी कंप्यूटर और इंगलिश सब्जैक्ट में कमजोर था और इस बाबत गिल्ट में रहता था, इसलिए उस ने खुदकुशी की होगी. वह अपने दोस्तों से यह भी कहता रहता था कि वह मुंबई छोड़ कर अहमदाबाद के ही किसी कालेज में पढ़ेगा.

साफ दिख रहा है कि दर्शन सोलंकी की मौत को तो खुदकुशी माना गया, लेकिन उस की वजह पलट दी गई . दर्शन को एडमिशन लिए अभी साढ़े 3 महीने ही हुए थे और उस ने एक बार ही इम्तिहान दिया था. इसी की बिना पर उसे नकारा मानना उस के साथ मौत के बाद भी ज्यादती है. आमतौर पर टैक्निकल कालेजों में पहले साल के छात्रों के साथ यह दिक्कत आम है. वे किस जाति के हैं इस से कोई फर्क नहीं पड़ता. दूसरे इस कमेटी ने कोई रिजल्ट उजागर नहीं किया. देखा जाए तो जो क्लीन चिट देने के मकसद से कमेटी बनाई गई थी, वह फर्ज उस ने निभा दिया नहीं तो सवाल तो ये भी जवाब मांग रहे हैं :

-कुछ लोगों, जिन से दर्शन सोलंकी की जानपहचान महज 3 महीने पुरानी थी, की यह बात सच मान ली गई कि दर्शन पढ़ाई में कमजोर था. वैसे ही यह क्यों नहीं माना गया कि उस के मांबाप और बहन भी झूठ नहीं बोल रहे?

-दर्शन पहली बार घर छोड़ कर बाहर गया था और नए व कमउम्र छात्र अपने साथ हो रही ज्यादतियों की शिकायत करने से डरते हैं. साथ के छात्रों और सीनियर्स की दहशत उन के सिर पर सवार रहती है, जो रैगिंग ले कर उन का हाल बुरा कर देते हैं, फिर यह तो जातिगत रैगिंग थी. दर्शन को भी इस बात का डर क्यों नहीं रहा होगा कि इस बात ने ज्यादा तूल पकड़ा तो कहीं घर वाले ही वापस न बुला लें?

-कमेटी ने इस हकीकत पर गौर क्यों नहीं किया कि दर्शन हमेशा अव्वल दर्जे में पास हुआ है और आईआईटी तक पहुंचने में भी उस ने कभी कोई कोचिंग नहीं ली. यह उस की काबीलियत नहीं तो और क्या थी?

-होस्टल में रैगिंग के नाम पर जूनियरों से मारपीट कितनी आम और खतरनाक होती है, यह बात किसी सुबूत की मुहताज नहीं, फिर इतने बड़े और नामी कालेज के होस्टल में  सीसीटीवी क्यों नहीं थे और अगर थे तो उन के फुटेज क्यों जांच रिपोर्ट में शामिल नहीं किए गए?

-दर्शन सोलंकी की लाश सब से पहले जिस ने भी देखी होगी, वह क्यों सुसाइड नोट गायब नहीं कर सकता?

-क्या वाकई ऐसा होना मुमकिन है कि कोई 7वीं मंजिल से गिरे और उसे उतनी हलकी चोट आए जितनी कि दर्शन सोलंकी को आई थी?

बदनाम है आईआईटी मुंबई

साफ दिख रहा है कि दाल में बहुतकुछ काला है और जांच किसी बड़ी एजेंसी से कराई जानी जरूरी है, जिस से सच का पता चल सके. कालेज लैवल की जांच कमेटियों के ऐसे गंभीर मामलों में कोई माने नहीं होते, जिन का काम ही सच पर परदा डालने का होता है. उन पर भारी दवाव भी रहता है. लेकिन इस से हट कर भी मुद्दे की बात कैंपसों का माहौल है, जिस में सरेआम कोटे वाले छात्रों का हर तरह से शोषण होता है. उन्हें ऊंची जाति के छात्र तो दूर की बात है, पढ़ाने वाले तक नफरत से देखते और बुरा बरताव करते हैं. इस बात को साबित करना टेढ़ी खीर है, क्योंकि सभी बड़े कालेजों और तकनीकी संस्थानों में ऊंची जाति वालों का दबदबा रहता है.

आईआईटी मुंबई तो इस के लिए कुख्यात है. इसी कैंपस में साल 2014 में चौथे साल की पढ़ाई कर रहे अनिकेत अम्भोरे नाम के दलित छात्र ने भी होस्टल की छठी मंजिल से कूद कर  खुदकुशी कर ली थी. अनिकेत के घर वालों ने भी आरोप लगाया था कि उस ने जातिगत भेदभाव से तंग आ कर खुदकुशी की थी. तब उस की मौत के लिए बनी जांच कमेटी ने यह माना था कि अनिकेत को कोटे की वजह से एडमिशन मिला था, इसलिए उसे कई बार गिल्ट फील करवाया जाता था. लेकिन इस रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया था.

रोशन की मौत के ठीक एक साल पहले फरवरी, 2022 में इसी संस्थान की एससीएसटी स्टूडैंट सैल ने एक सर्वे में पाया था कि यहां पढ़ने वाले आरक्षित कोटे के 388 छात्रों में से एकतिहाई का यह कहना है कि वे कैंपस में अपनी जाति की चर्चा खुलेतौर पर करने में हिचकते हैं यानी सहज नहीं महसूस करते. 133 छात्रों ने माना कि वे अपनी जाति की चर्चा सिर्फ करीबी यानी अपनी ही कैटेगिरी वाले दोस्तों से ही कर पाते हैं. केवल 27 छात्रों ने माना कि वे थोड़ी ज्यादा चर्चा जाति की कर लेते हैं.

यह संस्थान जातिगत लिहाज से एससीएसटी छात्रों के लिए कितना असुरक्षित और असंवेदनशील है, इस रिपोर्ट, जिस में और भी अहम व चौंका देने वाली बातें हैं, को आईआईटी मुंबई प्रशासन एक साल बाद भी सार्वजनिक नहीं कर रहा है, तो साफ दिख रहा है कि उस की दाढ़ी में तिनका हैं है, बल्कि यह कहना ज्यादा सटीक है कि उस के तिनकों में दाढ़ी है.

एपीपीएसएस के एक ट्वीट पर गौर करें, तो हमें यह समझना चाहिए कि यह कोई निजी मामला नहीं है, बल्कि एक संस्थागत हत्या है. हमारी शिकायतों के बावजूद संस्थान ने दलित बहुजन आदिवासी छात्रों के लिए समावेशी और सुरक्षित माहौल बनाने की परवाह नहीं की.

हकीकत यह भी है कि पूरे देश के बड़े टैक्निकल इंस्टीट्यूट में 95 फीसदी पढ़ाने वाले ऊंची जाति के हैं. कुछ साल पहले कांग्रेसी सांसद शाशि थरूर ने संसद में आंकड़े मांगे थे तो यह बात सामने आई थी कि रिजर्वेशन वाले आधे प्रोफैसरों की सीट खाली रह जाती हैं. एक बड़ी दिक्कत जिस पर जागरूक और बुद्धिजीवी लोगों ने बोलना और पूछना बंद कर दिया वह यह है कि आईआईटी में नियुक्ति का तरीका ही घालमेल वाला है और नियुक्तियों के तरीके का कोई नियमधरम ही नहीं है. इसे कभी सार्वजनिक भी नहीं किया जाता. दो टूक कहा जाए तो उन में आरक्षण नियमों और रोस्टर का पालन ही नहीं होता.

एक आंकड़े के मुताबिक देश की सभी आईआईटी में साल 2019 में महज 2.85 फीसदी प्रोफैसर ही कोटे के थे.

बात मुंबई आईआईटी की ही करें तो पिछले 20 सालों में शैड्यूल कास्ट का एक भी प्रोफैसर भरती नहीं किया गया. वहां तकरीबन 4 प्रोफैसर ही इस कोटे से हैं. ऐसी हालत में माहौल से घबराए दर्शन सोलंकी की खुदकुशी कतई हैरानी की बात नहीं, क्योंकि वहां कोटे वाले छात्रों की मदद के लिए कोई है ही नहीं. माहौल तो यहां यह भी है कि 80 फीसदी ऊंची जाति के छात्रों ने एक सर्वे में माना था कि उन्होंने जातिगत आरक्षण पर चुटकुले और मीम्स न केवल बनाए, बल्कि उन्हें सोशल मीडिया पर शेयर भी किया.

भयावह हैं आंकड़े

नामी और बड़ी संस्थाओं में दलित छात्रों की बदहाली पर चिंता जताते हुए देश के चीफ जस्टिस धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ ने ‘द नैशनल अकेडमी औफ लीगल स्टडीज ऐंड रिसर्च’ के एक प्रोग्राम में दर्शन सोलंकी के घर वालों से हमदर्दी जताते हुए कहा था कि हाशिए के समुदायों के साथ ऐसी घटनाएं आम होती जा रही हैं..ये संख्याएं केवल आंकड़े नहीं हैं. मुझे लगता है कि भेदभाव का मुद्दा शिक्षण संस्थाओं में सहानुभूति की कमी से सीधे जुड़ा हुआ है. यह कभीकभी सदियों के संघर्ष की कहानी है.

असल में इस चिंता की वजह केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान का लोकसभा में यह मानना भी है कि साल 2014 से ले कर साल 2021 के बीच देशभर के नामी संस्थानों में 122 छात्रों की मौत खुदकुशी करने से हुई है जिन में से 65 छात्र आरक्षित कोटे से थे. दर्शन सोलंकी से पहले भील समुदाय की ही  पायल तड़वी और उस से भी पहले रोहित वेमुला की मौत चर्चा में रही थी और इन पर खूब हल्ला भी मचा था.

पायल तड़वी मुंबई के टीएन टोपीवाला नैशनल मैडिकल कालेज से पोस्ट ग्रेजुएशन कर रही थीं और उन्होंने भी 22 मई, 2019 को अपनी 3 सीनियर्स की लगातार जातिगत प्रताड़ना के चलते होस्टल में खुदकुशी कर ली थी.

इस से पहले दलित समुदाय के ही हैदराबाद सैंट्रल यूनिवर्सिटी के 26 साला रोहित वेमुला ने भी 16 जनवरी, 2016 को होस्टल में ही फांसी लगा कर खुदकुशी कर ली थी. पीएचडी कर रहे रोहित दलित छात्रों के भले के लिए काम करने वाली अंबेडकर स्टूडैंट एसोसिएशन के नेता थे. इस संस्था ने मुंबई बम धमाकों के आरोपी याकूब मेनन की फांसी का विरोध किया था जिस के चलते हिंदूवादी छात्र संगठन एबीवीपी के सदस्यों से उन का झगड़ा भी हुआ था.

यह विवाद हाईकोर्ट तक भी पहुंचा था. जैसे ही मामला सामने आया था तो हैदराबाद के सांसद और केंद्रीय मंत्री बंगारू दत्तात्रेय ने केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी को चिट्ठी लिखते हुए तुरंत  कार्यवाही करने के लिए कहा था.

उन की मंशा के मुताबिक, 17 दिसंबर, 2015 को रोहित वेमुला समेत दूसरे 4 छात्रों को सस्पैंड करते हुए होस्टल से बाहर भी निकाल दिया गया था. उन की स्कौलरशिप भी रुकी हुई थी.

फिल्मों में दिखाई जाने वाली तंग और बदबूदार दलित बस्ती में रहने बाले रोहित वेमुला चूंकि अंबेडकरवादी थे, इसलिए उन की खुदकुशी के बाद देशभर में इतना हल्ला मचा था कि मोदी सरकार सकते में आ गई थी और स्मृति ईरानी को मंत्रिमंडल के फेरबदल में अपना पद गंवाना पड़ा था, क्योंकि वे जहां भी जाती थीं, वहीं उन का विरोध दलित समुदाय के लोग और संगठन करते थे.

अब खामोशी क्यों

लेकिन दर्शन सोलंकी की मौत पर जो विरोध हुआ, वह छिटपुट ही कहा जाएगा जिस की अहम वजह देश का कट्टर होता हिंदूवादी माहौल है. धार्मिक दहशत दलित समुदाय में भी साफ दिख रही है. रोजरोज कहीं न कहीं से हिंदू राष्ट्र की मांग उठने लगती है. इस से हिंदूवादी नौजवानों के हौसले बुलंद हैं और अब वे पौराणिक काल की तरह दलितों को भी कुछ नहीं समझ रहे हैं, फिर मुसलमानों का तो जिक्र ही फुजूल है, जो आएदिन गौकशी के नाम पर भी कूटे और मारे जाते हैं.

इन हिंदूवादियों को लगता है कि दलित अगर पढ़लिख गया तो उन के लिए खतरा बन जाएगा, इसलिए धर्मग्रंथ ठीक ही कहते हैं कि शूद्र को पढ़ने मत दो नहीं तो वह सांप बन कर तुम्हें ही काटेगा.

दर्शन सोलंकी की मौत खुदकुशी थी या कत्ल, इस से परे यह सच है कि मकसद उसे पढ़ने से रोकना और अपनी जातिगत और धार्मिक भड़ास का कहर उस पर बरपाना था, जिस से फिर कोई दलित नौजवान बड़े शिक्षण संस्थानों में दाखिले के नाम से ही डरे.

हालांकि एक और कड़वा सच यह भी है कि प्राइमरी स्कूलों से ही दलित बच्चों के साथ जातिगत भेदभाव शुरू होने लगता है. कहीं उन के साथ मिड डे मील में भेदभाव होता है, तो कहीं उन्हें अपने बराबर बैठने ही नहीं दिया जाता है. जाहिर है कि यह सब वे घर के बड़ों से ही सीखते हैं. मास्टर भी उन्हें पढ़ाने में ज्यादा दिलचस्पी नहीं लेते यानी रोग आईआईटी जैसी बड़ी संस्थाओं में ही नहीं, बल्कि गांवदेहातों के स्कूलों में भी पसरा है, जो बाद तक चलता है.

अब तो हालत यह है कि दर्शन सोलंकी जैसे होनहार छात्रों की मौत पर दलित नेता भी खामोश रहने में ही अपनी भलाई समझते हैं, इसलिए कोई मायावती या चिराग पासवान कुछ नही बोलता, फिर अखिलेश यादव या तेजस्वी यादव जैसे पिछड़ों के रहनुमाओं से उम्मीद रखने की कोई वजह नहीं है. हां, भारतीय जनता पार्टी की गोद में बैठे रामदास अठावले को जरूर दोष दिया जाना चाहिए जो इतनी मासूमियत से इस मौत पर खामोश रहे मानो कुछ बोले तो मोदीशाह उन्हें दरबार से बाहर कर देंगे.

अकेले कांग्रेसी विधायक जिग्नेश मेवाणी के बोलने से दर्शन सोलंकी जैसे दलित छात्रों को इंसाफ मिलेगा, ऐसा कहने की भी कोई वजह नहीं.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें