वह इतना मासूम और खूबसूरत था कि जो देखता वह मुंह से कहे न कहे, लेकिन एक बार मन ही मन सोचता जरूर था कि इस लड़के को तो मौडलिंग या फिल्मों में होना चाहिए था. सफेद रंगत, घने बाल, मजबूत कदकाठी वाला 18 साल का वह लड़का पिछले साल दीवाली के दिनों में अहमदाबाद से मुंबई गया था तो उस की आंखों में ढेर सारे सपने थे. मसलन, अब से तकरीबन 4-5 साल बाद जब नौकरी लग जाएगी तो घर के खर्चों में हाथ बंटाएगा, अच्छेअच्छे कपडे पहनेगा, बहन को उस की पसंद के चीजें खिलाएगा और मम्मी को उन की पसंद के खूब सारे कपड़े खरीद कर देगा.
ये छोटेछोटे सपने देखने का हक उसे था, क्योंकि हाड़तोड़ मेहनत और पढ़ाई में दिनरात एक कर देने के बाद वह आईआईटी मुंबई तक पहुंचा था और उसे अपनी मनचाही ब्रांच कैमिकल इंजीनयरिंग भी मिल गई थी. पर दाखिले के बाद जब दर्शन सोलंकी नाम का यह लड़का होस्टल पहुंचा, तो कुछ दिनों बाद ही उस के सारे सपने एकएक कर के टूटने लगे. इसलिए नहीं कि उस में कोई कमी थी, बल्कि इसलिए कि उस के साथ वालों में एक भयंकर कमी थी, जो पुश्तों से नहीं बल्कि सदियों से चली आ रही है. वे अपने ऊंची जाति का होने पर गुरूर करते थे. यह दर्शन के लिए एतराज की बात नहीं थी, बल्कि परेशानी और टैंशन की बात यह थी कि वे उस पर उस के एससी होने के चलते ताने मारने लगे थे.
धीरेधीरे सहपाठी दर्शन सोलंकी से और ज्यादा कन्नी काटने लगे तो वह और परेशान रहने लगा और यह बेहद कुदरती बात भी थी. अब सोचने में उसे अपने पिता रमेश भाई सोलंकी नहीं दिखते थे, जो पेशे से प्लंबर हो कर और सारा दिन लोगों के रसोईघर और लैट्रिनबाथरूम में पाइपलाइन ठीक करते, माथे पर आया पसीना पोंछते रहते थे. अब खयालों में भी उसे अपने वे साथ पढ़ने वाले ही दिखते थे जो उस पर फब्तियां कस रहे होते थे.