आज शबनम अब तक अस्पताल नहीं आई थी. 2 बजने को आए वरना वह तो रोज 10 बजे ही अस्पताल पहुंच जाती थी. कभी भी छुट्टी नहीं करती. मैं उस के लिए चिंतातुर हो उठा था.

इन दिनों जब से कोरोना का संकट गहराया है वह मेरे साथ जीजान से मरीजों की सेवा में जुटी हुई थी. मैं डॉक्टर हूं और वह नर्स. मगर उसे मेडिकल फील्ड की इतनी जानकारी हो चुकी है कि कभी मैं न रहूं तो भी वह मेरे मरीजों को अच्छी तरह और आसानी से संभाल लेती है.

मैं आज अपने मरीजों को अकेले ही संभाल रहा था. अस्पताल की एक दूसरी नर्स स्नेहा मेरी हैल्प करने आई तो मैं ने उसी से पूछ लिया,” क्या हुआ शबनम आज आई नहीं. ठीक तो है वह ?”

“हां ठीक है. मगर कल शाम घर जाते वक्त कह रही थी कि उसे आसपड़ोस के कुछ लोग काफी परेशान करने लगे हैं. वह मुस्लिम है न. अभी जमात वाले केसेज जब से बढ़े हैं सोसाइटी के कट्टरपंथी लोग उसे ही कसूरवार मारने लगे हैं. उसे सोसाइटी से निकालने की मांग कर रहे हैं और गद्दार कह कर नफरत से देखते हैं. बेचारी अकेली रहती है. इसलिए ये लोग उसे और भी ज्यादा परेशान करते हैं. मुझे लगता है इसी वजह से नहीं आई होगी.”

“कैसी दुनिया है यह? धर्म या जाति के आधार पर किसी को जज करना कितना गलत है. कोई नर्स रातदिन लोगों की केयर करने में लगी हुई है. उस पर इतना गंदा इल्जाम….?” मेरे अंदर गुस्से का लावा फूट पड़ा.

स्नेहा भी शबनम को ले कर परेशान थी, “आप सही कह रहे हैं सर. शबनम ने तो अपनी जिंदगी मरीजों की देखभाल में लगा रखी है. उस ने तो यह कभी नहीं देखा कि उस के सामने हिंदू मरीज है या मुस्लिम. फिर लोग उस का धर्म क्यों देख रहे हैं? देश को विभाजित करने वाले कट्टरपंथी ही ऐसी गलत सोच को हवा देते हैं.”

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तभी मेरा मोबाइल बज उठा. शबनम का फोन था,” हैलो शबनम, ठीक तो हो तुम?” मैं ने चिंतित स्वर में पूछा.

“नहीं सर मैं ठीक नहीं. सोसाइटी के कुछ लोगों ने मेरे निकलने पर रोक लगा दी है. एक तरह से नजरबंद कर के रखा है मुझे. उस पर अभी दोपहर में मैं बाथरूम में गिर गई. अब तो समझ नहीं आ रहा कि दवा लेने भी कैसे जाऊं?”

“तुम घबराओ नहीं. एकदो घंटे आराम करो. मैं खुद तुम्हारे लिए बैंडेज और दवाइयों का इंतजाम करता हूं.” कह कर मैंने फोन रख दिया.

अब मुझे शबनम के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभानी थी. उस ने आज तक हमेशा मेरा साथ दिया है. मानवता के नाते अब मेरा धर्म है कि मैं उस का साथ दूं.

5 बजे के बाद मरीजों को निबटा कर मैं फर्स्ट ऐड बॉक्स, जरूरी दवाओं और फल सब्जियों के साथ उस के घर पहुंचा. उस की सोसाइटी के बाहर पुलिस खड़ी थी. मेरे डाक्टर होने के बावजूद काफी पूछताछ और स्क्रीनिंग के बाद अंदर जाने दिया गया. शबनम का घर दूसरे माले पर था. मैं ने उस के दरवाजे की घंटी बजाई तो लंगड़ाती हुई वह बाहर निकली और दरवाजा खोला. मुझे देख कर उस के चेहरे पर सुकून भरी मुस्कुराहट की लकीरें खिंच गई.

“डॉक्टर अविनाश आप खुद आ गए ?”

हां शबनम दिखाओ कहां चोट लगी है तुम्हें? ठीक से बैंडेज कर दूं. ”

“जी बैंडेज का सामान मेरे पास था. पट्टी तो बांध ली है मैं ने.”

“ठीक है फिर भी ये कुछ जरूरी दवाइयां अपने पास रखो और फलसब्जियां भी.”

“थैंक यू वेरी मच सर .” शबनम की आंखों में कृतज्ञता के आंसू आ गए तो मैं ने उस के कंधे थपथपाए और बाहर निकलता हुआ बोला,” देखो शबनम, कभी भी किसी भी चीज की जरूरत हो तो मुझे जरूर बताना. वैसे मैं कोशिश करूंगा कि तुम्हें इस सोसाइटी से ले कर जाऊं. अस्पताल के पास जो मेरा दो कमरे वाला घर है न वहीं तुम्हें ठहरा दूंगा. आजकल मैं भी वहीं रहने लगा हूं क्योंकि अस्पताल पास में और फिर मेरे कारण मेरे परिवार में कोरोनावायरस न फैल जाए यह डर भी रहता है.”

“जी सर जैसा आप उचित समझें” कह कर शबनम ने मुझे विदा किया.

इस के बाद दोतीन बार खानेपीने की और दूसरी चीजें ले कर मैं उस के घर गया.

सोसाइटी वाले मुझे घूरघूर कर देखते थे. एक दिन तो हद ही हो गई जब सोसाइटी वालों के कहने पर एक ऊंची जाति के पुलिस एस आई नीरज शर्मा ने मुझ पर दोतीन डंडे बरसा दिए. मैं चीख पड़ा,” एक डॉक्टर के साथ इस तरह का सुलूक किया जाता है?”

” तुम डॉक्टर हो तो फिर तुम उस मुस्लिम लड़की के घर क्यों आते हो? दोनों मिले हुए हो न? तेरी यार है न वह ? क्या करने वाले हो मिलकर ?”

सर मैं डॉक्टर हूं और वह मेरे साथ काम करने वाली नर्स. इतना ही रिश्ता है हमारा. ऊंची और नीची जाति, हिंदू और मुस्लिम जैसे भेदभाव मैं नहीं मानता.” चिल्लाता हुआ मैं घर आ गया था मगर शबनम को ले कर चिंता बढ़ गई थी.

उस दिन मैं ने तय किया कि अब मैं शबनम को अपने घर ले आऊंगा. अगले दिन सुबहसुबह मैं उसे अपने घर ले आया.

अब शबनम मेरे घर में थी और अस्पताल भी करीब था. इसलिए वह जिद कर के अस्पताल जाने लगी. उसे लंगड़ाते हुए, तकलीफ सहते हुए भी मरीजों के लिए दौड़भाग करते देख मेरे मन में उस की इज्जत बढ़ती जा रही थी.

वह घर में भी मेरे लिए पौष्टिक खाना बनाती. दरअसल मेरे घरवाले मेरे साथ नहीं थे. स्वभाविक था कि मुझे खानेपीने की दिक्कत हो रही थी. ऐसे में मैं अस्पताल के कैंटीन में खा कर गुजारा करता था. मगर जब से शबनम मेरे घर आई उस ने मेरे मना करने के बावजूद किचन की कमान संभाल ली.
अपने पैर की तकलीफ के बावजूद मुझे मेरी पसंद की चीजें बना कर खिलाती. मुझे यह एहसास ही नहीं होने देती कि मैं घर वालों से दूर हूं.

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अस्पताल में तो वह मेरी सहायिका थी ही घर में भी मेरी हर जरूरत का ध्यान रखती. हम दोनों बिना कहे ही एक अनजान से बंधन में बनते जा रहे थे. उस का कष्ट मैं महसूस करता था और मेरी तकलीफों का बोझ वह उठाने को तैयार थी. हमारा धर्म अलग था. जाति भी अलग थी. मगर मन एक था. हम एकदूसरे को खुद से बेहतर समझने लगे थे.

इधर आसपड़ोस में हम दोनों को ले कर सुगबुगाहट होने लगी थी. जल्द ही सब को पता लग गया कि शबनम दूसरे धर्म की है. लोगों के दिमाग में यह बात कुलबुलाने लगी कि वह मेरे घर में मेरे साथ क्यों रह रही है? उस के साथ मेरा रिश्ता क्या है?

शबनम की सोसाइटी वालों ने भी मेरे कुछ पड़ोसियों को भड़काने का काम किया. अभी तक सामने आ कर किसी ने मुझे कुछ कहा नहीं था मगर उन की आंखों में सवाल दिखने लगे थे.

फिर एक दिन मैं घर लौटा तो मुझे अपनी तबीयत खराब लगने लगी. गले में खराश के साथ सर दर्द हो रहा था. मैं ने खुद को क्वैरांटाइन कर लिया. मैं ने शबनम से भी चले जाने को को कहा मगर वह कहने लगी कि तबियत खराब में ऐसे छोड़ कर नहीं जा सकती. तब मैं ने उसे अपने कमरे में आने के लिए सख्ती से मना कर दिया. वह दूर से ही मेरा ख्याल रखती रही.

एक दिन दो पड़ोसी मेरे घर आए और शबनम को ले कर पूछताछ करने लगे. मैं ने सब सच बताया. अगले दिन सुबह उठा तो देखा घर के बाहर काफी हलचल है. इधर मेरी तबीयत खराब थी उधर मेरे घर के आगे कट्टरपंथी इकटठे हो कर नारे लगा रहे थे. मुझे गद्दार कहा जा रहा था. शबनम के साथ मेरा नाम ले कर सोसाइटी से निकाले जाने की मांग की जा रही थी.

मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था. काफी देर तक होहल्ला होता रहा. तब तक शबनम अपने कपड़े पैक करने लगी.

वह हड़बड़ाती हुई बोली,” सर अब मैं यहां बिल्कुल नहीं रह सकती. मेरी वजह से आप को भी परेशानी सहनी पड़ रही है. मैं तो कहती हूं आप भी चलिए. आप को अस्पताल में एडमिट हो जाना चाहिए. तबीयत ठीक नहीं है आप की. कहिए तो आप के घर वालों को बुला देती हूं.”

“नहीं नहीं. तुम घर वालों से कुछ मत कहो. वे परेशान होंगे. तुम जाओ. मैं सब संभाल लूंगा.”

“मैं पहले भी कह चुकी हूं. आप को ऐसे अकेले छोड़ कर नहीं जा सकती. वैसे भी ये लोग यहां आप का जीना मुहाल कर देंगे. आप की तबीयत भी ज्यादा खराब हो रही है. मैं डॉक्टर अतुल को फोन कर देती हूं. वे हमें यहां से ले जाएंगे.”

“ओके. जैसा सही समझो.” मैं ने कहा.

तभी दरवाजे पर दस्तक हुई. सोसायटी का अध्यक्ष सामने खड़ा था,” मिस्टर अविनाश, हम सबों का फैसला है कि अब आप इस सोसाइटी में नहीं रह सकते.”

“ठीक है. मैं जा रहा हूं. ” लड़खड़ाती आवाज में मैं ने कहा.

शबनम ने जल्दीजल्दी सब इंतजाम किया. किसी तरह हम अस्पताल पहुंच गए और कोरोना के संदेह की वजह से मुझे एडमिट कर दिया गया. टेस्ट रिपोर्ट पॉजिटिव आई. मेरी तबियत तेजी से खराब होने लगी. मगर शबनम ने न तो मेरा साथ छोड़ा और न आस. वह लगातार मेरा ख्याल रखती रही. मेरे अंदर सकारात्मक उर्जा भरती रही.

लंबे इलाज के बाद धीरेधीरे मैं ठीक हो गया. इस के बाद भी 14 दिन तक मुझे अस्पताल में ही रखा गया. इस दौरान शबनम के लिए एक लगाव मेरे मन में पैदा हो गया था. उसे पूरे समर्पण भाव के साथ मरीजों की और अपनी देखभाल करता देखता तो लगता जैसे इस से बेहतर लड़की मुझे कहीं मिल नहीं सकती.

एक दिन शबनम मुझे दुखी सी नजर आई. मैं ने टोका तो उस ने बताया,” मैं बस आप के ठीक होने का इंतजार कर रही थी. डॉक्टर अब मैं इस इलाके में और नहीं रहना चाहती. बहुत दुत्कारा है लोगों ने मुझे. आप के साथ मेरा नाम जोड़ कर आप को भी बदनाम किया गया. मेरी कोई गलती नहीं थी मगर मेरे पेशे को भी इज्जत नहीं दी गई. मेरा मन भर गया है. मैं तो बस आप की खातिर ही यहां अब तक रुकी रही. अब मुझे जाने की अनुमति दें. मैं अस्पताल छोड़ कर जाना चाहती हूं.”

शबनम की भीगी आंखों के पीछे मेरे लिए छुपा प्यार मैं साफ देख रहा था. मैं ने उसे रोका,”रुक जाओ शबनम. तुम कहीं नहीं जाओगी. जो नाम उन्होंने बदनाम करने के लिए जोड़ा उसे मैं हकीकत में जोड़ना चाहता हूं.”

शबनम ने अचरज से मेरी तरफ देखा. मैं ने मुस्कुराते हुए कहा, क्यों न इसी अस्पताल में हम आज शादी कर लें? देर करने की जरूरत क्या है?”

शबनम ने शरमा कर निगाहें झुका लीं. उस;का जवाब मुझे मिल गया था. अस्पताल में मौजूद दूसरे डॉक्टरों और नर्सों ने झटपट एक बहुत ही सादगी भरी शादी का इंतजाम कर दिया और इस तरह एक हिंदू डॉक्टर और एक मुस्लिम नर्स हमेशा के लिए हमसफर बन गए.

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