‘‘ऐक्सक्यूज मी…’’ आशा के पीछे से आवाज आई. जैसे ही आशा ने मुड़ कर देखा, तो वह हैरान हो गई और बोली, ‘‘अरे, आप नीलेशजी हैं न? फेमस कार्टूनिस्ट?’’

‘‘जी, और आप आशाजी… मशहूर लेखिका. मैं कब से आप को देख रहा था और पहचानने की कोशिश कर रहा था कि आप तो अंबाला में रहती हैं, यहां नागपुर में

भला कैसे? फिर सोचा कि चल कर पूछ ही लूं.’’

‘‘दरअसल, यहां मेरी ननद रहती हैं. उन के घर फंक्शन है, वहां आई हूं. आप के कार्टून देखती रहती हूं, बेहद शानदार होते हैं.’’

‘‘शुक्रिया. मैं भी आप के लेख पढ़ता रहता हूं. बहुत अच्छा लिखती हैं आप. कई बार सोचा कि आप को फ्रैंड रिक्वैस्ट भेजूं, फिर लगा, पता नहीं कि आप को कैसा लगेगा.’’

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है. मुझे आप के कार्टून अच्छे लगते हैं और मेरे पास आप के सभी कार्टून की तसवीरें हैं.’’

‘‘तो क्या मैं आप को दोस्त समझूं?’’

‘‘जी हां… बिलकुल.’’

इस तरह उन दोनों में दोस्ती हो गई. मैसेंजर पर दोनों बातचीत करने लगे. आशा और नीलेश दोनों शादीशुदा थे. उन के बच्चों की शादी हो गई थी.

नीलेश की पत्नी को सिर्फ अपने किट्टी पार्टियां और मौजमस्ती प्यारी थी. वह नीलेश की तरफ कोई जिम्मेदारी नहीं समझती. नीलेश को यह अकेलापन सालता था.

उधर, आशा का पति लापरवाह किस्म का है. उसे जैसे आशा से कोई सरोकार नहीं है. लिहाजा, आशा ने अपने लेखन को अपना साथी बना लिया था.

लेकिन अब दोनों को एकदूसरे से बातें करना अच्छा लगता था. भले न मिलें, पर मैसेंजर पर ही बात कर लेते थे तो दिलों को संतुष्टि मिल जाती थी. दोनों एकदूसरे से बेतकल्लुफ       हो गए थे. शायद दोनों के दिलों में कुछकुछ था एकदूजे के लिए.

एक दिन नीलेश ने आशा को मैसेज किया, ‘आज मुझे तुम से कुछ कहना है. तुम बिजी तो नहीं हो न?’

‘कहो जो कहना है. मैं औनलाइन हूं. अभी तो मैं खाली हूं. थोड़ी देर के लिए हम बात कर सकते हैं.’

‘आई लव यू.’

‘नीलेश, ऐसा मत कहो.’

‘लेकिन क्यों?’

‘इस अधेड़ उम्र में प्यार के कोई माने नहीं हैं.’

‘नहीं आशा, प्लीज ऐसा मत सोचो. मैं मानता हूं कि हम अपना परिवार नहीं छोड़ सकते और न ही हमारी ऐसी उम्र है कि फिल्म हीरोहीरोइन की तरह बागों में घूमते हुए प्यार के गीत गाएं, लेकिन दिल पर तो किसी का जोर नहीं है.

‘मैं ने जिस दिन तुम्हारा पहला  लेख पढ़ा था, उस दिन से मैं तुम्हें प्यार करता हूं. यह दिल मेरे बस में तो नहीं  है न.’

‘नीलेश, तुम सच कह रहे हो. दिल पर किसी का जोर नहीं है. मैं भी तुम्हें चाहने लगी हूं, लेकिन हमारी भी अपनीअपनी मर्यादाएं हैं, जिन्हें हम लांघ नहीं सकते.’

‘मैं कभी तुम्हें मर्यादा लांघने को नहीं कहूंगा. बस, ऐसे ही फोन पर कभीकभी बात कर लिया करना, वह भी अगर तुम्हारा मन हो तब, नहीं तो हम मैसेंजर पर ही बात कर लेंगे.’

चाहती तो आशा भी यही थी, लेकिन मर्यादा की बेडि़यों में जकड़ी कुछ कह नहीं पा रही थी.

‘आशा, तुम ने जवाब नहीं दिया.’

आशा ने अब जवाब न दे कर अपना फोन नंबर लिख कर भेज दिया. नीलेश ने फोन लगाया, तो आशा ने झट से

फोन उठा लिया, जैसे वह उसी का इंतजार कर रही थी और दोनों ने ढेर सारी बातें कीं.

अब तो अकसर वे दोनों फोन पर बातें करते, कभी हंसतेखिलखिलाते, कभी एकदूजे का दुखसुख बांटते… दोनों खुश रहने लगे थे.

उन की पतझड़ जैसी जिंदगी में मानो बहार आ गई थी.

प्यार सिर्फ जिस्म का नहीं होता. सच्चा प्यार तो दिल में बसता है, जो उन दोनों के दिलों में था. अब दोनों खुशीखुशी अपनेअपने परिवार की जिम्मेदारी निभा रहे थे,

लेकिन दिल में एकदूजे के रहते थे.

जब कभी 2-4 साल बाद आशा अपनी ननद के घर जाती, तो दोनों उसी माल में मिलते, जहां वे पहली बार  मिले थे.

लेखक- प्रेम बजाज

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