लेखक- हेमंत कुमार

किसी भी शहर को शहर कहलाने का काम वहां की तंग गलियों में लगने वाले बाजार और गले से चीखचीख कर आवाज लगाते हुए फेरी वाले ही करते हैं. ऐसा शोरगुल, ऐसी भीड़भाड़ किसी बड़े शहर में ही देखने को मिलती है. ये ऐसे कारोबारी होते हैं, जो बिलकुल न के बराबर की कीमत पर ग्राहकों को घर के दरवाजे पर सुविधाएं मुहैया कराते हैं.

बीते साल कोरोना के चलते लगे लौकडाउन में सब से ज्यादा नुकसान अगर किसी को पहुंचा है, तो वे हैं यही रोज कमानेखाने वाले रेहड़ीपटरी और फेरी लगाने वाले छोटे गरीब कारोबारी.

नैशनल एसोसिएशन औफ स्ट्रीट वैंडर्स औफ इंडिया  के मुताबिक देखा जाए, तो देश की जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद में  ऐसे कारोबारियों का योगदान काफी ज्यादा रहता है. दिल्ली और मुंबई जैसे बड़े शहरों में इन का योगदान 1,590 करोड़ रुपए सालाना तक पहुंच जाता है.

चूंकि इन लोगों का सारा कारोबार खुले आसमान के नीचे भीड़भाड़ वाली जगहों पर ही होता है, तो जाहिर सी बात है कि महामारी के फैलने का जोखिम सब से ज्यादा इन ही लोगों से था और ऐसे ही आसार इस साल फिर से बनते नजर आ रहे हैं. मतलब, इन की जिंदगी से एक बार फिर खिलवाड़ होने वाला है.

इन फेरी, रेहड़ी और पटरी वालों की निजी जिंदगी पर नजर डालें, तो हम यह जान पाएंगे कि आखिर किस तरह लौकडाउन के चलते इन की निजी जिंदगी में भी लौक लग जाता है.

ये भी पढ़ें- मेरी बेटी मेरा अभिमान

दिल्ली में पटरी लगाने वाले रंजीत से बातचीत करने से मालूम पड़ता है कि इन की जिंदगी लौकडाउन से किस तरह बरबाद हुई. पेश हैं, रंजीत के साथ हुई बातचीत के खास अंश :

मूल रूप से आप कहां के रहने वाले हैं और दिल्ली में कब से रह रहे हैं?

मैं मूल रूप से झारखंड राज्य के साहिबगंज जिले का रहने वाला हूं और जाति से कुम्हार हूं. गांव के सारे लड़कों की तरह मैं भी जवानी में दिल्लीमुंबई भटका और आखिर में यहां दिल्ली में ही पटरी लगाने का काम करने लगा.

मैं 20 साल पहले ही दिल्ली आया था और तब से यहीं हूं. पहले जिम्मेदारियां कम थीं और भविष्य का कोई प्लान न था, पर बाद में सांसारिक जाल में फंस कर यहां रहना अब मेरी मजबूरी बन चुकी है.

आप की जीविका का साधन क्या है और बीते साल लौकडाउन से आप को किनकिन समस्याओं का सामना करना पड़ा? इस बार हालात कैसे हैं?

मैं पेशे से एक पटरी वाला हूं और दिल्ली में सदर बाजार, त्रिलोकपुरी और आजादपुर जैसी जगहों पर बाजार लगाता हूं. बाजार में  रेहड़ीपटरी वालों को पहले से ही कई तरह की असुविधाओं का सामना करना पड़ता ही है.

हमें ठेकेदारों को शांतिपूर्ण तरीके से बाजार लगाने के बदले 400-500 रुपए रोजाना देने पड़ते हैं. अगर हम ये पैसे न दें तो अगली बार से हमारी जगह पर किसी दूसरे को बैठा दिया जाता है.

उस इलाके के थानेदार की मिलीभगत होने के चलते हमारी सुनवाई करने वाला कोई नहीं होता, ऊपर से लौकडाउन के लग जाने से हमारी आजीविका पूरी तरह से बरबाद हो गई है. अपनी जगह बनाए रखने के लिए हमें पहले ही कई लोगों को अपनी दिनभर की कमाई का कुछ हिस्सा देना पड़ता है.

ये भी पढ़ें- कोरोना में आईपीएल तमाशे का क्या काम

आप किस तरह की चीजें बेचते हैं और दिन में तकरीबन कितने पैसे कमा लेते हैं?

मैं मौसम और मांग के हिसाब से कपड़े बेचता हूं. अगर काम ठीकठाक हुआ, तो मेरी रोजाना की आमदनी  800-1000 रुपए तक पहुंच जाती है, पर मंदी के दौरान लागत भी निकाल पाना मुश्किल हो जाता है, ऊपर से नगरपालिका के अफसर कभी भी आ कर सारा माल ट्रकों में भर कर ले जाते हैं. और तो और विरोध करने पर हिंसक कार्यवाही भी करते हैं.

लौकडाउन लग जाने से हालात बद से बदतर होने के कगार पर पहुंच गए थे. मेरे साथी पटरी वाले जैसेतैसे अपने गांव पहुंच गए. मैं ने भी कोशिश की, पर उस समय ट्रेनों की टिकट मिलना बहुत मुश्किल था और ट्रेन के अलावा किसी और साधन का खर्च उठा पाना मेरे बस में नहीं था.

कोरोना की दूसरी लहर की शुरुआत से काम पर क्या असर पड़ रहा है?

अभी तो हम पहली वाली लहर से ही आगे नहीं निकल सके थे कि यहां इस साल भी कोरोना की दूसरी लहर ने दस्तक दे दी है. बाजारों में खरीदारी करने वाले भी कोई बड़े लोग नहीं होते हैं, बल्कि वे भी हमारी तरह आम परिवारों से ही आते हैं.

अब थोड़ाबहुत काम होना शुरू ही हुआ था कि लोग दोबारा लौकडाउन के डर से अपने घरगांवों को जा रहे हैं. ऐसे में हमारे पास भी घर लौट जाने के अलावा कोई और चारा नहीं बचता, पर हमारे घर लौट जाने से भी हमारी चिंता खत्म नहीं होती.

हमारे बच्चों की पढ़ाईलिखाई, मकान का किराया, बाकी लोगों से लिए हुए कुछ उधार, इन सब उल?ानों की खातिर हमें कहीं और जा कर भी चैन नहीं है.

इस समय आप को सरकार से क्या उम्मीदें हैं?

सरकार से यही उम्मीद है कि वह इस बार के लौकडाउन से पहले अतिरिक्त ट्रेनें चलवा कर हमें अपने गांव पहुंचाने में मदद करे. प्राइवेट बस व ट्रकों से हजारों रुपए की टिकट खरीद कर जाने के हमारे हालात नहीं हैं.

यहां से गए तो हमारे बच्चों की पढ़ाईलिखाई छूट जाएगी, पर यहां रहे भी तो बच्चों की स्कूल की फीस कहां से  देंगे. जब रोजगार ही नहीं रहेगा, तो हम करेंगे क्या…

क्या पिछले साल आप को सरकार से कोई मदद मिली थी?

पिछले साल सरकार से कुछ  योजनाएं जैसे पीएम स्वनिधि योजना से 10,000 रुपए का कर्ज देने की योजना लागू तो हुई थी, पर सिर्फ उन के लिए, जो सरकारी कागजों पर असल माने में रेहड़ीपटरी वाले हैं, लेकिन हम जैसे कई लोगों के पास कोई सुबूत नहीं कि  हम रेहड़ीपटरी लगाते हैं. इस वजह से  हमें उस योजना का कोई फायदा न  मिल सका.

ऐसे ही कई छोटेमोटे कारोबारी हैं, जो फैक्टरियों, बाजारों, रेलवे स्टेशनों पर कुली और ट्रांसपोर्ट सैक्टर में बो?ा ढोने का काम करने के लिए अपने गांवों से बहुत ही कम उम्र में निकल आते हैं, उन्हें बड़े शहरों में मुसीबत के समय सब से ज्यादा मार झेलनी पड़ती है.

गांव से शहर आ कर काम करने का सीधासादा यही मतलब है कि इन के गांवों में किसी भी तरह के रोजगार का मौका नहीं होता है और न ही ये इतने पढ़ेलिखे होते हैं कि कोई अच्छी नौकरी कर सकें, जिस वजह से गांव में मजदूरी करने से अच्छा इन्हें शहर आ कर मजदूरी करने में फायदा दिखता है.

चूंकि शहर में रोजगार के मौके, दिहाड़ी और मजदूरी की गुंजाइश ज्यादा है, तो शहर आना ही इन के लिए एकमात्र रास्ता रह जाता है. पर ऐसे मजदूरों की मजदूरी ले लेना और मुसीबत के समय भूल जाना हमारे समाज की कड़वी सचाई है.

मजदूरों के बिना कलकारखानों की कल्पना नहीं की जा सकती है. ऐसे में सरकार द्वारा इन का शोषण किया जाना बेहद भेदभाव वाला काम है.

जहां आईपीएल में मैच न खेलने वाले क्रिकेटरों को भी कई करोड़ रुपए दिए जाते हैं, नेताओं के बिजली बिल, पानी बिल, टैलीफोन बिल, बंगले के किराए, निजी सिक्योरिटी, सरकारी नौकरचाकर व दूसरी सुविधाओं पर सरकार सालाना 3 करोड़ से साढ़े  3 करोड़ रुपए का बोझ उठा सकती है, तो क्या ऐसे मजदूरों को इन के गांव भेजने के लिए कुछ दिनों के लिए अतिरिक्त ट्रेनें व बस सेवा मुफ्त में  या कम किराए पर मुहैया नहीं  करवा सकती?

ये भी पढ़ें- ‘सेल्फी’ ने ले ली, होनहार बिरवान की जान…

कितने ही लोगों को लौकडाउन में बच्चों की पढ़ाईलिखाई छुड़ानी पड़ी. क्या ऐसे समय में पैसों की कमी में बच्चों की पढ़ाईलिखाई न छूटे, इस बारे में सरकार कोई ठोस कदम नहीं उठा सकती?

अगर बाजारों की भीड़ में कोरोना फैलता है, तो क्या किसी चुनावी रैली में लोगों की भीड़ कोरोना नहीं फैलाती? क्या सरकारी मदद को आसान शर्तों पर इन्हें मुहैया नहीं कराया जा सकता?

दिल्ली में रेहड़ी, पटरी व फेरी वालों की तादाद 3,00,000 के आसपास है, पर सरकारी कागजों पर सिर्फ 1,25,000 लोग ही कानूनी तौर पर रेहड़ीपटरी लगाते हैं. ऐसे में हमारी तरह बचे 1,75,000 नामालूम रेहड़ीपटरी वाले किस से मदद की आस रखें? चूंकि इन के पास गरीब होने का कोई सरकारी सुबूत नहीं है, सो इन पर ध्यान देने वाला भी कोई नहीं है.

रेहड़ीपटरी, फेरी लगाने वाले, छोटे कारखानों में मजदूरी करने वाले ज्यादातर कारोबारी बिहार, ?ारखंड और बंगलादेश के बहुत ही पिछड़े इलाकों से ताल्लुक रखते हैं और जवान होतेहोते बड़े शहरों में रोजगार की तलाश में आ जाते हैं.

देखा जाए तो बिहार से मजदूरों का रोजगार की तलाश में बड़े शहरों में आने का एक अच्छाखासा इतिहास रहा है, जिस की एक वजह बिहार में गैरकृषि क्षेत्र में रोजगार के मौके न के बराबर होना है.

आईएचडी के एक सर्वे के मुताबिक, बिहार के गोपालगंज और मधुबनी जिलों से मजदूरों का बड़े शहरों में जाना ज्यादा देखने को मिलता है. कुम्हार, ग्वाला और शूद्र जाति से होने के चलते इन के पारंपरिक आजीविका के स्रोत पूरी तरह से बरबाद हो चुके हैं.

रंजीत कुम्हार जाति का है, जिस का काम मिट्टी के बरतन बनाना और बाजार में बेचने का होता था, पर औद्योगीकरण की मार के चलते कुम्हार जाति के बारे में अब सिर्फ किताबों में पढ़ने को मिलता है.

इतना ही नहीं, बाकी लोगों के साथ इसती तरह की आम समस्याएं हैं, जिस वजह से इन्हें शहर की ओर जाना पड़ता है. शुरुआत में इन की मंशा सिर्फ बड़े शहरों में जा कर पैसा कमाने की होती है, लेकिन तमाम जिम्मेदारियां, बीवीबच्चे और घरसंसार के जाल में फंस कर इन्हें अपनी जिंदगी इन्हीं बड़े शहरों में गुजारनी पड़ती है, जिस का एहसास इन्हें लौकडाउन जैसे हालात में देखने को मिलता है.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...