काली, कजरारी, बड़ीबड़ी मृगनयनी आंखें भला किस को खूबसूरत नहीं लगतीं? मगर उन से भी ज्यादा खूबसूरत होते हैं उन आंखों में बसे सपने कुछ बनने के, कुछ करने के. सपने लड़कालड़की देख कर नहीं आते. छोटाबड़ा शहर देख कर नहीं आते.

फिर भी अकसर छोटे शहर की लड़कियां उन सपनों को किसी बड़े संदूक में छिपा लेती हैं. उस संदूक का नाम होता है- कल. कारण वही पुराना. अभी हमारे देश के छोटे शहरों और कसबों में सोच बदली कहां है? घर की इज्जत है लड़की, जल्दी शादी कर उसे घर भेजना है, वहां की अमानत बना कर मायके में पाली जा रही है. इसीलिए लड़कियों के सपने उस कभी न खुलने वाले संदूक में उन के साथसाथ ससुराल और अर्थी तक की यात्रा करते हैं पर कुछ लड़कियां बचपन में ही खोल देती हैं उस संदूक को, उन के सपने छिटक जाते हैं.

इस से पहले बीन पाएं बड़ी ही निर्ममता से कुचल दिए जाते हैं उन के अपनों द्वारा, समाज द्वारा. विरली ही होती हैं, जो सपनों की पताका थाम कर आगे बढ़ती हैं. यहां भी उन की राह आसान नहीं होती. बारबार उन की स्त्रीदेह उन की राह में बाधक होती है. अपने सपनों को अपनी शर्त पर जीने के लिए उन्हें चट्टान बन कर हर मुश्किल से टकराना होता है. ऐसी ही एक लड़की है वैशाली.

हर शहर की एक धड़कन होती है. वह वहां के निवासियों की सामूहिक सोच से बनती है. दिल्लीमुंबई में सब पैसे के पीछे भागते मिलेंगे. वाहन सब दौड़ रहे हैं. एक मिनट भी जाया करना जैसे अपराध है. छोटे शहरों में इत्मीनान दिखता है. ‘‘हां भैया, कैसे हो?’’ के साथ छोटे शहरों में हालचाल पूछने में ही लोग 2 घंटे रुक जाते हैं. देवास की हवाओं में जीवन की सादगी और भोलेपन की धूप की खुशबू मिली हुई थी जब बाजारवाद ने पूरे देश के छोटेबड़े शहरों में अपनी जड़ें जमा दी थीं.

देवास अभी भी शैशव अवस्था में था. कहने का तात्पर्य यह है कि शहर का असर हमारी वैशाली पर भी था. इन मासूम हवाओं ने ही तो उसे बेहिचक इधरउधर घूमतीफिरती बेफिक्र वैशाली में बदल दिया था. उम्र हर साल एक सीढ़ी चढ़ जाती पर बचपना था कि दामन छुड़ाने का नाम ही नहीं लेता.

वैसे भी वह अपने मांबाप की एकलौती बेटी होने के कारण बहुत प्यार में पली थी. जो इच्छा करती झट से पूरी हो जाती. यों छोटीमोटी इच्छाओं के अलावा एक इच्छा जो वैशाली बचपन से अपने मन में पाल रही थी वह थी आत्मनिर्भर होने की. वह जानती थी कि इस मामले में मातापिता को मनाना जरा कठिन है, पर उस ने मेहनत और उमीद नहीं छोड़ी. वह हर साल अपने स्कूल में अच्छे नंबर ला कर पास होती रही. मातापिता की इच्छा थी कि पढ़लिख जाए तो फिर जल्दी ब्याह कर दें और गंगा नहाएं.

एक दिन उस ने मातापिता के सामने अपनी इच्छा जाहिर कर दी कि वह नौकरी कर के अपने पंखों को विस्तार देना चाहती है. शादी उस के बाद ही. काफी देर मंथन करने के बाद आखिरकार उन्होंने इजाजत दे दी. वैशाली तैयारी में जुट गई. आखिरकार उस की मेहनत रंग लाई और दिल्ली की एक बड़ी कंपनी में नौकरी मिल गई.

वैशाली की खुशी जैसे घर की हवाओं में अगरबत्ती की तरह महकने लगी. मातापिता भी उस की खुशी में शामिल थे पर अंदरअंदर डर था इतनी दूर दिल्ली में अकेली कैसे रहेगी.

आसपास के लोगों ने भी बहुत डराया, ‘‘दिल्ली है… भाई दिल्ली, लड़कियां सुरक्षित नहीं हैं. जरा देखभाल के रहने का इंतजाम कराना.’’

वे खुद भी तो आए दिन अखबारों में दिल्ली की खबरें पढ़ते रहते थे. यह अलग बात है कि छोटेबड़े कौन से शहर लड़कियों के लिए सुरक्षित हैं पर खबर तो दिल्ली की ही बनती है.

दिल्ली देश की ही नहीं खबरों की भी है. आम आदमी तो खबरें पढ़पढ़ कर वैसे ही घबराया रहता है जैसे सारा अपराध बस दिल्ली में ही होते हो. जितना हो सकता था उन्होंने वैशाली को ऊंचनीच सम झाई भी. फिर भी डर था कि जाने का नाम नहीं ले रहा था. दिल्ली में निवास करने वाले अड़ोसपड़ोस के दूरदराज के रिश्तेदारों के पते लिए जाने लगे. न जाने कितने नंबर इधरउधर के परिचितों के ले कर वैशाली के मोबाइल की कौंटैक्ट लिस्ट में जोड़े जाने लगे.

तसल्ली बस इतनी थी कि किसी गाढ़े वक्त में बेटी फोन मिला देगी तो कोई मना थोड़ी न कर देगा. आखिर इतनी इंसानियत तो बची ही है जमाने में. उन्हें क्या पता कि दिल्ली घड़ी की नोंक पर चलती है.

आखिरकार लक्ष्मीनगर में एक गर्ल्स पीजी किराए पर ले लिया. खानानाश्ता मिल ही जाएगा. औफिस बस 2 मैट्रो स्टेशन दूर था. यहां सब लड़कियां ही थीं. पिता निश्चिंत हुए कि उन की लड़की सुरक्षित है.

वैशाली अपना रूम एक और लड़की से शेयर करती थी. उस का नाम था मंजुलिका. मंजुलिका वैस्ट बंगाल से थी. जहां वैशाली दबीसिकुड़ी सी थी वहीं मंजुलिका तेजतर्रार हाईफाई. कई सालों से दिल्ली में रह रही थी. चाहे आप इसे आबोहवा कहें या वक्त की जरूरत, दिल्ली की खास बात है कि वह लड़कियों को अपनी बात मजबूती से रखना सिखा ही देती है. मंडे की जौइनिंग थी. मातापिता चले गए थे.

अब शनिवार, इतवार पीजी में ही काटने थे. बड़ा अजीब लग रहा था… इतनी तेजतर्रार लड़की के साथ दोस्ती करना पर जरूरत ने दोनों में दोस्ती करा दी. शुरुआत मंजुला ने ही करी. पर जब उस ने अपने लोक के किस्सों का पिटारा खोला तो खुलता ही चला गया.

वैशाली रस लेले कर सुनती रही. उस के लिए यह एक अजीब दुनिया थी. अपना लोक याद आने लगा जहां लोगों के पास इतना समय होता था कि कभी भी, कहीं भी महफिलें जम जातीं. लोग चाचा, मामा, फूफा होते…मैडम और सर नहीं. देर तक बातें करने के बाद दोनों रात की श्यामल चादर ओढ़ कर सो गईं.

औफिस का पहला दिन था. वैशाली ने अपनी जींस और लूज शर्ट पहन ली. गीले बालों पर कंघी करती हुई वह बाथरूम से बाहर निकली ही थी कि मंजुलिका ने सीटी बजाते हुए कहा कि पटाखा लग रही हो, क्या फिगर है तुम्हारी. वह भी हंस दी.

वैसे जींसटौप तो कभीकभी देवास में भी पहना करती थी. कभी ऐसा कुछ अटपटा महसूस ही नहीं हुआ था. उस ने ध्यान ही कहां दिया था अपनी फिगर पर. उस का ऊपर का हिस्सा कुछ ज्यादा ही भारी है यह उसे आज महसूस हुआ जब औफिस पहुंचने पर बौस सन्मुख ने उसे अपने चैंबर में बुलाया और उस से बात करते हुए पूरे 2 मिनट तक उस के ऊपरी भाग को घूरते रहे.

वैशाली को अजीब सी लिजलिजी सी फीलिंग हुई जैसे सैकड़ों चींटियां उस के शरीर को काट रही हों. उस ने जोर से खांसा. बौस को जैसे होश आया. उसे फाइल पकड़ा कर काम करने को कहा.

फाइल ले कर वैशाली अपनी टेबल पर आ गई. संज्ञाशून्य सी. देवास में भी ने लफंगे टाइप के लड़के देखे थे पर शायद हर समय मां या पिताजी के साथ रहने या फिर सड़क पर घूमने वाले बड़ों का लिहाज था, इसलिए किसी की इतनी हिम्मत नहीं हुई थी. उफ, कैसे टिकेगी वह यहां? उसे पिताजी की याद आने लगी. जब शीशे के पार कैबिन में बैठे हुए उस ने सन्मुख को देखा तो पिता की ही तरह लगे थे. 50 के आसपास की उम्र, हलके सफेद बाल, शालीन सा चेहरा. बड़ा सुकून हुआ था कि बौस के रूप में उसे पिता का संरक्षण मिल गया है.

क्यों एक पुरुष अपनी बेटी की उम्र की लड़कियों के लिए बस पुरुष ही होता है. अपने विचारों को झटक कर वैशाली ने अपना ध्यान काम पर लगाने का मन बनाया. आखिर वह यहां काम करने ही तो आई है. कुछ बनने आई है. सारी मेहनत, सारा संघर्ष इसीलिए तो था. वह हिम्मत से काम लेगी और अपना पूरा ध्यान अपने सपनों को पूरा करने में लगाएगी. मगर जितनी बार भी उसे बौस के औफिस में जाना पड़ता उस का संकल्प हिल जाता. अब तो बौस और ढीठ होते जा रहे थे. उस के खांसने का भी उन पर कोई असर नहीं पड़ रहा था.

पीजी में लौटने के बाद वैशाली खुद को बहुत समझाती रही कि उसे बस अपने सपनों पर ध्यान देना है, पर उस लिजलिजी एहसास का वह क्या करे जो उसे अपनी देह पर महसूस होता, चींटियां सी चुभतीं, घिन आती. घंटों साबुन रगड़ कर नहाई पर वह फीलिंग निकलने का ही नहीं ले रही थी. काश,मैल साबुन से धोए जा सकते. आज उसे अपने शरीर से नफरत हो रही थी. पर क्यों? उस की तो कोई गलती नहीं थी. अफसोस, यह एक दिन का किस्सा नहीं था. आखिर रोजरोज उन काट खाने वाली नजरों से खुद को कैसे बचाती.

हफ्तेभर में वैशाली जींसटौप छोड़ कर सलवारकुरते में आ गई. 10 दिन बाद दुपट्टा भी पूरा खोल कर लेने लगी और 15वें दिन तक दुपट्टे में इधरउधर कई सेफ्टी पिन लगाने लगी. मगर बौस की ऐक्सरे नजरें हर दुपट्टे हर सेफ्टी पिन के पास पहुंच ही जातीं. आखिर वह इस से ज्यादा कर ही क्या सकती थी?

वह समझ नहीं पा रही थी कि इस समस्या का सामना कैसे करे. 1-1 दिन कर के 1 महीना बीता. पहली पगार उस के हाथ में थी. पर वह खुशी नहीं थी जिस की उस ने कल्पना की थी.

मंजुलिका ने टोका, ‘‘आज तो पगार मिली है, पहली पगार. आज तो पार्टी बनती है.’’

वैशाली खुद को रोक नहीं पाई और जितना दिल में भरा था सब उड़ेल दिया.

मंजुलिका दांत भींच कर गुस्से में बोली, ‘‘उस की मां की बहन नहीं हैं क्या? उन्हें जा के घूरे जितना घूरना है… और भी कुछ हरकत करता है क्या? ’’

‘‘नहीं, बस गंदे तरीके से घूरता है. ऐसा लगता है, ऐसा लगता है कि…’’ कुछ कहने के लिए शब्द खोजने में असमर्थ वैशाली की आंखें क्रोध, नफरत और दुख से डबडबा गईं.

‘‘अब समझी तू जींसटौप से सूट पर क्यों आई. अरे, तेरी गलती थोड़ी है न. देख तब भी उस का घूरना तो बंद हुआ नहीं. कहां तक सोचेगी. इग्नोर कर… हम लोग कहां परवाह करते हैं. जो मन आया पहनते हैं, ड्रैस, शौर्ट्स, जैगिंग… अरे जब ऐसे लोगों की आंखों में ऐक्सरे मशीन फिट रहती ही है तो वे कपड़ों के पार देख ही लेंगे, तो अपनी पसंद के कपड़ों के लिए क्यों मन मारें? जरूरी है हम अपना काम करें. परवाह न करें.

“वह कहावत सुनी है न कि हाथी चला बाजार कुत्ते भूंकें हजार. अब आगे बढ़ना है तो इन सब की आदत तो डालनी ही होगी. ठंड रख कुछ दिन बाद नया शिकार ढूंढ़ लेंगे,’’ मंजुलिका किसी अनुभवी बुजुर्ग की तरह उसे शांत करने की कोशिश करने लगी.

‘‘मैं सोच रही हूं, नौकरी बदल लूं…’’ वैशाली ने धीरे से कहा.

उस की बात पर मंजुलिका ने ठहाका लगा कर कहा, “नौकरी बदल कर जहां जाएगी वहां ऐसे ही घूरने वाले मिलेंगे बस नाम और शक्ल अलग होगी. कहा न इग्नोर कर.’’

‘‘इग्नोर करने के अलावा भी कोई तो तरीका होगा न…’’

वैशाली अपनी बात पूरी कर भी नहीं पाई कि मां का फोन आ गया. मांबाबूजी उस की पहली तनख्वाह की खुशी को उस के साथ बांटना चाहते थे. सब बधाई दे रहे थे कि उन की बहादुर बेटी अकेले अपने सपनों के लिए संघर्ष कर रही है.

‘आखिरकार महिला सशक्तीकरण में उन का भी कुछ योगदान है, सोच वह ‘ओह मां,’ ‘ओह पिताजी,’ इतना ही कह पाई पर अंदर तक भीग गई वह इन स्नेहभरे शब्दों से.

वैशाली सारी रात रोती रही. कहां उस के मातापिता उस पर इतना गर्व कर रहे हैं और कहां वह नौकरी छोड़ कर वापस जाने की तैयारी कर रही है और वह भी किसी और के अपराध की सजा खुद को देते हुए. मंजुलिका कहती है, इग्नोर कर… वही तो कर रही थी, वही तो हर लड़की करती है बचपन से ले कर बुढ़ापे तक. पर यह तो समस्या का हल नहीं है. इस से वह लिजलिजी वाली फीलिंग नहीं जाती.

सारी रात वैशाली सोचती रही. अगले दिन लंच पर उस ने अपनी बात साथ में काम करने वाली निधि को बताई. फिर तो जैसे बौस की इस हरकत का पिटारा ही खुल गया. कौन सी ऐसी महिला थी जो उस की इस हरकत से परेशान न होती हो.

निधि ने कहा, ‘‘हाथ पकड़े तो तमाचा भी लगा दूं. पर इस में क्या करूं? मुकर जाएगा.’’

समस्या विकट थी. बात केवल सन्मुख की नहीं थी, ऐसे लोग नाम और रूप बदल कर हर औफिस में हैं, हर जगह हैं. आखिर इन का इलाज क्या हो? और इग्नोर भी कब तक? नहीं वह जरूर इस समस्या का कोई न कोई हल खोज के रहेगी.

घर आने के बाद वैशाली का मन नहीं लगा रहा था. ड्राइंग फाइल निकाल कर स्कैचिंग करने लगी. यही तो करती है हमेशा जब मन उदास होता है.

तभी मामा के लड़के का फोन आ गया. गांव में रहने वाला 10 साल का ममेरा भाई जीवन उसे बहुत प्यारा है. अकसर फोन कर अपने किस्से सुनाता रहता है कि दीदी यह बात, दीदी वह बात… और शुरू हो जाते दोनों के ठहाके.

आज भी उस के पास एक किस्सा था, ‘‘दीदी, सुलभ शौचालय बनने के बाद भी गांव के लोग उस का इस्तेमाल नहीं करते. बस यहांवहां जहां जगह मिलती, बैठ जाते हैं. टीवी में विज्ञापन देख कर हम भी घंटी खरीद लाए. अब गांव में घूमते हुए जहां कोई फारिग होता मिल जाता तो बस घंटी बजा देते हैं.

“सच्ची दीदी, बहुत खिसियाता है. कपड़े समेट कर उठ खड़ा होता है. उस की झेंप देखने लायक होती है. उसे गलत काम का एहसास होता है. देखना एक दिन ये सब लोग शौचालय का इस्तेमाल करने लगेंगे.’’

बहुत देर तक वह इस बात पर हंसती रही फिर न जाने कब नींद ने उसे अपने आगोश में ले लिया. आंख सीधे सुबह ही खुली. घड़ी देखी, देर हो रही थी. सीधे बाथरूम की तरफ भागी.

आज उस ने जींसटौप ही पहना. बढ़ती धड़कनों को काबू कर पूरी हिम्मत के साथ औफिस गई और अपनी सीट पर बैठ कर फाइलें निबटाने लगी.

तभी बौस ने उसे कैबिन में बुलाया. उसे देख उन के चेहरे पर मुसकराहट तैर गई. आंखें अपना काम करने लगीं.

‘‘एक मिनट सर,’’ वैशाली ने जोर से कहा. सन्मुख हड़बड़ा कर उस के चेहरे की ओर देखने लगे. वैशाली ने फिर से अपनी बात पर वजन देते हुए कहा, ‘‘एक मिनट सर, मैं यहां बैठ जाती हूं फिर 5 मिनट तक आप मुझे जितना चाहिए घूरिए और यह हर सुबह का नियम बना लीजिए. पर बस एक बार ताकि जितनी भी लिजलिजी फीलिंग मुझे होनी है वह एक बार हो जाए. उस के बाद अपनी सीट पर जा कर मैं काम करना शुरू करूं तो मुझे यह डर न लगे कि अभी आप फिर बुलाएंगे, फिर घूरेंगे और मैं फिर उसी गंदी फीलिंग से और अपने शरीर के प्रति उसी अपराधबोध से गुजरूंगी… जिस दिन से औफिस में आई हूं ये सब झेल रही हूं,’’ मन में आया कि पूछे कि क्या आप की मांबहन नहीं हैं क्या? जितना घूरना है उन्हें घूरो. पर फिर मन में आया कि नहीं, यह नहीं कहेगा, क्योंकि वह जानती है कि आप नहीं कोई और निश्चित तौर पर आप की मां, बहन को घूर रहा होगा. अपनी मांबहन, पत्नीबेटी सब से कह दीजिएगा कि वे भी घूरने का टाइम फिक्स कर दें. दोनों का समय और तकलीफ बचेगी.

‘‘जी सर, हमारा भी टाइम फिक्स कर दीजिए,’’ वैशाली के पीछे आ कर खड़ी हुई निधि व अन्य महिलाओं ने समवेत स्वर में कहा.

वैशाली अंदर आते समय जानबूझ कर गेट खुला छोड़ आई और उस के पीछे थी इस साहस पर तालियां बजाते पुरुष कर्मचारियों की पंक्ति.

बौस शर्म से पानीपानी हो रहे थे. फिर उस दिन के बाद सन्मुख कभी किसी किसी महिला को घूरते नहीं पाए गए.

चाहे आप इसे आबोहवा कहें या वक्त की जरूरत, दिल्ली की खास बात है कि वह लड़कियों को अपनी बात मजबूती से रखना सिखा ही देती है.

‘‘अगले दिन लंच पर उस ने अपनी बात साथ में काम करने वाली निधि को बताई. फिर तो जैसे बौस की इस हरकत का पिटारा ही खुल गया…’’

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