पिछले 2 लोकसभा चुनावों में किसानों में ऊंची जातियों के बड़े वर्ग ने जाति और धर्म के असर में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को सब से ज्यादा समर्थन दिया, जिस के बाद केंद्र की मोदी सरकार को यह लगा कि कृषि कानूनों के जरीए खेती के निजीकरण का यही सब से सही समय है. जाति और धर्म में फंसा किसान कृषि कानूनों के गूढ़ रहस्यों को समझ नहीं पाएगा. कुछ किसान अगर विरोध पर उतरे भी तो उन की आवाज को दबाना मुश्किल नहीं होगा.
अंगरेजों की फूट डालो और राज करो की नीति का पालन करते हुए केंद्र सरकार खेती में निजीकरण की आड़ में ईस्ट इंडिया वाले कंपनी राज की वापसी के लिए कदम बढ़ा चुकी है.
केंद्र सरकार के 3 कृषि कानूनों के खिलाफ किसान आंदोलन जातीय राजनीति का शिकार हो गया. कृषि कानून पूरे देश में लागू होंगे. इस का असर पूरे देश के किसानों पर पड़ेगा, पर किसान आंदोलन में हिस्सा लेने वाले किसानों को देख कर ऐसा लग रहा था जैसे कृषि कानूनों का असर केवल पंजाब व हरियाणा के किसानों पर पड़ेगा.
समझने वाली बात यह है कि हरियाणा और पंजाब के किसानों ने ही इस आंदोलन में पूरी मजबूती से हिस्सा क्यों लिया? बाकी देश के किसानों की हाजिरी केवल दिखावा मात्र रही.
8 दिसंबर, 2020 को किसान आंदोलन के पक्ष में भारत बंद उन राज्यों में कामयाब रहा, जहां भारतीय जनता पार्टी की सरकार नहीं थी. जिन राज्यों में भाजपा की सरकार रही, वहां यह आंदोलन ज्यादा कामयाब नहीं रहा.
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कृषि कानूनों में जो सब से बड़ा डर छिपा है, वह एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य का है. निजी मंडियों के आने से सरकारी मंडियों के बंद हो जाने का खतरा किसानों को दिख रहा है, जिस से यह लग रहा है कि सरकार एमएसपी को धीरेधीरे बंद करने की योजना में है.
नीति आयोग ने साल 2016 में 11 राज्यों में किसानों के बीच एमएसपी को ले कर एक सर्वे किया था, जिस में यह पता चला कि एमएसपी की जानकारी भले ही 81 फीसदी किसानों को हो, पर इस का फायदा देशभर के केवल 6 फीसदी किसानों को ही मिलता है.
उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, पंजाब और उत्तराखंड में 100 फीसदी किसानों को एमएसपी का पता था. एमएसपी का सब से ज्यादा फायदा पंजाब और हरियाणा के किसानों को ही मिलता रहा है.
1965-66 में जब एमएसपी योजना शुरू हुई थी, तब यह केवल धान और गेहूं की फसल पर मिलती थी. धीरेधीरे अब 23 फसलों की खरीद पर एमएसपी मिलने लगी है. इन फसलों में ज्वार, कपास, बाजरा, मक्का, मूंग, मूंगफली, सोयाबीन और तिल जैसी फसलें शामिल हैं.
एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य का मतलब यह होता है कि अगर फसलों की कीमत बाजार के हिसाब से गिर भी जाए, तब भी सरकार तय एमएसपी पर ही किसानों से फसल खरीदेगी, जिस से किसान को नुकसान न हो.
सरकार के कानून इसलिए फेल नहीं होते कि वे गलत तरह से बने होते हैं, बल्कि वे इसलिए फेल होते हैं, क्योंकि उन का क्रियान्वयन गलत तरह से किया जाता है. एमएसपी और मंडियों के साथ भी यही हो रहा है. सरकार को इस में सुधार करना चाहिए था, न कि इस को बंद करने की दिशा में काम करना चाहिए था.
जातपांत है हावी
राजनीतिक विश्लेषक और जन आंदोलन चलाने वाले प्रताप चंद्रा कहते हैं, ‘‘लोकसभा के 2 चुनावों साल 2014 और 2019 में किसानों ने बड़ी तादाद में भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में मतदान किया था. अगर जातीय आधार पर देखें, तो इन में ऊंची जातियों के किसानों का वोट फीसदी सब से अलग था.
‘‘भाजपा की अगुआई वाली केंद्र सरकार ने जब यह सम?ा लिया कि बहुसंख्यक किसान उस के पक्ष में हैं, तो उस ने खेती को प्रभावित करने वाले
3 कानून लागू करने का फैसला कर लिया. उसे यह पता था कि केवल हरियाणा और पंजाब के किसान आंदोलन को लंबे समय तक नहीं चला पाएंगे. इस वजह से यह समय कृषि कानूनों को लागू करने के लिए सब से मुफीद लगा.’’
साल 2014 के लोकसभा चुनावों में पंजाब के किसानों ने भाजपा की अगुआई वाले राजग को 52 फीसदी वोट दिए. ये वोट भी भाजपा की जगह उस के सहयोगी अकाली दल के चलते मिले थे.
साल 2019 के लोकसभा चुनावों में ये वोट घट कर 32 फीसदी रह गए. हरियाणा के किसानों ने राजग यानी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को साल 2014 में 31 फीसदी वोट दिए और साल 2019 में ये वोट बढ़ कर 59 फीसदी हो गए.
बात केवल पंजाब और हरियाणा की नहीं है, बाकी देश के प्रमुख राज्यों में भी किसानों का सब से बड़ा समर्थन राजग को ही मिला.
बिहार में साल 2014 में 37 फीसदी से बढ़ कर 50 फीसदी हो गया. इसी तरह से उत्तर प्रदेश में 42 फीसदी से 54 फीसदी, गुजरात में 55 फीसदी से 62 फीसदी, राजस्थान में 54 फीसदी से 60 फीसदी, उत्तराखंड में 60 फीसदी से 65 फीसदी, मध्य प्रदेश में 55 फीसदी से 59फीसदी, महाराष्ट्र में साल 2014 और 2019 के चुनावों में 54 फीसदी वोट मिले, छत्तीसगढ़ में साल 2014 के लोकसभा चुनावों में किसानों के राजग को 52 फीसदी वोट मिले और 2019 में वे वोट घट कर 46 फीसदी रह गए.
राजनीतिक जानकार मानते हैं कि केंद्र सरकार द्वारा शुरू की गई ‘किसान सम्मान निधि’ के असर से किसानों ने राजग को ज्यादा वोट दिए. इस के साथ ही भाजपा के पक्ष में ऊंची जातियों के होने से राजग को किसानों के वोट ज्यादा मिले.
भारत के ज्यादातर किसान बेहद गरीब हैं. उन के लिए सालाना 6,000 रुपए की बहुत अहमियत होती है.
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पंजाब की किसान राजनीति
भाजपा को पंजाब के किसानों ने कभी भी समर्थन नहीं दिया. राजग के सहयोगी अकाली दल को पंजाब के किसान समर्थन देते थे. भाजपा की केंद्र सरकार ने जब 3 कृषि कानून बनाए तो उस के विरोध में अकाली दल कोटे से केंद्र सरकार में मंत्री हरसिमरत कौर ने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया.
पंजाब में अकाली दल को केवल किसानों का समर्थन ही हासिल नहीं है, बल्कि अकाली दल प्रमुख प्रकाश सिंह बादल का परिवार खेती से ही अपना कारोबार चलाता है. किसानों को अकाली दल का समर्थन इस वजह से मिलता था कि वह किसानों की परेशानियों को हल करने की ताकत रखता था.
भाजपा अब पंजाब में अकाली दल को कमजोर करना चाहती है. ऐसे में वह अकाली दल की बातें नहीं मानना चाहती है. किसान आंदोलन के समझते से बाहर होने के बाद अकाली दल की कीमत किसानों में घट जाएगी.
भाजपा पूरे देश के किसानों को यह संदेश देने में कामयाब रही कि कृषि कानूनों का विरोध केवल पंजाब के किसान ही कर रहे हैं. ऐसे में पूरे देश के किसानों को एकजुट होने से रोक लिया गया.
ऊंची जातियों के किसानों का समर्थन भाजपा के साथ होने से यह बात सम?ाने में भाजपा को आसानी रही. जिन थोड़ेबहुत किसान संगठनों ने आंदोलन को समर्थन देने का काम किया भी, उन को कई तरीकों से दबाव में ले लिया गया.
केंद्र की मोदी सरकार ने पूरे किसानों के मुद्दे को अपने प्रचार तंत्र के बल पर केवल पंजाब व हरियाणा के किसानों तक में सीमित कर के रख दिया. इस वजह से किसान आंदोलन पूरे देश के किसानों का आंदोलन नहीं बन सका.
किसान नेता केवल अपनी जाति और बिरादरी के बीच ही अपना असर रखते हैं. उन का कोई देशव्यापी संगठन नहीं है. किसान नेता राजनीतिक दलों के पिछलग्गू बन कर ही अपनी राजनीति चमकाने का काम करते हैं. 3 कृषि कानूनों के खिलाफ भी केवल 30-40 किसान दल ही एकजुट हुए, तब आंदोलन कर पाए. ज्यादातर किसान दलों की अपनीअपनी राजनीतिक विचारधारा है. ऐसे में केंद्र की मोदी सरकार को इन के बीच तोड़फोड़ करना आसान हो जाता है.
आंदोलन से डरी सरकार
जब किसानों ने एकजुट हो कर सरकार से लड़ाई लड़ी थी, तब फैसला भी किसानों के पक्ष में आया था. तब राष्ट्रीय राजनीति में किसान और किसान नेताओं का मजबूत दखल होता था. कोई भी सरकार इन को नाराज नहीं करना चाहती थी.
चौधरी चरण सिंह ऐसे नेताओं में सब से प्रमुख थे. वे देश के प्रधानमंत्री भी बने थे. उन्होंने साल 1967 में भारतीय क्रांति दल बनाया था और साल 1974 में वे भारतीय लोकदल के नेता बने थे.
ऊंची जातियों के किसानों पर उन की मजबूत पकड़ थी. किसान राजनीति में वही किसान नेता कामयाब रहा है, जिस की पकड़ ऊंची जातियों के किसानों पर रही है.
चौधरी चरण सिंह ने ही साल 1978 में भारतीय किसान यूनियन यानी बीकेयू का गठन किया था. उन की मौत के बाद किसान राजनीति दरकिनार हो गई.
साल 1987 में चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत ने उत्तर प्रदेश में भारतीय किसान यूनियन को फिर से संगठित किया. उन्हें पता था कि इस संगठन को राजनीति से दूर रखना है. इस वजह से भारतीय किसान यूनियन गैरराजनीतिक संगठन के तौर पर काम करती रही.
किसान यूनियन की ताकत 80 के दशक में पूरे देश ने देखी थी. देश की राजधानी को बिजली की बढ़ी दरों को वापस लेना पड़ा था. किसानों की उस समय की तमाम मांगों को मान लिया गया था.
पर किसान यूनियन की ताकत चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत के साथ ही खत्म हो गई. उत्तर प्रदेश में ही भारतीय किसान यूनियन का असर नहीं रहा. किसान आंदोलन में जब तक पूरे देश के हर वर्ग के किसान शामिल नहीं होंगे, तब तक उस का कामयाब होना मुश्किल है.
भारत के 2 बड़े राज्यों बिहार और उत्तर प्रदेश के किसानों के पास सब से कम मात्रा में खेत हैं. बिहार में प्रति किसान औसत 0.4 हैक्टेयर जमीन है. उत्तर प्रदेश के किसान के पास औसत 0.7 हैक्टेयर जमीन है.
इन 2 राज्यों से लोकसभा की 120 सीटें हैं. नए कृषि कानूनों का असर सब से ज्यादा इन दोनों राज्यों के किसानों पर पड़ने वाला है. नए कृषि कानूनों में अमीर किसान और चंद उद्योगपतियों को फायदा होगा. किसानों को बेहद नुकसान होगा.
देश में इन की संख्या 86 फीसदी है. जातीयता की बिसात पर उत्तर प्रदेश और बिहार के किसान सरकार का विरोध करने से बच रहे हैं.
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उदासीन होता छोटा किसान
किसी भी कृषि सुधार कानून का फायदा छोटे किसानों को नहीं मिलता. ऐसे में वह सोचता है कि ऐसे कानून उस के लिए नहीं हैं और वह इस से उदासीन हो जाता है. हरित क्रांति हो या श्वेत क्रांति, दोनों का फायदा बड़े किसानों को हुआ.
इस के बाद की जनगणना साल 1971 में हुई थी, तो पता चला कि उन में भूमिहीन किसानों की तादाद बढ़ गई. कौंट्रैक्ट फार्मिंग का बुरा असर भी छोटे किसानों पर पड़ेगा. जिन लोगों के पास जमीन है, वे अपनी खेती कौंट्रैक्ट फार्मिंग करने वाले लोगों को दे देंगे तो छोटे किसान मजदूर कहां जाएंगे?
देशभर के किसान अभी भले ही कृषि कानूनों का विरोध नहीं कर पा रहे हों या उन को दिक्कतें सम?ा न आ रही हों, पर आने वाले दिनों में वे इस का विरोध जरूर करेंगे.
देश की माली हालत को मजबूत बनाने के लिए जरूरी है कि खेती की बेहतरी के साथसाथ किसानों की बेहतरी का भी ध्यान रखा जाए. पंजाब और हरियाणा के किसान महंगे मोबाइल फोन और गाडि़यों को इस वजह से अपने साथ रखते हैं, क्योंकि वे अपने खेतों से कमाई करते हैं. उत्तर प्रदेश और बिहार के किसान मजदूर इन के खेतों पर काम करते हैं.
पंजाब और हरियाणा के किसानों की तरह उत्तर प्रदेश और बिहार के किसान तब तक जागरूक नहीं होंगे, जब तक उन्हें उन का हक नहीं मिल सकेगा.
कृषि कानूनों का फायदा पूरे देश के किसानों को हो, इस बड़ी सोच के साथ ऐसे कानून बनाने होंगे. कानूनों में सुधार की बात को नाक का सवाल नहीं बनाना चाहिए, तभी देश और देश की आर्थिक व्यवस्था में सुधार हो सकेगा. किसान और खेती को अलगअलग देखने से किसी तरह के सुधार की उम्मीद नहीं करनी चाहिए.