उत्तर प्रदेश के छोटे से शहर प्रतापगढ़ में जनमी ज्योति त्रिपाठी ने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन करने के बाद मुंबई यूनिवर्सिटी से पोस्ट ग्रेजुएशन किया. उन के पिताजी प्रेम कुमार त्रिपाठी पेशे से वकील हैं और माता माया त्रिपाठी गृहिणी.

2 बड़े भाइयों सौरभ और मयंक की लाड़ली और घर की सब से छोटी बेटी ज्योति त्रिपाठी अब मुंबई की मायानगरी से रुपहले परदे पर आ रही फिल्म ‘भुतहा’ में लीड रोल में दिखाई दे रही हैं. पेश हैं, इस फिल्म और उन के बारे में पूछे गए सवालजवाब के खास अंश :

आप को यह फिल्म कैसे मिली?

यह फिल्म मुझे अपने परिवार के सहयोग और आशीर्वाद से मिली. रूपेश कुमार सिंह के यकीन और हौसले ने मुझ से यह फिल्म करवाई.

यैलो फ्लेम्स एंटरटेनमैंट के बैनर पर बनी इस फिल्म के डायरैक्टर रूपेश कुमार सिंह हैं, जिसे प्रोड्यूस किया है मुकेश कुमार सिंह ने.

इस फिल्म की कहानी और अपने रोल के बारे में कुछ बताएं?

यह फिल्म एक जर्नलिस्ट लड़की की कहानी है, जो अपने ही औफिस में फंस जाती है और उस के बाद वहां पैरानौर्मल ऐक्टिविटी शुरू हो जाती हैं. वह लड़की किस तरह वहां से बाहर निकलती है, यह जानने के लिए फिल्म जरूर देखें.

एक आम आदमी इस फिल्म को देख कर अपनी कहानी से रिलेट करेगा, क्योंकि किसी भी जगह पर फंस जाना एक बहुत सामान्य सी घटना है.

आप कवयित्री से फिल्म कलाकार कैसे बनीं?

मैं लीक पर चलने वाली लड़की नहीं हूं. मुझे हमेशा कुछ अलग करना पसंद है. किसी के द्वारा बनाए हुए रास्ते पर चलने से बेहतर मैं मानती हूं कि खुद रास्ता बनाओ.

सच पूछो तो मेरे मन में ये कभी नहीं था कि मैं कवयित्री बनूं. मैं थोड़ा बहुत लिख लेती हूं. मंच पर कविताएं सुनाने से लोगों का प्यार मिलने लगा और कब मेरी पहचान कवयित्री के रूप में हुई, मुझे नहीं पता चला.

मैं इलाहाबाद में थिएटर करती थी. वहां ज्यादा स्कोप नहीं दिखा, इसलिए मुंबई आ गई. यहां 5 साल थिएटर किया. ‘परमावतार श्रीकृष्ण’ सीरियल में काम भी मिला, लेकिन पहचान नहीं बन पाई, इसलिए 3-4 महीने बाद वह सीरियल मैं ने छोड़ दिया. उस के बाद मुझे फिल्म ‘भुतहा’ मिली.

ओटीटी प्लेटफार्म पर कोई फिल्म रिलीज होने से कलाकार को क्या फायदा और नुकसान होता है?

देखिए, एक कलाकार के लिए उस का काम माने रखता है, बजाय उस के कि फिल्म रिलीज कहां पर हो रही है. सिनेमा अब पूरी तरह से बदल चुका है. पहले लोग सिनेमाघर में जा कर फिल्में देखते थे, अब वह दौर चला गया. आज के समय में एक छोटे से फोन में पूरी दुनिया समा गई है. ओटीटी प्लेटफार्म आने से बहुत सारे कलाकारों को काम मिला है. इस से नुकसान कुछ भी नहीं है, सिर्फ फायदा है.

क्या भविष्य में भी आप को फिल्में ही करनी हैं? अगर हां, तो कोई नया प्रोजैक्ट?

बिलकुल फिल्में करनी हैं. वैब सीरीज की भी कहानी मुझे अच्छी लगेगी, तो मैं करूंगी. कई प्रोजैक्ट पर बात चल रही है.

नाम से ही यह फिल्म डरावनी लग रही है. इस तरह की फिल्म से कैरियर शुरू करने से कहीं आप एक टाइप के किरदारों में ही तो बंध कर नहीं रह जाएंगी?

कैरियर की शुरुआत किसी भी जौनर फिल्म से हो, खास बात है शुरुआत होना. एक टाइप के किरदार में बंधना या न बंधना यह तो मेरी चौइस होगी. यह बात सच है कि आप जिस तरह के काम करते हैं भविष्य में आप को उसी तरह के काम औफर होते हैं. मैं बंध कर नहीं हर तरह के किरदार करना पसंद करूंगी.

छोटे शहर की लड़कियों के लिए फिल्म इंडस्ट्री में स्ट्रगल करने के क्या माने हैं? किस तरह के समझौते करने पड़ते हैं?

शहर भले छोटा हो पर सपने अगर आप ने बड़े देखे हैं, तो कुछ माने नहीं रखता. हम कौन से मांबाप के यहां जन्म ले रहे हैं, यह हमारे हाथ में नहीं है. हम किस शहर में पैदा हो रहे हैं, यह हमारे हाथ में नहीं है. हम गोरे पैदा हो रहें कि सांवले, यह हमारे हाथ में नहीं है. हमारे हाथ में है तो सिर्फ हमारी लगन, हमारी मेहनत, हमारा विश्वास हमारा दृढ़ संकल्प.

फिल्म दुनिया में ऐसे कई उदाहरण हैं जहां छोटे शहर से आई लड़कियों ने अपना मुकाम बनाया है. रही बात समझौते की तो यह लोगों की गलतफहमी है कि लड़कियों को समझौते करने पड़ते हैं. अगर समझौतों से ही काम मिलता तो यहां हर लड़की आज स्टार होती. अगर आप में टैलेंट नहीं है तो आप कैमरे के सामने क्या दिखाएंगे? आप कैमरे के सामने अपनी ऐक्टिंग दिखाते हैं, समझौते नहीं.

कोरोना काल में कलाकारों के काम करने में क्या बदलाव आया है?

कोरोना की वजह से कई फिल्मों और सीरियल की शूटिंग रोक दी गई थी. ज्यादातर कलाकार बाहर के हैं तो तकरीबन सब वापस चले गए थे, पर अब धीरेधीरे सब लौट रहे हैं. काम भी अपनी रफ्तार पकड़ चुका है.

अमूमन यह माना जाता है कि किसी डरावनी फिल्म की हीरोइन के उस में हौट सीन होंगे? क्या इस फिल्म में भी ऐसा ही देखने को मिलेगा?

अभी तक क्या होता आया है हम सब इन से परे हैं. इस फिल्म के डायरैक्टर रूपेश कुमार सिंह ने लीक से हट कर हर मुद्दे पर काम किया है. उन का कहना है कि हौरर फिल्मों में क्या होता आया है, अगर हम भी वही करेंगे तो हम अलग कैसे हुए.

आज हर इनसान होशियार है. वह घिसीपिटी चीजें नहीं देखना चाहता है, बल्कि वह कुछ अलग देखना चाहता है. इस फिल्म में आप को हर वह चीज देखने को मिलेगी, जो अभी तक नहीं हुई.

दुनिया में कुछ फिल्में सिंगल करैक्टर को ले कर बनाई गई हैं, लेकिन फिल्म ‘भुतहा’ इसलिए अलग है कि इस में किसी एक तसवीर का भी इस्तेमाल नहीं किया गया. एक औफिस के अंदर ही पूरी कहानी है. बाकी फिल्मों में कहीं तसवीर दिखी है तो कहीं भीड़.

जहां एक तरफ लोग क्राइम और सैक्स परोस रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ ‘भुतहा’ एक साफसुथरी फिल्म है, जिसे आप अपने परिवार के साथ बैठ कर देख सकते हैं.

नैपोटिज्म और मीटू मुहिम जैसे मुद्दों पर आप की राय क्या है? क्या आप के सामने भी ऐसे हालात आए हैं?

मैं इन दोनों चीजों को कोई मुद्दा मानती ही नहीं. ये सब चोंचले हैं. नैपोटिज्म कहां नहीं है. हर इनसान अगर अपने लोगों को ही बढ़ाना चाहता है तो इस में गलत क्या है? हां, मैं यह गलत मानती हूं कि किसी का हक न छीना जाए.

रही बात मीटू कि तो ये पानी के बुलबुले हैं जिन का वजूद कुछ सैकंड बाद खत्म हो जाता है. यहां लोग सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए सालों बाद उठ कर आते हैं और आरोप लगाते हैं. अगर आप में हिम्मत है और आप को कुछ भी गलत लग रहा है तो आप तुरंत बोलिए खासकर फिल्मी दुनिया में मैं ऐसा नहीं मानती, क्योंकि इस दुनिया में लोग आप की मरजी के बिना आप को देखेंगे भी नहीं, मीटू तो बहुत दूर की बात है. मेरे साथ कभी ऐसा नहीं हुआ.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...