Family Story : पूरे देश में अब अनलौक की शुरुआत हो चुकी थी. औफिस, बाजार वगैरह खुल गए थे. लौकडाउन के दौरान बड़े पैमाने पर काम से लोगों की हुई छंटनी का असर हर तरफ दिख रहा था.
लौकडाउन के समय भारी तादाद में मजदूर अपनेअपने गांव लौट गए थे. गांवों के हालात कोई अच्छे नहीं थे. वहां का समाज अपने लोगों को काम और भोजन मुहैया करा पाने में नाकाम साबित हुआ था. लिहाजा, मजदूर फिर से वापस शहरों की तरफ रुख कर रहे थे. उसी शहर की तरफ जिस ने मुसीबत में सब से पहले उन का साथ छोड़ा था.
दूसरे मजदूरों की तरह अब्दुल भी लौकडाउन में परिवार समेत अपने गांव लौट आया था. उस ने तय कर लिया था कि अब वह नोएडा कभी वापस नहीं जाएगा. पीढि़यों से जिस गांव में उस का परिवार रहता आया हो, वहां उसे दो जून की रोटी कमाने में कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए.
नोएडा में अब्दुल एक बहुमंजिला औफिस के बाहर सड़क के किनारे चाय का छोटा सा स्टाल लगाता था, जिस से वह इतना कमा लेता था कि परिवार का गुजारा चल जाता था. यह बात उस को मालूम थी कि गांव में केवल खेती के मौसम में ही काम आसानी से मिल पाता?है. खेती के मौसम के बाद बाकी के महीनों में वह गांव से सटे ब्लौक में चाय का स्टाल लगाया करेगा. गांव में खर्च भी कम होता है, तो उस का काम कम आमदनी में भी चल जाएगा.
धान रोपनी के मौसम में अब्दुल और उस की बीवी को धान बोने का काम मिल गया. 2 महीने आराम से कट गए. धान रोपनी के बाद अब्दुल फिर से बेरोजगार हो गया था. उस ने अपनी छोटी सी जमापूंजी से एक ठेला खरीदा और ब्लौक के एक नुक्कड़ के पीछे चाय का स्टाल लगाना शुरू कर दिया.
कुछ ही दिनों में अब्दुल का धंधा चल निकला. आमदनी ठीकठाक होने लगी. यह सोच कर अब्दुल बहुत खुश था कि परिवार का पेट पालने के लिए अब उसे अपना गांव छोड़ कर कहीं नहीं जाना पड़ेगा.
हालांकि अब्दुल को उसे इलाके के लोग पहचानते थे, फिर भी उस की कमाई कुछ लोगों को खटकने लगी थी. पहले किसी ने कल्पना ही नहीं की थी कि नुक्कड़ के पीछे के एक कोने में भी कोई कामधंधा चल सकता है.
एक दिन कुछ लोफर लड़के बाइक से उस के स्टाल पर आए और उन में से एक लड़के ने, जो खुद को नेता समझता था, अब्दुल से कड़क आवाज में पूछा, ‘‘यहां तुम्हें किस ने ठेला लगाने की इजाजत दी है?’’
‘‘मालिक, यह जगह खाली थी तो रोजीरोटी कमाने के लिए मैं यहां ठेला लगाने लगा,’’ अब्दुल सहमते हुए बोला.
‘‘पता है न कि आगे नुक्कड़ पर देवी स्थान है?’’
‘‘जी…’’
‘‘फिर यह जगह हिंदुओं की हुई न. यहां किसी गैरहिंदू का होना इस जगह को अपवित्र कर रहा है. तुम इस जगह को खाली कर कहीं और अपना कामधंधा करो. समझ गए न…’’ दूसरे लड़के ने धमकाते हुए कहा.
फिर वे लड़के वहां से तेजी से मोटरसाइकिल घुमाते हुए निकल गए. अब्दुल उन लड़कों में से एक को पहचान गया था. वह लड़का उस के बेटे शकील का दोस्त था. जब शकील जिंदा था, तो वह उस के घर आयाजाया करता था.
शकील नोएडा में राजमिस्त्री का काम करता था. 2 साल पहले नोएडा में एक बहुमंजिला इमारत के बनने के दौरान हुए एक हादसे में उस की मौत हो गई थी. उन शोहदों की धमकी से अब्दुल डर गया था. फिर उस ने खुद को समझाया कि ये बच्चे जानबूझ कर मजे के लिए ऐसी हरकत कर रहे होंगे. शायद अब वह दोबारा आएंगे भी नहीं.
‘‘यह गांवसमाज सब का है. 50 साल की उम्र में मैं ने अपने गांव या आसपास के गांवों में कभी हिंदूमुसलमान होते नहीं देखा है. बिरजू काका, छोटा काकी, मूलचंद दादा जैसे बड़ेबुजुर्गों की छांव में राम नारायण, बेचू, महेंद्र जैसे कितनों दोस्तों के साथ मैं ने हंसीखुशी अपनी जिंदगी गुजारी है.
‘‘नदी में नहाना हो या बाग में घुस कर आम चुराना, ताजिया देखने जाना हो या दुर्गा पूजा का मेला देखने, मजहब की पहचान कभी आड़े नहीं आई. होली और ईद सब ने मिल कर साथ मनाई,’’ शाम में घर जाते हुए अब्दुल सोच रहा था.
अब्दुल उन गुंडों की बात को उन की दिल्लगी समझ कर भूल गया और उसी जगह पर ठेला लगाता रहा.
2-4 दिन बाद वही गुंडे फिर से आए और उन में से एक फट पड़ा, ‘‘ऐ बूढ़े, अपनी जान प्यारी नहीं है क्या? समझाया था न कि यह जगह हिंदुओं की है, सो अब यहां से हट कर कहीं और अपना ठेला लगाओ.’’
‘‘यह जमीन सरकारी है. यह सिर्फ हिंदुओं की नहीं, सब की है,’’ अब्दुल ने हिम्मत दिखाते हुए जवाब दिया.
अब्दुल के जवाब को सुन कर वे लोग तिलमिला उठे. वे अब्दुल से गालीगलौज करने लगे. उन में से एक ने अब्दुल को 2 थप्पड़ जड़ दिए.
यह मजमा देखने के लिए लोगों की भीड़ लग गई. भीड़ से एक दबी सी आवाज आई कि किसी निहत्थे आदमी को इस तरह मारना गलत है.
यह सुन कर नेताटाइप लड़का चिल्लाया, ‘‘हमारे हिंदू धर्म की बेइज्जती करता है. हम लोगों से ही इस की रोजीरोटी चलती है और ये हमारे ही देवीदेवता के बारे में अनापशनाप बकता?है.’’
उस लड़के की बात सुन कर अब्दुल अवाक रह गया. उस ने तो धर्म के नाम पर एक शब्द भी नहीं बोला था. वह अपने बचाव में कुछ कहना चाह रहा था. लेकिन कोई सुनने को तैयार ही नहीं था. लड़कों के लातमुक्कों से वह बेहोश हो रहा था.
अब्दुल ने हिंदू देवीदेवताओं की बेइज्जती की है, यह सुन कर भीड़ गुस्सा हो गई थी. हालांकि कुछ लोग अब्दुल को बचाने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन उन्हें भी विरोध का सामना करना पड़ रहा था.
अब्दुल बुरी तरह लहूलुहान हो कर सड़क के किनारे तड़प रहा था. भीड़ में से किसी ने अब्दुल को अस्पताल तक पहुंचा दिया. मरहमपट्टी करा कर अब्दुल एक बिस्तर पर लेट गया.
‘अगर राम नारायण या महेंद्र में से कोई वहां होता, तो उन लोगों की मजाल नहीं होती कि मुझे पीट सके. अपनी जवानी के दिनों में अपने दोस्तों साथ मिल कर न जाने कितनी शरारतें की थीं. बिरजू काका की तंबाकू चुरा कर दोस्तों के साथ हुक्का पीने का मजा ही कुछ और था,’ बिस्तर पर लेटेलेटे अब्दुल पुराने दिन याद कर रहा था.
इस वारदात की खबर मिलते ही अब्दुल के समुदाय के कुछ लोग उस से मिलने अस्पताल आए. अब्दुल के साथ हुई हैवानियत का बदला लेने के लिए उन में से कुछ लोग उतावले थे.
अब्दुल उन लोगों की मंशा समझ गया कि ये लोग सिर्फ अपने निजी फायदे को पूरा करने के लिए इस मौके का भुनाना चाह रहे हैं.
‘‘चाचाजान, आप हम लोगों के साथ सिर्फ खड़े रहो, फिर देखो कि हम खून का बदला खून से कैसे लेते हैं,’’ एक नौजवान गुस्से में बोल रहा था.
‘तो ये गुंडेटाइप के नेता हर जगह पैदा हो गए हैं. जब मैं लौकडाउन में गांव लौटा, तो इन में से किसी ने मेरी कोई खोजखबर नहीं ली. अब अपनी नेतागीरी चमकाने के लिए आज अचानक से ये मेरे हिमायती बन कर आ गए हैं,’ अब्दुल ने यह सोचते हुए आंखें बंद कर लीं और कोई जवाब नहीं दिया.
उन तथाकथित नेताओं को अब्दुल से कोई मदद नहीं मिली. वे बैरंग लौट गए.
2 हफ्ते के बाद अब्दुल को अस्पताल से छुट्टी मिली. अस्पताल से लौटते हुए उस ने देखा कि जिस जगह पर वह स्टाल लगाया करता था, वहां किसी और का स्टाल लगा हुआ था. वह समझ गया कि यह सारा तमाशा उस जगह को हथियाने के लिए किया गया था.
धर्म को तो बस हथियार बनाया गया. उस को इस बात का मलाल था कि उस की पिटाई उस अपराध के लिए हुई, जो उस ने कभी की ही नहीं थी. सिर्फ धर्म का नाम ले लेने पर कोई और उसे बचाने के लिए आगे नहीं आया.
वह यह भी समझ रहा था कि वहां मौजूद सभी लोग वैसे नहीं रहे होंगे, पर उन गुंडों के डर से किसी ने कुछ बोलने की हिम्मत नहीं दिखाई होगी.
नोएडा में काम करते हुए जब अब्दुल ने अखलाक और तबरेज की हत्या की वारदात के बारे में सुना था, तो उसे अपने गांवसमाज की याद आई थी. उसे गर्व होता था कि उस के गांव में सांप्रदायिकता की विषबेल नहीं फैली थी और ऐसी कोई उम्मीद भी नहीं थी.
अब्दुल हमेशा सपना देखा करता था कि कुछ पैसे कमा कर वह वापस अपने गांव चला जाएगा. लौकडाउन में अब्दुल उसी समाज के भरोसे परिवार समेत वापस आ गया था. पर वह समाज उसे अब कहीं दिखाई नहीं दे रहा था.
अब्दुल का दिल टूट गया था. गांव के नौजवान भी इस घटना का कुसूरवार उसे ही ठहरा रहे थे. भरे मन से अब्दुल ने परिवार समेत नोएडा वापस लौटने का फैसला किया.
ट्रेन में बैठने से पहले अब्दुल ने पीछे मुड़ कर भरे मन से अपने गांव की ओर देखा और फिर आंख पोंछते हुए अपनी सीट पर आ कर बैठ गया.
ट्रेन ने जैसे ही रफ्तार पकड़ी, अब्दुल के सब्र का बांध टूट गया. वह दहाड़ें मार कर रोने लगा.
लेखक – सुजीत सिन्हा