Family Story : और मौतों सरीखी वह भी एक मौत थी. एकदम साधारण. किसी 45 से 48 साल के आदमी की जो किसी प्राइवेट फैक्टरी में नाइट शिफ्ट में सुपरवाइजर था.
उस दिन जब उस ने मंत्रीजी को यह कहते सुना था कि काले धन को बाहर लाने के लिए हमें यह कड़ा कदम उठाना पड़ रहा है और यह फैसला लेना पड़ रहा है कि 500 व 1,000 के नोट बंद किए जाते हैं, तब दीपक कुमार, हां यही नाम था उस का, बहुत खुश हुआ था. वह फैक्टरी
में अपने साथियों से कहने लगा था, ‘‘देखना, अब अच्छे दिन जरूर आएंगे और धन्ना सेठों को अपना काला पैसा निकालना ही पड़ेगा.
‘‘अपनी फैक्टरी का मालिक भी कम थोड़े ही है. इन के पास भी बहुत काला धन है. अब तो सब सामने लाना ही पड़ेगा. देखना दोस्तो, अब तनख्वाह भी समय पर मिल जाया करेगी. अब तो कभी 10 तो कभी 15 तारीख को मिलती है.’’
उस महीने दीपक की बात सौ फीसदी सच हो गई थी. सभी मुलाजिमों को 25 तारीख को ही तनख्वाह मिल
गई थी, वह भी 500 व 1,000 के कड़कड़ाते नोट. सभी खुश थे.
दीपक तो सभी से कह रहा था, ‘‘देखो, मेरी बात सच हो गई न? अब आगेआगे देखो, होता है क्या.’’
वैसे, दीपक पिछले 17 सालों से इस फैक्टरी में काम कर रहा था. उस की समय पर सही फैसले लेने की कूवत को देखते हुए उसे परमानैंट नाइट शिफ्ट ही दे दी गई थी.
तनख्वाह के अलावा 2,000 रुपए हर महीने नाइट शिफ्ट भत्ता भी मिल जाता था. दीपक इसी में खुश था. नाइट शिफ्ट में तेज रफ्तार से हुए प्रोडक्शन
के चलते कई बार मैनेजमैंट ने ‘मजदूर दिवस’ पर उस का सम्मान भी किया था.
मैनेजमैंट तो मैनजमैंट ही होता है. निजी संस्थानों का मैनेजमैंट तो और भी सख्त होता है. यहां पर भी मैनेजमैंट द्वारा रखे गए आंखों और कानों ने दीपक की बातों का ब्योरा सभी मसालों के साथ मैनेजमैंट के सामने रख दिया.
हिंदी की एक कहावत है न कि दूध देती गाय की लात भी सहन की जाती है, शायद उसी तर्ज पर दीपक पर कोई कड़ी कार्यवाही नहीं की गई थी.
अगले महीने की पहली तारीख आतेआते तक हालात साफ होने लगे. कारखाने में कच्चे माल की कमी होने लगी. इसी वजह से 5 तारीख से रात की पाली बंद करने का फैसला लेना पड़ा.
दीपक ने जब यह सूचना सुनी तो वह कारखाने के मैनेजर से मिलने पहुंचा.
‘‘दीपक, तुम… नाइट शिफ्ट के बेताज बादशाह. आज दिन में कैसे?’’ मैनेजर ने बनावटी स्वांग के साथ पूछा.
‘‘सर, नाइट शिफ्ट का प्रोडक्शन का सामान न होने के चलते कुछ समय के लिए बंद कर दिया गया है. मैं चाहता हूं कि इस दौरान मुझे दिन में ड्यूटी दी जाए,’’ दीपक गुजारिश करता हुआ बोला.
‘‘देखो दीपक, दिन में पूरा स्टाफ है और उसे डिस्टर्ब करना ठीक नहीं होगा. और फिर तुम ने भी तो सुना है कि मंत्रीजी ने कहा है कि महीने 2 महीने
की दिक्कत है, फिर सब पहले जैसा हो जाएगा. बस, थोड़ा इंतजार करो.
‘‘वैसे भी तुम कई दिनों से अपने गांव नहीं गए हो, जरा गांव तक ही घूम आओ. जैसे ही नाइट शिफ्ट चालू होगी, तुम्हें सूचित कर दिया जाएगा,’’ मैनेजर ने उसे समझाने वाले लहजे में कहा.
दीपक ने सोचा कि यह भी ठीक है. मातापिता से भी वह कई दिनों से नहीं मिला. उन से मिलने चला जाता हूं. मातापिता से आराम से कुछ बातें भी हो जाएंगी.
गांव में दीपक के पिता के पास 10 बीघा जमीन है जिस में मातापिता का गुजारा आराम से हो जाता है.
जिस समय दीपक गांव में पहुंचा उस समय पिताजी घर के आंगन में ही खटिया डाल कर बैठे हुए थे. उन्होंने दूर से ही आते हुए दीपक को पहचान लिया और आवाज दे कर दीपक की मां को भी बाहर बुलवा लिया.
वे दोनों दीपक को इस तरह से बिना सूचना आए देख कर खुश भी थे और हैरान भी. जब दीपक ने अपने आने की वजह बताई और यह बताया कि वह इस बार लंबे समय तक रहेगा तो सभी खुश हो गए और मंत्री को दुआएं देने लगे.
वे दिन दीपक की जिंदगी के सब से अच्छे दिन गुजरे. गांव की ताजा व खुली हवा, पुराने यारदोस्त, मां के हाथ की ज्वार की रोटी. हालांकि पिताजी को फसलों के दाम पिछले साल की तुलना में कम मिले थे, फिर भी वे खुश थे.
धीरेधीरे एक महीना गुजर गया, पर दीपक के कारखाने से कोई फोन नहीं आया. वैसे, दीपक ने खुद कई बार फोन लगाया, पर जल्दी सूचना देने के सिर्फ आश्वासन ही मिले.
दीपक ने वापस शहर जाने का फैसला ले लिया, क्योंकि मातापिता की माली हालत भी बहुत अच्छी नहीं थी.
शहर में घर का किराया वगैरह चुकाने के बाद उस के पास नाममात्र के पैसे बचे थे, क्योंकि शहर से जाते समय वह मातापिता के लिए कपड़े व कुछ जरूरी सामान भी ले गया था. उसे यकीन था कि फैक्टरी में रात की पाली जल्दी ही चालू हो जाएगी.
दोपहर के तकरीबन 12 बजे दीपक फैक्टरी पहुंच गया. उसे फैक्टरी मैनेजर साहब औफिस के बाहर ही मिल गए. वह उन से अपनी ड्यूटी के सिलसिले में बातें करने लगा और वह हमेशा की तरह उसे उम्मीद बंधाने वाले जवाब दे रहे थे.
‘‘बस, अगले 15-20 दिनों में माली हालत में सुधार होते ही फैक्टरी की नाइट शिफ्ट चालू कर दी जाएगी. अभी तो जो लोग काम कर रहे हैं उन की तनख्वाह ही समय पर होना मुश्किल है.
‘‘मैं इसी उधेड़बुन में बाहर निकला हूं कि कारखाने का कौन सा स्क्रैप बेच कर मुलाजिमों की तनख्वाह निकाल सकूं. तुम्हारी जानकारी में ऐसा कोई स्क्रैप हो तो बताओ,’’ आश्वासन देते हुए मैनेजर ने दीपक से पूछा.
दीपक मैनेजर को अपनी जानकारी के मुताबिक स्क्रैप के बारे में बताने लगा. तभी एक लंबी चमचमाती सफेद कार कारखाने में दाखिल हुई.
‘‘अरे, सेठजी आ गए,’’ कहते हुए मैनेजर कार की तरफ लपका.
चूंकि दीपक उस कारखाने का पुराना मुलाजिम था, इसी वजह से मालिक भी उसे पहचानते थे.
‘‘नमस्ते सर,’’ दीपक ने मालिक को देखते ही हाथ जोड़ कर कहा.
‘‘कैसे हो दीपक?’’ कार से उतर कर मालिक ने पूछा.
‘‘मैं ठीक हूं सर,’’ दीपक ने जवाब दिया.
‘‘कैसे आना हुआ?’’ मालिक ने पूछा.
‘‘सर, पिछले डेढ़ महीने से नाइट शिफ्ट बंद है. यही जानकारी लेने आया था कि कब तक फिर से चालू हो जाएंगी,’’ दीपक ने जवाब दिया.
मालिक ने इशारे से उसे अपने औफिस में आने को कहा. दीपक को लगा कि अब तो उस की ड्यूटी फिर से चालू हो ही जाएगी. आखिर इतने दिनों तक उस ने अकेले रातरात भर जाग कर अच्छा प्रोडक्शन जो दिया था. कई बार मुश्किल हालात में भी कारखाने को अच्छे से चलाए रखने का इनाम शायद आज उसे मिल जाए.
औफिस के अंदर सिर्फ 2 ही लोग थे कारखाने के मालिक और दीपक.
मालिक ने ही बात शुरू की और बोले, ‘‘हां, तो दीपक उस दिन वर्करों
से क्या कह रहे थे तुम? सेठ का काला धन अब बाहर निकल आएगा… और देखो, निकल आया.
‘‘जिसे तुम काला धन कह रहे थे, उसी धन से तुम्हारे जैसे कितने लोगों के घर के चूल्हे जल रहे थे. तुम्हारे घर वालों को दवादारू मिल रही थी. तुम्हें मिलने वाला पैसा तुम्हारे जीने का आधार था.
‘‘अब बताओ कि इस से क्या साबित हुआ? काला धन किस के पास था? मेरे पास या तुम्हारे पास? मैं तो जितना खाना तब खाता था उतना ही अब भी खा रहा हूं. भूखा कौन मर रहा है? तुम्हारे जैसे मेहनती लोग न? तो फिर काला धन किस के पास हुआ और किस का निकला? तुम्हारा ही न?
‘‘देखो, मैं जो देख रहा हूं उस के मुताबिक कम से कम 6 महीने तक तो यह फैक्टरी पूरे तौर पर नहीं चल पाएगी. तुम चाहो तो दूसरी नौकरी ढूंढ़ लो, पर मैं जहां तक जानता हूं तकरीबन हर इंडस्ट्री की हालत ऐसी ही है. अब तुम जा सकते हो.’’
दीपक भारी कदमों से औफिस के बाहर निकल गया. घर जाते समय सोच रहा था कि इस से तो काला धन ही बेहतर था. कम से कम करोड़ों मजदूरों को रोजगार तो मिला हुआ था. घर चल रहा था, बच्चे पढ़ रहे थे.
सोचतेसोचते दीपक एक बगीचे में पहुंच गया. यहां लोग सुबहशाम घूमने के लिए आते हैं. पर इस दोपहरी में भी वहां पर कई लोग बैठे थे जो उस के जैसे ही थे. वे भी आसपास की फैक्टरियों में रोजगार तलाश रहे थे.
अब दीपक को मालिक के शब्द सही लगने लगे थे. पहले जो लोग मलाई खा रहे थे, वे तो अब भी गाढ़ा दूध पी रहे हैं, पर जो लोग सूखी रोटी खा रहे थे, वे बेचारे तो भूखे ही मर रहे हैं. गलती कौन कर रहा है और सजा कौन पा रहा है. ठीक है कि अगले 10-15 सालों का भारत अलग होगा, पर आज जो मर रहे हैं, उन का क्या? इस माहौल में जो बच्चे बड़े हो रहे हैं, क्या वे इन कमियों की वजह से अपराधी नहीं बनेंगे?
बेहतर होता कि इस के दूरगामी नतीजों की जांचपड़ताल कर इस फैसले को धीरेधीरे असरदार ढंग से लागू किया जाता. एक अपराध को रोकने की वजह दूसरे अपराधों की जन्मदाता तो नहीं होती.
पता नहीं, दीपक को कब गहरी नींद लग गई. इतनी गहरी कि फिर कभी उठ ही नहीं पाया. लोग कह रहे थे, दिल के दौरे से मौत हुई थी, पर असलियत…