सुहागरात को दुलहन बनी शुभा से पति ने प्रथम शब्द यही कहे थे, ‘मेरी एक मामी हैं. वे बहुत अच्छी हैं. हमारे घर में सभी उन की प्रशंसा करते हैं. मैं चाहता हूं, भविष्य में तुम उन का स्थान लो. सब कहें कि बहू हो तो शुभा जैसी. मैं चाहता हूं जैसे वे सब को पसंद हैं, वैसे ही तुम भी सब की पसंद बन जाओ.’

पति ने अपनी धुन में बोलतेबोलते एक आदर्श उस के सामने प्रस्तुत कर दिया था. वास्तव में शुभा को भी पति की मामी बहुत पसंद आई थीं, मृदुभाषिणी व धीरगंभीर. वे बहुत स्नेह से शुभा को खाना खिलाती रही थीं. उस का खयाल रखती रही थीं. नई वधू को क्याक्या चाहिए, सब उन के ध्यान में था. सत्य है, अच्छे लोग सदा अच्छे ही लगते हैं, उन्होंने सब का मन मोह रखा था.

वक्त बीतता गया और शुभा 2 बच्चों की मां बन गई. मामी से मुलाकात होती रहती थी, कभी शादीब्याह पर तो कभी मातम पर. शुभा की सास अकसर कहतीं, ‘‘देखा मेरी भाभी को, कभी ऊंची आवाज में बात नहीं करतीं.’’

शुभा अकसर सोचती, ‘2-3 वर्ष के अंतराल के उपरांत जब कोई मनुष्य किसी सगेसंबंधी से मिलता है, तब भला उसे ऊंचे स्वर में बात करने की जरूरत भी क्या होगी?’ कभीकभी वह इस प्रशंसा पर जरा सा चिढ़ भी जाती थी.

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एक शाम बच्चों को पढ़ाते पढ़ाते उस ने जरा डांट दिया तो सास ने कहा, ‘‘कभी अपनी मामी को ऊंचे स्वर में बात करते सुना है?’’

‘‘अरे, बच्चों को पढ़ाऊंगी तो क्या चुप रह कर पढ़ाऊंगी? क्या सदा आप मामीमामी की रट लगाए रखती हैं. अपने घर में भी क्या वे ऊंची आवाज में बात नहीं करती होंगी?’’ बरसों की कड़वाहट सहसा निकली तो बस निकल ही गई, ‘‘अपने घर में भी मुझे कोई आजादी नहीं है. आप लोग क्या जानें कि अपने घर में वे क्याक्या करती होंगी. दूसरी जगह जा कर तो हर इंसान अनुशासित ही रहता है.’’

‘‘शुभा,’’ पति ने बुरी तरह डांट दिया. वह प्रथम अवसर था जब उस की मामी के विषय में शुभा ने कुछ अनचाहा कह दिया था.

कुछ दिन सास का मुंह भी चढ़ा रहा था. उन के मायके की सदस्य का अपमान उन से सहा न गया. लेदे कर वही तो थीं, जिन से सासुमां की पटती थी.

धीरेधीरे समय बीता और मामाजी के दोनों बच्चों की शादियां हो गईं. शुभा उन के शहर न जा पाई क्योंकि उसे घर पर ही रहना था. सासुमां ने महंगे उपहार दे कर अपना दायित्व निभाया था.

ससुरजी की मृत्यु के बाद परिवार की पूरी जिम्मेदारी शुभा के कंधों पर आ गई थी. सीमित आय में हर किसी से निभाना अति विकट था, फिर भी जोड़जोड़ कर शुभा सब निभाने में जुटी रहती.

पति श्रीनगर गए तो उस के लिए महंगी शौल ले आए. इस पर शुभा बोली, ‘‘इतनी महंगी शौल की क्या जरूरत थी. अम्मा के लिए क्यों नहीं लाए?’’

‘‘अरे भई, इस पर किसी का नाम लिखा है क्या. दोनों मिलजुल कर इस्तेमाल कर लिया करना.’’

शुभा ने शौल सास को थमा दी.

कुछ दिनों बाद कहीं जाना पड़ा तो शुभा ने शौल मांगी तो पता चला कि अम्मा ने मामी को पार्सल करवा दी.

यह सुन शुभा अवाक रह गई, ‘‘इतनी महंगी शौल आप ने…’’

‘‘अरे, मेरे बेटे की कमाई की थी, तुझे क्यों पेट में दर्द हो रहा है?’’

‘‘अम्मा, ऐसी बात नहीं है. इतनी महंगी शौल आप ने बेवजह ही भेज दी. हजार रुपए कम तो नहीं होते. ये इतने चाव से लाए थे.’’

‘‘बसबस, मुझे हिसाबकिताब मत सुना. अरे, मैं ने अपने बेटे पर हजारों खर्च किए हैं. क्या मुझे इतना भी अधिकार नहीं, जो अपने किसी रिश्तेदार को कोई भेंट दे सकूं?’’

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अम्मा ने बहू की नाराजगी जब बेटे के सामने प्रकट की, तब वह भी हैरान रह गया और बोला, ‘‘अम्मा, मैं पेट काटकाट कर इतनी महंगी शौल लाया था. पर तुम ने बिना वजह उठा कर मामी को भेज दी. कम से कम हम से पूछ तो लेतीं.’’

इस पर अम्मा ने इतना होहल्ला मचाया कि घर की दीवारें तक दहल गईं. शुभा और उस के पति मन मसोस कर रह गए.

‘‘पता नहीं अम्मा को क्या हो गया है, सदा ऐसी जलीकटी सुनाती रहती हैं. इतनी महंगाई में अपना खर्च चलाना मुश्किल है, उस पर घर लुटाने की तुक मेरे तो पल्ले नहीं पड़ती,’’ शौल का कांटा शुभा के पति के मन में गहरा उतर गया था.

कुछ समय बीता और एक शाम मामा की मृत्यु का समाचार मिला. रोतीपीटती अम्मा को साथ ले कर शुभा और उस के पति ने गाड़ी पकड़ी. बच्चों को ननिहाल छोड़ना पड़ा था.

क्रियाकर्म के बाद रिश्तेदार विदा होने लगे. मामी चुप थीं, शांत और गंभीर. सदा की भांति रो भी रही थीं तो चुपचाप. शुभा को पति के शब्द याद आने लगे, ‘हमारी मामी जैसी बन कर दिखाना, वे बहुत अच्छी हैं.’

शुभा के पति और मामा का बेटा अजय अस्थियां विसर्जित कर के लौटे तो अम्मा फिर बिलखबिलख कर रोने लगीं, ‘‘कहां छोड़ आए रे, मेरे भाई को…’’

शुभा खामोशी से सबकुछ देखसुन रही थी. मामी का आदर्श परिवार पिछले 20 वर्षों से कांटे की शक्ल में उस के हलक में अटका था. उन के विषय में जानने की मन में गहरी जिज्ञासा थी. मामी की बहू मेहमाननवाजी में व्यस्त थी और बेटी उस का हाथ बंटाती नजर आ रही थी. एक नौकर भी उन की मदद कर रहा था.

बहू का सालभर का बच्चा बारबार रसोई में चला जाता, जिस के कारण उसे असुविधा हो रही थी. शुभा बच्चा लेना चाहती, मगर अपरिचित चेहरों में घिरा बच्चा चीखचीख कर रोने लगता.

‘‘बहू, तुम कुछ देर के लिए बच्चे को ले लो, नाश्ता मैं बना लेती हूं,’’ शुभा के अनुरोध पर बीना बच्चे को गोद में ले कर बैठ गई.

जब शुभा रसोई में जाने लगी तो बीना ने रोक लिया, ‘‘आप बैठिए, छोटू है न रसोई में.’’

मामी की बहू अत्यंत प्यारी सी, गुडि़या जैसी थी. वह धीरेधीरे बच्चे को सहला रही थी कि तभी कहीं से मामी का बेटा अजय चला आया और गुस्से में बोला, ‘‘तुम्हारे मांबाप कहां हैं? वे मुझ से मिले बिना वापस चल गए? उन्हें इतनी भी तहजीब नहीं है क्या?’’

‘‘आप हरिद्वार से 2 दिनों बाद लौटे हैं. वे भला आप से मिलने का इंतजार कैसेकर सकते थे.’’

‘‘उन्हें मुझ से मिल कर जाना चाहिए था.’’

‘‘वे 2 दिन और यहां कैसे रुक जाते? आप तो जानते हैं न, वे बेटी के घर का नहीं खाते. बात को खींचने की क्या जरूरत है. कोई शादी वाला घर तो था नहीं जो वे आप का इंतजार करते रहते.’’

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‘‘बकवास बंद करो, अपने बाप की ज्यादा वकालत मत करो,’’ अजय तिलमिला गया.

‘‘तो आप क्यों उन्हें ले कर इतना हंगामा मचा रहे हैं? क्या आप को बात करने की तमीज नहीं है? क्या मेरा बाप आप का कुछ नहीं लगता?’’

‘‘चुप…’’

‘‘आप भी चुप रहिए और जाइए यहां से.’’

शुभा अवाक रह गई. उस के सामने  ही पतिपत्नी भिड़ गए थे. ज्यादा  दोषी उसे अजय ही नजर आ रहा था. खैर, अपमानित हो कर वह बाहर चला गया और बहू रोने लगी.

‘‘जब देखो, मेरे मांबाप को अपमानित करते रहते हैं. मेरे भाई की शादी में भी यही सब करते रहे, वहां से रूठ कर ही चले आए. एक ही भाई है मेरा, मुझे वहां भी खुशी की सांस नहीं लेने दी. सब के सामने ही बोलना शुरू कर देंगे. कोई इन्हें मना भी नहीं करता. कोई समझाता ही नहीं.’’

शुभा क्या कहती. फिर जरा सा मौका मिलते ही शुभा ने मामी की समझदार बेटी से कहा, ‘‘जया, जरा अपने भाई को समझाओ, क्यों बिना वजह सब के सामने पत्नी का और उस के मांबाप का अपमान कर रहा है. तुम उस की बड़ी बहन हो न, डांट कर भी समझा सकती हो. कोई भी लड़की अपने मांबाप का अपमान नहीं सह सकती.’’

‘‘उस के मांबाप को भी तो अपने दामाद से मिल कर जाना चाहिए था. बीना को भी समझ से काम लेना चाहिए. क्या उसे पति का खयाल नहीं रखना चाहिए. वह भी तो हमेशा अजय को जलीकटी सुनाती रहती है?’’

शुभा चुप रह गई और देखती रही कि बीना रोतेरोते हर काम कर रही है. किसी ने उस के पक्ष में दो शब्द भी नहीं कहे.

खाने के समय सारा परिवार इकट्ठा हुआ तो फिर अजय भड़क उठा, ‘‘अपने बाप को फोन कर के बता देना कि मैं उन लोगों से नाराज हूं. आइंदा कभी उन की सूरत नहीं देखूंगा.’’

तभी शुभा के पति ने उसे बुरी तरह डपट दिया, ‘‘तेरा दिमाग ठीक है कि नहीं? पत्नी से कैसा सुलूक करना चाहिए, यह क्या तुझे किसी ने नहीं सिखाया? मामी, क्या आप ने भी नहीं?’’

लेकिन मामी सदा की तरह चुप थीं. शुभा के पति बोलते रहे, ‘‘हर इंसान की इज्जत उस के अपने हाथ में होती है. पत्नी का हर पल अपमान कर के, वह भी 10 लोगों के बीच में, भला तुम अपनी मर्दानगी का कौन सा प्रमाण देना चाहते हो? आज तुम उस का अपमान कर रहे हो, कल को वह भी करेगी, फिर कहां चेहरा छिपाओगे? अरे, इतनी संस्कारी मां का बेटा ऐसा बदतमीज.’’

वहां से लौटने के बाद भी शुभा मामी के अजीबोगरीब व्यवहार के बारे में ही सोचती रही कि अजय की गलती पर वे क्यों खामोश बैठी रहीं? गलत को गलत न कहना कहां तक उचित है?

एक दिन शुभा ने गंभीर स्वर में पति से कहा, ‘‘मैं आप की मामी जैसी नहीं बनना चाहती. जो औरत पुत्रमोह में फंसी, उसे सही रास्ता न दिखा सके, वह भला कैसी मृदुभाषिणी? क्या बहू के पक्ष में वे कुछ नहीं कह सकती थीं, ऐसी भी क्या खामोशी, जो गूंगेपन की सीमा तक पहुंच जाए.’’

यह सुन कर भी शुभा के पति और सास दोनों ही खामोश रहे. उन्हें इस समय शायद कोई जवाब सूझ ही नहीं रहा था.

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