उस दिन चौपाल पर रामखिलावन की रामायण बंच रही थी. उस का लड़का सतपाल बलि का बकरा बनेगा. सरकार ने उस के बाप को जमीन दी थी ठाकुरों वाली, बड़े नीम के उत्तर में नाले की तरफ ठाकुरों का सातपुश्तों का अधिकार था. पहले सरकार ने चकबंदी का चक्कर चलाया, फिर खेत नपाई हुई और आखिर में नाले के उत्तर की जमीन सरकार ने कब्जे में कर ली.

अब भला सरकार का कैसा कब्जा? वहां घूमने वाले सूअरों को क्या सरकार ने रोक दिया? क्या अब भी वहां शौच को लोग नहीं जाते? नाले की सड़ांध सरकार साथ ले गई क्या? जी हां, कुछ भी नहीं बदला. बस, फाइलों में पुराने नाम कट गए, नए नाम लिख गए.

पिछले साल बुढ़ऊ के मेले में मंत्री साहब आए थे. गरीबों का उद्धार शायद उन्हीं के हाथों होना था. गांव के 13 गरीब भूमिहीन लोगों को जमीन के पट्टे दिए गए. रामखिलावन भी उन में से एक था.

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उन 13 भूमिहीन लोगों ने गांव से तहसील तक के 365 चक्कर लगाए और अंत में थकहार कर बैठ गए. रामखिलावन भी उधारी का आटा पोटली में बांध कर कचहरी को सलाम कर आया.

सारी जमीन ठाकुर अयोध्यासिंह की थी. गांव के गरीब मजदूर ठाकुर साहब की रैयत के समान थे. ठाकुर साहब को दया आ गई. तहसील वगैरह के चक्कर और खर्चपानी को देख कर उन्होंने 400-400 रुपए उन गरीबों को दान दे कर उन के आंसू पोंछ दिए, साथ ही स्टांप पर उन से हस्ताक्षर करा लिए.

संयोग से रामखिलावन को उन दिनों पेचिश हो गई. गिरिराज की बुढि़या मां के बारहवें में 35 लड्डू निगले तो पेट में नगाड़े बज उठे. और फिर जो पीली नदी का बांध टूटा तो रामखिलावन 20 घंटे लोटा लिए दौड़ते नजर आए. किसी ने सलाह दी कि पीपरगांव के मंगलाप्रसाद हकीम की दवा फांको.

40 कोस तय कर के पीपरगांव जा पहुंचा रामखिलावन. यहां वह 20 दिन रहा. बांध पर पक्की सीमेंट की गिट्टियां चढ़वा कर वह गांव लौटा. सब की सुनी तो दौड़ादौड़ा गया ठाकुर की हवेली. ठाकुर अयोध्यासिंह ‘लाम’ पर गए हुए थे. उसे अज्ञातवास भी कह सकते हैं. कोई नहीं जानता था कि उन का वह ‘लाम पर जाना’ क्या होता था, लेकिन जब लौट कर आते थे तो ढेर सारा मालमत्ता ले कर आते थे.

रामखिलावन का समय ही खराब था. उन्हीं दिनों ठाकुर साहब का साला हरगोविंद आया हुआ था. हरगोविंद थोड़ा बिगड़ा मिजाज रईस था. लेकिन उस के आने से गांव में रौनक आ जाती थी. कल्लू मियां की कव्वाल जमात, गणेशीराम की भगत मंडली, प्यारेदुलारे का स्वांग, शिवशंकर की नौटंकी, गोविंदराम की रामलीला मंडली, हरगोपाल की रासलीला, आगरे की नत्थोबाई, बनारस की सदाबहार सुंदरी शहजादी, कभी मुजरे, कभी नाच, कभी नाटक…मतलब यह कि रातरात भर मेले लगते गांव में.

उस समय रामखिलावन निराश हो कर लौट रहा था कि सामने से हरगोविंद आते दिखाई दिए. हरगोविंद ने नाक सिकोड़ कर उसे देखा और रामखिलावन लगे अपना राग अलापने, ‘‘बड़ा अन्याय हुआ है हमारे साथ, बाबू. ठाकुर साहब ने सब को जमीन के रुपए चुका दिए लेकिन मुझे फूटी कौड़ी भी नहीं मिली. गिरिराज, पंचोली, नथुआ, भुट्टो, दीना, वीरो, भज्जू सब को रुपए मिल गए लेकिन बाबू साहब, मुझे नहीं मिला एक पैसा भी.’’

अब हरगोविंद आए थे छुट्टन की झोंपड़ी से खापी कर झूमते हुए. पहले तो उन्होंने रामखिलावन को पुचकारा. फिर गले लिपट कर प्यार किया, फिर पैर पकड़ कर खूब रोए और फिर जो उन्होंने रामखिलावन की धुनाई की तो रामखिलावन को पुरखे याद आ गए.

वह तो अच्छा हुआ कि गायत्री चाची ने एक लोटा पानी हरगोविंद के सिर पर डाल कर उसे ठंडा कर दिया, नहीं तो उस दिन रामखिलावन की खैर नहीं थी. रामखिलावन 33 करोड़ कथित देवताओं को रोपीट रहा था. तभी उस का बेटा सतपाल आ गया उस के पास. सतपाल सेना में रंगरूट बन गया था. सुना था कि अब कोई बड़ा अफसर है. बंदूक चलाता था और हुक्म देता था.

सेना का लीपापोता रंगरूट व जवान सतपाल सूरत और मिजाज दोनों से ही अक्खड़ था. वैसे वह पिता रामखिलावन की ही कौन सी इज्जत करता था. बड़े तालाब के मेले पर भीड़ के सामने उस ने बाप को थप्पड़ मारा था, लेकिन उस समय तो वह सेना का अफसर था, किस की मजाल थी जो उस के बाप को हाथ भी लगा पाता.

सबकुछ सुन कर सतपाल ने अपनी वरदी कसी, टोपी जरा ठीकठाक की, फिर हाथ में बड़ा गंड़ासा ले कर जा पहुंचा ठाकुर की हवेली पर.

हरगोविंद कहीं बाहर निकल चुका था. लेकिन सतपाल खाली हाथ कैसे लौटता, दरवाजे पर खड़ा हरगोविंद का विलायती कुत्ता अंगरेजी में भौंके जा रहा था. सतपाल ने एक ही बार में उसे चीर कर रख दिया. फिर हौज भरे पानी में गंड़ासा धो कर घर लौट आया.

शायद उसी रात ठाकुर अयोध्यासिंह गांव लौट आए थे. वह बहुत देर तक सतपाल की हरकत पर क्रोध से लालपीले होते रहे थे.

शांत होने पर फंटी को सतपाल के घर भेजा. रामखिलावन से फंटी बोला, ‘‘तुम मूर्ख, जल में रह कर मगरमच्छ से बैर करोगे. रामकरन को देखा है. आज भी बैसाखी के सहारे चलता है. कुंती मौसी को तो जानते हो न. ठाकुर साहब को बदनाम करने के लिए होहल्ला किया तो उस का लड़का परमू जंगल में ही रह गया. लाश भी नहीं मिली. कुंती मौसी आज भी ठाकुर के घर रोटी बनाती है और ठाकुर की नजरें गरम रखती है. तुम तो भुनगे हो, भुनगे. अगर ठाकुर साहब की आंख भी टेढ़ी हो गई तो कहीं भी जगह नहीं मिलेगी. सतपाल की लाश कुत्ते की तरह किसी नालेपोखर में पड़ी सड़ती नजर आएगी.’’

तभी सतपाल आ गया. शायद वह फंटी को जानता था. वह मंटो अहीर का लड़का था, ‘बड़ा दादा बनता फिरता है. सुना है कि दूरदूर गांवों में भाड़ा ले कर लट्ठ चलाने जाता है. चलो, आज इस का भी पानी देख लेते हैं.’

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‘‘कौन है बे. बिना पूछे घर में कैसे घुस आया?’’

‘‘जानता नहीं है, फंटी बाबू को? सेना में 200 रुपल्ली का सिपाही क्या बन गया, अपनी औकात ही भूल गया. सात पुश्तों से ठाकुरों की पत्तलें चाटचाट कर दिन काट रहे हो. आज चींटी के भी पंख निकल आए हैं. जाओ बच्चू, दूधदही खाके आओ. फिर चोंच लड़ाना हम से. तुम्हारे जैसे तीतरबटेर को तो चुटकी में मसल कर रख देते हैं.’’

सतपाल के गरम खून को वह अपमान बरदाश्त न हुआ. पास ही पड़ा फावड़ा उठा लिया. फंटी भी उस की टांगों में घुस गया और उसे गैंडे की तरह उछाल दिया. पहले तो सतपाल फावड़ा ले कर आंगन की बुखारी में जा पड़ा. उस का सिर फट गया. फिर जो उसे गुस्सा आया तो वह दनादन फावड़ा चलाने लगा. एक फावड़ा सीधा फंटी के कपाल पर लगा और माथे के ऊपर की एक चौथाई चमड़ी फावड़े के साथ नीचे लटक गई. खोपड़ी तरबूज की तरह छिल गई.

दोनों योद्धा लड़तेलड़ते घर से बाहर आ गए थे. फंटी दरवाजे पर ही गिर पड़ा. किसी ने चिल्ला कर कहा, ‘‘मर गया… खून…खून हो गया. भाग सतपाल…भाग रामखिलावन…भागो…’’

लेकिन दोनों में से कोई भी नहीं भागा. ठाकुर के आदमी तुरंत खाट ले कर आए और अपने वीर योद्धा को उठा कर ले गए.

लोग समझ रहे थे कि अब आएंगे ठाकुर के लोग. अब आएगी पुलिस. अब होगा डट कर खूनखराबा. लेकिन कुछ नहीं हुआ.

ठाकुर चुप, सतपाल चुप. सारा गांव चुप. ठाकुर ने कह दिया, ‘‘नहीं पुलिसवुलिस का क्या काम है? हमारा मामला है, हम खुद सुलट लेंगे.’’

फंटी मरा नहीं. फैजाबाद के अस्पताल में ठीक होने लगा. अयोध्या की हवा ने उसे नई जिंदगी दी.

गांव की चौपाल पर रामखिलावन और सतपाल की ही चर्चा थी, ‘‘छोड़ेगा नहीं ठाकुर सतपाल को. इतनी बड़ी बेइज्जती कैसे सह सकता है?’’

कुछ नौजवान सतपाल के गुट में आ गए…ठाकुरों से कटे हुए, पिटे हुए लोग. कुछ ठाकुर अयोध्यासिंह को कुरेदते, ‘‘कुछ करो, ठाकुर साहब. ऐसे तो इन का दिमाग फिर जाएगा. कुछ रास्ता निकालो.’’ ठाकुर ने तो नहीं, चौधरी बदरीप्रसाद ने जरूर रास्ता निकाल लिया.

चौधरी साहब सत्तारूढ़ पार्टी के अनुभवी घाघ नेता थे. 3 बार सांसद रह चुके थे. इस बार ठाकुरों ने इलाके में नहीं घुसने दिया. वह तो कहो कि पहले की कुछ जमापूंजी थी, जो आज तक चूस रहे थे. नहीं तो रोने को मजदूर भी न मिलते.

सतपाल के कारनामे की खबर उन्हें मिली तो तैश में आ गए. सतपाल को शहर बुलवा लिया. फिर समझानेबुझाने लगे. वकीलों, पेशकारों से सलाहमशवरा किया. कानूनी बातें समझ में बैठाई गईं और फिर ठोक दिया ठाकुर अयोध्यासिंह पर 420, मारपीट, धौंसपट्टी, फसाद, शांतिभंग और लूटपाट का अभियोग. पुलिस में रिपोर्ट के साथसाथ अदालत में मुकदमा दायर कर दिया.

उधर ठाकुर अयोध्यासिंह को अपनी गलती का एहसास हुआ. बगल में दुश्मन और फोड़े को उन्हें नजरअंदाज नहीं करना चाहिए था. खैर, ठाकुरों ने अपनी पंचायत जोड़ी, मैदान संभाला. कोर्टकचहरी साधे, वकीलों- पेशकारों को बुलाया और फिर शुरू हुई एक ठंडी लड़ाई.

ठाकुर के ‘लाम’ के आदमी शायद आ टिके थे हवेली में. उन के लकदक ऊंचे लालसफेद घोड़े, जिन के खड़े कान और लंबी पूंछें उन की ऊंची नस्ल का पता दे रहे थे. ठाकुर की चौपाल पर हुक्कापानी का सिलसिला गुलजार होता गया.

इधर सतपाल के कच्चे मकान के पीछे ईश्वरी प्रसाद के अहाते में 8-9 खाटें बिछ जातीं. कुछ लोग शहर से आए थे. एकदम उजड्ड, एकदम ठूंठ, आसपास की बहूबेटियों को ऐसे देखते, जैसे वे औरतें न हों गुलाबजामुन हों.

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दोनों तरफ भीड़ बढ़ने लगी थी. कुछ तनातनी भी चल रही थी. इधर एकाएक ठाकुरों ने चुनौती दी कि या तो 2 दिन के अंदर बाहर के लोगों को बाहर कर दो, वरना सारी बस्ती जला कर खाक कर देंगे.

1 दिन गुजर गया. कुछ राजनीति के फंदे तैयार किए गए. उसी दिन आ गया हरगोविंद. बस, उसे ही मुहरा बनाया गया. सारा कार्यक्रम तय हो गया.

शाम को लोटा ले कर हरगोविंद उत्तरी नाले की ओर निकला. एक हाथ में लोटा, एक हाथ में लाठी. लाठी तो वहां आमतौर पर रखते ही थे न. कोई नई बात नहीं थी. आधी धोती लपेटे, आधी कंधे पर डाले.

पीपल के पास वाली बेरिया की झाड़ी के पीछे उस ने लोटा रखा. तभी पिरबी आती दिखाई दी. सिर पर 2 सेर घास का बोझ, हाथ में हंसिया. पास से निकली. हरगोविंद ने उसे देखा. उस ने उसे देखा. वह मुसकराई और हरगोविंद उस के पीछे.

पिरबी फौरन पलटी और हरगोविंद से लिपट गई और फिर तुरंत ही अपने कपड़े फाड़ने लगी. वह किसी फिल्मी दृश्य की तरह चीखनेचिल्लाने लगी, ‘‘बचाओ…मार डाला…बचाओ…बचाओ…’’

बचाने वालों को वहां तक आने में देर नहीं लगी. 30-35 जवान हाथों में लाठियां लिए आ गए. हरगोविंद की सामूहिक धुनाईपिटाई कर के उसे गांव में लाया गया.

नथुआ पहले से ही तहसील रवाना हो चुका था. शायद पुलिस को पहले से ही तैयार रखा गया था. शायद शहर से पुलिस अधीक्षक के आदेश अग्रिम रूप से मिल गए थे. तभी तो तहसील की पुलिस ठाकुर की हवेली के लठैतों से पहले पहुंच गई.

हरगोविंद को तहसील ले जाया गया, फिर वहां से शहर. 2 दिन की अदालत की छुट्टी. पक्का बंदोबस्त.

इधर गांवगांव डुग्गी पिटी. अखबारों में छपा. रेडियो में गूंजा. सरकार ने सिर झुका कर इसे निंदनीय कार्य कहा. एक पिछड़े वर्ग की कन्या पर वहशी आक्रमण, पुलिस की सक्रिय भूमिका की सराहना, थानेदार जनार्दनप्रसाद की पदोन्नति.

दूरदूर के गांवों में संदेशा पहुंचा. 8 तारीख को पिछड़ी जाति की प्रादेशिक सभा, जुर्म के खिलाफ, गुलामी के विरुद्ध, प्रचार के लिए बड़ेबड़े बैनर परचे, लंबाचौड़ा बजट. कौन कर रहा था वह सब खर्च? कौन कर रहा था वह प्रबंध? कोई नहीं जानता था.

लोग भीड़ की इकाई बन कर चुपचाप घिसट रहे थे. सभा में जुड़ रहे थे.

‘‘मुर्दाबाद…मुर्दाबाद’’

‘‘नादिरशाही नहीं चलेगी…’’

‘‘गुंडागर्दी नहीं चलेगी…’’ नारे लग रहे थे.

उधर ठाकुरों की सेना तैयारी कर रही थी. जंगीपुरा की 20 झोंपडि़यों में आग लगा दी गई. 13 आदमी मर गए. किस ने लगाई वह आग? ठाकुरों की जमात में प्रश्न दर प्रश्न.

ठाकुरों के कुएं में मरा हुआ सूअर- 3 टुकड़ों में. पिछड़े वर्ग की सभा में प्रश्न दर प्रश्न…ऐसा किस ने किया?

सतपाल घबरा गया था. चौधरी बदरीप्रसाद का चुनाव क्षेत्र तैयार हो रहा था. उन्होंने खुल कर मैदान पकड़ा था. जानपहचान के नेताओं, मंत्रियों को ले कर गांव में आ गए थे, ‘‘छि:छि:, बहुत बुरी बात है. मरने वालों को 10-10 हजार रुपए…’’

मरने वाले ले जाएं आ कर अपना रुपया? कौन देगा वह रुपया? कलक्टर, तहसीलदार, सरपंच या पटवारी?

झूठ, कुछ नहीं मिलेगा. कुछ भी नहीं मिलेगा. फिर भी, ‘‘चौधरी बदरीप्रसाद जिंदाबाद.’’

‘‘गरीबों का मसीहा…बदरीप्रसाद…’’

उधर फिर नया युद्ध, नई नीति. हरगोविंद को छुड़वा कर शहर रवाना कर दिया गया. नई चाल चली गई और युद्ध का विषय बदल दिया गया.

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बदल गया युद्ध का विषय, यानी रमजान रिकशे वाले को दाऊदयाल के लड़के संदीप ने पीट दिया. मकसूद बोल उठे, ‘‘अकेला जान कर पीट रहे हो न. अभी मियांपाडे़ के कसाई आ गए तो काट कर भुस भर देंगे.’’

संदीप अकड़ गया मकसूद से, ‘‘बाप लगता है तेरा. इन जैसे पचासों देखे हैं. चरकटे.’’ और फिर कर दी रमजान की जम कर पिटाई.

मकसूद ले गए उसे निकाल कर. फिर जाने क्या मंत्र फूंका कान में कि शाम को 7 बजे कल्लन, करीम, अकरम और मकसूद को ले कर आ गया रमजान. भरे बाजार में उस ने संदीप को गद्दी से खींच लिया और 10-20 जूते खोपड़ी पर रसीद कर दिए.

बाजार में होहल्ला मच गया. कुछ लोगों ने दूर से पत्थर बरसाने शुरू कर दिए. उन लोगों ने चाकू खोल लिए. फिर सब भाग खड़े हुए.

रात में मंदिरमसजिदों में सभाएं हुईं. प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाया गया. रात भर दोनों धर्मों में पत्थरबाजी होती रही.

और उसी दिन सतपाल नौकरी पर लौट गया. ठाकुर अयोध्यासिंह उस लड़ाई को भुलाने का विचार करतेकरते सो गए.

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