Family Story : हमारी शादी को 35 वर्ष का लंबा  अंतराल हो चुका था. दोनों बेटियों की शादी हो चुकी थी और हम 4 वर्ष पुराने नानानानी भी बन चुके थे. सिर के तीनचौथाई बाल सफेद हो गए थे या गायब हो चुके थे. पति 60 वर्ष के ऊपर और मैं भी वहां तक पहुंच रही थी, पर आज कचहरी में अपने एक वकील की 8 बाई 8 फुट की कोठरी में बैठना हमें बड़ा असुविधाजनक लग रहा था.

कोर्टकचहरी तो हम वैसे भी कभी नहीं गए. न कभी चोरी की न कभी डाका डाला. और तो और, ईमानदारी बनाम हमारे पति ने कभी रिश्वत भी नहीं ली लेकिन हमारी प्रवासी बिटिया ने हमें एक फार्म भेजा था. वह चाहती थी कि हम लोग ‘इमीग्रेशन’ के लिए उसे भर दें. जब फार्म भरने बैठे तो ‘विवाहित’ के सामने (ङ्क) मार्क करने के बाद उस फार्म ने फरमाइश की कि यदि आप विवाहित हैं तो ‘मैरिज’ सर्टिफिकेट चाहिए. मैं अपने पति का और पति मेरा मुंह देखने लगे.

यह मैरिज सर्टि- फिकेट क्या होता है? हाईस्कूल सर्टिफिकेट, 12वीं का सर्टिफिकेट, बी.ए. व एम.ए. की डिगरी, पतिदेव की कालिज की तमाम डिगरियों तथा अपने कालिज के स्पोर्ट्स में सदैव तीसरा स्थान पाने वाले 15-20 सर्टिफिकेट्स, सभी की एक फाइल तैयार थी. पर कभी किसी नौकरी के साक्षात्कार से ले कर तत्काल के रेलवे रिजर्वेशन में ऐसा सर्टिफिकेट किसी ने नहीं मांगा था.

‘‘अरे भाई, अब इस उम्र में क्या हमें अपनी शादी का सर्टिफिकेट तैयार करना पड़ेगा?’’

हमारे से आधी उम्र के वकील साहब, जो मेरे छोटे भाई के दोस्त रह चुके थे, बोले, ‘‘जीजी, आप चिंता क्यों करती हैं, मैं हूं न. मैं बनवा दूंगा. आखिर कचहरी में बैठा किसलिए हूं,’’ वह एकदम फिल्मी वकील साहब वाली हंसी हंसते हुए बोले.

हम दोनों चुपचाप बैठे रहे, जहां वह हमें कहते रहे वहां हम दस्तखत करते रहे. कचहरी के जिन गलियारों से वह हमें ले जाते रहे हम वहां से गुजरते रहे. जिन अधिकारियों के सामने पेश किया, पेश हो गए. जहां कहा वहां अंगूठे का निशान तक लगा दिया और 2-3 दिन की दौड़भाग के बाद एक अधमरा सा कागज हमें इस एतराम (रौब) से सौंपा गया जैसे लखनऊ के नवाब की शाही जागीर वह हमें सौंप रहे हों. उस कागज पर तरहतरह की मुहरें हमें दिखाते हुए वकील साहब गहरी सांस ले कर पूरी बत्तीसी दिखाते हुए बोले, ‘‘लीजिए, अब आप और जीजाजी कानूनी तौर पर शादीशुदा हो गए.’’

‘तो क्या हम अब तक गैरकानूनी तौर पर…’ जबान पर भी जो लफ्ज न आ पाए, जरा सोचिए वह खयाल मेरे जेहन पर, मस्तिष्क पर, हृदय पर कितने सारे आड़ेतिरछे प्रश्नचिह्न भाले की तरह चुभो गए होंगे? यह सोच कर कि हम क्या यों ही…तो क्या हम वैसे ही…अब तक पिछले 35 साल से रह रहे थे? कैसा मजाक है कि हमारे बच्चों के जन्म प्रमाणपत्र हैं जिन पर हम उन के कानूनी मांबाप हैं, वह तो स्वीकार है पर हमारी शादी सर्टिफिकेट के बिना…नहीं. यह कैसा विरोधाभास है?

मुझे हंसी भी आ रही थी और एक गहन विचार भी दिमाग में जन्म ले रहा था.

हमारे समाज में हिंदू मैरिज सिस्टम में जहां सैकड़ों छोटीबड़ी रस्मों की भरमार है, जहां शादीविवाह के मामले में हम इतना सोचविचार करते हैं…इतने शुभअशुभ, मंगलअमंगल, रीतिरिवाजों की भरमार है, जहां बिटिया के लिए वर और बेटे के लिए वधू ढूंढ़ने के लिए अनेक आधुनिकतम वैवाहिक विज्ञापन हैं, जहां कई हजार देवीदेवताओं की मंगल कामनाएं मांगने के इतने ढेर सारे रिवाज हैं, जहां विवाह जैसे अति महत्त्वपूर्ण मामले में हम अपनी पूरी मेहनत व पूंजी लगा देते हैं, जहां ब्याहशादी की सैकड़ों रस्मों पर तरहतरह के कपड़ेगहने, खानेपीने, सजनेसजाने की सभी व्यवस्था हम खूब बारीकी से करते हैं, जहां अग्नि को साक्षी मान स्वयं ब्रह्मा, विष्णु, महेश के साथ सैकड़ों रिश्तेदार, मामा, नाना, दादा, दादी व मित्र आशीर्वाद देते हैं, जहां भावविभोर पिता अपनी बेटी का हाथ वर के हाथ में दे कर कन्यादान करता है, जहां सिल्क के धोतीकुरते में सजेसजाए पंडितजी सात फेरे डलवाते हैं वहां ‘एक कागज के टुकड़े बनाम मैरिज सर्टिफिकेट’ का प्रावधान क्या इतना महत्त्वपूर्ण है? यदि हां, तो यह विवाह के समय ही क्यों नहीं दे देना चाहिए?

‘सप्तपदी’ के एकएक श्लोक की विवेचना पर पोथियां लीपी गईं तो कानूनी तौर पर मैरिज सर्टिफिकेट के महत्त्व को ताक पर उठा कर क्यों रखा गया? ‘मैट्रीमोनियल’, ‘रिश्ते ही रिश्ते’ और ‘दुल्हन वही जो पिया मन भाए’ जैसी हजारों संस्थाओं को चाहिए कि वे जिस तरह वाहन सीखने वाले ड्राइविंग स्कूल अपना विज्ञापन करते हैं और अपनी फीस में सिखाने के साथ ड्राइविंग लाइसेंस की फीस निश्चित कर के बताते हैं, उसी प्रकार वरवधू के साथ मैरिज सर्टिफिकेट्स की फीस भी लगा दें या जिस प्रकार बड़े टीवी के साथ छोटा टीवी मुफ्त मिलता है, उसी प्रकार मालदार आसामी के साथ मैरिज सर्टिफिकेट मुफ्त दिला कर अपने व्यापार को ऊपर बढ़ा सकते हैं. कृपया सुझाव नोट करें.

सदियों से चली आ रही हिंदू विवाह पद्धति में कुछ फेरबदल करना आवश्यक है. समय के साथ हिंदू विवाह की रीतियां भी अपने में विकसित करें. अत: हनीमून पर जाने से पहले या बिटिया को ‘मायके’ का फेरा डलवाने से पहले प्रत्येक नवविवाहित जोड़े को एक और रीति का पालन करना होगा.

आज का तकाजा है प्रत्येक विवाह में वरवधू के जोड़े से सातवें फेरे के बाद, जहां सामान्य तौर पर उस के साथ ही यह पंडितजी बड़ों का आशीर्वाद लेने को कहते हैं, उसी समय कहें कि अब विवाह तभी संपूर्ण माना जाएगा जब आप ‘मैरिज रजिस्ट्रार’ के दफ्तर में जा कर आठवां फेरा लगा लें.

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