कम्यूनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी का असर अब देशभर में खत्म सा हो गया है. केरल में इस की सरकार है पर त्रिपुरा में हार के बाद लगता नहीं कि 20 साल पहले के दिन लौटेंगे. फिर भी कम्यूनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी काफी समय तक गरीबों, मजदूरों, दलितों, पिछड़ों की मसीहा होने का दावा करती रही है. अब सीताराम येचुरी ने बड़ी मुश्किल से पार्टी को मनाया है कि उस कांग्रेस के साथ हाथ जोड़ा जाए जिस की वह बरसों खिलाफत करती रही है क्योंकि उस के बिना धर्म की बातें करने वाली भारतीय जनता पार्टी का मुकाबला नहीं करा जा सकता.

कम्यूनिस्ट आंदोलन दुनियाभर में अब इतिहास की बात रह गया है. चीन में कम्यूनिस्ट पार्टी का राज है पर उस पार्टी में कम्यूनिज्म नाम का सा है. चीन दुनिया का बड़ा कैपिटलिस्ट देश बनता जा रहा है और जिस तेजी से उस का विकास हो रहा है वह कल सेठ देशों को पीछे छोड़ देगा. चीनी कम्यूनिस्ट पार्टी बहुत ही जमीनी है और उसे उत्पादन से मतलब है, कौनकैसे कर रहा है, से कम.

भारतीय कम्यूनिस्टों को भी यही सोचना होगा. देश के गरीबों, जिन में मजदूर, पिछड़े और दलित ही नहीं अच्छेखासे सवर्ण भी शामिल हैं, को असल में उत्पादन कर के ही गरीबी से निकाला जा सकता है. यह सोचना कि पैसे का बंटवारा सही है, सपनों की बात?है. बांटोगे तो तब जब होगा. कम्यूनिस्ट पार्टी ही इस में कुछ कर सकती है क्योंकि कांग्रेस पर तो अभी भी राज करने के पुश्तैनी हक का सुरूर छाया हुआ है और भारतीय जनता पार्टी सोचती है कि जब तक यज्ञ, हवन, पूजापाठ, मंदिर, आश्रम चल रहे हैं, सब ठीक है. आम गरीब की कहीं कोई सोच ही नहीं रहा.

कम्यूनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी को चीनी रास्ते से सबक लेना चाहिए और गरीबों को मेहनत करना और अपनी मेहनत के पैसे का सही इस्तेमाल सीखना चाहिए. गरीबी तब दूर होगी जब लोग ज्यादा काम करेंगे, ज्यादा उगाएंगे, ज्यादा बनाएंगे.

भारत के गरीब नारों से नहीं कारखानों से खुशहाल होंगे. उन्हें पूजापाठ नहीं, नई तकनीक चाहिए. उन्हें सड़कों पर जुलूस नहीं, नए कारखाने चाहिए, नई खेती की मशीनें चाहिए. उन्हें कर्ज नहीं सही बाजार चाहिए.

कम्यूनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी ही अकेली पार्टी है जो कहने के लिए ही सही, है तो गरीब कामगारों की पार्टी जिस में धर्म, जाति, भाषा, मूल क्षेत्र का कोई मतलब नहीं, वही कर्मठता का पाठ पढ़ा सकती है.

यह बात दूसरी है कि पूरी कम्यूनिस्ट पार्टी ऊंची जातियों के लोगों के हाथों में है जो गरीबों की बात तो करते हैं पर उत्पादन बढ़ाने में अड़चनें लगाते हैं. वे हड़तालों पर भरोसा करते हैं, नई तकनीक पर नहीं. वे गरीबों को गरीब बने रहने देते हैं ताकि उन को लाल झंडे उठाने वाले मिलते रहें. आज बदलाव की जरूरत है.

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