मध्यप्रदेश की कांग्रेसी राजनीति में कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया 2 ऐसी समानान्तर रेखाएं हैं जिनके कहीं भी जाकर मिलने की संभावना कभी नहीं रही. मध्यप्रदेश की ही कांग्रेसी राजनीति में पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह की हालत नोटबंदी के पहले के एक हजार के नोट जैसी है जिसे न तो रखने की इच्छा होती है और न ही फेंकने की, क्योंकि आज हो न हो, कल तक तो उसकी कीमत थी. इस आकर्षक नोट को कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने तिजोरी में संभाल कर रख लिया है और 2 नए नोट चलन में ला दिये हैं जिनका खासा मूल्य बाजार में है.

कमलनाथ अब नए प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष हैं और ज्योतिरादित्य सिंधिया प्रचार समिति के मुखिया हैं. इस संतुलन से हाल फिलहाल दोनों के बीच की खाई अब और नहीं बढ़ेगी. इन दोनों ही नेताओं का अपना अलग रसूख और हैसियत है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में प्रचंड मोदी लहर में कमलनाथ अपनी सीट छिंदवाड़ा और सिंधिया गुना से हारे नहीं थे इससे न केवल मध्यप्रदेश में बल्कि पूरी हिन्दी पट्टी में कांग्रेस की लाज बच गई थी.

अब एक बार फिर इन दोनों को लाज बचाने की जिम्मेदारी विधिवत सौंपकर राहुल गांधी ने नरेंद्र मोदी के सामने एक चुनौती पेश कर दी है, वजह सिर्फ यह नहीं कि राज्य में शिवराज सिंह विरोधी लहर चल रही है बल्कि यह भी है कि इस दफा कांग्रेस दिल से एक दिखाई दे रही है.

आमतौर पर शांत रहने वाले कमलनाथ मूलरूप से कारोबारी हैं जिन्हें आपातकाल के बाद संजय गांधी पश्चिम बंगाल से लाये थे. आदिवासी बाहुल्य जिला छिंदवाड़ा उन्हें इतना रास आया कि वे यहीं के होकर रह गए और इस इलाके को गुलजार करने में कोई कसर उन्होंने नहीं छोड़ी है. संजय गांधी की मौत के बाद भी कमलनाथ ने गांधी परिवार का साथ नहीं छोड़ा और इंदिरा गांधी और फिर राजीव गांधी के बेहद भरोसेमंद और वफादार नेताओं में उनका नाम शुमार होने लगा.

कब आहिस्ता से मध्यप्रदेश की राजनीति में कमलनाथ, शुक्ला बंधुओं, अर्जुन सिंह और माधवराव सिंधिया जैसे धाकड़ नेताओं की कद काठी के बराबर के नेता हो गए इसका एहसास जब कांग्रेसियों को हुआ तब तक नर्मदा का काफी पानी बह चुका था. सोनिया गांधी और राहुल गांधी के भी वे खास सिपहसलार हैं, मध्यप्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष पद संभाल लेना इसका सबूत है. पिछले तीन विधानसभा चुनावों से कांग्रेस प्रदेश में सत्ता के लिए तरस रही है बावजूद इस हकीकत के कि उसके पास एक से बढ़ कर एक जमीनी नेता हैं तो इसकी उजागर वजह उसमें पसरी गुटबाजी ही रही है. आपसी फूट का जो पौधा अर्जुन सिंह रोप गए थे उसे मुख्यमंत्री रहते 1993 से लेकर 2003 तक दिग्विजय सिंह ने मुरझाने नहीं दिया और बाद में भी उसे खूब खाद पानी से सींचा.

लेकिन दिग्विजय सिंह भूल गए थे कि लोकतन्त्र में कोई भी पार्टी एक नेता के दम पर ज्यादा नहीं चलती और इस भूल का खामियाजा वे आज तक भुगत भी रहे हैं.  हालिया फेर बदल में उनकी भूमिका कुछ इस तरह समेट कर रख दी गई है जिस पर न तो वे खुश हो सकते और न ही अफसोस जाहिर कर सकते. दिग्विजय सिंह के बारे में गलत नहीं कहा जाता कि वे कांग्रेस को जिता भले ही न पाएं लेकिन हराने में अहम रोल निभा सकते हैं. पिछले दो विधानसभा चुनावों में उनकी भूमिका ने इस मिथक को एक पुख्ता ख्याल में बदला भी था.

जब वे अपने ही कर्मों यानि तोड़ फोड़ की राजनीति के चलते हाशिये पर आ गए तब भी अपनी हरकतों से बाज नहीं आए और 6 महीने की फ्लाप ही सही नर्मदा यात्रा करने के बाद अपने तरकश का आखिरी जहर बुझा तीर छोड़ ही दिया कि प्रदेश कांग्रेस का मुखिया या मुख्यमंत्री पद का चेहरा कमलनाथ ही होना चाहिए तो बात फिर बिगड़ती नजर आई. दिग्विजय सिंह की मंशा इस बार भी नाथ – सिंधिया के बीच की खाई और गहरी करने की थी, अगर ज्योतिरादित्य की नजरंदाजी की जाती तो कांग्रेस वहीं खड़ी नजर आती जहां साल 2003 में थी.

चतुराई दिखाते राहुल गांधी ने कमलनाथ और ज्योतिरादित्य दोनों को बराबर वजन देते दिग्विजय सिंह की बात भी रख ली और उनकी मंशा पर पानी फेरते उन्हें खुला भी छोड़ दिया कि अब वे जो चाहे सो कर लें. अब दिग्विजय पहले सी कोई खुरफात करने की स्थिति में नहीं हैं क्योंकि उन्हे अपने बेटे और पत्नी अमृता राय को चुनाव लड़ाना है दूसरे उनका गुट भी  तितर बितर हो चुका है और उम्रजनित थकान का शिकार भी वे हो चले हैं.

चार कार्यकारी अध्यक्ष जीतू पटवारी, राम निवास रावत, सुरेन्द्र चौधरी और बाला बच्चन को बनाकर राहुल गांधी ने क्षेत्रीय और जातिगत समीकरण भी साध लिए हैं और कमलनाथ को सहूलियत भी दे दी है कि उन्हें अपना कारोबार और संसद छोडकर भागदौड़ी करने की जहमत उठाने की जरूरत नहीं, बात या यह नियुक्ति विधानसभा चुनाव तक के लिए ही है अगर कांग्रेस हारी तो कमलनाथ खुद हार की जिम्मेदारी लेते पद छोड़ देंगे और जीती तो अब तक उसे संभाले रखने वाले अरुण यादव को पद वापस ससम्मान सौंप दिया जाएगा.

इस डील में कोई जोखिम नहीं है वजह कमलनाथ की तरह मुद्दे की बात ज्योतिरादित्य सिंधिया को भी समझ आ रही है कि अगर इस बार भी कांग्रेस हारी तो उनकी हालत भी दिग्विजय सरीखी हो जाएगी. सिंधिया का अपना एक अलग ग्लेमर युवाओं और महिलाओं में है अलावा इसके बीते दो सालों से वे जमीनी मेहनत भी करते आम जनता के बीच जाकर अपनी महल और महाराजा वाली छवि से छुटकारा पाने की कोशिश में कामयाब होते नजर आ रहे हैं. पहले अटेर और फिर अशोकनागर और कोलारस विधानसभा के उपचुनाव अपने दम और पहुंच पर जिताकर उन्होंने शिवराज सिंह की नींद तो उड़ा ही रखी है.

नया फेरबदल कांग्रेस को सुकून देने वाला है जिसे एक बड़ी और एकलौती चुनौती शिवराज सिंह से जूझना है. यह कोई आसान काम भी नहीं है बावजूद इस हकीकत के तीसरे कार्यकाल के उत्तरार्ध में शिवराज सिंह से दलित आदिवासी युवा और किसान उतने ही नाराज हैं जितने 2003 में दिग्विजय सिंह से थे.

इन दिनों शिवराज सिंह की बौखलाहट शबाब पर है जो 2003 के दिग्विजय सिंह की तरह दलितों की हिमायत पर कुछ इस तरह उतारू हो आए हैं मानों सवर्ण वोटो की कोई अहमियत ही न हो. दलितों और आरक्षण की उनकी खुलेआम तरफदारी से सवर्ण नाराज हैं और भाजपा का तगड़ा वोट बैंक ब्राह्मण तो उन्हें श्राप तक दे चुका है. इस पर भी दिक्कत यह कि दलित उनके झांसे में नहीं आ रहा है. शिवराज सिंह कैसे कमलनाथ और सिंधिया की जुगलबंदी से निबटेंगे यह देखना दिलचस्पी नहीं बल्कि रोमांच की भी बात होगी. इन दोनों के ही पास पैसों और साधनों की कमी नहीं है यानि कांग्रेस की कंगाली का कोई असर ये दोनों चुनाव पर नहीं पड़ने देंगे.

शिवराज सिंह की एक बड़ी दिक्कत उनकी पार्टी के कुछ बड़े नेता भी होंगे जिनमें बाबूलाल गौर, राघव जी भाई और सरताज सिंह के नाम प्रमुख हैं, यानि भाजपा और शिवराज सिंह की मौजूदा हालत और दिक्कतें वैसी ही हैं जैसे 2003 मे कांग्रेस और दिग्विजय सिंह की हुआ करती थीं. इन  सबसे भी बड़ी दिक्कत नरेंद्र मोदी का उतरता जादू है जिनकी जुमलेबाजी अब कहीं नहीं चल रही. मुसलमान और दलित तो अब उनके जिक्र से ही चिढ़ने लगे हैं.

इन हालातों में कांग्रेस का फैसला सटीक तभी साबित होगा जब नाथ और सिंधिया दोनों वाकई मिलकर काम करें और वोटर के गुस्से को लाइटर दिखाते रहें उनकी राह के सनातनी रोड़े दिग्विजय सिंह के पर राहुल गांधी ने कुतरे भी इसीलिए हैं.

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