चेहरे पर अच्छी भौगौलिक हैसियत रखने के बाद भी गाल हमेशा ही उपेक्षा और अनदेखी के शिकार रहे हैं. कवियों और शायरों ने स्त्री सौन्दर्य का वर्णन चित्रण करते वक्त नाक, आंखों, होठों और जुल्फों को ही प्राथमिकता दी है, ये तमाम अंग गालों के नजदीकी ही हैं. गालों की तुलना सेव, अनार और टमाटर जैसे फलों से कर उन्हें बगीचा बनाकर छोड़ दिया गया है. इस ज्यादती के बाद भी गाल, गाल हैं जो अपना अलग आकर्षण रखते हैं. अगर वे लाल हों तो यह आकर्षण और बढ़ जाता है.

फूले लाल गालों को छूने और सहलाने का अपना एक अलग आनंद है, जिसमे वासना का भाव और अभाव दोनों होते हैं, मसलन गाल किसी बच्चे के हों तो उन्हें सहलाने में वासना नहीं बल्कि वात्सल्य होता है उलट इसके यही गाल किसी युवती के हों तो वासना या वात्सल्य का निर्धारण छूने वाले पुरुष की उम्र देख कर किया जाता है. हालांकि किसी अपरिचित यौवना के गाल छूना वह भी बिना उसकी अनुमति या सहमति के सभ्यता की बात या निशानी नहीं समझी जाती.

तमिलनाडु के राज्यपाल बुजुर्गवार बनवारी लाल पुरोहित को जाने क्या सूझी कि उन्होंने यूं ही एक प्रैस कान्फ्रेंस के दौरान एक महिला पत्रकार के गाल सहला दिये. हल्ला मचने यह एक मुक्कमल वजह थी और यह पत्रकार वार्ता की मर्यादा (अगर कोई होती हो तो) और उसका उल्लंघन भी था. मौजूदा दूसरे पत्रकारों ने राज्यपाल की इस हरकत पर एतराज जताया और विपक्ष ने भी निंदा की. बनवारी लाल की मंशा क्या थी यह शायद ही कभी स्पष्ट हो पाये.

विदर्भ क्षेत्र की नागपुर सीट से सांसद और विधायक रहे बनवारी लाल खुद भी पत्रकारिता से जुड़े रहे हैं उन्हे गोपालकृष्ण गोखले द्वारा शुरू किए गए अखवार ‘द हितवाद’ को जिंदा रखने का श्रेय दिया जाता है. बनवारी लाल कभी किसी राजनैतिक दल या विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध नहीं रहे, बल्कि पदों के लालच में कांग्रेस और भाजपा के बीच झूला सा झूलते रहे. आखिरकार भाजपा ने गवरनरी से नवाजकर उन्हें इनाम दे दिया. कई विवादों से भी उनका नाम जुड़ा, मौजूदा गाल विवाद उसकी अगली कड़ी है.

एक पुरानी कहावत है कि बंदर कितना भी बूढ़ा हो जाये, कुंलाटे मारना नहीं छोड़ पाता यही हालत बनवारी लाल की है. गाल छू तो लिया पर महिला पत्रकार के एतराज पर वे इतना घबरा भी गए कि राज भवन पहुंचते ही जूते मोजे उतारने से पहले मेल के जरिये सफाई देकर उसे मेनेज करते नजर आए.

सौ प्रतिशत भावुकता आत्मीयता और सज्जनता दिखाते उन्होंने पीड़ित महिला पत्रकार से माफी मांगते अपने मेल में लिखा कि, जब तुमने मुझसे सवाल पूछा था तब हम प्रेस कान्फ्रेंस खत्म कर रहे थे. चूंकि मुझे तुम्हारे द्वारा पूछा सवाल अच्छा लगा इसलिए मैंने तुम्हारा एक पत्रकार होने के नाते उत्साह बढ़ाने के उद्देश्य से तुम्हारा गाल सहलाया था. तुम मेरी पोती के समान हो, अगर तुम उस घटना से आहत हुई हो तो मैं माफी मांगता हूं.

हाल फिलहाल तो इस माफीनामे के साथ ही बात आई गई हो रही है, पर सवाल बनवारी लाल की घटना के वक्त की मंशा का है कि वह क्या थी और जो भी थी वह साबित कैसे होगी. देश भर की युवतियां लड़कों से ज्यादा कुत्सित मानसिकता वाले बूढ़ों की बेजा हरकतों से परेशान रहती हैं, जो अपनी पकी उम्र को हथियार और फिर ढाल बनाकर उनके नाजुक अंगों को सहलाया करते हैं. भोपाल के एक गर्ल्स कालेज मे पढ़ रही एक 20 साल की युवती की मानें तो सिटी बस में जब कोई बूढ़ा बगल में बैठ जाता है तो कई दफा अंजान बनते वह नाजुक अंगों को छूने और सहलाने से बाज नहीं आता. दादा नाना की उम्र के इन लंपटों की हरकतें देख उन्हें थप्पड़ मारने और लताड़ने का मन करता है पर फिर लगता है फसाद खड़ा करने से कोई फायदा नहीं. इस युवती के मुताबिक अगर इन बूढ़ों को झिड़क दो तो वे फिर लाइन पर आते बेटी बेटी करने लगते हैं.

अच्छा तो यह हुआ कि ज्यादा प्रोत्साहन बनवारी लाल ने नहीं दिया. रहा सवाल पत्रकार के पोती समान होने का तो यह बात उन्हें बवाल मचने के बाद क्यों सूझी और क्या अब मानसिक यंत्रणा भुगत रही पीड़ित पत्रकार को वे कानूनन यह हक देने की दिलेरी या हिम्मत दिखा पाएंगे.

महिला पत्रकार का एतराज जायज था कि बिना पूछे उसके गाल सहलाये जाना अपमान और ज्यादती वाली बात थी,  जो हो ही  गए हैं तो उसकी भरपाई माफी मांग कर करना थूक कर चाटने जैसी बात नहीं तो और क्या है. औरतें कहीं सुरक्षित नहीं हैं पर जब शालीन और मर्यादित पदों पर बैठे लोग ही सार्वजनिक रूप से गलत तरीके से प्रोत्साहन देने के नाम पर बेजा हरकतें वो भी महिला पत्रकारों से करने लगें तो बात देश भर का माहौल देखते चिंता की तो है.

अब महिला पत्रकारों को चाहिए कि वे प्रेस कांफ्रेंसों में हेलमेट या बुर्का पहनकर जाएं जिससे उनके गाल सलामत रहें और अच्छे सवाल तो भूलकर भी न पूछें.

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