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देश में बेरोजगारी बुरी तरह बढ़ रही है. मोदी सरकार ने करोड़ों नौकरियां देने का वादा किया था पर नौकरियां कैबिनैट के फैसलों से नहीं निकलतीं. नई नौकरियां तब निकलती हैं जब देश का वास्तविक आर्थिक विकास हो रहा हो. सरकार कछुए की चाल चल रही हो तो वह 6-7 प्रतिशत की वृद्धि से बढ़ रहे देश के लिए भी ठीक नहीं है.

बेरोजगारी का परिणाम है कि देश में इंजीनियरिंग कालेज खाली होने लगे हैं, क्योंकि मातापिता इतना पैसा नहीं खर्च कर सकते कि भारी फीस दे कर पढ़े बच्चे घर बैठे नजर आएं. सरकारी नौकरियों के लालच में युवा सालदरसाल बरबाद कर रहे हैं. पहले तो केवल मध्यवर्ग के युवा ही पढ़ कर नौकरियों के लिए आते थे पर अब पिछड़े व दलित वर्गों के ढेरों युवा भी नौकरियों की कतारों में खड़े हैं.

भीड़ इतनी अधिक हो गई है कि किसी भी सरकार के लिए यह वादा करना कठिन हो गया है कि वह नौकरी दिला देगी. कुछ राज्य सरकारें वादे निभाने के नाम पर बड़ेबड़े विज्ञापन छपवा रही हैं कि नौकरियां मिल रही हैं पर असल में ये बनावटी चुनावी वादे हैं, कुछ महीनों में इन की भी पोल खुल जाएगी.

बेरोजगारी के बढ़ने की एक वजह यह है कि हमारे युवा आलसी और निकम्मे होते जा रहे हैं. इंगलिश मीडियम स्कूल उन की पढ़ाईलिखाई की क्षमता छीन रहे हैं और मोबाइल संस्कृति उन्हें स्क्रीन में कैद कर पंगु बना रही है. कुछ करने की आदत कम हो रही है और निठल्लापन उन की नसों में घुस रहा है.

एक जमाना था जब अपनी मेहनत पर भरोसा कर बहुत से युवा जोखिमभरा काम, व्यवसाय शुरू कर सकते थे. आज जीएसटी, इनकम टैक्स, कंपनी कानून के हेरफेर इतने पेचीदा हो गए हैं कि इन क्षेत्रों में भी उन का घुसना कठिन होता जा रहा है. एक तरफ खर्चे बढ़ रहे हैं जबकि दूसरी ओर आय के साधन कम हो रहे हैं. बेरोजगारी एक आफत सी बन कर सिर पर मंडरा रही है और उस युवाशक्ति को घुन लगा रही है जिस पर देश को गर्व होना चाहिए.

सरकारी नीतियां इस में बहुत हद तक जिम्मेदार हैं क्योंकि इन्हीं ने युवाओं को एक तरफ ऊपरी कमाई वाली सरकारी नौकरियों के मोहजाल में फंसा रखा है तो दूसरी ओर उन को अपने काम करने से रोकने के जाल पर जाल बिछा रखे हैं. युवाओं के सामने या तो पहाड़ हैं या पथरीली जमीन. उन के लिए उन पर न चढ़ना आसान है न कुछ उगाना.

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