कहावत है कि किसी संस्कृति को खत्म करना हो तो उस की भाषा नष्ट कर दीजिए. यह जुमला कुछ हद तक सही ही है क्योंकि भाषा किसी समुदाय की प्रमुख पहचान होती है, जो कि तेजी से नष्ट हो रही है. वैश्वीकरण ने दुनिया को सिर्फ फायदे पहुंचाए हों, ऐसा नहीं है. इस ने हम से बहुतकुछ छीना भी है.

छोटीछोटी संसकृतियां वैश्वीकरण की आंधी में तिनके की तरह बह रही हैं. उन की बोलीभाषा, उन की सांस्कृतिक पहचान आदि पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है. कुछ अरसे पहले एक सर्वेक्षण में कहा गया कि पिछले 50 वर्षों में भारत में 250 भाषाएं खत्म हो गईं. भाषाएं अलगअलग वजहों से बड़ी तेजी से मर रही हैं. ऐसे में यह कहा जाने लगा है कि भारत क्या भाषाओं का कब्रिस्तान बनता जा रहा है.

काफी समय से लुप्त होती भाषाओं की चिंता करने वालों के बीच में यह सवाल उठ रहा है. यह मुद्दा काफी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि भारत दुनिया का सब से ज्यादा भाषाओं वाला दूसरा देश है. पिछले 50 वर्षों में भारत की करीब 20 फीसदी भाषाएं विलुप्त हो गई हैं. पीपुल लिंगुइस्टिक सर्वे के मुख्य संयोजक गणेश देवी ने कुछ अरसे पहले यह खुलासा किया था. उन का दावा है कि भारत से ‘लोक’ की जबान काटने की सुनियोजित साजिश की जा रही है.

50 वर्षों से पहले 1961 की जनगणना के बाद 1,652 मातृभाषाओं का पता चला था. उस के बाद ऐसी कोई सूची नहीं बनी. उस वक्त माना गया था कि 1,652 नामों में से करीब 1,100 मातृभाषाएं थीं, क्योंकि कई बार लोग गलत सूचनाएं दे देते थे. वड़ोदरा के भाषा शोध और प्रकाशन केंद्र के सर्वे से यह बात सामने आई है. 1971 में केवल 108 भाषाओं की सूची ही सामने आई थी क्योंकि सरकारी नीतियों के मुताबिक किसी भाषा को सूची में शामिल करने के लिए उसे बोलने वालों की तादाद कम से कम 10 हजार होनी चाहिए. यह भारत सरकार ने शर्त के तौर पर रखा था.

इस बार भाषाओं के बारे में निष्कर्ष निकालने के लिए 1961 की सूची को आधार बनाया गया. इस से पहले ब्रिटिश शासनकाल में अंगरेज अफसर जौन अब्राहम ग्रियर्सन की अगुआई में 1894-1928 के बीच इस तरह का भाषाई सर्वे हुआ था. उस के 100 वर्षों बाद भाषा रिसर्च ऐंड पब्लिकेशन सैंटर नामक संस्था की ओर से भारतीय भाषाओं का लोक सर्वेक्षण यानी पीएलएसआई किया गया.

सर्वेक्षण में कहा गया है कि 1961 में भारत में 1,100 भाषाएं बोली जाती थीं. पिछले 50 वर्षों के दौरान इन में से 250 भाषाएं लुप्त हो गई हैं और फिलहाल 850 भाषाएं जीवित हैं.

सर्वेक्षण की प्रासंगिकता के सवाल पर उन के प्रवक्ता ने कहा कि हर शब्द एक अलग विश्वदृष्टि पेश करता है. मिसाल के तौर पर, हम कितने लाख बार रोए होंगे तो एक शब्द पैदा हुआ होगा आंसू, यह शब्द गया तो हमारी विश्वदृष्टि भी गई.

हालांकि, इस सर्वे में बोली और भाषा में वर्गीकरण नहीं किया गया है. इस विषय पर विद्वानों का कहना है कि यह विवाद ही फुजूल है. भाषा सिर्फ भाषा होती है. हम इस धारणा को सिरे से खारिज करते हैं कि जिस भाषा की लिपि नहीं है वह बोली है. विश्व की ज्यादातर भाषाओं के पास लिपि नहीं है.

लिपियों का अभाव

दुनिया में कुल 6 हजार भाषाएं हैं और 300 से ज्यादा के पास अपनी कोई लिपि नहीं है, लेकिन वे बहुत मशहूर भाषाएं हैं. यहां तक कि अंगरेजी की भी अपनी लिपि नहीं है. वह भी उधार की लिपि यानी रोमन में लिखी जाती है. हिंदी देवनागरी में लिखी जाती है. देवनागरी में ही संस्कृत, मराठी, नेपाली आदि भाषाएं भी लिखी जाती हैं. यानी भाषा की अपनी लिपि होनी जरूरी नहीं है.

कुछ विद्वान इस की परिभाषा देते हैं कि जो भाष कराए, वही भाषा है, उस का लिखा जाना जरूरी नहीं है. वेदों के बारे में भी कहा जाता है कि वह बोला हुआ ज्ञान है. श्रुति है. वह पढ़ा अथवा लिखा हुआ ज्ञान बाद में बना.

सैकड़ों भाषाओं के करोड़ों शब्दों की विश्वदृष्टि को अगली पीढ़ी को सौंपने के उद्देश्य से सर्वे किया गया. सर्वे के मुताबिक, करीब 400 भाषाएं ऐसी हैं जो घुमंतू, आदिवासी और गैरअधिसूचित जातियों द्वारा बोली जाती हैं.

सर्वेक्षण में जिन 780 भाषाओं का अध्ययन किया गया, उन में से 400 भाषाओं का व्याकरण और शब्दकोश भी तैयार किया गया है.

अध्ययन में पाया गया कि दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई, हैदराबाद जैसे शहरों में 300 से अधिक भाषाएं बोली जाती हैं. अरुणाचल में 90 भाषाएं बोली जाती हैं. दादर और नागर हवेली में गोरपा नाम की एक भाषा मिली जिस का अब तक कोई रिकौर्ड नहीं है. हिंदी बोलने वालों की संख्या लगभग 40 करोड़ है, जबकि सिक्किम में माझी बोलने वालों की संख्या सिर्फ 4 है.

सर्वेक्षण में उन भाषाओं को भी शामिल किया गया जिन्हें बोलने वालों की संख्या 10 हजार से कम है. सर्वेक्षण में इन भाषाओं को शामिल करने के पीछे देवी ने तर्क दिया कि बंगलादेश युद्घ के बाद भाषाई संघर्ष की संभावनाओं को खत्म करने के लिए रणनीति के तहत उन भाषाओं को जनगणना में शामिल करना बंद कर दिया गया, जिन्हें बोलने वालों की संख्या 10 हजार से कम हो. यही वजह है कि 1961 की जनगणना में 1,652 भाषाओं का जिक्र है, जबकि 1971 में यही घट कर 182 हो गई और 2001 में 122 रह गई.

सर्वेक्षण में ऐसा माना गया कि 1961 की जनगणना में जिन 1,652 भाषाओं का जिक्र है, उन में से अनुमानतया 1,100 को भाषा का दरजा दिया जा सकता है. भारत सरकार की तरफ से 2006-07 में भारतीय भाषाओं पर सर्वेक्षण कराए जाने की पहल हुई थी, लेकिन यह योजना आगे नहीं बढ़ सकी.

भाषाओं का विमर्श केवल प्रमुख भाषाओं तक सीमित है. जैसे, हाल ही में कर्नाटक और तमिलनाडु में हिंदी थोपने के खिलाफ आंदोलन हुआ. इसी तरह कई हिंदीभाषी राज्यों में अंगरेजी को निशाना बनाया जाता है क्योंकि कुछ लोगों को लगता है कि अंगरेजी की लोकप्रियता भारतीय भाषाओं की कीमत पर बढ़ रही है.

फंड का फेर

हिंदी बनाम अंगरेजी से या हिंदी बनाम कन्नड़ की बहस से एक महत्त्वपूर्ण बहस यह भी चल रही है कि छोटी आदिवासी भाषाएं कैसे राज्यों की अधिकृत भाषाओं के सामने टिक पाएंगी. कागजों पर सरकारें लुप्त हो रही भाषाओं की मदद करते बहुतकुछ दिखाती हैं. 2014 के बाद आई सरकार ने उन भाषाओं का डौक्युमैंटेशन और संरक्षण का काम शुरू किया है जिन्हें बोलने वाले 10 हजार से कम हैं. यह काम सैंट्रल इंस्टिट्यूट औफ लैंग्वेजेज द्वारा किया जा रहा है. जिस के बारे में वहां के कर्मचारियों का कहना है कि उस के पास फंड कम है और योग्य कर्मचारियों की कमी भी है.

इस के अलावा सरकार ने 9 विश्वविद्यालयों में विलुप्त भाषाओं के केंद्र स्थापित किए हैं. अंतर्राष्ट्रीय संस्था फाउंडेशन औफ एनडैंजर्ड लैंग्वैजेज के अध्यक्ष निकोलस औस्टलर का कहना है कि इस मामले में सरकार का समर्थन जरूरी है, मगर लंबे समय में समुदाय तभी फलतेफूलते हैं जब वे मामलों को अपने हाथों में लेते हैं.

वैश्विक स्तर पर देखें तो वहां भी अंगरेजी के वर्चस्व के आगे सैकड़ों भाषाओं पर अस्तित्व का संकट है. संयुक्त राष्ट्र की ओर से 2009 में जारी आंकड़ों के मुताबिक, सब से खराब हालत भारत में है जहां 196 भाषाएं विलुप्ति के कगार पर हैं. इस के बाद अमेरिका का स्थान है, जहां 192 भाषाएं विलुप्तप्राय हैं. इंडोनेशिया में 147 भाषाएं मिटने वाली हैं.

दुनिया में 199 भाषाएं ऐसी हैं जिन्हें बोलने वालों की संख्या 10 से भी कम है. 178 भाषाएं ऐसी हैं जिन्हें बोलने वालों की संख्या 150 लोगों से भी कम है. एक अनुमान के मुताबिक, दुनियाभर में 6,900 भाषाएं बोली जाती हैं, जिन में से 2,500 भाषाओं की स्थिति चिंताजनक है. यदि भाषा संस्कृति का आधार है तो इन भाषाओं के नष्ट होने के साथ ये संस्कृतियां भी नष्ट हो जाएंगी.

गणेश देवी के मुताबिक, दुनिया की 6 हजार भाषाओं में से 4 हजार भाषाओं पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है, जिन में से 10 फीसदी भाषाएं भारत में बोली जाती हैं. दूसरे शब्दों में, कुल 780 भाषाओं में से 400 भारतीय भाषाएं विलुप्त हो सकती हैं.

उल्लेखनीय है कि दुनिया की सब से ज्यादा भाषाएं पापुआ न्यू गिनी में हैं. इन की संख्या 838 है. तीसरा नंबर इंडोनेशिया का है जहां 707 भाषाएं हैं. चौथे नंबर पर नाइजीरिया है 526 भाषाओं के साथ. उस के बाद क्रमश: अमेरिका (422), चीन (300), मैक्सिको (289), कैमरून (281), आस्ट्रेलिया (245), ब्राजील (229) के नंबर आते हैं. मगर भारत में अन्य देशों की तुलना में ज्यादा भाषाएं विलुप्त हो रही हैं. पापुआ न्यू गिनी में 98, इंडोनेशिया 143, अमेरिका 191, चीन 144, मैक्सिको 143, आस्ट्रेलिया 108, ब्राजील 190 और कनाडा में 87 भाषाएं विलुप्त हो चुकी हैं.

भारत में 2 तरह की भाषाएं लुप्त हुई हैं. एक तो तटीय इलाकों के लोग ‘सी फार्मिंग’ की तकनीक में बदलाव होने से शहरों की तरफ चले गए. उन की भाषाएं ज्यादा विलुप्त हुईं. दूसरे, जो डीनोटिफाइड कैटेगरी है, बंजारा समुदाय के लोग, जिन्हें एक समय अपराधी माना जाता था. वे अब शहरों में जा कर अपनी पहचान छिपाने की कोशिश कर रहे हैं. ऐसे 190 समुदाय हैं, जिन की भाषाएं बड़े पैमाने पर लुप्त हो गई हैं.

गणेश देवी के अनुसार, बंजारों, आदिवासी या अन्य पिछड़े समाजों की भाषाएं पूरे विश्व में लगातार नष्ट हो रही हैं. यह आधुनिकता की सब से बड़ी विडंबना है. ऐसे लोग देश के लगभग हर हिस्से में फैले हैं. ऐसा नहीं है कि ये लोग जीवित नहीं हैं. ये जिंदा हैं और इन की संख्या लाखों में हैं, लेकिन ये अपनी भाषा भूल चुके हैं.

जानकारों का एक समूह मानता है कि ग्लोबलाइजेशन की वजह से मातृभाषाओं की मौत हो रही है. लोग जहां जाते हैं वहीं की भाषा अपना लेते हैं और अपनी भाषा को छोड़ देते हैं.

वैसे, ग्लोबलाइजेशन को कितना ही कोस लीजिए, वह वक्त का तकाजा है. उस में छोटे समुदायों के आपस में जुड़ने से दुनिया एक गांव बनती जा रही है. माइग्रेशन, परिवहन और संचार के साधन लोगों को पास ला रहे हैं. इस में पुरानी भाषाओं और बोलियों का क्षय होना स्वाभाविक है. मगर उस में से जो प्रमुख भाषाएं उभर कर आ रही हैं उन में से करोड़ों लोग जुड़ते हैं.

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