कभी आजादी की लडाई और आजादी के प्रतीक रहे गांधी जी की औकात मोदी सरकार के ‘स्वच्छता अभियान‘ में चश्में की हो गयी है. बड़े ही तरीके से उन्हें मारा जा रहा है. सोच और व्यक्तित्व के स्तर पर उन्हें वहां खड़ा किया जा रहा है जहां कूड़ा है, कूड़े का डब्बा है. हम गांधी जी की हत्या और हत्यारों की बातें नहीं करेंगे, सभी को पता है, और जो बदला जा रहा है, उसे सभी देख रहे हैं. यह खयाल है बीमार है, कि ‘‘गांधी चतुर बनिया था.‘‘
बनियों की बात करें तो सरकार बड़े-बड़े राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय बनियों की है, जो देश को ‘ब्राण्ड‘ बना कर मुक्त व्यापार के बाजार में खड़ा करते हैं, उसके प्राकृतिक, जन एवं बौद्धिक ‘सम्पदा‘ को खरीदते और बेचते हैं, सरकार को इन सबका जरिया बनाते हैं.
फिर, बनियों की सरकार ‘चतुर बनिये‘ की औकात क्यों घटा रही है? तयशुदा बात है, कि आज के संदर्भ में वह चतुर नहीं है, बनिया नहीं है. वह वैसा नहीं है, जैसा उसे होना चाहिये. वह उस पाली का भी नहीं है, जिस पाली की सरकार है. जो अपने को ‘देशभक्त‘ और ‘राष्ट्रवादी‘ कहती है. आंखों में अंगुली डाल-डाल कर दिखाती है, कि इस देश में हिंदू ‘राष्ट्रवादी‘ है. संघ, भाजपा और सेना ‘देशभक्त‘ है. बाकी जो बच गये, उन्हें राष्ट्रवादी, देशभक्त बनना है. देश की वर्तमान सरकार यही कर रही है. और ‘यह बकवास‘ निरर्थक नहीं है. सोची, समझी, तय की गयी कार्य योजना है. इसी को जरिया बना कर बनियों की सरकार देश की अर्थव्यवस्था को निजी कम्पनियों को सौंप रही है, भारतीय लोकतंत्र की ओट में राजनीतिक एकाधिकारवाद को बढ़ा रही है.
गांधी ने ऐसी चतुराई बिड़ला भवन में रह कर भी नहीं दिखायी. दक्षिण अफ्रीका में भी उनके आस-पास ऐसे पैसे वालों के होते हुए भी उन्होंने नस्लवाद के विरूद्ध लड़ाई लड़ी. गांधी के पास आम जनता की समझ थी और अपनी वर्गगत ऐसी प्रतिबद्धता थी, जो वर्गों के हितों में सामंजस्य की पक्षधर थी, वो कभी भी सिर्फ बनियों के लाभ से संचालित नहीं हुए, जबकि आज संघ, भाजपा और मोदी सरकार के पास सिर्फ बनियों का हित है. देश की आम जनता बहलावे में आयी चीज है.
इस सबके बीच गांधी जी कहां हैं? आपदा की तरह आये नोटबंदी और बदलते नोटों में? या ‘कैश लेस ट्रांजेक्शन‘ में असंदर्भित होते हुए? आत्म निर्भर ग्रामीण अर्थव्यवस्था की सेंधमारी में? या कहीं और…?
तय नहीं कर पायेंगे आप. राजनीतिक सोच-विचार में गांधी कभी नहीं रहे. संसद के बाहर उन्हें बैठा दिया गया, संसद के बाहर वो बैठे हैं. गांधी को कहीं भी बैठाने से किसी को आपत्ति नहीं हुई. वो महात्मा से लेकर बापू और राष्ट्रपिता बने, आम जनता ने उन्हें यह दर्जा दिया, मगर राजसत्ता पर बैठे लोगों ने उन्हें ‘राजघाट‘ दिये. राजघाट यदि कांग्रेस के सरकार की देन है, तो गांधी को राजघाट किसने पहुंचाया, यह खुलेआम है.
इस देश में गांधी को ढूंढ़ना अब कठिन है. उनका अपहरण होता रहा है. उनके कद और दर्जे को घटाने की कोशिश अब हो रही है. कांग्रेस को मारने की साजिशों के तहत गांधी को भी मारा जा रहा है. कांग्रेस के मरने से राष्ट्रीय पूंजीपतियों के सरकार की सोच यदि मरती है, तो कोई बात नहीं, उसे कांग्रेस की -नेहरू-इंदिरा के बाद की- सरकारों ने ही मारा है, लेकिन गांधी के मरने से बात इसके आगे निकल जायेगी.
साभार : आलोकवर्द्धन