एक दिन सुबहसुबह पंडितजी दरवाजे पर आ धमके. उन के हाथ में पोथीपत्रा था. मैं डर गया. दरवाजा खुलते ही उन्होंने तकरीबन डांटते हुए कहा, ‘‘जानते नहीं आज पंचमी है?’’
‘‘पंचमी,’’ यह सुन कर मैं हक्काबक्का रह गया था, ‘‘पंचमी है, तो क्या हुआ?’’
‘‘इसीलिए मैं कहता हूं घोर कलयुग है, घोर कलयुग. लोगों को अपने पितरों की फिक्र ही नहीं. एक मैं हूं, जो सब को याद दिलाता रहता हूं,’’ वे मुझे घूर रहे थे.
मैं कुछ बोलता, इस से पहले ही वे दोबारा बरस पड़े, ‘‘यह पितर पक्ष है. आज ही के दिन तुम्हारे पिता का ‘स्वर्गवास’ हुआ था, इसलिए आज के दिन तुम्हें श्राद्ध कराना चाहिए.’’
अपनी बात के सुबूत में उन्होंने मुझे पत्रा में वह दिन भी दिखाया, जिस दिन मेरे पिताजी का स्वर्गवास हुआ था. उन के रहने की जगह स्वर्ग में है या नरक में, यह मैं नहीं जानता, पर पंडितजी के पत्रे के पन्ने में पंचमी की तिथि जरूर लिखी थी. 2 महीने पहले ही तो पिताजी की मौत हुई थी.
मैं ने पंडितजी को इज्जत से अंदर बिठाया. सब से पहले उन्हें गरमागरम चाय पिलाई, फिर पूछा, ‘‘पंडितजी, आप तो बड़े ज्ञानीध्यानी हैं, कृपा कर के यह बताइए कि यह श्राद्ध क्यों जरूरी है?’’
‘‘तुम क्या वाकई कुछ नहीं जानते, इस बारे में. पितर की आत्मा इस पखवारे अपने प्रियजनों से भोजनपानी लेने के लिए बेचैन रहती है. पितर पक्ष में श्राद्ध करने से उन्हें शांति मिलती है,’’ पंडितजी ने हाथ नचाते हुए जवाब दिया, जैसे मेरे पितर उन के सामने हवा में दिखाई दे रहे थे.
मैं ने सुन रखा था कि ‘आत्मा’ कभी नष्ट न होने वाली चीज है. यह सभी चीजों से परे है. यह न जलती है, न गलती है, न सूखती है. इस पर किसी चीज का कोई असर नहीं पड़ता. फिर इसे भूखप्यास कैसे लगती है? इसे भोजनपानी की जरूरत क्यों है? यह मैं समझ नहीं पा रहा था. पर पंडितजी से बहस कर के उन्हें और गुस्सा करना नहीं चाहता था.
‘‘तो फिर मुझे क्या करना होगा, पंडितजी?’’ मैं ने पूछा.
‘‘कुछ खास नहीं. पास ही किसी बहती हुई नदी में पितरों की शांति के लिए तर्पण करना होगा. उस के बाद कुछ ब्राह्मणों को भोजन कराने के साथसाथ दान देना होगा,’’ उन्होंने ऐसे कहा, जैसे यह कुछ भी नहीं है.
‘‘तर्पण के लिए क्या करना होगा?’’
‘‘थोड़ा सा जौ, तिल, दूध, शहद वगैरह ले लो. कुछ सामान मेरे पास है. एक लोटा ले लो और मेरे साथ चलो.’’
मैं ने उन के द्वारा बताई हुई चीजों को आननफानन इकट्ठा किया. तर्पण न कर के मैं पितरों का कोपभाजन नहीं बनना चाहता था. पता नहीं, कोई पितर कुछ नुकसान न कर डाले. जीतेजी तो पिताजी ने मुझे डांटा तक नहीं, पर अब तो उन की ‘आत्मा’ है. ‘आत्मा’ का क्या भरोसा?
खैर, मैं पंडितजी के साथ सामान को लिए नदी की ओर चल पड़ा.
नदी तट पर जा कर पंडितजी ने मुझ से कहा, ‘‘सब से पहले तुम नहा लो, उस के बाद तर्पण का काम करेंगे.’’
नदी का पानी काफी गंदा था. उस में नहाना भले ही मुझे अच्छा नहीं लग रहा था, पर तर्पण के लिए नहाना जरूरी था. किसी तरह आंख, कान और नाक मूंद कर मैं ने डुबकी लगा ही ली.
पानी पर कूड़ाकचरा, गंदगी तैरते हुए मेरे करीब से गुजर रहे थे. पर मैं मजबूर था, नाक भी मूंद नहीं सकता था. इस के बाद पंडितजी ने पानी में मिट्टी घोल कर मेरे बदन पर यहांवहां लेप दी. ऐसा करते समय वह कुछ बुदबुदा भी रहे थे.
‘‘चलो, अब इधर आओ,’’ नदी किनारे बैठते हुए पंडितजी ने कहा.
मेरे वहां आ जाने पर उन्होंने मेरी उंगली में घास की एक अंगूठी पहना दी और कहा, ‘‘यह कुश है. इसे पहनने से मन साफ होता है. इसे पहन कर किए गए वादे जान दे कर भी पूरे करने चाहिए.’’
लोग तो न वादों को निभाते हैं, न ही उन्हें सही फैसला मिलता है. पर लोग एक घास के लिए अपनी जान तक न्योछावर करने को तैयार रहते हैं. वाह रे घास.
खैर, आगे उन्होंने मुझे जौ के आटे में दूध, शहद और तिल मिला कर लड्डू बनाने को कहा.
मैं ने लड्डू बनाते हुए पूछा, ‘‘पंडितजी, इस का क्या होगा?’’
‘‘इन्हीं से तो तर्पण होगा. तुम्हारे पितरों को ये लड्डू ही मिलेंगे. सब के नाम पर एकएक लड्डू संकल्प कर बालू पर रखने होंगे.’’
ये लड्डू बालू पर ही लुढ़कते रहेंगे या मेरे पितरों के मुंह में जाएंगे, यह मैं नहीं जानता, पर इतना तो कह सकता हूं कि जीतेजी उन्होंने कभी जौ का कच्चा आटा क्या, पका आटा भी नहीं खाया. और यह भी कोई खाना था. अगर मैं जानता कि ये मेरे पितरों के भोजन हैं, तो मैं दालचावल, सब्जी पका कर न ले आता.
अब उन प्यासों को पानी पिलाना था. पंडितजी बोले, ‘‘नदी में कमर भर जल में उतर कर अंजली में भरभर कर पितरों को पानी पिलाओ.’’
यह गंदा पानी पितरों के पीने के लिए है? मुझे संकोच हो रहा था. ऐसे गंदे पानी को पी कर क्या उन्हें हैजा नहीं हो जाएगा? तब उन के लिए डाक्टर कहां मिलेगा? पहले जानता, तो घर से साफ पानी ले आता.
किसी तरह इन सारे कामों से निबटा. पंडितजी ने आगे का कार्यक्रम बताया, ‘‘अब घर जा कर आटा, घी, चीनी, दूध, सब्जी का इंतजाम करो. कुछ रसगुल्ले भी लेते आना. मैं ब्राह्मणों को ले कर दोपहर को तुम्हारे घर पहुंच जाऊंगा.
‘‘याद रखना, तुम जिनजिन पकवानों का भोग लगाओगे, तुम्हारे पितरों को वे ही पकवान वहां यानी स्वर्ग में प्राप्त होंगे.’’
आदेश दे कर पंडितजी चले गए. अब यह गाज गिरी सो गिरी, ऊपर से मनों का मूसल सिर पर झुला दिया. दोपहर को 10 ब्राह्मणों के साथ पंडितजी पधारे. नाक के नथुनों को फुलाफुला कर उन्होंने चारों दिशाओं की हवाओं को समेटा. जब उन की नाक में मन की इच्छानुसार सुगंध न भरी, तो वे कुछ सशंकित हो गए.
मुझे एक कोने में खींच कर ले गए और बोले, ‘‘सबकुछ मंगवा लिया है न? देखो, ब्राह्मणों के भोजन में कोई कसर नहीं रहनी चाहिए. तुम यहां इन्हें जो खिलाओगे, तुम्हारे पितरों को स्वर्ग में वही सब मिलेगा.’’
‘‘पंडितजी, आप चिंता क्यों करते हैं? मैं ने सारा इंतजाम कर लिया है. आप निश्चिंत रहें,’’ मैं ने उन्हें भरोसा दे कर शांत किया.
थोड़ी देर बाद उन्हें आसन पर बिठा कर पत्तल परोसी गई. मैं वहीं सामने ही खड़ा था. सभी 11 ब्राह्मण बैठ चुके थे. मेरा बेटा एक परात में सूखी रोटियां ले कर उन्हें परोसने लगा और बेटी भी पीछे से आलू और सायोबीन की सब्जी परोस रही थी.
पंडितजी यह सब देख कर आगबबूला हो गए. कहां वे तर माल उड़ाने के लिए अपनी लपलपाती जीभ बारबार होंठों पर फेर रहे थे, और कहां यहां की सूखी रोटी और आलू और सोयाबीन की सब्जी. वे पैर पटकते हुए उठ खड़े हुए.
पंडितजी चिल्ला कर बोले, ‘‘यह क्या मजाक है? यह तो घोर अपमान है हम ब्राह्मणों का. तुम्हारी यह हिम्मत कैसे हुई?’’
मैं ने हाथ जोड़ कर निवेदन किया, ‘‘शांत पंडितजी, शांत, शांत हो जाइए. मैं ने कोई गलती नहीं की है. जरा मेरी बात तो सुनिए.
‘‘आप ने ही तो कहा था कि ब्राह्मणों को जो भोजन खिलाओगे, वही मेरे पितरों को मिलेगा.
‘‘पंडितजी, मेरे पिताजी का हाजमा हमेशा कमजोर रहा. वे कभी भी घी पचा नहीं पाए. जिंदगीभर सूखी रोटी ही चबाते रहे. आलू और सोयाबीन की सब्जी उन की पसंद की सब्जी थी. इसलिए मैं ने वही सब्जी बनाई है, ताकि मेरे पिताजी को उन की पसंद का खाना मिल सके.
‘‘अब इस में मेरी गलती कहां है, पंडितजी? यह श्राद्धतर्पण तो मैं अपने पिता के लिए ही कर रहा हूं न. फिर उन की सुविधाअसुविधा का खयाल तो रखना ही पड़ेगा.’’
पंडितजी यह बात सुन कर चुप हो गए. उन्होंने मुझे घूर कर देखा, फिर मजबूरन पत्तल को हाथ लगाया. मन ही मन वे मुझे हजारों गालियां दे रहे होंगे. मुझे बेवकूफ कह रहे होंगे. न जाने शाप ही दे रहे होंगे. क्योंकि उन की जूती उन्हीं के सिर पर जो पड़ गई थी.
भोजन खत्म होने के बाद वे जो भाग खड़े हुए, सो आज तक मेरे दरवाजे पर नहीं आए. वे अपनी दक्षिणा मांगते कैसे? मेरे पितरों को पैसों की जरूरत तो थी ही नहीं.