Political News In Hindi, लेखक – शकील प्रेम
बिहार में भाजपा पूरे बहुमत से सरकार बनाए, अमित शाह की कोशिश तो यही है, लेकिन बिहार में भाजपा के पास अपना कोई ऐसा उम्मीदवार नहीं है, जिसे वह मुख्यमंत्री के तौर पर पेश कर सके.
इ स साल के आखिर तक बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं. बिहार में राजनीतिक हलचलें तेज हो चुकी हैं. नीतीश कुमार भले ही केंद्र की राजनीति में भारतीय जनता पार्टी की बैसाखी बने हैं, लेकिन बिहार की राजनीति में वे खुद भाजपा के रहमोकरम पर टिके हैं.
साल 2010 के चुनाव में भाजपा को 91 सीटों की बढ़त से बिहार का राजनीतिक समीकरण बदल गया. साल 2010 से ले कर साल 2020 के बीच भाजपा ने बिहार में लगातार अपनी पोजीशन को मजबूत किया है.
6 अप्रैल, 1980 को भाजपा ने पहली बार बिहार विधानसभा का चुनाव लड़ा और इस चुनाव में उस के 21 उम्मीदवारों ने जीत हासिल की. साल 1985 के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने 16 सीटों पर जीत हासिल की. इसी तरह साल 1990 में 39 और साल 1995 में वह 41सीटों पर जीती.
साल 2000 के चुनाव में भाजपा ने समता पार्टी से गठबंधन किया और 67 सीटों पर जीत हासिल की. फरवरी, 2005 के चुनाव में 37 और नवंबर, 2005 में भाजपा को 55 सीटों पर कामयाबी मिली. साल 2010 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 91 और साल 2015 में 53 सीटों पर जीत दर्ज की, तो साल 2020 में भाजपा के 74 विधायक जीते.
साल 2020 के चुनाव के बाद विकासशील इनसान पार्टी के 4 विधायक भाजपा में शामिल हो गए, जिस से वह 78 सीटों पर पहुंच गई और उपचुनाव में तरारी और रामगढ़ में जीत के साथ उस के विधायकों की तादाद बढ़ कर 80 हो गई.
इस तरह भाजपा बिहार की राजनीति में दूसरी सब से बड़ी पार्टी बन कर उभरी. यही वजह है कि नीतीश सरकार में भाजपा के सम्राट चौधरी और विजय कुमार सिन्हा उपमुख्यमंत्री हैं.
आगामी विधानसभा चुनाव के लिए भाजपा पूरी तैयारी में है. इस पार्टी के स्टार प्रचारक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पूरी तरह चुनावी मूड में आ गए हैं. बिहार में भाषणों का सिलसिला शुरू हो चुका है.
इसी बीच लोकजनशक्ति पार्टी के चिराग पासवान ने विधानसभा चुनाव लड़ने की मंशा जाहिर की है. केंद्र सरकार में मंत्री चिराग पासवान के विधानसभा चुनाव लड़ने की घोषणा को अमित शाह की तथाकथित ‘चाणक्य नीति’ के तहत देखा जा रहा है.
नीतीश कुमार के इतिहास को देखते हुए भाजपा उन पर भरोसा नहीं कर सकती. भले ही केंद्र में भाजपा सरकार को नीतीश कुमार का समर्थन हासिल है, लेकिन बिहार की राजनीति में वह अपने हिसाब से खेल के मोहरे तय करने के मूड में है.
बिहार विधानसभा में नीतीश कुमार की पार्टी लगातार अपना वोट बैंक खोती जा रही है. साल 2015 में 71 सीटें जीतने वाली जद (यू) साल 2020 में 43 सीटों पर आ गई. इस से भाजपा के लिए नीतीश कुमार की अहमियत पहले जैसी नहीं रही.
बिहार में भाजपा के लिए मुख्यमंत्री का चेहरा सम्राट चौधरी हैं, जो वर्तमान सरकार में उपमुख्यमंत्री हैं, लेकिन सम्राट चौधरी की अपनी लोकप्रियता कुछ खास नहीं है.
राजनीतिक खात्मे की ओर नीतीश कुमार
एक समय ऐसा भी था जब बिहार की पूरी राजनीति 3 लोगों के इर्दगिर्द घूमती थी. नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान. आज लालू प्रसाद के बेटे तेजस्वी यादव ने लालू की राजनीतिक विरासत की कमान संभाल ली है, तो रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान भी अपने पिता के राजनीतिक संस्कारों को बखूबी पूरा कर रहे हैं.
लेकिन तेजस्वी यादव और चिराग पासवान की तरह नीतीश कुमार का फिलहाल कोई राजनीतिक वारिस नहीं है और न ही नीतीश कुमार की पार्टी में ऐसा कोई नेता है, जो उन की राजनीतिक विरासत को आगे ले जा सके.
पिछले 2 विधानसभा चुनावों के दौरान नीतीश कुमार ने भाजपा को मजबूत ही किया है, जिस से उन के कोर वोटर भाजपा में चले गए, जिस का नतीजा यह हुआ कि पिछले विधानसभा चुनावों में नीतीश कुमार की पार्टी तीसरे नंबर पर पहुंच गई.
राजग में शामिल होने की वजह से नीतीश कुमार को विवादास्पद वक्फ संशोधन कानून का समर्थन करना पड़ा, जिस के तुरंत बाद 5 मुसलिम नेताओं ने जद (यू) से इस्तीफा दे दिया.
भाजपा के साथ नीतीश कुमार के सियासी गठबंधन के बावजूद लंबे समय तक जद (यू) को मुसलिमों का समर्थन हासिल था, लेकिन इस मामले के बाद नीतीश कुमार के लिए मुसलिमों का भरोसा जीतना मुश्किल होगा.
नीतीश कुमार के पास कुर्मी पटेल के अलावा महिलाओं का समर्थन हासिल है. शराबबंदी और पंचायतों में महिलाओं के लिए सीट आरक्षण और स्कूल जाने वाली लड़कियों को साइकिल देने जैसे कल्याणकारी योजनाओं की बदौलत बिहार की महिलाएं मुख्यमंत्री के तौर पर नीतीश कुमार को ही देखना चाहती हैं.
इधर के कुछ सालों में जद (यू) ने गैरयादव और अतिपिछड़े वर्गों और महादलितों पर अपनी पकड़ मजबूत करने की कोशिश की है, लेकिन ये सारी कोशिशें राजद और भाजपा जैसी मजबूत जनाधार वाली पार्टियों के सामने जद (यू) को बहुमत दिलाने के लिए काफी नहीं हैं, इसलिए बिना किसी गठबंधन के बिहार में जद (यू) का सूपड़ा साफ होने की पूरी गुंजाइश है.
वोट बैंक के मामले में तेजस्वी यादव और भाजपा बेहद मजबूत हालत में हैं. भाजपा के साथ बिहार का अपर कास्ट तबका है, तो हिंदुत्व के नाम पर ओबीसी का एक बड़ा हिस्सा भाजपा का कोर वोटर बन गया है.
चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी, जीतनराम मांझ का हिंदुस्तानी आवाम मोरचा और मुकेश साहनी की विकासशील इनसान पार्टी जैसे छोटे खिलाड़ी भाजपा को ही मजबूत कर रहे हैं.
साल 2005 और साल 2010 के विधानसभा चुनावों में जद (यू) ने भाजपा से गठबंधन किया. तब जद (यू) को 20 फीसदी और 22 फीसदी से ज्यादा वोट मिले. साल 2015 में जब जद (यू) राजद के साथ गठबंधन में थी, तो वोट फीसदी घट कर 17 फीसदी रह गया और साल 2020 में भाजपा के साथ गठबंधन में जद (यू) को सिर्फ 15.7 फीसदी वोट मिले.
वोट शेयर में गिरावट का सीधा असर जद (यू) की सीटों पर पड़ा. साल 2010 में 115 सीटें जीतने वाली जद (यू) साल 2015 में 71 सीटों पर आ गई और साल 2020 में 43 सीटों पर पहुंच गई. हालांकि, साल 2024 लोकसभा में जद (यू) का प्रदर्शन अच्छा रहा.
साल 2024 के लोकसभा चुनाव में राजद ने 22.14 फीसदी के साथ सभी दलों में सब से ज्यादा वोट फीसदी हासिल किया, लेकिन यह भाजपा के साथ गठबंधन के समीकरण की वजह से मुमकिन हुआ. साल 2019 के लोकसभा में महज 2 सीटें जीतने वाली जद (यू) को भाजपा ने 16 सीटें दीं, जिन में से वह 12 सीटें जीत गई.
पिछले चुनावों के नतीजे के आधार पर देखें, तो बिहार में जद (यू) को 15 फीसदी वोट हासिल हुए हैं और भाजपा की पकड़ 20 फीसदी वोटों पर है. इस तरह राजग में कुल वोट फीसदी 35 फीसदी पर पहुंच जाएगा, जो तेजस्वी यादव के गठबंधन को मिले 30 फीसदी से कहीं ज्यादा है.
अगर इस बार जद (यू) के प्रदर्शन में सुधार होता है, तो नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बने रहने की उम्मीद बनी रहेगी, वरना चिराग पासवान के रूप में भाजपा के पास औप्शन तो है.
नीतीश कुमार की लगातार बिगड़ती सेहत और जद (यू) में दूसरी श्रेणी के नेताओं की कमी के चलते साल 2025 का यह विधानसभा चुनाव नीतीश कुमार के राजनीतिक खात्मे की शुरुआत भी साबित हो सकता है.
भाजपा का प्लान बी
रामविलास पासवान की राह पर चलते हुए चिराग पासवान ने सत्ता में बैठ कर मलाई खाते रहने की कला सीख ली है. बिहार में भाजपा पूरे बहुमत से सरकार बनाए, अमित शाह की कोशिश तो यही है, लेकिन बिहार में भाजपा के पास अपना कोई ऐसा उम्मीदवार नहीं है, जिसे वह मुख्यमंत्री के तौर पर पेश कर सके.
बिहार में भाजपा के सम्राट चौधरी टाइप नेताओं की अपनी लोकप्रियता कुछ नहीं है, इसलिए भाजपा को मजबूरन चिराग पासवान का सहारा लेना पड़ रहा है.
साल 2020 के विधानसभा चुनावों में चिराग पासवान की लोजपा ने अपने दम पर चुनाव लड़ा और कुल 137 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे, लेकिन मात्र एक सीट ही जीत पाए. चिराग पासवान के राजग से अलग चुनाव लड़ने से जद (यू) को खासा नुकसान हुआ.
साल 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद चिराग पासवान को मंत्रिमंडल में जगह मिल गई, जिस से भाजपा से उन की सारी नाराजगी दूर हो गई. नीतीश कुमार की जगह अमित शाह को चिराग पासवान जैसे निष्ठावान और आज्ञाकारी की ही जरूरत है.
चिराग पासवान की पार्टी लोजपा का इतिहास देखें तो कभी लोजपा का वोट शेयर 12.6 फीसदी था. साल 2005 तक उस का वोट शेयर 11 फीसदी था, जो साल 2010 में घट कर 7 फीसदी पर आ गया और साल 2020 तक आतेआते 6 फीसदी के आसापास रह गया.
लोजपा की सीटें भी साल 2005 में 29 से घट कर साल 2010 में 3 और फिर साल 2020 के विधानसभा चुनाव में वह महज एक सीट तक सिमट कर रह गई. साल 2020 में लोजपा की इस शर्मनाक हार से सबक लेते हुए चिराग पासवान राजग गठबंधन से अलग हो कर चुनाव लड़ने की बात सोच भी नहीं सकते.
‘मोदी का हनुमान’ बनना चिराग की मजबूरी भी है.
चिराग पासवान का दलितों से कोई मोह है, यह अब तक पता नहीं चला, क्योंकि वे भी तो अपने पिता की तरह दलित वोटों की बिक्री ही करते हैं. आजकल भाजपा उन की बड़ी खरीदार है.
क्या तेजस्वी यादव बन पाएंगे मुख्यमंत्री
लालू प्रसाद यादव का नाम भ्रष्टाचार के कई मामलों से जुड़ा है, लेकिन बिहार में सैकुलर राजनीति का सूत्रधार लालू प्रसाद यादव को ही माना जाता है. उन्होंने इस मामले में कभी समझौता नहीं किया, इसलिए बिहार के मुसलिम राजद के कोर वोटर माने जाते हैं.
लालू प्रसाद यादव के बेटे तेजस्वी यादव ने पिता के उसूलों को कायम रखते हुए सैकुलर राजनीति को आगे बढ़ाया और वे भाजपा के लिए बड़ी चुनौती बन कर उभरे हैं.
तेजस्वी यादव अभी बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता हैं. उन को राजनीति में 15 साल से ज्यादा का समय हो गया है. इस बीच वे 2 बार बिहार के उपमुख्यमंत्री भी बने. पहली बार साल 2015 में और दूसरी बार अगस्त, 2022 में.
अपने पिता लालू यादव के ‘माय’ (मुसलिमयादव) फैक्टर को तेजस्वी यादव ने और मजबूती दी है. वक्फ कानून का खुला विरोध कर उन्होंने मुसलिम वोट बैंक को मजबूत किया है, तो संविधान बचाने और दलितों के मुद्दों पर भी तेजस्वी यादव ने अपना अहम रोल निभाया है, जिस से बिहार के महादलितों का रुझान भी तेजस्वी यादव की ओर बढ़ा है.
यही वजह है कि हाल में हुए सर्वे में मुख्यमंत्री पद के सब से पसंदीदा चेहरे के रूप में तेजस्वी यादव सामने आए हैं. इंडिया टुडे-सी वोटर सर्वे के मुताबिक, तेजस्वी यादव काफी समय से मुख्यमंत्री पद के लिए बिहार के लोगों की पहली पसंद बने हुए हैं. इस मामले में तेजस्वी यादव ने नीतीश कुमार को काफी पीछे छोड़ दिया है.
तेजस्वी यादव भले ही नीतीश कुमार से लोकप्रियता में आगे चल रहे हों, लेकिन नीतीश कुमार के पीछे राजग का मजबूत गठबंधन है. तेजस्वी यादव के पास कोई मजबूत गठबंधन नहीं है.
इंडिया गठबंधन की उपयोगिता लोकसभा चुनावों तक ही थी. बिहार के विधानसभा चुनावों में इंडिया गठबंधन का कोई खास मतलब नहीं है.
राहुल गांधी क्या गुल खिलाएंगे
साल 2014 और साल 2019 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की लगातार हार और राजद के साथ गठबंधन के बावजूद बिहार के पिछले चुनाव में कांग्रेस का स्ट्राइक रेट बेहद खराब होने की वजह से बिहार में कांग्रेस का अपना कैडर तकरीबन खत्म हो चुका था, लेकिन साल 2024 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के बेहतर प्रदर्शन से बिहार कांग्रेस में जान सी आ गई है.
बिहार में कांग्रेस के पिछले ट्रैक रिकौर्ड की बात करें तो साल 2015 के बिहार चुनाव में कांग्रेस 6.8 फीसदी वोट शेयर के साथ 27 सीटों पर जीत हासिल करने में सफल रही. वहीं, साल 2020 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का वोट शेयर 9.6 फीसदी जा पहुंचा, लेकिन सीटें घट कर 19 रह गईं.
साल 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को बिहार में केवल एक सीट पर जीत मिली. तब उसे 7.70 फीसदी वोट मिले थे. साल 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस 9.20 फीसदी वोट शेयर के साथ 3 सीटों पर जीती और एक सीट से पार्टी के बागी पप्पू यादव बतौर निर्दलीय जीते.
प्रशांत किशोर की नई पार्टी
बिहार में 3,000 किलोमीटर की पद यात्रा के जरीए बिहार की जनता में ‘सुराज’ की चेतना जगाने के बाद प्रशांत किशोर ने पटना में अपनी नई जन सुराज पार्टी लौंच कर दी. जन सुराज पार्टी के पहले कार्यकारी अध्यक्ष मनोज भारती बनाए गए हैं.
प्रशांत किशोर चुनावी रणनीतिकार रहे हैं और उन्हें राजनीति की अच्छीखासी समझ है, लेकिन बिहार में भीड़ जमा करना और भीड़ को वोटों में बदलना दोनों बातें अलग हैं.
बिहार की राजनीति में जाति और धर्म का फैक्टर ज्यादा अहमियत रखता है और प्रशांत किशोर इन दोनों समीकरणों से अलग ‘भ्रष्टाचार मुक्त सुशासन’ का राग अलापते हैं. बिहार का कायाकल्प करने की बात करते हैं. पढ़ाईलिखाई से समाज में क्रांति लाने का शिगूफा छोड़ते हैं. ऐसे तथाकथित ‘युगपुरुषों’ को बिहार की जनता बखूबी समझती है.
राजनीतिक रणनीतिकार होने के नाते प्रशांत किशोर का दावा है कि वे बिहार में राजद और भाजपा से अलग एक वैकल्पिक राजनीति की शुरुआत करना चाहते हैं. इस के लिए उन्होंने बिहार की सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े करने की योजना बनाई है.
प्रशांत किशोर की राजनीति कितनी कारगर साबित होती है, यह तो चुनाव नतीजों के बाद ही पता चलेगा, लेकिन इतना तो तय है कि प्रशांत किशोर कुछ लोगों का खेल जरूर बिगड़ेंगे. बिहार का कल सुधारने की न इच्छा प्रशांत किशोर में है और न ही हुनर. वे तो लच्छेदार बातें बना कर नेताओं को चुनाव जीतने के नुसखे बेचने वाली सड़कछाप ताकत की दवाएं बेचने वाले हैं.
क्या होगी बीमार राज्य की तबीयत ठीक
कोई भी समाज, देश या राज्य तभी तरक्की करता है, जब वहां के नेताओं के पास समाज को आगे ले जाने की ईमानदार इच्छाशक्ति और सूझबूझ हो, लेकिन शायद बिहार में ईमानदार और सूझबूझ वाले नेता पैदा ही नहीं हो पाते. कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, केरल, तमिलनाडु जैसे दक्षिण के कई राज्य इस वक्त देश की जीडीपी को संभालने की ताकत रखते हैं, वहीं बिहार इन में कहीं भी नहीं है.
संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से जारी ग्लोबल मल्टी डाईमैंशनल पौवर्टी इंडैक्स-एमपीआई के मुताबिक, बिहार भारत का सब से गरीब राज्य है. यहां के 38 जिलों में से 11 जिलों में हर 10 में से 6 लोग गरीबी रेखा के नीचे जिंदगी गुजार रहे हैं.
अररिया और मधेपुरा जिले में यह आंकड़ा 7 तक पहुंच जाता है. तेंदुलकर कमेटी की साल 2011-12 की रिपोर्ट के मुताबिक, बिहार में 33.17 फीसदी लोग गरीबी रेखा से नीचे जिंदगी गुजारते हैं.
बिहार बीमार राज्य है, क्योंकि बिहार में करप्शन है, जातिवाद है, गरीबी है. बिहार की बदहाली के लिए इन में से जितने भी कारण गिनाए जा सकते हैं वे सभी कारण देश के दूसरे राज्यों में भी मौजूद हैं, लेकिन दूसरे राज्यों ने अपनी समस्याओं को खुद दूर किया या कर रहे हैं.
झारखंड के साथ खनिज संपदा के चले जाने के बाद भी बिहार के पास युवाओं की बड़ी ताकत थी. पंजाब की तरह उपजाऊ प्रदेश होने के बावजूद कृषि के क्षेत्र में भी बिहार का कोई योगदान नहीं है.
साल 2000 के बाद की सरकारों ने भी बिहार को बदहाली से बचाने के लिए कुछ नहीं किया और नीतीश सरकार ने भी अपने 15 साल के शासन में बिहार की बदहाली को दूर करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई.
साल 2025 का विधानसभा चुनाव सामने है, लेकिन इस चुनाव में भी बिहार के बुनियादी मुद्दों पर बात नहीं हो रही. पलायन, रोजगार, अशिक्षा और चिकित्सा जैसे मुद्दों पर जाति और धर्म की राजनीति हावी नजर आ रही है. इस चुनाव में भी जाति का फैक्टर मजबूत है और धर्म की राजनीति उभार पर है.
ऐसे में चुनाव के बाद जो भी सरकार बनेगी, उस से यह उम्मीद करना तो बेकार ही है कि वह बिहार में बहार ले आएगी. Political News In Hindi