Editorial: दिल्ली के पास फरीदाबाद में 21 एकड़ में बसी किसानों की जमीन पर काट कर बनाई गई सरकार की बिना इजाजत वाली कालोनियों को हरियाणा सरकार की पुलिस और दूसरे विभागों ने मार्च में धराशायी कर दिया. इन कालोनियों की जमीनें मजदूरों, गरीबों ने कौड़ीकौड़ी जमा कर खरीदी थीं और मेहनत के पैसे से मकान बनाए थे. खेती की जमीन पर रहने के मकान नहीं बन सकते इसलिए इन्हें तोड़ डाला गया.
यह पूरे देश में हो रहा है. गरीब लोग शहरों के आसपास के खेतों में जमीन खरीद कर बेहद छोटे मकान बना रहे हैं ताकि उन के सिर पर छत तो हो सके. इन कालोनियों में सीवर नहीं होता और पानी के लिए ये लोग ट्यूबवैल लगा लेते हैं. बिजली का कनैक्शन जरूर मिल जाता है कभी किसी आसपास की फैक्टरी से तो कभी किसी और ढंग से. शहर में नौकरी और 10-20 किलोमीटर दूर रहने को पक्की छत मिल जाए तो ये मजदूर अपने को बहुत सुखी मान लेते हैं.
ये लोग उन से अलग हैं जो सरकार की जमीन पर झोंपडि़यां बना लेते हैं और बरसों रह जाते हैं. इन कालोनियों की जमीन किसान ने मरजी के खरीदार या बिल्डर को बेची होती है जो छोटेछोटे प्लौट काट कर मजदूरों को बेचता है. इन में सड़क का इंतजाम होता है और कुछ होशियार बिल्डर पानीबिजली का भी जुगाड़ कर देते हैं.
सरकार को इन से परेशानी यही है कि जो पोथों के पोथों के कानून बनाए गए हैं उन्हें माना नहीं गया. सरकार की बीसियों तरह की इजाजत नहीं ली गई. अफसरोंनेताओं की जेबें नहीं भरी गईं, परमिटलाइसैंस नहीं लिए गए. इस से सरकारी अफसरों के पास हक हो जाता है कि वे जब चाहें बुलडोजर चला दें और जो थोड़ीबहुत संपत्ति इन लोगों ने बनाई है उसे नष्ट कर दें.
नियमकानूनों के नाम पर यह असल में तानाशाही है जो पूरे देश में पुलिस, प्रशासन, नेता, मंत्री के हाथों होती है. तानाशाही करने वालों की सोच होती है कि गरीब लोग अपनी एक छत कैसे बना सकते हैं? वे कैसे सुख से रह सकते हैं? उन्हें तो हमेशा इन के सामने पसरे रहना चाहिए, हमेशा दया की, जिंदा रहने की भीख मांगते रहना चाहिए.
हमारा धर्म भी यही सिखाता है कि इन लोगों को इस जन्म में नरक भोगना लिखा है क्योंकि इन्होंने पिछले जन्म में कोई पाप किए होंगे, दानपुण्य नहीं किया होगा, ऋषिमुनियों को तंग किया होगा, इसलिए इस जन्म में अगर इन्हें यमदूतों के हाथों नरक भोगना पड़े, तो यह तो भगवान का कानून है, शासन, नेता बेचारा क्या करेगा?
अफसोस यह है कि इन में से ही बहुत से लोग ढोलमंजीरे ले कर उस धर्म के गुणगान करते हैं जिस के इशारे पर इन के मकानों को मिट्टी में मिला दिया जाता है. मुंबई के धारावी में यही काम अब अडानी के साथ मिल कर महाराष्ट्र की भारतीय जनता पार्टी कर रही है. जो लोग सरकार की पार्टी में होते हैं वे भी अफसरों के सामने कुछ नहीं कर पाते क्योंकि नेता बनते ही इलाके का चौधरी समझ जाता है कि जिस जमीन पर मकान बने हैं, वह सोना उगलेगी तो फिर उस पर गरीबों के मकान क्यों बने रहें.
ये मकान चाहे 1 साल पहले बने हों या 10-15 साल पहले, तोड़े जाते समय सभी ढह जाते हैं और इन के साथ लाखों सपने भी ढह जाते हैं.
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पेट की भूख, पक्की छत और बीमारी के बाद जो बात एक आम गरीब को तंग करती है वह पुलिस और अदालत है. पुलिस और अदालत की धौंसबाजी घरों को बुरी तरह तबाह करती है और इन की बिजली कब किस के सिर पर गिर जाए यह कहा नहीं जा सकता. कसबों की अदालतों में छप्परों के नीचे बैठे वकीलों और उन से घिरे मुरझाए चेहरे वाले गरीब गांवकसबाई लोगों को देख कर अंदाजा लगाया जा सकता है कि असली सरकार तो अदालत में बैठती है, सरकार के 5-5 मंजिलों के एयरकंडीशंड दफ्तरों में नहीं.
राज्य के मंत्री हों या केंद्र सरकार के, वे ज्यादा कुछ आम आदमी का न बिगाड़ सकते, न बना सकते. उन के बनाए हर कानून को पुलिस, इंस्पैक्टर और अदालतें जब लागू करती हैं तो अमीर तो क्या गरीब भी फंदों में फंसते चले जाते हैं और पूरी जिंदगी इन काले कोट पहने जजों के हाथों में गुजर जाती है जो बेहद बेदर्दी से अदालत में पहुंचे लोगों को न्याय दिलाते हैं. यह न्याय कभी 5 साल में मिलता है, कभी 10 साल में, तो कभी 15-20 साल में. हर फैसले पर एक खुश होता है दूसरा खून के घूंट पी कर रह जाता है.
काले कोट वाले जज के यहां जब नोटों से भरे बोरे मिले जो अचानक आग लगने पर आग बुझाने वालों को मिले तो पक्का हो जाता है कि ऊपर से नीचे तक न्याय दिलाने वाले इंसाफ के नाम पर ही कर रहे हैं वह कितना गलत हो सकता है.
अदालतों में देर तो एक बात है पर जब लगने लगे कि पैसे ले कर इंसाफ बिक रहा है तो गरीब, कमजोर टूट जाता है. जब पुलिस या इंस्पैक्टर किसी गरीब को अदालत में घसीट लाए तो आम आदमी को मालूम रहता है कि सुनवाई तो उस की होगी जिस के हाथ में पैसा है, ताकत है.
आम जजों के फैसले सरकारी वकीलों की मांग पर ही होते हैं क्योंकि गरीब के पास इतने पैसे कहां कि वह अच्छा पढ़ालिखा और समझदार वकील कर सके. दूसरी तरफ पुलिस और कानूनों को लागू करने वाली सरकार के पास वकीलों की भरमार होती है. अच्छे वकील सरकारी मामला हाथ में लेना चाहते हैं क्योंकि उन्हें उम्मीद रहती है कि जब सुप्रीम कोर्ट के जज को भी कमीशन का अध्यक्ष, राज्यसभा की मैंबरशिप, कहीं की उपराज्यपाल की गद्दी या मोटा पैसा मिल सकता है तो वे क्यों गरीब का मामला हाथ में ले कर अपनी पूरी जिंदगी स्वाहा करें.
आज सरकार तो किसी की भी सुनती नहीं है. वोट लेने के समय नेता घरघर जाते हैं पर सिनेमा के सितारों की तरह सिर्फ शक्ल दिखाने के लिए, यह भरोसा दिलाने के लिए नहीं कि उन की सत्ता आने पर उन के दरबार में आम आदमी की सुनवाई होगी. यह तो सिर्फ अदालतों में होता है जहां आम आदमी अपनी बात को कह तो सकता है, पर अब अदालतें निशाने पर हैं. यह आम आदमी के लिए खतरा है कि चाहे सुनवाई के दरबार में घुसने के लिए खर्च करना होता हो कम से कम मौका तो है, वह भी फिसल रहा है. सरकार, नेता, अफसर, कांस्टेबल, इंस्पैक्टर, पटवारी सब जनता को गुलाम बनाए रखना चाहते हैं और जो छोटी सी मोरी के साइज की खिड़की खुली थी वह भी अब छिपाई जा रही है. हम उस पौराणिक युग में जा रहे हैं जब दस्युओं से अमृत का घड़ा छीन लिया था, शंबूक का सिर काट दिया था, एकलव्य से अंगूठा ले लिया था. तब भी कोई सुनवाई नहीं थी, आज भी बंद की जा रही है.