‘‘जगता चाचा, ओ, जगता चाचा,’’ कुंदन ने दरवाजे पर खड़े हो कर जगता बढ़ई को आवाज लगाई.
‘‘हां कुंदन बेटा, क्यों चिल्ला रहा है? दरवाजा खोल कर अंदर आ जा.’’
‘‘अरे चाचा, आप को खाट की बाही और पाए बनाने को दिए थे. इतने दिन हो गए, लेकिन कुछ हुआ नहीं…’’
‘‘हां बेटा, बस कुछ दिन की और बात है. टांग ठीक हो जाए, तो मैं चारपाई छोड़ कर कामधंधे में लगूं. सब से पहले तुम्हारी खाट ही तैयार करूंगा.’’
‘‘चाचा, हमें खाट की बहुत जरूरत है. पिताजी ने कहलवा कर भेजा है कि खाट बुनने के लिए तैयार न हो, तो उस की लकड़ी वापस ले आना. हम दूसरे गांव के बढ़ई से बनवा लेंगे.’’
‘‘कुंदन बेटा, तुम कैसी बातें करते हो? तुम्हारे परिवार का कोई काम कभी मेरे हाथों पीछे छूटा हो तो बताओ. अब ऐसी मजबूरी आ पड़ी है कि उठा तक नहीं जाता. जब से हादसे में टांग टूटी है, लाचार हो गया हूं. बस, कुछ दिन और रुक जाओ बेटा.’’
‘‘नहीं चाचा, अब हम और नहीं रुक सकते. हमें खाट की सख्त जरूरत है. हम दूसरों की खाट मांग कर काम चला रहे हैं.’’
‘‘ठीक है बेटा. नहीं रुक सकते तो ले जाओ अपनी लकडि़यां, वे पड़ी हैं उस कोने में.’’ कुंदन कोने में पड़ी अपनी लकडि़यां उठाने लगा.
जगता बढ़ई की बेटी सुनीता दरवाजे के पीछे खड़ी सारी बातें सुन रही थी. वह बाहर आई और कुंदन से बोली, ‘‘कुंदन भैया, अगर तुम शाम तक का समय दो, तो तुम्हारी बाही और पाए दोनों तैयार हो जाएंगे. उन्हें ठोंकपीट कर तुम्हारी खाट का भी ढांचा तैयार हो जाएगा.’’
‘‘लेकिन सुनीता, यह तो बताओ इन को तैयार कौन करेगा? जगता चाचा तो अपनी चारपाई से नीचे भी नहीं उतर सकते.’’
‘‘मैं तैयार करूंगी कुंदन भैया. तुम परेशान क्यों होते हो? आखिर मैं बढ़ई की बेटी हूं. इतना तो तुम मुझ पर यकीन कर ही सकते हो.’’
सुनीता की बात सुन कर कुंदन मुसकराया और बोला, ‘‘ठीक है, सुनीता. तुम कहती हो, तो शाम तक इंतजार कर लेते हैं,’’ इतना कह कर कुंदन वहीं लकडि़यां छोड़ कर चला गया.
कुंदन के जाने के बाद जगता ने कहा, ‘‘सुनीता बिटिया, यह तुम ने कुंदन से कैसा झूठा वादा कर लिया?’’
‘‘नहीं पिताजी, मैं ने कोई झूठा वादा नहीं किया है,’’ सुनीता ने जोश में आ कर कहा.
‘‘तो फिर खाट की बाही और पाए कौन तैयार करेगा?’’
‘‘मैं तैयार करूंगी पिताजी.’’
यह सुन कर जगता चौंक गया. उसे यकीन ही नहीं हो रहा था कि सुनीता अपने कंधों पर यह जिम्मेदारी ले सकती है.
जगता का नाम वैसे तो जगत सिंह धीमान था, लेकिन जटपुर गांव के लोग उसे ‘जगता’ कह कर ही पुकारते थे. जगता को पता था कि सुनीता को बचपन से ही बढ़ईगीरी का शौक है. इसी शौक के चलते वह बढ़ईगीरी के औजार हथौड़ा, बिसौली, आरी, रंदा, बरमा आदि चलाना अच्छे से सीख गई है, लेकिन जगता ने अपनी बेटी सुनीता से कोई काम पैसे कमाने के लिए कभी नहीं कराया था, शौकिया चाहे वह कुछ भी करे.
लेकिन आज मुसीबत के समय सुनीता खाट की बाही और पाए तैयार करने के लिए बड़ी कुशलता से औजार चला रही थी. उस की कुशलता को देख कर जगता भी हैरान था.
सुनीता ने चारों बाही और पाए तैयार कर के और उन्हें ठोंकपीट कर खाट का ढांचा दोपहर तक तैयार कर दिया. फिर कुंदन को कहलवा भेजा कि वह अपनी खाट ले जाए, तैयार हो गई है.
कुंदन जब आया तो उस ने देखा कि उस की खाट तैयार है. उस ने पैसे पकड़ाए और चलते समय कहा, ‘‘सुनीता, हम तो यही सोच रहे थे कि जगता चाचा ने तो चारपाई पकड़ ली है और अब लकड़ी का सारा काम पड़ोस के गांव के बढ़ई से ही करवाना पड़ा करेगा.’’
तब सुनीता ने बड़े यकीन के साथ कहा, ‘‘कुंदन भैया, ऐसा है कि जितना भी लकड़ी का काम तुम्हारे पास है, सब ले आना. सारा काम समय से कर के दूंगी, दूसरे गांव में जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी.’’
‘‘सुनीता, जब सारा काम गांव में ही हो जाएगा, तो कोई बेवकूफ ही होगा, जो दूसरे गांव जाने की सोचेगा.’’
यह कहते हुए कुंदन तो खाट का ढांचा उठा कर चला गया, लेकिन ये सब बातें सुन कर जगता कहां चुप रहने वाला था. उस ने कहा, ‘‘सुनीता, तू कुंदन से क्या कह रही थी कि लकड़ी का सारा काम ले आना, मैं कर के दूंगी? बिटिया, क्या मैं अब इतना गयागुजरा हो गया हूं कि बेटी की कमाई खाऊंगा और अपने सिर पर बुढ़ापे में पाप चढ़ाऊंगा?’’
‘‘अरे पिताजी, छोडि़ए इन पुराने ढकोसलों को. इन पुरानी बातों पर अब कौन ही यकीन करता है? अपने पिता की मदद करने से बेटी के बाप को पाप लगता है, यह कौन से शास्त्र में लिखा है?’’
‘‘लेकिन, बिटिया…’’
‘‘पिताजी, आप चिंता न करें. आप की बेटी बेटों से कम है क्या? देखो, तुम्हारे दोनों बेटे अजीत और सुजीत बढ़ईगीरी का पुश्तैनी काम छोड़ कर और इसे छोटा काम समझ कर बनियों की दो टके की नौकरी करने शहर भाग गए. लेकिन, इस में भी उन का गुजारा नहीं होता, हर महीने आप के सामने हाथ फैलाए खड़े रहते हैं.
‘‘इस से अच्छा तो यह होता पिताजी कि वे अपने पुश्तैनी काम को आगे बढ़ाते. गांव के कितने ही लोग अब दूसरे गांव जा कर या शहर से लकड़ी का काम करवा कर लाते हैं, क्योंकि आप अकेले से इतना काम नहीं हो पाता. गांव भी हर साल फैल रहा है.’’
‘‘कहती तो ठीक हो बेटी. मैं ने तेरे दोनों भाइयों को कितना समझाया कि अपने काम को आगे बढ़ाओ, मालिक बन कर जिओ. दूसरों की नौकरी बजाने से अपना काम लाख बेहतर होता है. लेकिन उन्हें तो बढ़ईगीरी करने में न जाने कितनी शर्म आती है?’’
‘‘लेकिन पिताजी, तुम्हारी इस बेटी को बढ़ईगीरी करने में कोई शर्म नहीं आती है, बल्कि गर्व महसूस होता है.’’
‘‘लेकिन सुनीता, तुम्हें अभी अपनी पढ़ाई भी तो करनी है. अभी तुम्हारा इंटर ही तो हुआ है.’’
‘‘देखो पिताजी, अब बहुत ज्यादा पढ़ाई करने से भी कोई फायदा नहीं. हमारे यहां पढ़ाई करने का मकसद सिर्फ और सिर्फ नौकरी पाना ही तो है. हमारी सरकारों ने मैकाले की शिक्षा पद्धति को ही तो आगे बढ़ाया है, पढ़ाई सिर्फ नौकर पैदा करने के लिए, शासक या मालिक बनने के लिए नहीं.’’
जगता अपनी बेटी की बातों को बड़े ध्यान से सुन रहा था. उसे उस की बातों में दम नजर आ रहा था, फिर भी जगता ने कहा, ‘‘लेकिन बिटिया, फिर भी ज्यादा पढ़नालिखना जरूरी है. लड़के वाले शादी के समय यह जरूर पूछते हैं कि आप की लड़की कितनी पढ़ीलिखी है.’’
‘‘और चाहे पिताजी एमए पास लड़की को एप्लिकेशन तक लिखनी न आती हो. बस, रद्दी डिगरी जमा करने का धंधा बन गया है, फिर भी आप कहते हो तो मैं बीए, एमए कर लूंगी, लेकिन प्राइवेट कालेज से.’’
‘‘बिटिया, यह तू जाने. मैं ने तो किसी डिगरी कालेज का मुंह तक नहीं देखा. 8वीं जमात तक गांव की ही पाठशाला में पढ़ा और उस के बाद कान पर पैंसिल लगा कर पुश्तैनी काम बढ़ईगीरी करने लगा.’’
इस के बाद तो सुनीता ने बढ़ईगीरी का सब काम अपने हाथ में ले लिया. जगता के ठीक होने पर बापबेटी दोनों मिल कर बढ़ईगीरी का काम करते. लेकिन जगता पर बुढ़ापा हावी होने लगा था. एक ही काम को करते हुए सुनीता थकती नहीं थी, लेकिन जगता हांफने लगता था.
एक दिन गांव की ही एक लड़की उर्मिला बैठने की एक पटरी बनवाने के लिए सुनीता के पास आई. दोनों में बातें होने लगीं.
सुनीता ने पूछा, ‘‘उर्मिला, अब तू कहां एडमिशन ले रही है?’’
‘‘कहीं भी नहीं. बापू कह रहे हैं कि इंटर कर लिया और कितना पढ़ेगी? तेरी पढ़ाई पर ही खर्च करते रहेंगे, तो तेरी शादी में दहेज के लिए पैसे कहां से जुटाएंगे?’’
उर्मिला की बात सुन कर सुनीता ने आरी चलाना रोक दिया और बोली, ‘‘उर्मिला, अपने बापू से कह देना कि उन्हें तुम्हारी पढ़ाई का खर्च उठाने की जरूरत नहीं है. बता देना कि तुम अपनी पढ़ाई का खर्च खुद उठा सकती हो.’’
‘‘लेकिन सुनीता, मैं अपनी पढ़ाई का खर्च खुद कैसे उठा सकती हूं? मेरी तो कोई आमदनी ही नहीं है.’’
‘‘तेरी आमदनी होगी न उर्मिला. अगर तू मेरी बात माने तो मेरे यहां दिहाड़ी पर काम कर ले. तेरी पढ़ाई का खर्चा तो निकलेगा ही और तू चार पैसे अपने दहेज के लिए भी जुटा लेगी.’’
‘‘बात तो तू पते की कह रही है सुनीता, लेकिन तेरी बात तब कामयाब होगी, जब मेरा बापू मानेगा.’’
घर जा कर उर्मिला ने जब यह बात अपनी मां को बताई, तो वे तुरंत मान गईं, लेकिन यही बात सुन कर उस का बापू भड़क गया, ‘‘उर्मिला, तुझे यह बात कहते हुए शर्म नहीं आई. अब एक ब्राह्मण की बेटी बढ़ईगीरी करेगी. क्या कहेगा समाज?’’
इस का जवाब दिया उर्मिला की मां ने. वे भड़कते हुए बोलीं, ‘‘क्यों, क्या दे रहा है समाज तुम्हें? बेटी को पढ़ाने के लिए दो कौड़ी नहीं. वह कुछ करना चाहती है तो ब्राह्मण होने का घमंड… तुम्हारे पूजापाठ से जिंदगीभर दो वक्त की रोटी ठीक से खाने को मिली नहीं. दान के कपड़े से अपना और परिवार का जैसेतैसे तन ढकती रही, तब तुम्हें शर्म नहीं आई? अब बेटी मेहनत के दो पैसे कमाने चली तो उस में भी अड़ंगा…’’
‘‘लेकिन पंडिताइन, सुनो तो…’’
‘‘कुछ नहीं सुनना मुझे. तुम ने मेरी जिंदगी तो लाचार बना दी, लेकिन मैं अपनी बेटी के साथ ऐसा नहीं होने दूंगी. वह पढ़ेगी भी और काम भी करेगी. देखती हूं कि कौन रोकता है उसे ऐसा करने से. जान ले लूंगी उस की.’’
पंडिताइन का गुस्सा देख कर उर्मिला का बापू सहम गया.
अगले दिन से ही उर्मिला ने सुनीता के पास काम पर जाना शुरू कर दिया. जब शाम को उर्मिला ने 500 रुपए ले जा कर अपनी मां के हाथ में रखे, तो उस खुशी को शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता.
कुछ लोगों ने कुछ दिन तक जरूर उर्मिला पर तंज कसे कि देखो तो क्या समय आ गया है? ब्राह्मण की बेटी बढ़ईगीरी कर रही है, लेकिन उर्मिला ऐसी बातों पर कान न धरती. वह ऐसी बातों को अनसुना कर देती. अपने काम पर ध्यान देना उस का मकसद था.
सुनीता अब अपने बुजुर्ग पिता को ज्यादा से ज्यादा आराम करने की सलाह देती. वह उर्मिला के साथ मिल कर हाथों में आए काम को जल्दी निबटाने की कोशिश करती. खाली समय में वह बची हुई लकड़ी से स्टूल, पटरी, पीढ़े, खुरपी और फावड़े के बिट्टे यानी हत्थे वगैरह बनाती. गांव में ऐसे सामान की खूब मांग थी.
सुनीता का काम बढ़ा, तो हाथों की जरूरत भी बढ़ी. उस ने एक दिन गत्ते पर लिख कर अपनी कार्यशाला से बाहर एक इश्तिहार लगा दिया, ‘बढ़ईगीरी के काम के लिए 2 लड़कियों/औरतों की जरूरत. दिहाड़ी 500 रुपए रोज’.
इश्तिहार देख कर दलित समाज के नथवा की बेटी बबीता काम मांगने आई. नथवा को उस के बढ़ईगीरी के काम करने से कोई गुरेज नहीं था. वह खुद मजदूरी करता था. वह जानता था कि घर कितनी मुश्किल से चलाया जाता है.
लेकिन मामला तब गरम हो गया, जब चौधरी रामपाल की विधवा पुत्रवधू विमला अपने 3 साल के बच्चे को गोद में ले कर सुनीता के यहां काम पर गई.
विमला का पति पिछले साल सड़क हादसे का शिकार हो गया था. तब से उस के ससुर चौधरी रामपाल और देवर इंदर ने उस की जमीन पर कब्जा कर रखा था. इस के बदले वे उसे कुछ देते भी नहीं थे और घर और घेर (गौशाला) का सारा काम उस से करवाते थे. वह पैसेपैसे से मुहताज थी.
जैसे ही विमला अगले दिन सुनीता की कार्यशाला में काम पर पहुंची, चौधरी रामपाल और इंदर भी लट्ठ ले कर वहां पहुंच गए. इंदर बिना कोई बात किए जबरदस्ती विमला का हाथ पकड़ कर उसे घसीट कर ले जाने लगा.
रामपाल दूसरों को अपनी अकड़ दिखाने के लिए चिल्ला कर कहने लगा, ‘‘अरे, चौधरियों की बहू अब बढ़ई के यहां काम करेगी क्या? सुन लो गांव वालो, अभी चौधरियों के लट्ठ में खूब दम बाकी है.’’
तभी आपे से बाहर होते हुए रामपाल और इंदर विमला को गालियां बकने लगे, ‘‘बदजात, तू यहां इन की गुलामी करेगी, हमारी नाक कटवाने के लिए.’’
इतना सुनते ही विमला ने एक ही झटके में इंदर से अपना हाथ छुड़ाया और तन कर बोली, ‘‘सुनो, अगर तुम चौधरी हो तो मैं भी चौधरी की बेटी हूं. जितना लट्ठ चलाना तुम जानते हो, उतना लट्ठ चलाना मैं भी जानती हूं. मैं तुम दोनों के जुल्मों से तंग आ गई हूं. अब तुम अपनी चौधराहट अपने पास रखो. और सुनो, बदजात होगी तुम्हारी मां.’’
यह वाक्य चौधरी रामपाल के दिल में बुझे तीर की तरह चुभा. वह लट्ठ ले कर विमला की तरफ बढ़ा, ‘‘बहू हो कर ऐसी गंदी जबान चलाती है, अभी ठहर…’’
वह विमला पर लट्ठ चलाने ही वाला था, तभी सुनीता ने पीछे से उस का लट्ठ मजबूती से पकड़ लिया. चौधरी रामपाल का संतुलन बिगड़ा और वह धड़ाम से पीठ के बल गिरा.
इतनी देर में वहां भीड़ जमा हो गई. कुछ लोगों ने चौधरी रामपाल और इंदर को पकड़ लिया और उन्हें समझानेबुझाने लगे, लेकिन वे तो अपनी बेइज्जती पर झंझलाए बैठे थे.
आखिर में गांव में पंचायत हुई और विमला के हिस्से में 4 बीघा जमीन और मकान का एकतिहाई हिस्सा आया. विमला को लगा कि कई बार झगड़ा करने से भी बात बन जाती है. उस ने अपनी जमीन तो बंटाई पर दे दी और चार पैसे कमाने के लिए खुद सुनीता की कार्यशाला में काम करती रही. उस की तो मानो झगड़ा कर के लौटरी ही लग गई.
सुनीता ने अपना काम और बढ़ाया. अब उस ने दरवाजे और खिड़कियां बनाना और चढ़ाना भी सीख लिया. शहर जा कर सोफा सैट बनाने का तरीका भी सीख लिया. अब उसे गांव के बाहर भी काम मिलने लगा, तो उस ने मोटरसाइकिल खरीद ली. अब उस ने पहचान के लिए अपनी कार्यशाला का नामकरण किया ‘जगता बढ़ई कारखाना’ और बाहर इसी नाम का बोर्ड टांग दिया.
धीरेधीरे सुनीता का काम इतना ज्यादा बढ़ गया कि शहर के फर्नीचर वाले भी उसे फर्नीचर बनाने का और्डर देने लगे. जैसेजैसे काम बढ़ा, वैसेवैसे कारखाने में काम करने वालियों की तादाद भी बढ़ने लगी.
सुनीता ने अपना एक छोटा सा केबिन बनवा लिया. वही उस का औफिस था, जहां बैठ कर वह और्डर लेती, सब से मिलतीजुलती और सब का हिसाबकिताब करती.
आमदनी और बढ़ी, तो सुनीता इनकम टैक्स भरने लगी. उस ने कार भी खरीद ली और फर्नीचर का शोरूम बनाने के लिए जमीन भी.
सुनीता के काम और कामयाबी की चर्चा दूरदूर तक होने लगी. अखबार वालों ने भी उस के बारे में छापा. कलक्टर के कानों तक यह खबर पहुंची
तो सचाई जानने के लिए उस ने जटपुर के प्रधान मान सिंह को अपने औफिस में बुलवाया. बात सही थी. फिर कलक्टर खुद सुनीता का हुनर देखने के लिए जटपुर पहुंचे.
कलक्टर ने सुनीता के कारखाने में 13 औरतों को काम करते देखा. वे सुनीता के काम और हुनर से इतने प्रभावित हुए कि उस का नाम पुरस्कार और सम्मान हेतु राज्य सरकार को भेजा.
सुनीता को पुरस्कार देते हुए और उस का सम्मान करते हुए मुख्यमंत्री ने कहा, ‘‘साथियो, सुनीता ने यह साबित कर दिया है कि कामयाबी पाने के लिए कोई समस्या आड़े नहीं आ सकती. बस, आप के अंदर कामयाबी पाने की लगन होनी चाहिए.
‘‘सुनीता किसी नौकरी के पीछे नहीं दौड़ी. उस ने अपने पुश्तैनी काम बढ़ईगीरी को ही आगे बढ़ाया, जिस को करने से औरतें तो क्या मर्द भी हिचकते हैं.
‘‘आज यह जान कर बड़ी खुशी हुई कि सुनीता के कारखाने में 13 औरतें काम कर रही हैं. सुनीता ने रूढ़ियों और परंपराओं को तोड़ कर महिला जगत को ही नहीं, बल्कि हम सब को एक नई राह दिखाई है.’’
सुनीता ने तालियों की गड़गड़ाहट के बीच मुख्यमंत्री से पुरस्कार और सम्मान हासिल किया. उस की मुसकान बता रही थी कि उस के हौसले बुलंद हैं.