साल 2023 के विधानसभा चुनाव के दौरान मध्य प्रदेश के सतना जिले के चित्रकूट विधानसभा क्षेत्र में कोठार गांव के मनीष यादव ने पुलिस थाने में रिपोर्ट लिखा कर यह गुहार लगाई थी कि वादे के मुताबिक नेताजी ने उसे चुनाव रैली का खर्चा नहीं दिया.

दरअसल, एक पार्टी के मंडल अध्यक्ष प्रबल राव ने मनीष यादव से रैली में गांव के ज्यादा से ज्यादा नौजवानों को मोटरसाइकिल से लाने के लिए कहा था और इस के लिए बाकायदा हर मोटरसाइकिल में पैट्रोल भरवाने के अलावा 200-200 रुपए नकद और खानेपीने का इंतजाम करने की बात भी कही थी.

मंडल अध्यक्ष के कहने पर मनीष यादव अपने गांव से 13 मोटरसाइकिल के साथ 26 लोगों को ले कर चित्रकूट की चुनावी रैली में पहुंचा था, मगर मंडल अध्यक्ष ने न तो मोटरसाइकिल में पैट्रोल भरवाया और न ही उन नौजवानों को रुपयों का भुगतान किया.

मनीष यादव के साथ हुई धोखाधड़ी की यह घटना यह साबित करने के लिए काफी है कि राजनीतिक दलों की रैलियों में जो भीड़ जुटती है, वह नेताओं के भाषण सुनने के लिए नहीं आती. मेहनत मजदूरी करने वाले लोग और बेरोजगार घूम रहे नौजवान पेट की भूख मिटाने और दिनभर का मेहनताना मिलने की गरज से आते हैं.

वैसे तो रैलियों में भीड़ जुटाने की जिम्मेदारी पार्टी के कार्यकर्ताओं की होती है, इस के लिए उन्हें पैसा भी मिलता है. आमतौर पर रैलियों की भीड़ में खेतों, दुकानों में काम करने वाले होते हैं. कालेज में पढ़ने वाले लड़के, घूंघट वाली औरतें भी होती हैं.

2014 के लोकसभा चुनाव के पहले से इस तरह के कारोबार ने रफ्तार पकड़ी है. एक दशक पहले सत्तारूढ़ राजनीतिक पार्टियां इलाके में पुलिस वालों को बुलाती थीं, जो टैक्सी या बस औपरेटरों को अपनी टैक्सीबस भेजने के लिए कहते थे. अगर वे ऐसा नहीं करते थे, तो उन पर जुर्माना लगाया जाता था या फिटनैस, बीमा, लाइसैंस के नियमों का हवाला दे कर तंग किया जाता था.

उस समय भीड़ जुटाना आसान था, लेकिन अब चीजें बदल गई हैं. रैलियों में जाने वाले लोग पूछते हैं कि रैली में खाने में क्या मिलेगा? अब लोग इतनी आसानी से नहीं मानते. अगर वे एक दिन बिताते हैं, तो बदले में वे कुछ चाहते भी हैं. यह एक तरह से कारोबार बन गया है.

इस तरह के कारोबार से जुड़े लोग बताते हैं कि उन का रोल दूसरे लोगों को रैलियों में ले जाने तक सीमित है. न तो वे उन्हें किसी पार्टी के पक्ष में वोट देने के लिए कहते हैं, न ही लोग उन की सुनते हैं. एक ही आदमी अलगअलग दलों की रैलियों में जाता है.

चुनाव आते ही बस या टैक्सी औपरेटरों के लिए ज्यादा कमाई का मौका मिल जाता है. ये औपरेटर  रैलियों के लिए गाडि़यां और भीड़ जुटाने में लग जाते हैं.

ऐसे ही कारोबार से जुड़े दिल्ली के एक टैक्सी औपरेटर बिन्नी सिंघला बताते हैं, ‘‘अगर पंजाब में कोई रैली होती है, तो उन्हें सिख लोग चाहिए होते हैं. हरियाणा में कोई रैली हो तो जाट चाहिए होते हैं, इसलिए हम हर तरह की भीड़ मुहैया कराते हैं. हमारे पास अपनी कारें भी हैं और चूंकि रैलियों के लिए बड़ी तादाद में गाडि़यों की जरूरत होती है, हम कमीशन पर दूसरे से भी उन्हें लेते हैं.’’

बिन्नी सिंघला के मुताबिक, पंजाब और हरियाणा में रैली के लिए आमतौर पर 150-500 ‘किट्स’ की मांग आती है. रैलियों में जाने के लिए 5 सीटों वाली एक कार 2,500 रुपए में, सवारियों

के साथ इस की कीमत 4,500 रुपए पड़ती है. अलग तरह की भीड़ की जरूरत हो, तो यह रकम 6,000 रुपए तक जा सकती है.

इस कारोबार के बारे में भोपाल के एक टैक्सी औपरेटर राकेश कपूर ने बताया, ‘‘हम रैलियों में जाने वाले लोगों को 300-300 रुपए देते हैं. रैली अगर शाम में हो तो लोगों को ले जाने वाली पार्टी उन के खानेपीने, दारू वगैरह का इंतजाम करती है. अगर वे लोग इस का इंतजाम नहीं कर पाते हैं, तो हम ज्यादा पैसे ले कर इंतजाम करते हैं.’’

11 फरवरी, 2024 को मध्य प्रदेश के ?ाबुआ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उपस्थिति में आदिवासी जनजातीय सम्मेलन का आयोजन किया गया था, जिस में प्रदेश के अलावा गुजरात और राजस्थान के भी आदिवासी शामिल हुए थे.

इन आदिवासियों को सभा वाली जगह तक लाने के लिए गुजरात, राजस्थान और मध्य प्रदेश की सरकार ने खूब पैसा खर्च किया था और बड़ीबड़ी बसों में भर कर हजारों की तादाद में आदिवासी लोगों को ?ाबुआ लाया गया था.

बबुआ में हुई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बड़ी सभा में मध्य प्रदेश के हर जिले से बसों में भर कर लोगों को वहां पहुंचाया गया था. नरसिंहपुर जिले से इस सभा के लिए हर विधानसभा से 20 से 25 बसों में लोगों को ले जाया गया था.

प्रधानमंत्री की रैली से हो कर लौटे 55 साल के मुन्नी लाल मरकाम ने बताया कि रैली में जाने वाले हरेक को 500-500 रुपए के साथ दो वक्त का भोजन भी दिया गया था.

मेहनतमजदूरी छोड़ कर रैली में जाने की बात पर मुन्नी लाल मरकाम ने हंसते हुए जवाब दिया, ‘‘खेतों में दिनभर तेज धूप में काम करते हुए रूखासूखा खाना पड़ता है. रैली में बसों में बैठा कर ले जाते हैं. अच्छा भरपेट भोजन मिल जाता है और सैरसपाटे के साथ प्रधानमंत्री को देखने का मौका भी मिल जाता है.’’

भीड़ बढ़ाने के लिए दलितपिछड़ों का इस्तेमाल

आज भी देश के ज्यादातर इलाकों में आदिवासी और दलितपिछड़े वर्ग के लोग कम पढ़ेलिखे हैं, जिस की वजह सरकारी योजनाओं का फायदा उन तक नहीं पहुंच पाना है. इसी वजह से आदिवासी और दलितपिछड़ों के वोट बैंक का इस्तेमाल राजनीतिक पार्टियां अपने लिए आसानी से करती रहती हैं.

साल 2018 के विधानसभा चुनाव के वक्त 24 अप्रैल को मध्य प्रदेश के मंडला जिले में भी एक बड़ी रैली का आयोजन सरकार द्वारा किया गया था, जिस में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आए थे.

रमपुरा गांव के रहने वाले आदिवासी वंशीलाल गौड़ बताते हैं कि उन्हें बस द्वारा मंडला ले जाया गया था. रास्ते में खानेपीने के इंतजाम के साथ रैली से लौटने पर

500 रुपए बतौर मेहनताना के दिए गए थे. इस रैली में लाखों की तादाद में आदिवासियों को मध्य प्रदेश के कई जिलों से बसों में भर कर लाया गया था.

नरसिंहपुर जिले के चीचली ब्लौक में दूरदराज के पहाड़ी इलाकों में रहने वाले आदिवासियों का इस्तेमाल चुनाव के दौरान रैली, जुलूस और सभाओं में करते हैं. पहाड़ी इलाकों के कई गांवों में तो आज भी बुनियादी सुविधाएं बिजली, पानी, सड़क तक नहीं हैं.

ऐसे में इन इलाकों में रहने वाले आदिवासी औरतों को कपड़े का और मर्दों को शराब का लालच दे कर नेताओं की रैलियों में ले जाया जाता है. इन लोगों को रैलियों में ले जाने के लिए कई दलाल पास के शहर गाडरवारा से आते हैं. किसी राजनीतिक पार्टी को रैली के लिए भीड़ जुटाने के लिए नेता इन्हीं दलालों से बात करते हैं.

चुनावों में दलितपिछड़े वर्ग के लोगों का इस्तेमाल राजनीतिक पार्टियां अपने चुनावी फायदे के लिए कर रही हैं. इन रैलियों में सब से ज्यादा दलितपिछड़े वर्ग के लोगों का इस्तेमाल किया जाता है.

देश में दलितपिछड़ों का एक बड़ा वर्ग अभी भी रोजीरोटी के लिए जद्दोजेहद करता है. अपने परिवार का पेट पालने के लिए रोज कड़ी मेहनत करता है, तभी उन के घरों का चूल्हा जलता है.

यही वजह है कि जब राजनीतिक दलों के लोग उन्हें दिनभर की मजदूरी और खानेपीने का लालच देते हैं, तो वे यह सोच कर आसानी से तैयार हो जाते हैं कि घूमनेफिरने के मौके के साथ  मजदूरी भी मिल जाएगी.

जो राजनीतिक दल सत्ता में होते हैं, उन्हें रैलियों में भीड़ जुटाने में प्रशासन का भी सहयोग मिलता है. जिलों में डीएम, एसपी, आरटीओ अफसर सभी मंत्रियों के कहने पर रैलियों के लिए भीड़ इकट्ठा करने में गाडि़यों का इंतजाम करते हैं. मध्य प्रदेश में औरतों को रैलियों में लाने और ले जाने के लिए महिला बाल विकास विभाग अहम रोल निभाता है.

आंगनबाड़ी कार्यकर्ता, सहायिका, आशा, ऊषा कार्यकर्ता के साथ स्कूल और आंगनबाड़ी में मिड डे मील बनाने वाली औरतों की बड़ी टीम होती है, जिन का गांवकसबों और शहरों में औरतों से सीधा मेलजोल होता है. महकमे के अफसरों के कहने पर औरतों की बड़ी भीड़ रैलियों में पहुंच जाती है.

हैलीकौप्टर देखने उमड़ती है भीड़

चुनावी रैलियों में भीड़ जुटाने के लिए राजनीतिक दलों के लोग तमाम तरह के हथकंडे अपनाते हैं. गांवकसबों में भी चुनाव के वक्त बड़े नेताओं, फिल्म ऐक्टरों की रैली और सभाएं होती हैं, जिन में लोग केवल फिल्म ऐक्टर और हैलीकौप्टर देखने जाते हैं.

साल 2018 के विधानसभा चुनाव में गाडरवारा विधानसभा में भाजपा उम्मीदवार के पक्ष में प्रचार करने फिल्म कलाकार हेमा मालिनी आई थीं, जिन्हें देखने के लिए भारी तादाद में भीड़ जुटी थी, लेकिन यह भीड़ भाजपा उम्मीदवार को जीत नहीं दिला सकी थी.

चुनाव लड़ रहे उम्मीदवार की कोशिश रहती है कि उस के प्रचार में कोई स्टार प्रचारक हैलीकौप्टर से आए और उस बहाने बड़ी तादाद में भीड़ जमा हो जाए. पार्टी आलाकमान के कहने पर स्टार प्रचारक हैलीकौप्टर में सवार हो कर दिनभर में 4-5 सभाएं करते हैं, जिन्हें देखने के लिए भीड़ लगती है और पार्टी उम्मीदवार सम?ाता है कि उस की जीत पक्की हो गई है. कई बार तो इस तरह की रैली में भाषण देने आए इन स्टार प्रचारकों को उम्मीदवार का नाम ही पता नहीं रहता.

रणनीतिकार बाकायदा दावा करते हैं कि अमुक नेता की रैली में इतने लाख की भीड़ जुटेगी और भीड़ जुटती भी है, लेकिन इस में कौन किस पार्टी को वोट देगा, कोई नहीं जानता. अब रैलियों की भीड़ से किसी दल या नेता की लोकप्रियता का अंदाजा लगाना मुश्किल हो गया है.

चुनाव का वक्त आते ही सभी राजनीतिक दलों के नेता दलितपिछड़े लोगों के हिमायती बन जाते हैं और चुनाव जीतने के बाद कोई उन की सुध तक नहीं लेता.

इसी तरह चुनाव में शराब और पैसे का लालच दे कर इन भोलेभाले लोगों के वोट हासिल किए जाते हैं और फिर पूरे 5 साल तक उन की अनदेखी की जाती है.

विकास की मुख्यधारा से हमेशा दूर रहने वाले इस वर्ग के लोगों का चुनावी रैलियों में इस तरह से इस्तेमाल करना लोकतंत्र का मजाक नहीं तो और क्या है? दलितपिछड़े वर्ग के लोगों को जागरूक होने की जरूरत है.

आज देश में तरक्की के लिए स्कूलकालेज और अच्छे अस्पतालों की जरूरत है, लेकिन सरकार का पूरा फोकस ऊंचे और भव्य मंदिर बनाने और ऊंचीऊंची मूर्तियां लगाने पर है. सरकार नहीं चाहती कि देश के नौजवान पढ़लिख कर कमाऊ और समझदार बनें. देश की करोड़ों की आबादी को धार्मिक पाखंड में उलझ कर सरकार अपना उल्लू सीधा करने में लगी है.

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