मंदिर के फर्श पर एक खूबसूरत औरत पुजारिन के रूप में बैठी थी. मैं हैरानी से उस को देख रहा था. उस का चेहरा दूसरी तरफ था. जैसे ही उस ने अपना चेहरा मेरी तरफ घुमाया, मैं चौंक उठा था.

‘‘गुड़िया…’’ एकाएक मेरे होंठों से निकल पड़ा था.

मैं ने अपनी गुड़िया को जोर से पुकारा, ‘‘मेरी गुड़िया…’’

वह मुझे देखने लगी थी, लेकिन मुझ से ज्यादा देर तक नजरें नहीं मिला सकी. शायद उसे याद आया होगा मेरा वादा.

‘‘गुड़िया, मैं धर्म को नहीं मानता. मेरा धर्म और इनसानियत सिर्फ मेरा प्यार है,’’ मैं ने कहा.

वह मुझे नहीं देखना चाहती थी. वह फर्श पर समाधि की मुद्रा में बैठी थी. गेरुए रंग की साड़ी में वह बहुत ही खूबसूरत लग रही थी. बाल बिखरे हुए थे. ललाट पर रोली व चंदन का टीका उस की खूबसूरती में चार चांद लगा रहे थे.

मैं उसे अपलक देख रहा था. मांग में सिंदूर नहीं था. माथे पर बिंदिया नहीं थी, फिर भी वह काफी खूबसूरत लग रही थी.

जी चाहा कि मैं गुड़िया को अपनी बांहों में भर लूं. मेरे कदम बढ़ने लगे थे. मैं ने जैसे ही उस के नजदीक जाने की कोशिश की, मेरी नींद खुल गई थी.

अरे, यह कैसा सपना था. मैं अपने गांव से हजारों मील दूर अनजान शहर में छोटे से किराए के कमरे में था. उफ, कैसेकैसे सपने आते हैं.

मैं बिस्तर से उठ कर बैठ गया था. कमरे के चारों तरफ नजर घुमाई तो पाया कि कमरे का नाइट बल्ब जल रहा था. मैं ने अपने दिल पर हाथ रखा. दिल तेजी से धड़क रहा था. ऐसा लग रहा था, जैसे मैं मीलों दौड़ लगा कर आया हूं.

गुजरात के अहमदाबाद शहर में आए हुए मुझे एक साल से भी ज्यादा का समय हो चुका था. काफी भागदौड़ करने के बाद मुझे कपड़ा मिल में सुपरवाइजर की नौकरी मिल गई थी.

फैक्टरी में मजदूरों के साथ मैं रोजाना 12 घंटे काम करता हूं. काम करतेकरते मैं थक जाता हूं. रात में बिस्तर पर पहुंचते ही नींद बांहों में जकड़ लेती है. कभीकभी नींद इतनी तेज आती है कि बिना अलार्म के नींद खुलती भी नहीं.

मैं हर इतवार को गुड़िया को चिट्ठी लिखता था. चिट्ठी मिलने पर जवाब भी दिया करता था. शुरू में यह सिलसिला बेनागा होता था. बाद में काम के दबाव के चलते कम हो गया था. फिर कुछ दिन बाद उस की चिट्ठी आना कम हो गई थी.

मैं सोच रहा था कि गुड़िया तो हमेशा चिट्ठी लिखती रहती है, लेकिन इन दिनों शायद उस को मेरा खयाल नहीं रहता है. अब वह चिट्ठी लिखना भी बंद कर चुकी थी.

हां, आने की बात वह पिछली कई चिट्ठियों में कर चुकी थी. आखिरी चिट्ठी में उस ने लिखा था कि मांबाबूजी अलग खाना पका रहे हैं. वजह नहीं लिखी थी.

इधर, मैं 2 चिट्ठी लिख चुका था. वह अभी तक दोनों चिट्ठियों का जवाब नहीं दे पाई थी. आज ऐसा सपना आया तो मुझे नींद नहीं आ रही थी. अभी 4 बज रहे थे.

मैं रोजाना 5 बजे सुबह जाग जाता हूं. काम पर जाने के लिए सवेरे जाग कर मुझे जाने की तैयारी करनी पड़ती है. खुद से खाना पकाना पड़ता है और फिर खुद से ही टिफिन में भोजन पैक कर ड्यूटी जाना पड़ता है. मैं बिस्तर पर लेट कर उस की यादों में खोने लगा था.

मैं पंडित कालीचरण मिश्र का एकलौता बेटा आकाश था. मेरा जन्म ब्राह्मण परिवार में हुआ था. फिर भी मैं धर्म, जाति, मंदिरमसजिद आदि के पचड़े में नहीं पड़ता था. मैं जातपांत का पक्का विरोधी था. ये सब मुझे आडंबर लगते थे.

उन दिनों कालेज में वादविवाद प्रतियोगिता का आयोजन किया गया था. विषय था, ‘धर्म और जाति’. मेरे अंदर धर्म और जाति जैसे भेदभाव को ले कर आग पल रही थी. मेरे लिए यह वादविवाद दिल की भड़ास निकालने के लिए काफी था.

उस दिन मैं तय समय पर कालेज पहुंच गया था. वादविवाद प्रतियोगिता शुरू हुई. बारीबारी से प्रतिभागी अपनेअपने विचार दे रहे थे. मेरी ही क्लास में गुडि़या नाम की लड़की थी. उस का वास्ता दलित जाति से था. वह देखने में बेहद खूबसूरत थी. वह पढ़ने में भी तेज थी. उस ने भी वादविवाद में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया था.

जब मेरी बारी आई, तो मैं ने भी धर्म और धर्मांधता को ले कर काफी लच्छेदार भाषण दिया था. मेरा कहना था कि धर्म ने समाज में बुराई फैलाने के अलावा कुछ भी नहीं किया है. धर्म के चलते लोग एकदूसरे से नफरत व जलन के भाव रखने लगे हैं. समाज में अलगाव की भावना पनप रही है.

मैं ने ब्राह्मण होते हुए भी ब्राह्मणों का पुरजोर विरोध किया था. धर्म और जाति के नाम पर कुछ लोगों के लिए भले ही पूरियां तोड़ने का साधन मात्र है, लेकिन उन का असली मकसद तो केवल धंधा करना है. जातपांत और धर्म के नाम पर बनाए गए मकड़जाल से हम सब को बाहर निकलना होगा, तभी समाज का भला होगा. मैं ने जता दिया था कि मैं जातपांत का पक्का विरोधी हूं.

एक ब्राह्मण लड़के से ब्राह्मणवाद का विरोध करना आसान नहीं था. लोगों ने जब मेरी बातें सुनीं, तो खूब तालियां बजाईं और मुझे वाहवाही मिली थी. इतना ही नहीं, मुझे वादविवाद प्रतियोगिता में सर्टिफिकेट भी मिला था.

इस का असर लोगों पर कितना हुआ, मुझे नहीं मालूम. लेकिन मेरी तरफ आकर्षित होने का पहला जादू गुडि़या पर चल चुका था. जिस पर मैं क्या, पूरे कालेज के लड़के फिदा रहते थे. लेकिन, वह किसी को घास नहीं डालने देती थी.

दूसरे दिन गुडि़या फूलों के बुके के साथ मेरे सामने कालेज के आडिटोरियम में बधाई देने के लिए वहां थी, क्योंकि मुझे वादविवाद प्रतियोगिता में पहला नंबर हासिल हुआ था, जबकि उसे तीसरा नंबर मिला था.

आज गुडि़या मुझे बधाई देने के लिए खड़ी थी, सिर्फ खड़ी ही नहीं थी, बल्कि मुझे अपलक देख रही थी. उस के इस तरह के अजीब बरताव के चलते मैं झोंप सा गया था.

गुडि़या की बड़ीबड़ी आंखों में शरारत थी. वह मेरे ऊपर जादू चला चुकी थी. उस के ठीक अगले दिन वह मुझे रंगीन लिफाफा पकड़ा गई थी.

मैं स्कूल के फुलवारी के बीच पहुंच कर लिफाफा खोल कर पढ़ने लगा था :

‘प्रिय आकाश,

‘मैं कहां से लिखना शुरू करूं. मुझे प्रेमपत्र लिखने की तहजीब नहीं है. मैं वादविवाद प्रतियोगिता हाल से ही शुरू कर रही हूं, जहां से मेरे दिल के उमड़ते वेग ने ही मुझे परेशान कर दिया था और मैं चाह कर भी सचाई के प्रति वह सब नहीं बोल सकी थी, जो मेरे दिल में बर्फ की परत की तरह पहले से ही जम चुके थे. लेकिन, तुम्हारी बेबाक बातों ने जमी हुई बर्फ की परत को पिघला कर मेरे दिल को ठंडक पहुंचा दी है. इतनी ठंडक कि मैं अपनेआप को बहुत सुकून में महसूस कर रही हूं. लेकिन दूसरी तरफ बेचैनी और बेकरारी बढ़ गई है.

‘मैं तुम्हें दिल से चाहने लगी हूं. सिर्फ इंतजार है तुम्हारा. मैं अगले दिन कालेज की फुलवारी में तुम्हारा इंतजार करूंगी.

‘सिर्फ तुम्हारी,

‘गुडि़या.’

मैं भला इस प्रेम निवेदन को कैसे ठुकरा सकता था. मुझे मुंहमांगी मुराद मिल गई थी. मैं अगले दिन कालेज की उसी फुलवारी में पहुंच चुका था.

गुडि़या मेरे इंतजार में पहले से ही वहां चहलकदमी कर रही थी. वहां जाते ही मैं ने उसे अपनी बांहों में भर लिया था. वह भी प्यासे की तरह मुझ से लिपट चुकी थी. कुछ पलों के लिए दोनों एकदूसरे में खो गए थे. दोनों की आंखें बंद हो चुकी थीं, जैसे सागर में नदी समा जाना चाहती थी.

जब मेरी आंख खुली, तो आकाश में बादल छाए हुए थे. मंदमंद ठंडी हवा बह रही थी. मैं ने उस को छेड़ा, ‘‘गुडि़या, तुम ने तो लिखा था बेहद ठंडा महसूस कर रही हूं, लेकिन तुम्हारी सांसों में काफी गरमी है,’’ क्योंकि मैं उस की सांसों को करीब से महसूस कर रहा था.

वह मेरे मुंह से ‘गुडि़या’ नाम सुन कर तपाक से पूछ बैठी थी, ‘‘खेलने की गुडि़या या…‘‘

उस के होंठों पर उंगली रख मैं बीच में ही बोल पड़ा था, ‘‘नहीं, प्यार को महसूस करने का नाम ‘गुडि़या’.’’

फिर क्या था, कालेज के दिन मजे से गुजरने लगे थे. प्रेम परवान चढ़ चुका था. दोनों जीनेमरने की कसमें खा चुके थे. पर भला इश्क और मुश्क कब छिपाए छिपता है. जब यह बात मेरे मांबाबूजी को पता चली, तो वे लोग हम दोनों के दुश्मन बन गए. गुडि़या ने अपने मातापिता को समझबुझा कर राजी कर लिया था.

लेकिन, जब मैं ने अपने मांबाबूजी से बात की, तो वे दोनों आपे से बाहर हो गए. इतना ही नहीं, पिताजी गुडि़या और उस के खानदान के खिलाफ बोलने लगे, ‘‘तुम ऐसी जाति से ब्याह करोगे, जिस का छुआ हम लोग पानी तक नहीं पीते. मेरे खानदान में कोई दलित जाति में शादी करे, उस की इतनी हिम्मत?

‘‘क्या तुम्हें अपनी इज्जत का भी खयाल नहीं है? यह सब सोचने से पहले तुम हम दोनों के लिए जहर क्यों नहीं ले आए थे, ताकि ऐसे दिन देखने से पहले हम दोनों मर जाते…’’

मातापिता को सम?ाना जंग जीतने से कम नहीं था. मैं ने उन को बहुत सम?ाया, घरबार छोड़ने की धमकी दी. भला उन्हें यह कैसे बरदाश्त होता कि उन का एकलौता बेटा, जो एकमात्र खानदान का चिराग है, घर छोड़ कर चला जाए. दोनों बेमन से ही सही, कुछकुछ रजामंदी की मुहर लग गई थी.

हम दोनों ने कालेज के कुछ दोस्तों के साथ कोर्ट में जा कर शादी कर ली थी. न बरात गई, न ही मेरे सगेसंबंधी आए. हम दोनों ने ही शादी का पूरा खर्चा उठाया. खर्च भी क्या था, 2 मालाएं, सिंदूर की डब्बी और यारदोस्तों से उधार लिए हुए गुडि़या के लिए एक जोड़ी कपड़े.

शादी के बाद रिश्तेदारों का आनाजाना बंद हो गया था. मेरी पत्नी के आ जाने के बाद बाबूजी कम बोलते थे. लेकिन मां थीं, जो कभीकभी मुझे हिम्मत देती थीं. शायद वे जानती थीं कि मेरा बेटा काफी जिद्दी है. अगर घर छोड़ देगा तो फिर कभी लौट कर नहीं आएगा. बेटे से भी हाथ धोना पड़ेगा, लेकिन मेरी खुशियों का खयाल दोनों में से किसी को नहीं था.

शादी हो जाने के बाद से ही अड़ोसपड़ोस की औरतें और आदमी हमारे घर का रास्ता भूलने लगे थे, क्योंकि यह छूत की बीमारी उन के घरों में न लग जाए, इस का डर था, इसलिए मैं ने मां से कहा, ‘‘मां, मैं घर छोड़ कर जा रहा हूं.’’

ल्ेकिन, वे अपनी कसम दे कर घर से दूर जाने से मना कर देतीं. शादी के बाद हम दोनों घर में ही सिमट कर रह गए. दिनभर घर के छोटेमोटे काम करता और शाम होतेहोते लोगों के बदले रवैए पर चिंता जाहिर करता. मेरा सब्र उसे बांध कर रखे हुए था.

मैं उस से कहता, ‘‘गुडि़या, मेरा धर्म और ईमान सिर्फ प्यार है. मैं लोगों की तरह धार्मिक नहीं हूं. धर्म ने मुझे बहुत डरायाधमकाया है. मैं धर्म अपनाने से डरता हूं, इसलिए मेरी दिली इच्छा है कि तुम मेरा साथ दो.’’

धीरेधीरे घर का माहौल ठीक होने लगा था. पर अड़ोसपड़ोस वालों का रवैया नहीं बदला था. वे आतेजाते ताना मारते कि जब शादी कर ली, तो घर में रह कर उस की सूरत देखने से पेट तो नहीं भर जाएगा न. बूढ़े मांबाप का सहारा बनो. अपनी मरजी से कमानेधमाने कहीं बाहर जाओ.

मैं मन ही मन जलभुन गया था. अभी शादी हुए 6 महीने भी नहीं हुए थे और नौकरी करने के लिए घर छोड़ना पड़ेगा.

मैं ने गुड़िया को अपना फैसला सुनाया. नौकरी के लिए मुझे गुजरात जाना पड़ेगा. मैं ने अपने यारदोस्तों से बात कर ली है. अब घर में बैठने से तो हमारी जरूरत पूरी नहीं होगी. आज नहीं तो कल, कभी न कभी कमाने जाना ही पड़ेगा. दोनों एकदूसरे को समझ बुझ कर राजी हो गए थे.

मैं ने उसे बताया था कि जब तक कुछ कमा नहीं लेता, तब तक घर लौट कर नहीं आऊंगा. बस, अब हम दोनों चिट्ठियों से संतोष करेंगे.

न चाहते हुए भी अलग होने के लिए वह राजी हो गई थी, क्योंकि पड़ोसियों की अनदेखी का अहसास उसे भी था. जाने से पहले वह पूरी रात लिपट कर आंसू बहाती रही. कुछ पलों के लिए मैं भी परेशान हो गया था.

‘‘गुड़िया, मत रोओ. जिंदगी रोने का नाम नहीं है,’’ घर से निकलते हुए कंधे पर अपना बैग रखते हुए मैं ने उसे दिलासा दी. यह तो सच है कि पेट के लिए कमाना जरूरत है. बिना कमाए भोजन मिलना मुमकिन नहीं है. अपनी खेतीबारी औरों की तरह नहीं है, जो घर में रह कर अनाज पैदा करें और अपनी जरूरतें पूरी करें, इसलिए बाहर जा कर नौकरी ढूंढ़ना जरूरी है.

जाते समय गुड़िया ने मेरे दोनों गालों को चूम लिया था और अपने आंसू पोंछते हुए हिदायत दी थी कि हर हफ्ते चिट्ठी जरूर लिखना. मैं इंतजार करूंगी.

गुजरात आते ही अपने गांव के कुछ लोगों की मदद से कपड़ा मिल में मुझे सुपरवाइजर की नौकरी मिल गई थी. कुछ दिन तक तो मैं अपने दोस्तों के कमरे में साथ रहा. बाद में मैं ने अपना कमरा अलग से ले लिया था.

जल्दी ही मैं ने गुडि़या को चिट्ठी लिखी थी और उस का जवाब मुझे मिला था. दूर रहने पर, कागज पर लिखे शब्दों की क्या अहमियत होती है, यह मैं अब अनुभव कर चुका था. उस ने लिखा था कि जब तुम चले गए थे, तो मैं ठीक से खा भी नहीं पाती थी. जब तुम्हारी चिट्ठी मिली, तो मैं भरपेट भोजन कर रही हूं.

मैं उस की चिट्ठियों को कई बार पढ़ता. मुझे भी ऐसा ही महसूस होता. उन दिनों मैं भी ठीक से भोजन नहीं कर पाता था. एक तो थका देने वाला काम और अजनबी शहर में अपना कहलाने वाला कोई नहीं होता. खाली वक्त में गुड़िया के साथ बिताए पल याद आते थे. मन उदासी से भर जाता था.

उन पलों में मैं उस की भेजी हुई चिट्ठियों को दुहराता था. चिट्ठी फैक्टरी के पते पर ही आती थी. जिस दिन चिट्ठी मिलती, फैक्टरी से घर पहुंचने की जल्दी होती, क्योंकि वहां चिट्ठी पढ़ने का समय ठीक से नहीं मिल पाता था.

किंतु धीरेधीरे काम में इतना उलझता चला गया कि अब चिट्ठी मिले या न मिले, कोई खास फर्क नहीं पड़ता था. इधर कई महीने से गुडि़या की चिट्ठी नहीं मिली थी, अब वह भावनाओं में बह कर नहीं लिखती थी. चिट्ठी औपचारिक होती थी.

हालांकि लंबी जुदाई के चलते मिलने के लिए मन बेचैन हो उठता था. आज जब इस तरह के सपने आए, तो मेरा मन यहां बिलकुल नहीं लग पा रहा था.

मैं फैक्टरी से छुट्टी ले कर अपने गांव चल दिया था. मेरे मन में गुड़िया को ले कर तरहतरह के खयाल आ रहे थे. मैं उस से मिलने के लिए रोमांचित था. उस के लिए साड़ी और जरूरी सामान खरीद लिया था. मांबाबूजी के लिए भी कपड़े खरीद कर ट्रेन पकड़ ली थी.

मैं घर में दाखिल हुआ. मांबाबूजी  को प्रणाम कर मेरी आंखें गुड़िया को ढूंढ़ने लगी थीं, पर वह घर में कहीं नजर नहीं आई.

मांबाबूजी का उदास चेहरा देख कर मैं कुछ डर सा गया था, इसलिए मैं ने मां से पूछा, ‘‘गुड़िया कहां है?’’

मांबाबूजी इस तरह के सवालों से बचने की कोशिश कर रहे थे. कुछ देर जवाब के इंतजार में मैं उन की तरफ देखता रहा. मांबाबूजी एकदूसरे का मुंह ताक रहे थे.

मैं ने मां से दोबारा वही सवाल दोहराया, ‘‘गुड़िया कहां गई है मां?’’

मां अपना गला साफ करते हुए बोलीं, ‘‘बेटा, 3 दिन पहले वह घर छोड़ कर चली गई. मैं तो तुम्हारे पास तार भी भेज चुकी हूं.’’

‘‘मां, लेकिन तार तो मुझे मिला नहीं. मैं तो यों ही गाड़ी पकड़ कर आया था, क्योंकि मेरा दिल धड़क रहा था.’’

किसी अनहोनी के डर से मैं घबरा रहा था. मैं ने चीखते हुए मां से सवाल किया, ‘‘कहां चली गई और क्यों?’’

‘‘बेटा, यह तो उस ने नहीं बताया. वह चुपके से पौ फटने के पहले ही निकल चुकी थी. हम दोनों ने काफी ढूंढ़ा, कहीं पता नहीं चल पाया. तब थकहार कर तुम्हारे पास तार भेजा था. वह तुम्हारे नाम एक लिफाफा और पैकेट छोड़ गई है.’’

मां घर के अंदर से लिफाफा और पैकेट निकाल कर मेरे हाथों में थमा दी थी. लिफाफा खोल कर मैं चिट्ठी पढ़ने लगा था,

‘प्रिय आकाश,

‘मैं यह घर छोड़ कर जा रही हूं. तुम घर छोड़ने की वजह जानना चाहोगे. जब से तुम यहां से गए हो, पड़ोस का कोई ऐसा नहीं था, जिस ने मुझे नफरत से न देखा हो. कई लोग मेरे मुंह पर उलाहना दे कर चले जाते थे.

‘मैं किसी को जवाब नहीं दे पाती थी. किसी ने मुझे नहीं स्वीकारा. न घर के लोग और न पड़ोस वाले. मांबाबूजी अलग से खाना पकाने लगे. तुम्हारे जाने के बाद उन्होंने घर के शुद्धीकरण के लिए पूजापाठ तक करवाया. मैं अलगथलग पड़ गई थी.

‘मैं यही सोचती रही कि मेरे चलते तुम्हारे परिवार को भी काफीकुछ झेलना पड़ा है. मैं खुद को बहुत कुसूरवार मानने लगी थी. ऐसा लग रहा था, मेरा आत्मसम्मान गिरवी रख दिया गया है. मैं इस माहौल में जिंदा नहीं थी. आखिर तुम इस मरे हुए शरीर को क्या करते, इसलिए मुझे खुद फैसला लेना पड़ा.

‘शायद तुम्हारे आने से पहले मैं इस दुनिया से बहुत दूर चली जाऊंगी. मैं तुम्हारी दी हुई साड़ी, सिंदूर की डब्बी और मंगलसूत्र छोड़ रही हूं. तुम इसे अपने हाथों से गंगा में बहा देना, ताकि इस अभागिन का उद्धार हो सके.

‘तुम्हारी,

‘गुड़िया.’

चिट्ठी पढ़ कर मैं फफकफफक कर रोने लगा था. कई घंटे तक उन चीजों को अपने से चिपका कर मैं गुड़िया को महसूस करने की कोशिश किया था. अगले दिन भारी मन से उन चीजों को गंगा नदी में बहा दिया था.

 

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