देश के किसानों का क्या हाल है यह इस बात से ही पता चलता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी राजनीति भुनाने के लिए जो प्रधानमंत्री किसान योजना शुरू की थी उस में 10 करोड़ किसानों ने हिस्सा ले लिया: कितने पैसे के लिए? महज 6,000 सालाना के लिए. इस योजना में सरकार ने बैंक खाते में पैसे भेजने होते हैं और इस का मतलब 2,000 रुपल्ली के लिए हर 3 माह में भूखा नेता किसान बैंक मैनेजरों की मिन्नतें करे और पैसे निकालने के लिए हाथ जोड़े.

किसानों के लिए 6,000 रुपए सालाना भी बहुत होते हैं यह वे कहां जानें जो 8,000 करोड़ के विमान में सफर करते हैं और जिन के 1 मील चलने पर लाखों खर्च हो जाते हैं. जो बंदोबस्त राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री फकीरी के हाल में करते हैं यह किसी से छिपा नहीं है.

प्रधानमंत्री किसान योजना के 10 करोड़ शुरू किसानों में से अब 8 करोड़ रह गए हैं क्योंकि सरकार भुगतान का वादा करती है, करती नहीं. कागजी घोड़े दौड़ाए जाते हैं. आधारकार्ड बनवाओ. यह गांव में तो नहीं बनेगा न. बस का पैसा खर्चा कर के कसबे में जाना होगा जहां इंटरनैट कभी चलेगा कभी नहीं. आधारकार्ड बनाने वाला मुफ्त में तो बनाएगा नहीं. दिनभर खाने के लिए पैसे चाहिए होंगे. फिर बैंक में खाता खोलना होगा. यह भी अनपढ़ों के लिए कहां आसान है. जब पैसा आने वाला हो चाहे महज 6,000 रुपल्ली हों, बीच में घात मारने वाले बहुत बैठे होंगे.

खाता चालू रहेगा तो ही तो पैसे आएंगे. बैंक मैनेजर भी अपनी मरजी से कह सकता है कि डौरमैंट यानी सोए हुए खाते को फ्रीज यानी गाड़ा जा सकता है. रिजर्व बैंक औफ इंडिया तुगलकी फरमान जारी करता रहता है जो इस किसान के खाते पर भी लागू होते हैं जिस के पास बैंक में आते ही सालभर में 6,000 रुपल्ली हैं. बैंक का स्टाफ इस में से हिस्सा न मांगे तो वह इस देश का भक्त नागरिक नहीं है. रिश्वत लेना और एक हिस्सा मंदिर में देना हर सरकारी नागरिक का पहला फर्ज है जिसे पूरी तरह निभाया जाता है.

दानेदाने को मुहताज छोटे किसानों का हाल क्या है यह किसी भी गांव की चौपाल, गांव के पास बसअड्डे या कचहरी में दिख जाता है. जिन के घरों में कोई शहर में नौकरी कर ले या कोई सरकारी नौकरी पा जाए उस की बात दूसरी पर किसानी जिस पर देश की 50 फीसदी जनता निर्भर है, फक्कड़ है. तभी तो वोटों की खातिर यह योजना शुरू की गई.

असल में इस तरह की सरकारी स्कीमों का एक छोटा हिस्सा ही आम आदमी तक पहुंच पाता है. बड़ा हिस्सा तो बिचौलिए हड़प कर जाते हैं क्योंकि 100 रुपए भी किसी को देने हों तो सरकार उस पर 10-20 कागज मांगती है और 10 जने सही करते हैं. हर कागज पर खर्च होता है, हर सही करने वाला अपनी फीस मांगता है.

सरकार ये स्कीमें शुरू करती है कि ढोल पीटा जा सके और उस की ऊपरी कमाई से पार्टी वर्कर, विधायक, सांसद को भी खुश रखा जाए और सरकारी मशीनरी को भी जो चुनावों में पोलिंग बूथ में बैठी होती है. इस तरह की सरकारी योजनाओं से जनता को छाछ मिलती है, कइयों को मोटा मक्खन.

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