बात उन दिनों की है, जब दिल्ली में शराब की एक बोतल खरीदने पर दूसरी बोतल मुफ्त मिल रही थी. लोग सोशल मीडिया पर शराब के महंगे ब्रांड की पेटी की पेटी खरीदने के फोटो और वीडियो धड़ल्ले से अपलोड कर रहे थे.

मान लो, तब कोई 1,000 रुपए की बोतल खरीदने की हैसियत रखता था, तो वह भी मुफ्त की बोतल पाने के चक्कर में 3,000 रुपए की बोतल खरीदने लगा था. चूंकि वह औकात से बाहर की महंगी शराब पीने का मजा ले रहा था, तो 500 रुपए ज्यादा देने का रिस्क लेने में भी नहीं झिझक रहा था. इस चक्कर में उस की पीने की कैपेसिटी भी बढ़ गई थी. अरे भई, जब जेब में सिगरेट की डब्बी और अलमारी में शराब का कार्टन रखोगे, तो पीने की तलब तो लगेगी ही न?

यकीन मानिए, तब दिल्ली में शराबियों की पौबारह हो गई थी. ठेकों के बाहर भगदड़ सी मच गई थी. कहीं भी निकल जाओ, शराब खरीदने वालों की लंबीलंबी कतारें दिखती थीं. सुबह के 9 बजे से रात 9 बजे तक ऐसा लगता था मानो शराब की दुकानें गली का भंडारा हो गई हों.

पर ऐसा हुआ क्यों था? दरअसल, दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार एक ऐसी शराब नीति लाई थी, जिस के तथाकथित साइड इफैक्ट अब दिखने लगे हैं और पिछले 12 साल में आज आम आदमी पार्टी इतनी बड़ी मुश्किल में खड़ी दिख रही है कि उस के वजूद पर ही सवालिया निशान लगने लगा है.

यह है पूरा मामला

22 मार्च, 2021 को दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने नई शराब नीति का ऐलान किया था. इस के बाद 17 नवंबर, 2021 को नई शराब नीति 2021-22 लागू कर दी गई थी. इस नई शराब नीति के लागू होते ही दिल्ली सरकार शराब के कारोबार से बाहर आ गई थी और शराब की पूरी दुकानें निजी हाथों में चली गई थीं. सरकार का मानना था कि इस नई नीति से शराब के धंधे में माफिया राज खत्म होगा और सरकार के रेवैन्यू में 1,500 से 2,000 करोड़ रुपए की बढ़ोतरी होने की उम्मीद थी.

दिल्ली में पुरानी शराब नीति के तहत  60 फीसदी सरकारी और 40 फीसदी प्राइवेट दुकानें थीं, जबकि नई शराब नीति लागू होने के बाद सौ फीसदी दुकानें प्राइवेट हो गई थीं. इस नई नीति के तहत एल-1 लाइसैंस की फीस 25 लाख रुपए से बढ़ा कर 5 करोड़ रुपए कर दी गई थी. इस से छोटे ठेकेदारों की दुकानें बंद हो गई थीं, जबकि बड़े शराब माफिया को लाइसैंस मिल गया था.

भ्रष्टाचार का उठा धुआं

सरकार ने यह जताया था कि यह शराब नीति सरकार का खजाना भर देगी, पर बाद में कुछ घालमेल लगा तो धीरेधीरे एक नए तरह के भ्रष्टाचार की परतें सी उघड़ने लगीं.

दरअसल, 17 नवंबर, 2021 को दिल्ली सरकार ने राज्य में नई शराब नीति लागू की थी, तब इस के तहत राजधानी में 32 जोन बनाए गए थे. हर जोन में ज्यादा से ज्यादा 27 दुकानें खुलनी थीं. इस तरह से कुलमिला कर 849 दुकानें खुलनी थीं.

इतना तामझाम करने के बावजूद खुदरा बिक्री में सरकार को भारी घाटा होने लगा था, जबकि रिटेल कारोबारियों को जबरदस्त मुनाफा होने लगा था. विपक्ष के मुताबिक, यहीं पर कमीशनबाजी और तथाकथित मुनाफे का खेल शुरू हुआ था.

जुलाई, 2022 में दिल्ली के तब के मुख्य सचिव ने आबकारी नीति में अनियमितता होने के संबंध में एक रिपोर्ट उपराज्यपाल वीके सक्सेना को सौंपी थी. इस में नीति में गड़बड़ी होने के साथ ही तब के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया पर शराब कारोबारियों को गलत तरीके से फायदा पहुंचाने का आरोप लगाया गया था.

जब इस मुद्दे पर बवाल ज्यादा बढ़ गया, तब 28 जुलाई, 2022 को दिल्ली सरकार ने नई शराब नीति रद्द कर फिर पुरानी नीति लागू कर दी. पर तब तक जांच की आंच गरम हो गई थी. उसे सीबीआई को ट्रांसफर कर दिया गया था. जब इस में मनी लौंड्रिंग से जुड़ा एंगल सामने आया, तब प्रवर्तन निदेशालय की भी इस केस में घुसपैठ हो गई थी. उस के बाद से आम आदमी पार्टी के कई सीनियर नेता और उन के करीबी सहयोगी जांच एजेंसी के निशाने पर आ गए थे.

इस मामले में सीबीआई ने 11 दिसंबर, 2022 को तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसीआर की बेटी के. कविता से भी पूछताछ की थी. सितंबर, 2022 में प्रवर्तन निदेशालय ने शराब कारोबारी समीर महेंद्रू को गिरफ्तार किया था. सितंबर, 2022 में सीबीआई ने विजय नायर को पूछताछ के बाद गिरफ्तार किया था. 9 मार्च, 2023 को प्रवर्तन निदेशालय ने पूछताछ के बाद मनीष सिसोदिया को गिरफ्तार किया था.

मनीष सिसोदिया क्यों फंसे

मनीष सिसोदिया पर सब से बड़ा आरोप तो यही है कि उन्होंने आबकारी विभाग के मंत्री के तौर पर शराब नीति को ले कर मनमाने और गलत फैसले लिए. उन्होंने शराब लाइलैंस लेने वालों को फायदा पहुंचाने के लिए सरकारी खजाने की चिंता नहीं की, जिस से सरकार को नुकसान पहुंचा.

इस के अलावा उन्होंने शराब कारोबारियों को फायदा पहुंचाने के बदले रिश्वत भी ली. ऐसा कहा जाता है कि उन्हें कारोबारी अमित अरोड़ा से तकरीबन 2.2 करोड़ रुपए की रिश्वत मिली. इतना ही नहीं, लाइसैंस के लिए अर्जी देने वाली एक कंपनी को जब एनओसी नहीं मिला, तो नियमों के खिलाफ जा कर उस के 30 करोड़ रुपए लौटाए गए. कोरोना काल में शराब दुकानें बंद रहीं, तो शराब कंपनियों को लाइसैंस फीस में 144.36 करोड़ रुपए की छूट दी गई.

सब से बड़ी बात तो यह कि मनीष सिसोदिया ने सुबूत छिपाने के लिए 14 फोन और 43 सिमकार्ड बदले. इन में से 5 सिमकार्ड तो उन्हीं के नाम पर ही लिए गए थे, जबकि बाकी सिमकार्ड दूसरों के नाम पर लिए गए थे.

संजय सिंह भी लपेटे में

आम आदमी पार्टी के बड़े नेता संजय सिंह भी इस घोटाले की आंच में झुलसने से खुद को बचा नहीं पाए. दरअसल, मनीष सिसोदिया के करीबी और कारोबारी दिनेश अरोड़ा ने राज्यसभा सांसद संजय सिंह का नाम इस शराब कांड में लिया था.

पूछताछ में दिनेश अरोड़ा ने बताया कि आम आदमी पार्टी के लिए फंड जुटाने के एक कार्यक्रम में उस की संजय सिंह से मुलाकात हुई थी. प्रवर्तन निदेशालय की चार्जशीट के मुताबिक, संजय सिंह ने दिनेश अरोड़ा को आम आदमी पार्टी के लिए फंड जुटाने की जिम्मेदारी दी थी और उस ने कई रैस्टोरैंट मालिकों से इस बाबत बात भी की थी. चंदे के नाम पर मनीष सिसोदिया को 32 लाख रुपए का चैक दिया गया था. बाद में दिनेश अरोड़ा इस मामले में सरकारी गवाह बन गया था.

फिलहाल दिक्कत यह है कि देश की सब से बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट ने मनीष सिसोदिया की जमानत याचिका को खारिज कर दिया है. कोर्ट ने माना है कि जांच एजेंसियों ने 338 करोड़ रुपए के लेनदेन को अस्थायी रूप से साबित किया है.

बढ़ती मुसीबतें

अब इस मामले में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का नाम भी उभरने लगा है और 2 नवंबर, 2023 को प्रवर्तन निदेशालय ने उन्हें पूछताछ के लिए बुलाया था, पर वे नहीं गए और आरोप लगाया कि केंद्र सरकार में बैठे भाजपाई नेता आम आदमी पार्टी को कमजोर कर के अपने सियासी फायदे देख रहे हैं.

सवाल है कि अरविंद केजरीवाल के आरोप हकीकत के कितने नजदीक हैं? क्या शराब नीति में बदलाव कर के उस का प्राइवेटाइजेशन करना ही भ्रष्टाचार को जन्म देना बड़ी वजह हो सकती है? दिल्ली शराब नीति से जुड़ा एक बड़ा पहलू तमिलनाडु की शराब नीति से भी समझा जा सकता है. ‘फ्रंटलाइन’ में तमिलनाडु की शराब नीति पर छपे कुछ हिस्से बड़े काम के थे.

साल 2022 में क्रिसिल की स्टडी के मुताबिक, देश में कुल शराब की खपत का 13 फीसदी हिस्सा तमिलनाडु का है. वहां की शराब बिक्री तमिलनाडु राज्य विपणन निगम द्वारा कंट्रोल की जाती है. जब सालाना बिक्री और राजस्व के आंकड़े आते हैं, तो वे हर साल रिकौर्ड तोड़ते दिखते हैं, फिर भी कामगारों को कम तनख्वाह मिलती है, आउटलेट घटिया हैं और शराब की क्वालिटी भी खराब है.

राज्य विपणन निगम के तकरीबन 25,000 मुलाजिम अनदेखी के शिकार हैं, जो दावा करते हैं कि उन की तनख्वाह एक औसत सरकारी मुलाजिम को दी जाने वाली तनख्वाह से काफी कम है. इस समस्या ने भ्रष्टाचार और अपराध की एक गहरी बुनियाद तैयार की है, जिस के बारे में हर कोई जानता है, लेकिन कोई भी इस से निबटने के लिए तैयार नहीं है. कामगारों की सब से बड़ी शिकायत तो यह है कि उन्हें रोजाना कम से कम 12 घंटे काम करना पड़ता है. उन के पास शौचालय तक नहीं है. दुकानें पिंजरों की तरह हैं और उन से बदबू आती है.

बस यहीं से भ्रष्टाचार की नई इबारत लिखनी शुरू हो जाती है. पैसे की कमी ?ोलते बहुत से मुलाजिम ‘कटिंग’ शराब बेचते हैं और पैसा अपनी जेब में रख लेते हैं. यही शराब की क्वालिटी में खराबी आने की सब से बड़ी वजह है, क्योंकि सील खोलने से मिलावट और पतलेपन की समस्या होने लगती है. बहुत बार तो एमआरपी से भी ज्यादा कीमत पर शराब बेची जाती है.

साल 2017 में, मीडिया रिपोर्टों में कहा गया था कि चेन्नई में राज्य विपणन निगम के आउटलेट से खरीदी गई रम की एक बोतल पर राज्य द्वारा चलाई जा रही खाद्य सुरक्षा प्रयोगशाला द्वारा किए गए टैस्ट से पता चला है कि वह शराब घटिया क्वालिटी की थी और उस में टार्टरिक एसिड तय सीमा से दोगुने से भी ज्यादा था.

दरअसल, शराब बिक्री के तार माफिया, नेता और बेचने वालों के बीच इस कदर उलझे हुए हैं कि जनता समझ ही नहीं पाती है कि परदे के पीछे क्या खेल चल रहा है. दिल्ली में प्राइवेट हाथों में शराब का धंधा चले जाने से सरकारी आउटलेट पर काम करने वालों की जिंदगी पर यकीनन बुरा असर पड़ा होगा. उन्होंने कभी नहीं चाहा होगा कि दिल्ली में केजरीवाल सरकार की शराब नीति चलती रहे.

पर, जब विपक्ष के दबाव में सरकार ने यह नीति वापस ली, तो शक की सूई उस की ईमानदारी पर आ कर टिक गई, जबकि आम आदमी पार्टी ने हमेशा यह कहा कि उन की शराब नीति से दिल्ली वालों को अच्छी क्वालिटी की शराब सस्ते में मिल रही थी, मिलावट होने की कोई गुंजाइश नहीं थी और हरियाणा से तस्करी हो कर आने वाली शराब पर भी पूरी तरह से रोक लग गई थी. पर यह सब कहना नक्कारखाने में तूती की आवाज साबित हुआ.

बस, यहीं पर एक सवाल और अनसुलझा रह जाता है कि खुद को कट्टर ईमानदार कहने वाली आम आदमी पार्टी के नेताओं ने इस शराब नीति के जरीए भ्रष्टाचार किया है या नहीं?

जब आम आदमी पार्टी बनी भी नहीं थी और अरविंद केजरीवाल दिल्ली में भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के साथ अनशन पर बैठे थे, तब वे सभी नेताओं को भ्रष्ट बताते थे. इन में राहुल गांधी, शीला दीक्षित, सोनिया गांधी, अडानी और अंबानी के अलावा तकरीबन हर पार्टी के बड़े नेता शामिल  थे, पर वे इन सब के खिलाफ कोई ठोस सुबूत नहीं दे पाए थे.

अब वही आम आदमी पार्टी कह रही है कि बगैर सुबूत के उस के नेताओं को जेल में भरा जा रहा है. लेकिन सवाल यह भी है कि अगर आम आदमी पार्टी के जेल में बंद नेताओं के खिलाफ सुबूत नहीं थे, तो अदालतों में ये केस इतने दिनों तक कैसे टिकते? हकीकत क्या है, यह तो आने वाले समय में ही पता चलेगा.

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