देश भर के रेलवे स्टेशनों को नई शक्ल दी जा रही है और उन पर भरपूर पैसा खर्च किया जा रहा है. इस का मतलब यह नहीं कि आम गरीग को कोई अच्छा सुख मिलेगा. स्टेशनों को संवारने का मतलब है कि वहां हर चीज मंहगी होती जाना. रेल टिकट तो मंहगे हो ही रहे हैं क्योंकि ज्यादातर नई ट्रेनें एयरकंडीशंड हैं जिन में झुग्गी झोपडिय़ों में रहने वाले किसान मजदूर नहीं चल रहे, मध्यमवर्ग के लोग चल रहे हैं.
रेल के बाहर भी स्टेशनों पर जहां सस्ते में खाना, मुफ्त में पानी, मुफ्त में शौचालय मिल जाता था, अब सब का पैसा लगने लगा है. रेलवे प्लेटफार्म पर रेल छूटने से कुछ समय पहले ही जाने दिया जाता है और वेङ्क्षटग हालों में पैसे लेबर सोने, बैठने की जगह मिलती है.
जो रेलवे बैंच कभी बेघरबारों के लिए एक ठिकाना होते थे. अब अपडेटीं के लिए चमचम करते होने लगे हैं. इलैक्ट्रिक ट्रेनों के बाद तो एयर कंडीशंड प्लेटफार्म बनने लगे हैं पर उन में स्लम में रहने वालों का कोई ठिकाना नहीं है.
रेलवे स्टेशनों का आधुनिकीकरण नहीं हो रहा. अमीरी करण हो रहा है. आम मजदूर खचड़ा बसों में टूटीफूटी सडक़ों पर 24 घंटे का सफर 48-50 घंटों में पैसे बचाने के लिए करे ऐसी साजिश रची जा रही है.
सरकार की मंशा है कि जैसे 3-4 या 5 सितारा होटल के दरबान, चमचम फर्श को देख कर गरीब किसान मजबूर दूर से ही चला जाए वैसे ही रेलवे स्टेशनों के पास भी न भटके. रेलें 2 तरह का काम करें, अमीरी को ऐसी जगह ले जाएं जहां हवाई जहाज नहीं जाते या माल ढोएं. मजदूर किसान को मीलों ले जाने वाली रेलें अब गायब होने लगी हैं.
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