धर्म का कट्टरपन कैसे लोगों का दिमाग खराब कर रहा है यह पिछले कुछ दिनों से देश लगातार देख रहा है. मणिपुर हिंसा के बाद इस मामले में नए अध्याय और जुड़ गए हैं, जो शर्मसार करते हैं. पहले मामले के आरोपी की तुलना अगर मुंबई आतंकवादी घटना के दोषी अजमल कसाब से की जाए तो गलत न होगा. धर्म की पताका लहराने और गैरधर्मी लोगों का कत्ल करने के जूनून ने इन दोनों घटनाओं के बीच कोई खास फर्क नहीं छोड़ा है.

घटना 31 जुलाई, 2023 की है. ‘जयपुरमुंबई सैंट्रल सुपरफास्ट’ ट्रेन अपने तय समय से पटरी पर दौड़ रही थी. ट्रेन पालघर रेलवे स्टेशन के नजदीक कहीं थी. सुबह का समय था तो ट्रेन की बोगियों में ज्यादातर मुसाफिर सो रहे थे.

अचानक 5 बजे ट्रेन से गोली चलने की आवाज आई. गोली चलाने वाला आरपीएफ का जवान चेतन कुमार चौधरी था, जो उत्तर प्रदेश के हाथरस का रहने वाला था और जिस पर गोली चली वह उस का सीनियर एएसआई टीकाराम मीणा था, जो राजस्थान के सवाई माधोपुर का रहने वाला था.

यह बात शायद यहीं खत्म हो जाती और इसे डिफैंस का निजी मामला कह कर दबा दिया जाता, लेकिन मामला तब आगे बढ़ा जब इस घटना से नए पहलू जुड़े और इस ने सांप्रदायिक रूप ले लिया. आरोपी चेतन कुमार चौधरी यहीं नहीं रुका. उस ने ट्रेन में सफर कर रहे 3 और मुसाफिरों, जो मुसलिम थे, को भी मौत के घाट उतार दिया.

इस मामले पर लीपापोती करते हुए यह कहा जाने लगा है कि आरोपी की दिमागी हालत खराब थी, इसलिए उस ने इस घटना को अंजाम दिया लेकिन घटना की वायरल वीडियो बताती है कि यह दिमागी हालत देश में चल रहे धार्मिक कट्टरपन के चलते खराब हो रही है, जिसे धर्मोदी मीडिया लगातार लोगों के बीच परोस रहा है.

अगर किसी वजह से चेतन कुमार चौधरी की दिमागी हालत सही नहीं होती तो वह किसी पर भी गोली चलाता, पर यहां चुन कर एक समुदाय के लोगों को बोगियों से ढूंढ़ कर मारा गया. ट्रेन लेआउट के हिसाब से 5 बजे उस ने अपने सीनियर को मारा, फिर उस ने 20 राउंड की अपनी आटोमैटिक असौल्ट राइफल से उसी बौगी में सफर कर रहे अब्दुल को मारा.

इस के बाद चेतन कुमार चौधरी अपनी बौगी बी4 से बी1 की तरफ गया यानी 4 बौगी दूर उस ने सदर मोहमद हुसैन को मारा. फिर वह 2 बौगी आगे एस6 गया और असगर अब्बास अली को मार दिया. यानी एक कथित मैंटल अनस्टेबल इनसान मारने के लिए बौगियों में दाढ़ी और टोपी वाले लोगों को ढूंढ़ रहा था. समझा जा सकता है कि यह किस तरह की मैंटल स्टेबिलिटी रही होगी.

चेतन कुमार चौधरी यहीं नहीं रुका, कत्ल करने के बाद उस ने अपनी राइफल जमीन पर रखी और बाकी मुसाफिरों से कहा कि उस की वीडियो बनाओ. वीडियो में वह बोला, “ये लोग (मुसलमान) पाकिस्तान से औपरेट हुए हैं. देश की मीडिया यही खबरें दिखा रही है. पता चल रहा है उन को, इन के आका हैं वहां. अगर हिंदुस्तान में रहना है तो मैं कहता हूं मोदी और योगी यही 2 हैं और आप के ठाकरे.”

अब चेतन कुमार चौधरी के इन शब्दों पर गौर करें तो समझ आएगा कि यह पूरा मामला उस उग्रधार्मिक जहर का नतीजा है जो पिछले एक दशक से लोगों के दिमाग में भरा जा रहा है. लेकिन इस घटना से किसे क्या हासिल हुआ यह सोचने वाली बात है. क्या इस से धर्म की पताका विश्वभर में लहरा गई? क्या देश का सम्मान बढ़ गया? क्या धार्मिक मसले सुलझ गए? क्या खुशहाली आ गई?

नहीं, बल्कि इस ने मरने और मारने वाले उन 5 लोगों का जीवन व उन के परिवारों को पूरी तरह से तहसनहस तो किया ही साथ में उन हजारों मुसाफिरों को जिंदगी भर की खौफनाक याद दे दी जिसे वे शायद ही कभी भुला पाएं.

इस में कोई हैरानी भी नहीं होगी कि चेतन कुमार चौधरी जैसे लोग देश में हजारों की संख्या में हों, क्योंकि सुबहशाम ह्वाट्सएप पर अधेड़ अंकलआंटी झूठ की बुनियाद पर खड़े नफरती मैसेज ठेलते दिख जाते हैं. वे खुद चेतन कुमार चौधरी जैसे लोगों को सही ठहराने वाले मैसेज अपने बच्चों के ग्रुप में भेज कर उन के दिमाग में भी जहर भरते हैं.

अब अगर इस के समानांतर घटित दूसरी घटना पर जाएं तो समझ आएगा कि यह नफरत पैदा कहां से हो रही है, इसे पालपोस कौन रहा है और हम तक यह पहुंच कैसे रहा है. पालघर में जिस जगह ट्रेन गोलीकांड की घटना घटी, उस से तकरीबन 1,300 किलोमीटर दूर हरियाणा के नूंह में सांप्रदायिक हिंसा हुई.

इन दोनों घटनाओं में यह तय करना मुश्किल है कि किसे ज्यादा खतनाक माना जाए. दोनों का आपस में कोई संबंध नहीं है, लेकिन जो सामान बात यह है इस का बीज वही धार्मिक पागलपन जो देश के कई लोगों को लील चुका है.

पथराव, आगजनी, गोलीबारी, हत्या, जली टूटीफूटी गाड़ियां, बिखरे कांच के टुकड़े, सड़क पर ईंटपत्थर, चेहरे पर मास्क, हाथ में डंडे और मुंह पर धार्मिक नारे. यह नजारा हर सांप्रदायिक हिंसा का रहता है, इसलिए दिल्ली से 86 किलोमीटर दूर हरियाणा का नूंह में भी इस नजारे से खुद को अलग नहीं कर पाया.

करता भी कैसे, दंगे कराने वाले जब एक पैटर्न से दंगे कराएं तो उस का जो कुल जमा होता है वह एक सा ही होता है. इस कहानी पर आएं उस से पहले यह समझना जरूरी है कि जिस जगह दंगे हुए वहां का भूगोल क्या है, क्यों वह इलाका माने रखता है और क्यों उस का चयन किया गया?

हरियाणा राज्य अपना बौर्डर दिल्ली, राजस्थान, पंजाब, उत्तर प्रदेश और कुछ हिस्सा हिमाचल प्रदेश से साझा करता है. नूंह में जिस जगह दंगे हुए वह दिल्ली और राजस्थान से नजदीक है और मेवात रीजन में आती है. यह जिला साल 2005 में गुरुग्राम और फरीदाबाद जिले के कुछ हिस्से ले कर बनाया गया. यहां की 80 फीसदी के आसपास आबादी मुसलिम है. नई गणना का देश इंतजार कर रहा है, पर पिछली गणना कहती है कि यहां 11 लाख के करीब लोग रहते हैं.

वक्त के साथ देश आगे बढ़ा पर यह इलाका पिछड़ा रहा. यहां इंडस्ट्री आईं पर यहां के नागरिकों को आर्थिक लाभ नहीं मिल पाया. न ठीक से शिक्षा पहुंच पाई इसलिए पुरुष साक्षरता दर 70 व महिला साक्षरता दर 37 फीसदी हो पाई. 2018 की नीति आयोग की रिपोर्ट कहती है कि नूंह की गिनती देश के 721 जिलों में से चुनिंदा मुख्य पिछड़ों में आती है.

लेकिन जिस नूंह को सभी सरकारें भुलाती आई थीं, वह अचानक कुछ कारणों से सुर्खियों में क्यों आने लगी, खासतौर पर हरियाणा की राजनीति के लिए यह इलाका जरूरी क्यों होने लगा? कारण यहां से धर्म की खेती को पकाए जाने वाले मुद्दे बनाना और उस पर चढ़ाई कर राजनीतिक रोटियां सेंकना.

इस इलाके में पिछले कुछ समय से कथित गौवंश और गौरक्षा के मामले सुर्खियों में रहे. फिर इस में नया घटनाक्रम बीते दिनों दंगों की शक्ल में सामने आया. मसला एक यात्रा का था. यात्रा धार्मिक थी. हालांकि यह यात्रा ‘ब्रजमंडल जलाभिषेक यात्रा’ के नाम से पिछले 3 साल से हो रही थी. इस बार 31 जुलाई को यात्रा निकलनी थी. इसे बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद के लोग संयोजित कर रहे थे. यह मामला निबट जाता, लेकिन इस यात्रा के 2 दिन पहले सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल होती है. वीडियो मोनू मानेसर की थी.

मोनू मानेसर, जो कि बजरंग दल का कार्यकर्ता है और कथित तौर पर खुद को गौरक्षक बताता है, जिस पर हरियाणा के भिवानी में नासिर और जुनैद की हत्या का आरोप है और फिलहाल फरार है. इसे बजरंग दल बचाने पर लगा है और इस के हर काम का समर्थन करता है. अब चूंकि आर्टिफीशियल इंटैलिजैंस के जमाने में पुलिस तकनीक से वंचित है, पर अपराधी तकनीक से जुड़े हैं, इसलिए मोनू ने अपनी वीडियो में लोगों (हिंदुओं) से अपील की कि इस यात्रा में बढ़चढ़ कर शामिल हों और वह खुद भी अपने लोगों के साथ आएगा.

मोनू की इस वीडियो ने रहीसही कसर पूरी कर दी. इस वीडियो के आने के बाद 2 दिन तक माहौल तनावपूर्ण था, लेकिन सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगी. सरकार के पास समय था कि वह इस बीच उचित कार्यवाही करती लेकिन वह हाथ पर हाथ धर कर बैठी रही.

नतीजतन जिस इलाके से यात्रा निकली वहां लोग घरों में पहले से तैयार थे और यात्रा में आई भीड़ भी तलवारों और बंदूकों के साथ थी. यह सब होता रहा और पुलिस इंवैस्टिगेटिंग टीम सोती रही और इतनी बड़ी सांप्रदायिक हिंसा घटी. हिंसा में 3 लोगों की तत्काल मौत हुई, दोनों तरफ के उपद्रवियों ने कईयों गाड़ियों को पर आग लगी दी, साइबर थाने में तोड़फोड़ की, नूंह चौक के पास स्थित अलवर अस्पताल पर भी हमला किया गया. दुकानें जलाई गईं.

दंगों की आग सिर्फ नूंह तक सीमित नहीं रही, 31 जुलाई से 1 अगस्त तक यह हिंसा गुरुग्राम तक भी जा फैली. गुरुग्राम के सैक्टर 57 में एक मसजिद को आग के हवाले कर दिया गया. मसजिद में फायरिंग हुई और इमाम की गोली लगने से मौत हो गई. इस के अलावा सोहना में हिंसा हुई और कई वाहन आग के हवाले कर दिए गए.

इसी तरह की मिलतीजुलती घटना 29 जुलाई, 2023 को दिल्ली में हुई. जगह थी नांगलोई. मुहर्रम के दिन ताजिया जा रहा था. इस में झड़प हुई भीड़ की पुलिस से भिड़ंत हो गई. भीड़ की जिद थी कि उन्हें उस रूट से जाना है जहां से पुलिस उन्हें मना कर रही थी. इस से नाराज भीड़ आक्रोशित हो गई और आनेजाने वाले वाहनों पर पत्थरडंडे बरसाने लगी. कई वाहनों को तोड़ा गया. इसी तरह की घटना 30 जुलाई, 2023 को उत्तर प्रदेश की बरेली में घटित हुई. यहां 2 समुदाय महमूद और जोगी समुदाय आमनेसामने आ गए.

इन सभी घटनाओं को देखा जाए तो कहीं दंगे प्रायोजित रहे, कहीं खुद से फूट पड़े, कहीं नफरत हावी हो गई, लेकिन इस के कोर में धर्म की कट्टरता रही जिस ने लोगों से सोचनेसमझने की ताकत ही छीन ली. ये घटनाएं नई नहीं हैं लेकिन कुल जमा यह है कि इस धार्मिक कट्टरता से किसी को भी क्या हासिल होता है? यह कैसी भक्ति है कि किसी को मार कर ही साबित होती है?

इन सभी घटनाओं में जो चीजें सामने आई वह जानमाल की हानि की रही. सोचो उन के परिजनों के बारे में जिन की मौत इन धार्मिक हिंसाओं में हुई. सोचिए कितनी संपत्ति का नुकसान नागरिकों और सरकारों को उठाना पड़ा है.

हरियाणा में कई वाहन जला कर खाक कर दिए गए, यह वाहन आम लोगों के थे, वाहनों पर धर्म का ठप्पा नहीं लगा होता, इन वाहनों पर सरकार मुआवजा नहीं देती. इंश्योरैंस का क्लेम इतना आसान नहीं होता. इस का क्लेम तभी किया जा सकता है जब वाहन समयसीमा के भीतर हो. उस के बाद भी तमाम तरह की अड़चनें होती हैं. कई शर्तें होती हैं.

हमारे देश में कालोनियां भले धर्मजाति के नाम पर बंटी हों लेकिन बात जब धंधे की आती है तो सभी उसी जगह अपनी दुकानें लगाते हैं जहां व्यापार की अच्छी गुंजाइश हो. जितने भी दंगे होते हैं, उन दंगों में अनुपात में किसी समुदाय की दुकानें भले कमज्यादा जले लेकिन घाटा दोनों तरफ का होता है.

जितनी सांप्रदायिक घटना घटती हैं उन्हें सुलगाने वाले तो अपने घरों में रहते हैं, उन के बच्चे उन जुलूसों में नहीं दिखते, न ही उन के हाथ में लाठीडंडे होते हैं, क्योंकि वे प्राइवेट स्कूल में इंगलिश मीडियम की पढ़ाई कर रहे होते हैं लेकिन उन घटनाओं में लाठीडंडे, तलवार, पत्थर ले कर चलने वाले वे पिछड़े तबके के नौजवान होते हैं, जिन के लिए बुनियादी सवाल रोजगार, पढ़ाईलिखाई, सेहत के होने चाहिए थे. इस के उलट ये नौजवान धर्म के बहकावे में आम मासूम लोगों के दुश्मन बन बैठते हैं और फिर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने का काम करते हैं.

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