दालान में पंडितजी बड़े भैया को सामान लिखवा रहे थे, ‘‘ढाई मीटर कपड़ा, एक पसेरी शुद्ध घी, 5 मन लकड़ी, थोड़ी चंदन की लकड़ी, 3 लोटे, 13-13 नग, गीता, तुलसी की माला. तौलिए और खाट वगैरह तो होगी ही बड़े भैया, अगर एक शाल रामसिया की देह के ऊपर डालोगे तो अच्छा रहेगा… आखिरकार बिरादरी में चौधरी खानदान की इज्जत का सवाल है.’’ बड़े भैया ने धीमी आवाज में कहा, ‘‘मगर पंडितजी, इस में तो बहुत खर्च हो जाएगा. कुछ कम पैसों में सारे काम पूरे करवा दीजिए. आखिर अभी तेरहवीं का भोज भी तो करना पड़ेगा.’’

पंडितजी का चमकता चेहरा कुछ बुझने सा लगा. वे बोले, ‘‘जैसा आप ठीक समझें बड़े भैया. आप तो चौधरी घराने के बड़े बेटे ठहरे, आप को क्या कमी.’’ बड़े भैया ने कुछ मायूसी से जवाब दिया, ‘‘आप को तो पता ही है कि रामसिया मेरे मंझले चाचा का एकलौता बेटा था. पुरखों का कमाया हुआ घर में क्या कुछ नहीं था, पर वह बचपन से बिगड़ गया. ‘‘बिना बाप का बेटा मां के लाड़ और बुरी संगत में पड़ कर बचपन से ही शराब और जुए में बरबाद होता गया,

जिस से धीरेधीरे सारी जायदाद खत्म हो गई. ‘‘अब ऐसे वक्त बूढ़ी चाची से रुपया तो मांगा नहीं जा सकता. अपनी जेब से ही खर्चा करना होगा.’’ पंडितजी ऊपर से मातमी सूरत बना रहे थे, पर मन ही मन हिसाब लगाते जा रहे थे कि कहां से, किस तरह से रुपया, दान वगैरह ऐंठा जा सकता है. वे बोले, ‘‘बड़े भैया, आप कुछ भी कहें, हाथी मरता भी है तो सवा लाख का होता ही है.’’ बड़े भैया ने अपने नौकर को बुलाया और कहा, ‘‘पंडितजी को माधव शाह की दुकान पर ले जाओ.

उस से कहना कि मेरे उधार खाते में हिसाब लिख कर, जो भी जरूरी सामान हो दे दे. ‘‘तुम खुद ही लेते आना, ताकि पंडितजी को कोई कष्ट न हो. तब तक मैं दूसरे इंतजाम देखता हूं.’’ बाहर वाले दालान में आदमी और अंदर वाले दालान में औरतें जमा थीं. बीच में कोठा पड़ता था, जहां से लोग आजा रहे थे. कुछ बच्चे भी वहीं बैठ कर अपनीअपनी तरह से बातें कर रहे थे.

अंदर दालान के एक ओर रामसिया की देह बर्फ की सिल्लियों पर रखी हुई थी. बहनों और बहनोइयों का इंतजार किया जा रहा था. बूढ़ी मां एक कोने में देह के सिरहाने बैठी जारजार रो रही थीं. कभीकभी बड़बड़ाना जारी कर देतीं, ‘‘अरी कुलच्छिनी, खा लिया मेरे बेटे को. अब मैं कैसे जी पाऊंगी… मेरा लाड़ला, मेरा रामसिया… रे, तू कहां चला गया.

तेरे बदले मुझे क्यों न मौत आ गई,’’ और वे सिर और छाती पीटना शुरू कर देतीं. महल्ले, बिरादरी की औरतों से भी एक मां का यह बिलखना देखा न जा रहा था. वे भी साथसाथ सुबकती जाती थीं और हमदर्दी जताती जा रही थीं. दूसरे कोने में रामसिया की पत्नी रामसुंदरी बेजान मूरत बनी बैठी थी. उस की आंखों के आंसू सूख चुके थे. जैसे सोचनेसमझने की ताकत ही बाकी न रही हो. न तो उसे रोना आ रहा था और न ही वह यह सोच पा रही थी कि वह विधवा हो चुकी है.

रामसुंदरी को बीते दिन याद आ रहे थे, जिस में उस ने सुहागिन होने का सुख जाना ही न था. बीते हुए दिन आंखों के सामने घूम रहे थे. इस घर में जब रामसुंदरी दुलहन बन कर आई थी, वह दिन उसे आज भी अच्छी तरह याद है. घूंघट के अंदर से वह आवाजें सुन रही थी. कोई औरत कह रही थी, ‘‘मझले चौधरी आज जिंदा होते तो खुशी से फूले न समाते कि कैसी हीरे की कनी सी बहू पाई है. सचमुच रामसिया तो मजनूं बन जाएगा.’’ रूपरंग में सभी बहुओं में बढ़चढ़ कर है,’’

शायद यह बड़ी चौधरानी यानी उस की बड़ी खास होगी, उस ने मन ही मन अंदाज लगाया था. सुना था, उस के 3 भाई थे. बड़े और छोटे अभी भी अच्छे ओहदों पर मुलाजिम थे. उस के अपने मंझले ससुर रियासत के दरबार में मुलाजिम थे. वे 9 साल के बेटे रामसिया और 4 बेटियों को पीछे छोड़ कर जवानी में ही चल बसे थे. मां से रामसुंदरी ने ब्याह से पहले यही सब सुन रखा था.

जब गोदभराई के वक्त उस की सास एक जोड़ी चांदी की खूबसूरत झांझरें उस के पैरों में पहनाने लगी थीं, तो वे बोली थीं, ‘‘बहू, इन झांझरों की शक्ल में मैं अपनी सास की दी हुई धरोहर तुम्हें सौंपती हूं. इन घुंघरुओं से निकलने वाली आवाज की तरह ही तुम्हारी जिंदगी में भी झंकार गूंजती रहे. मेरे लाड़ले को अपने बस में कर के बगिया हरीभरी कर देना.’’

रामसुंदरी तब सास के चरण छूने को उन के पैरों पर झुक गई थी. सांझ ढलने तक रामसुंदरी की 2 शादीशुदा और 2 कुंआरी ननदें दूसरी औरतों के साथ हंसीठिठोली करते हुए रस्में पूरी कराती रहीं. वे जब फूलों से सजे पलंग पर उसे बैठा कर चल दीं, तो अनजाने ही मन में डर के साथसाथ पति से पहले मिलन के खयाल से वह चंचल हो उठी. चूडि़यां जब झनझन बज उठतीं तो वह अपनेआप से शरमा जाती. रामसुंदरी ने गजब की देह पाई थी. जितनी वह सुंदर थी, उतनी ही मादक भी. उस के उभार देखने लायक थे. आज अपनी सुहागरात पर वह शर्म के मारे लाल हो गई थी. देह में अजीब सा रोमांच भर गया था. तभी दरवाजे पर आहट हुई. रामसुंदरी की सांसें ऊपरनीचे होने लगीं.

आज वह कली से फूल जो बनने वाली थी. घूंघट की ओट से पति को आते देखा तो और भी सिकुड़सिमट कर बैठ गई. तभी आवाज आई, ‘‘क्या गठरी सी बनी बैठी है. चल, यह दारू की बोतल पकड़ और गिलास में डाल कर मुझे पिला.’’ रामसुंदरी चौंक कर हैरानी से देखने लगी और सोचा, ‘तो क्या यही हैं चौधरी खानदान के चिराग? जो सपने मैं देख रही थी, क्या वे सब झूठे थे?’

उस रात रामसिया शराब पीता रहा और बड़बड़ाता रहा, ‘‘चल री पैर दबा मेरे. क्या नाम है तेरा? रामसुंदरी या रामप्यारी? खैर, क्या फर्क पड़ता है… मुझे तो काम से मतलब है… नाम कुछ भी हो.’’ शराब की बदबू रामसुंदरी से सहन नहीं होती थी, लेकिन वह मजबूर थी. रामसिया की याद आते ही रामसुंदरी का अल्हड़ मन कसैला हो उठता. जहां तक हो सकता, वह रामसिया की परछाईं से भी बचती रहती. इसी तरह उस की जिंदगी गुजरने लगी. जबजब दोनों ननदों के ब्याह की बात होती, तो रामसिया की बुरी आदतों के चलते रिश्ता टल जाता. कोई कहता, ‘भाई कुछ करता तो है नहीं, शराबी भाई से कैसे निभेगी?’ तो कोई कुछ कह कर टाल देता. एक जगह बात कुछ जमी, तो उन लोगों में से एक ने साफसाफ कह दिया,

‘‘भाई से तो कुछ उम्मीद नहीं है, पिता की जायदाद में बेटी का जो हिस्सा है, अंदाज से उतने जेवर उसे दे देना. हम ब्याह करने को तैयार हैं.’’ रामसुंदरी के जेठ, जिन्हें सभी बड़े भैया कहा करते थे, ने ही बात तय करवाई. यह उम्मीद ले कर कि सुंदरी बहू अपने रूप के बल पर बिगड़ैल बेटे को बांध कर रख सकेगी और बुरी आदतें छुड़वा सकेगी. रामसुंदरी को सोनेचांदी के जेवरों से मढ़ कर मंझली चाची ब्याह लाई थीं. परंतु कुछ सुधार न देख और बहू को बेटे से दूरदूर अलगअलग देख कर उन का सारा गुस्सा रामसुंदरी पर ही उतरता. बातबात में वे बहू को डांटतीं, फटकारतीं.

अब जब बेटी की शादी पर गहनों की बात आई, तो उन्होंने रामसुंदरी के 3-4 गहने उतरवा लिए. कुछ नकद जमापूंजी थी, सो वह बरातियों के स्वागतसत्कार व दूसरे खर्चों में लग गई. जब विदाई हुई, तो रामसुंदरी थकान से चूर कमरे में ही एक कोने में गठरी सी बन कर लेट गई. कुछ ही देर सोई होगी कि रामसिया शराब पी कर आ गया. रिश्तेदारों के बीच शोर मचाता हुआ वह कमरे में आ गया. तब एक ही पल में रामसुंदरी चौकन्नी हो उठी और पास में पड़ी लंबीचौड़ी दरी में लिपट कर आननफानन छिप गई, ताकि कोई यह न जान सके कि वह कहां है. रामसिया ने बहुत ढूंढ़ा. रामसुंदरी को सांस लेने में भी घुटन होने लगी. फिर भी वह बाहर नहीं निकली.

न जाने क्यों वह रामसिया की शराबी बिगड़ैल सूरत को ‘पति परमेश्वर’ का दर्जा न दे पाती थी. फिर रामसिया खर्राटे भरता पलंग पर औंधा सो गया. दबे कदमों से बाहर आते ही रामसुंदरी को देख उस की सास बुरी तरह झुंझलाई, ‘‘क्यों री, कहां छिपी बैठी थी? रामसिया की गरज नहीं सुनाई दी तुझे. यही हैं सुहागिनों के लच्छन?’’ दिन बीतते रहे, चौथी ननद के ब्याह के समय हवेली भी गिरवी रखी गई. रामसुंदरी के पैरों में बस वही झांझरें बची रहीं, बाकी सब गहने एकएक कर के शराब की भेंट चढ़ते गए. रामसुंदरी को सिर्फ लगाव था तो इन्हीं झांझरों से.

आखिर उस के ब्याह की निशानी जो थी. जब पति बिना शराब पिए घर में आता तो मानमनुहार करती और अपना फर्ज निभाती. तीजत्योहार पर अपने सुहाग की निशानी यानी झांझरें जरूर पैरों में पहनती. पहनने से पहले उन्हें खूब चमका कर साफ करती. सारा दिन हंसीखुशी से बीतता. लेकिन शाम ढले रामसिया फिर शराब पी कर आ जाता. दालान से ही उस की ऊंची आवाज सुन कर वह घबरा उठती.

झांझरें बज न उठें, इसलिए जल्दी से उन्हें उतार कर संदूकची में मलमल के कपड़े में लपेट कर रख देती और कहीं किसी कोने में छिप आती. रामसिया शोर मचाता रहता. इसी तरह उन झांझरों से जैसे उस का एक गहरा रिश्ता जुड़ गया. पिछली रात रामसिया घर से निकला तो लौटा ही नहीं. लौटी तो सिर्फ उस की देह, जो एक ट्रक से बुरी तरह कुचली हुई थी.

पुलिस के पूछने पर लोगों ने यही कहा कि शराब पी कर डगमगाता हुआ रामसिया सामने से आते हुए ट्रक के बीचोंबीच घुस गया. शायद उसे तब दीनदुनिया की खबर नहीं थी. जिस ने सुना, दौड़ा आया. सभी मातम मना रहे थे. रामसुंदरी तो जैसे रोरो कर सब से यही पूछ रही थी कि मेरा कुसूर क्या है? आज जैसे उस के लिए सभी मुजरिम थे. चाहे उस की मां हो, सास या ननदें. अपने साथ किए छल से उस का दिल फटा जा रहा था. अचानक रामसुंदरी चौंक उठी.

उस की सास दहाड़ें मारमार कर रो रही थीं, ‘‘मेरा लंबाचौड़ा गबरू जवान बेटा चला गया और यह मनहूस ज्यों की त्यों बैठी है, दो बूंद आंसू भी न बहा सकी, उस के लिए. मैं ही क्यों न चली गई तेरे साथ, ओ मेरे राजा बेटा रे…’’ तभी बड़े भैया आए और बोले, ‘‘चाची, तुम्हें तो पता ही है, मुझ पर कितनी जिम्मेदारियां हैं. जो बन सकेगा, मैं करूंगा ही… फिर भी कुछ रुपए दे देती तो ठीक रहता.’’ सुन कर रामसिया की मां दुखी आवाज में बोली, ‘‘एक वही झांझरें बची हैं बेटा,

जो बहू को गोदभराई में दी थीं, सो ले जा कर बेच दे. अब आखिरी काम में कोई कमी न रखना,’’ फिर आह भर कर वह अपनेआप से कहने लगी, ‘‘मुझ दुखियारी को यह दिन देखना था.’’ चाची का इशारा पा कर 2 औरतें उठीं. वे रामसुंदरी को उठा कर भीतर की ओर चल दीं, जहां संदूकची में झांझरें रखी थीं. रामसुंदरी ने चाबी कमर से निकाल कर संदूकची का ताला खोल दिया.

ढक्कन खोला तो देखा, संदूकची खाली पड़ी है. घबरा कर उस ने लाल मलमल का कपड़ा उठा कर हाथ में ले लिया और संदूकची पलट दी. अचानक ही कपड़े में से शराब की बदबू का भभका उठा और रामसुंदरी के सामने सारी बात साफ कर गया. कल दोपहर को जब वह सो रही थी, तब शायद रामसिया ने चाबी पार कर दी थी और झांझरें बेच कर शराब की शक्ल में मौत खरीद लाया था. तभी तो वह कल शराबखाने में आधी रात तक बैठा रहा था. रामसुंदरी की झांझरें भी आज खोटी निकल गईं. उसे लगा कि अब वह सचमुच ही अनाथ और विधवा हो गई है. रामसुंदरी दहाड़ें मारमार कर रोने लगी, ‘‘हाय रे, मैं लुट गई… बरबाद हो गई… मेरी झांझरें खोटी थीं रे

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