डरबन की चमचमाती सड़कों पर सरपट दौड़ती इम्पाला तेजी से आगे बढ़ी जा रही थी. कुलवंत गाड़ी ड्राइविंग करते हिंदी फिल्म का एक गीत गुनगुनाने में मस्त थे. सुरभि उन के पास वाली सीट पर चुपचाप बैठी कनखियों से उन्हें निहारे जा रही थी. इम्पाला जब शहर के भीड़भाड़ वाले बाजार से गुजरने लगी तो सुरभि ने एक चुभती नजर कुलवंत पर डाली और बोली, ‘‘अंकल, कहीं मैडिकल की शौप नजर आए तो गाड़ी साइड में कर के रोक देना, मुझे दवा लेनी है.’’

कुलवंत के चेहरे पर आश्चर्य के भाव उभर आए. सुरभि की तरफ देख कर बोले, ‘‘क्यों, क्या हुआ? तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘हां, तबीयत तो ठीक है.’’

‘‘फिर दवा किस के लिए लेनी है?’’

‘‘आप के लिए.’’

‘‘मेरे लिए, क्यों? मुझे क्या हुआ है? एकदम भलाचंगा तो हूं.’’

‘‘आप बड़े नादान हैं. नहीं समझेंगे. अब आप अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाना बंद कीजिए. मैडिकल शौप नजर आए तो वहां गाड़ी रोक देना. मैं 1 मिनट में वापस आ जाऊंगी.’’

कुलवंत को बात समझ में नहीं आई तो चुप्पी साध ली. उन की नजरें स्क्रीन विंडो से हो कर बाजार के दोनों तरफ दौड़ने लगीं. कुछ देर बाद एक मैडिकल शौप नजर आई, तो गाड़ी को साइड में ले कर शौप के आगे रोक दी.

‘‘लो, दवाइयों की दुकान आ गई. जल्दी से दवा ले कर आओ.’’

सुरभि ने फुरती से दरवाजा खोला और मैडिकल शौप पर पहुंच गई. कुलवंत गाड़ी में बैठेबैठे ही सुरभि को देखते रहे. उस ने क्या दवा ली, वे चाह कर भी नहीं जान पाए. सुरभि ने दवा को पर्स में डाला और पैसे दे कर फौरन वापस आ कर गाड़ी में बैठ गई. वह कुलवंत की तरफ देख कर बोली, ‘‘हो गया काम, घर चलिए.’’

कुलवंत को कुछ भी समझ में न आया. उन्होंने गाड़ी को गियर में डाला और ऐक्सिलरेटर पर दबाव बढ़ा दिया. गाड़ी अगले ही पल हवा से बातें करने लगी. ड्राइविंग करतेकरते उन्होंने सुरभि पर एक नजर डाली. न जाने क्यों आज उन्हें सुरभि में एक बदलाव सा नजर आ रहा था.

1 महीने पहले जब वे डरबन आए थे, तब की सुरभि और आज की सुरभि में जमीनआसमान का फर्क था. पिछले 2 दिनों में तो उस का हावभाव एकदम बदल सा गया था. यह सब सोचतेसोचते वे विचारों में खो गए.

कल सुबह वे धड़धड़ाते हुए स्नानघर में घुसे तो उन के पांवों के नीचे की जमीन खिसक गई थी. वहां पर सुरभि पहले से ही स्नान कर रही थी. उस के तन पर एक भी कपड़ा नहीं था. कुलवंत फौरन बाहर आ गए. सुरभि की पीठ दरवाजे की तरफ थी. शायद उस ने कुलवंत को नहीं देखा था. कुलवंत की सांसें धोंकनी की तरह चलने लगीं. वे सोफे पर गिर पड़े. सोचने लगे कि अच्छा हुआ जो सुरभि को कुछ भी मालूम नहीं चला. मगर इस में गलती तो सुरभि की ही थी. सुरभि को अंदर से दरवाजा बंद करना चाहिए था.

उस घटना को गुजरे 24 घंटे से ज्यादा का समय बीत चुका था, मगर कुलवंत की आंखों में स्नानघर वाला दृश्य बारबार घूम जाता था. यौवन की दहलीज पर खड़ी सुरभि के उस रूप ने उन्हें झकझोर कर रख दिया था. उन्हें खुद से ज्यादा गुस्सा सुरभि पर आ रहा था. उस ने भीतर से दरवाजा बंद क्यों नहीं किया? यह लापरवाही थी या जानबूझ कर की गई कारस्तानी. नहीं, नहीं, यह लापरवाही नहीं हो सकती, यह सब सुरभि ने जानबूझ कर किया है. अच्छा होगा कि निशांत जल्दी से वापस आ जाए.

इन विचारों के साथ वे बचपन की यादों में खो गए. कुलवंत और निशांत बचपन के मित्र थे. दोनों के घर आसपास ही थे. साथ ही खेलतेकूदते बचपन गुजरा. एक ही स्कूल में शिक्षा पाई. यूनिवर्सिटी में साथ ही दाखिला लिया. बाद में निशांत ने सीए की परीक्षा उत्तीर्ण कर के चार्टर्ड अकाउंटैंट का कार्य शुरू कर दिया.

कुलवंत ने अपने पिता का खेतीबाड़ी का काम संभाल लिया. एक दिन अच्छा रिश्ता आया तो प्रभुदयालजी ने अपने बेटे निशांत का विवाह सृजना के साथ धूमधाम से कर दिया. कुलवंत ब्याह के कार्यों में 1 महीने तक जुटा रहा. निशांत के सभी सूट उस ने अपनी पसंद से सिलवाए. बरातियों की लिस्ट बनाने से ले कर प्रीतिभोज का मेन्यू तय करने तक में उस ने प्रभुदयालजी की मदद की. लोग भी कहने लगे कि निशांत और कुलवंत दोस्त नहीं, बल्कि भाई हैं.

कुछ समय बाद कुलवंत की भी शादी हो गई. उस की शादी में निशांत तो आया, मगर उस की पत्नी सृजना नहीं आई थी. कुलवंत को बुरा लगा. उस ने अपने दोस्त को खूब खरीखोटी सुनाईं. निशांत उस दिन कुछ भी नहीं बोला. कुलवंत की हर बात को उस ने सहजता से लिया. घरगृहस्थी में बंधने के बाद दोनों अपनीअपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गए. कभीकभार दोनों दोस्त मिलते तो एकदूसरे से शिकवाशिकायत करने में ही समय गंवा देते. कुलवंत को कई बार लगा कि निशांत की गृहस्थी में सबकुछ ठीक नहीं है. उन्हीं दिनों खबर लगी कि निशांत के लड़की हुई है. मिठाई और उपहार दे कर दोनों पतिपत्नी वापस आ गए.

कुछ दिनों बाद एक अन्य मित्र के द्वारा मालूम पड़ा कि निशांत और सृजना की आपस में नहीं बनती. दोनों में रोज ही झगड़े होते रहते हैं. पुत्र और बहू के झगड़ों से दुखी प्रभुदयालजी की एक दिन हार्ट अटैक से मौत हो गई. उन की मौत के बाद तो निशांत और सृजना का मामला बिगड़ता ही चला गया.

मित्र के घर के बुरे समाचारों के बाद कुलवंत भी चिंतित हो उठा. एक दिन वह अपनी निशा को ले कर निशांत के घर गया. वहां दोनों को खूब समझाया. यहां कुलवंत को पहली बार लगा कि सृजना बहुत ही आक्रामक स्वभाव की थी. निशांत ने तो उन की बात को धैर्य के साथ सुना, मगर सृजना ने उन्हें दोटूक शब्दों में कह दिया, ‘देखिए, कुलवंतजी, आप अपने घर को संभालें. हमारे घर के मामलों में आप को पंचायत करने की जरूरत नहीं है.’

उस दिन कुलवंत भारी मन से वापस घर आया तो रो पड़ा था. आज उस के मित्र का घर बिखराव पर है अैर वह कुछ भी नहीं कर पा रहा था. कुछ समय बाद समाचार मिला कि निशांत और सृजना में तलाक हो गया. कोर्ट के आदेश से सुरभि निशांत को मिल गई थी. एक दिन निशांत ने कुलवंत और निशा को अपने घर बुलाया और बताया कि वह सुरभि को ले कर डरबन जा रहा है. वहां एक मल्टीनैशनल कंपनी में अकाउंटैंट की नौकरी मिल गई है. उस ने कुलवंत को अपने घर की चाबी देते हुए कहा कि मकान किराए पर उठा देना या जैसा तुम्हें उचित लगे, करना. समयसमय पर सफाई जरूर करवा देना. उस समय सुरभि मात्र 8 वर्ष की थी.

वक्त की रफ्तार धीरेधीरे आगे बढ़ती रही. कुलवंत की जिंदगी में सबकुछ ठीकठाक चल रहा था. लेकिन एक दिन निशा ने स्तन में दर्द होने की बात बताई. डाक्टर को दिखाया तो उस ने जांच के बाद बताया कि उस को कैंसर है. बीमारी लास्ट स्टेज पर थी. कैंसर ने ऐसी जड़ें जमाईं कि निशा कभी ठीक ही नहीं हो पाई. कुलवंत को घर का चिराग दिए बिना ही निशा चल बसी. मातापिता का तो पहले ही देहांत हो गया था. वह दुनिया में अकेला हो गया. कभीकभी उस का मिलना सृजना भाभी से हो जाता था. वह अपने किए पर बहुत रोती थी. देखतेदेखते 12 वर्ष बीत गए. एक दिन निशांत ने वीजा व हवाई जहाज का टिकट भेज कर कुलवंत को डरबन बुला लिया.

मित्र के बुलावे पर वह 1 महीने पहले डरबन आया था. जब उस ने डरबन की धरती पर पांव रखा तो निशांत खुद गाड़ी ले कर एअरपोर्ट आया था. वर्षों बाद एकदूसरे को देख कर दोनों के आंसू निकल आए थे. घर पहुंचे तो सुरभि को देख कर कुलवंत का मुंह खुला का खुला रह गया. 12 वर्ष पूर्व जिस सुरभि को उस ने भारत से विदा किया था, उस में व इस सुरभि में जमीनआसमान का फर्क था. आज तो वह बिलकुल अपनी मां जैसी लग रही थी. उस के  नैननक्श बिलकुल सृजना के जैसे थे.

निशांत और सुरभि के साथ रहने से कुलवंत में जीने की तमन्ना जाग उठी थी. उन दोनों के साथ रहते 1 महीना कब बीता, पता ही नहीं चला.

2 दिन पहले निशांत को किसी जरूरी कार्य से दुबई जाना पड़ा. उस ने रवाना होते समय कुलवंत से कहा था, ‘मैं 1 हफ्ते के बाद ही आ पाऊंगा. तुम्हारी देखभाल

के लिए सुरभि को कह दिया है. कोई विशेष कार्य हो तो मोबाइल पर बता देना.’

अचानक विचारतंद्रा टूटी तो कुलवंत ने देखा कि बंगला आ गया है. उन्होंने गाड़ी पार्किंग में खड़ी की. दोनों दरवाजे के पास पहुंचे तो यह देख कर दंग रह गए कि दरवाजा खुला हुआ है. दोनों ने एकदूसरे की तरफ प्रश्नवाचक नजरों से देखा. सुरभि ने आश्चर्य से कहा, ‘‘मैं ने जाते वक्त ताला लगाया था. पीछे से यह दरवाजा किस ने खोला?’’

दोनों तेजी से दौड़ते हुए भीतर गए तो वहां के हालात देख कर भौचक्के रह गए. पूरे बंगले का सामान इधरउधर बिखरा पड़ा था. सुरभि ने कुलवंत की तरफ देख कर कहा, ‘‘लगता है चोरों ने यहां अपना हाथ दिखा दिया है. मैं पुलिस को फोन करती हूं.’’

सूचना मिलते ही पुलिस की टीम वहां जा पहुंची. अधिकारी पूछताछ के बाद छानबीन में लग गए. लूट की रिपोर्ट लिखने के बाद पुलिस वापस लौट गई. सुरभि ने कुलवंत की तरफ देख कर कहा, ‘‘यार अंकल, यों मुंह लटकाए क्यों बैठे हो? यहां तो यह आम बात है. यह तो अच्छा हुआ हम दोनों घर पर नहीं थे, वरना लुटेरे हमें जान से मार भी सकते थे. मैं पापा को फोन कर के बता देती हूं. आप चाय तो बना कर पिला दीजिए.’’

कुलवंत सुरभि की बेतकल्लुफी पर हैरान था. वह चुपचाप उठा और रसोईघर की तरफ चल दिया. सुरभि ने मोबाइल फोन से घर में हुई लूट की बात अपने पापा को बता दी. उस ने यह भी बता दिया कि चिंता की बात नहीं है. कुलवंत अंकल और वह कुशलमंगल से हैं. कुलवंत ने तब तक चाय बना ली.

रात को दोनों ने मिल कर खाना बना लिया. खाना खाते समय दोनों चुपचुप रहे. खापी कर दोनों फ्री हुए तो कुलवंत अपने कमरे में आ कर पलंग पर लेट गए. उन्हें नींद नहीं आ रही थी. टीवी चालू कर के वे चैनल बदलने लगे. एक चैनल पर कोई संत कथा का वाचन कर रहे थे. उन्होंने मन में विचार किया कि चलो, आज कथा का ही आनंद ले लिया जाए.

इतने में सुरभि दूध का गिलास ले आई. कुलवंत को धार्मिक चैनल पर कथा सुनते देख आश्चर्यचकित हो उठी. उस ने दूध का गिलास टेबल पर रखते हुए कनखियों से कुलवंत की तरफ देखा और बोली, ‘‘वाह, आप को भी कथाओं का शौक है?’’

सुरभि की बात पर कुलवंत की  हंसी छूट गई. वे सुरभि की  तरफ देखे बगैर ही बोल पड़े, ‘‘सब अपनी रोजीरोटी के लिए दौड़ रहे हैं. अपने भारत में तो आजकल कथाकारों की बाढ़ आई हुई है. इन कथाओं में धन बरस रहा है. धर्म के नाम पर न तो लूटने वालों की कमी है और न ही लुटाने वालों की. मैं भी कभीकभी सोचता हूं कि सबकुछ छोड़ कर कथावाचक बन जाऊं. धन और शोहरत के साथ सुंदरसुंदर चेहरे वाली हसीनाओं के दर्शन का लाभ भी मिलता रहेगा.’’

‘‘अरे, रहने भी दो. हसीनाओं को देखना आप को आता ही कहां है? हां, साधु बन कर माला फेरनी हो तो बात दूसरी है.’’

कुलवंत सुरभि की बात सुन कर सन्न रह गए. वे समझ गए कि सुरभि का मूड आज बड़ा रोमांटिक है. उस की द्विअर्थी बातों में कुछ छिपा है. उन्होंने सुरभि की तरफ देख कर कहा, ‘‘ठीक है, तुम जाओ यहां से, रात काफी हो गई है, मैं सोना चाहता हूं. तुम भी अब अपने कमरे में जा कर सो जाओ.’’ सुरभि अपने कमरे में चली गई. उस के चेहरे पर मदमस्त कर देने वाली मुसकान थी. कुलवंत ने दूध के गिलास की तरफ देखा. आज दूध पीने की इच्छा नहीं हो रही थी. मन में विचार किया कि निशांत जल्दी से वापस आ जाए. वे टीवी का स्विच बंद कर के सो गए. कुछ देर बाद नींद ने डेरा डालना शुरू कर दिया. अभी पूरी आंख लगी भी नहीं थी कि अचानक चौंक कर उठ बैठे. आंखें खुलीं तो देखा पलंग के पास कोई खड़ा है.

‘‘कौन है?’’ घबराहट में मुंह से निकल गया.

‘‘मैं हूं.’’

‘‘मैं कौन?’’

‘‘सुरभि.’’

‘‘इस समय यहां क्या करने आई हो?’’

‘‘मुझे नींद नहीं आ रही. अपने कमरे में डर लग रहा है, मैं अकेली वहां नहीं सो सकती.’’

‘‘पागल मत बनो. जाओ, अपने कमरे में. अपनेआप नींद आ जाएगी.’’

‘‘नहीं, डर लगता है. मैं तो यहीं पर सोऊंगी.’’

‘‘समझा करो. तुम अब छोटी बच्ची नहीं रहीं.’’

‘‘इसीलिए तो यहां सोने आई हूं.’’

इतना कहते ही सुरभि कुलवंत के पास लेट गई. कुलवंत की सांसें एकाएक फूलने लगीं. वे पलंग पर एक कोने पर सरक गए. घबराहट के मारे बुरा हाल हो रहा था. उन्होंने सुरभि की तरफ देख कर कहा, ‘‘प्लीज, यह गलत है. हमारी संस्कृति इस की इजाजत नहीं देती. कम से कम हम दोनों की उम्र का फर्क तो देखो. मैं तुम्हारे पापा की उम्र का हूं.’’

सुरभि ने भी करवट बदली और कुलवंत से एकदम सट कर बोली, ‘‘मुझे बेकार की बातें मत समझाइए. आप को समझ में नहीं आता तो मैं बता देती हूं. अब जमाना बदल गया है. जो भूख लगने पर भोजन नहीं करता वह पागल है.’’

‘‘प्लीज, कहना मानो. कल तुम्हारे पापा को मालूम होगा तो वह मेरे बारे में क्या सोचेगा.’’

‘‘डरिए मत, किसी को कुछ भी पता नहीं चलेगा. हो जाने दीजिए, जो कुछ होता है. जहां प्यार पनपता है वहां उम्र का हिसाब गौण हो जाता है. आजकल जमाना बदल गया है. प्यासी तृप्त होगी तो उस का परिणाम मिलेगा. यह व्यभिचार नहीं, उपकार होगा.’’

अचानक उस ने अपनी बंद मुट्ठी कुलवंत की तरफ बढ़ा दी.

‘‘क्या है?’’

‘‘तुम्हारी दवा. आज सुबह मैडिकल शौप से खरीदी थी.’’

इतना कहते हुए उस ने अपनी बंद मुट्ठी खोली. उस में एक ‘पैकेट’ था. यह देख कुलवंत की आंखें आश्चर्य से फटी की फटी रह गईं. वह समझ गया कि वास्तव में जमाना बदल गया है. नए जमाने के सामने उस ने घुटने टेक दिए. अगले ही पल उस ने अपना हाथ आगे बढ़ा दिया.

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