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अरे, चुप कर. तुझे पता नहीं है कि हम नीच जात हैं, मंदिर के अंदर नहीं जा सकते… अंदर सब छूत हो जाएगा.’’ ‘‘अरे, अंदर जाने से छूत हो जाएगा और हम उठा कर बैलगाड़ी में रखेंगे तो क्या दानपात्र शुद्ध रहेगा?’’

नौजवान मजदूर थोड़ा उग्र हो रहा था. हालांकि, उस का सवाल तो जायज था, पर गांव के अंदर यह सवाल बदतमीजी कहलाता है. ‘‘क्या फुसफुसा रहा है यह?’’ पंडितजी के गोरे चेहरे पर गुस्सा छलक आया. ‘‘कुछ नहीं पंडितजी, नया लड़का है… शहर में मजदूरी करता था… गांव के कायदेकानून भी नहीं जानता है,’’ इतना कहने के बाद बड़ी उम्र वाले मजदूर ने उस नौजवान मजदूर को कुहनी मारी और दोनों रस्सी पकड़ कर दानपात्र को मंदिर से बाहर लाने की कोशिश करने लगे. कुछ देर की मशक्कत के बाद दानपात्र मंदिर की दहलीज के बाहर आ गया. फिर उन्होंने दानपात्र पर एक कपड़ा डाल कर उसे उठा कर ट्रौली में लाद दिया और पंडितजी भी अपनी मोटरसाइकिल पर किक मार कर उस ट्रौली के आगेआगे चल दिए. पंडितजी और बैलगाड़ी दोनों की मंजिल ठाकुर साहब की हवेली थी. कुछ देर बाद दानपात्र और पंडितजी दोनों ठाकुर विक्रम सिंह की हवेली के विशाल आंगन में पहुंच गए थे.

ठाकुर साहब ने अपनी जेब से बड़ी सी चाभी निकाल कर दानपात्र को खोल दिया और उन की लालच से भरी नजरें दानपात्र के अंदर रखे हुए हरेलाल नोटों पर गड़ गई थीं. ठाकुर साहब मुसकराते हुए एक कोने में पड़ी हुई आरामकुरसी में धंस गए और वहीं पर रखा हुआ हुक्का गुड़गुड़ाने लगे. दानपात्र में आए हुए ढेर सारे नोटों को गिनने का काम आसान नहीं था, पर पंडितजी बड़ी लगन के साथ यह काम एक सहायक के साथ मिल कर करने लगे और कुछ घंटों की मशक्कत के बाद नोट गिनने का काम पूरा हो गया. ‘‘पूरे 70,000 रुपए का दान आया है इस बार ठाकुर साहब,’’ पंडितजी ने एक गर्वीली मुसकान के साथ कहा. ‘‘क्या…

एक लाख भी पूरा नहीं हो पाया? इस बार तो बहुत कम दान आया है… लगता है कि आप अपना काम सही से नहीं कर रहे हैं पंडितजी,’’ ठाकुर विक्रम सिंह की आवाज में कठोरता थी. ‘‘नहीं ठाकुर साहब… ऐसा तो नहीं है. हम तो बराबर गांव वालों को दान और चढ़ावा देने के लिए कहते रहते हैं,’’ पंडितजी की यह बात ठाकुर साहब को रास नहीं आई और उन्होंने पंडितजी को लताड़ते हुए कहा कि वे गांव वालों को ईश्वरीय प्रकोप से डरा कर रखें… और मुमकिन हो तो हाथ की सफाई और मूर्तियों को दूध पिलाने वाले चमत्कार भी लोगों के सामने दिखाएं, जिस से गांव वाले दानपात्र में जी खोल कर दान दें. ठाकुर साहब ने बातोंबातों में पंडितजी को यह भी चेता दिया कि खुद उन की तनख्वाह भी इसी चढ़ावे के पैसों पर निर्भर करती है और अगर दान और चढ़ावे में इजाफा नहीं हुआ तो पंडितजी की तनख्वाह मिलना बंद हो जाएगी. ठाकुर साहब की ये धमकी भरी बातें सुन कर पंडितजी को अपनी तनख्वाह बंद हो जाने का डर सताने लगा और वे मन ही मन में एक योजना पर विचार करने लगे.

ठाकुर साहब की कुलदेवी का मंदिर गांव के शुरुआती छोर पर बना हुआ था. 55 साल के ठाकुर विक्रम सिंह को कुलदेवी का यह मंदिर विरासत में मिला था और उन्होंने इस की पूजापाठ की सारी जिम्मेदारी पंडित रमेश चंद को दे दी थी. मंदिर में गांव वालों द्वारा जो भी रुपयापैसा दानपात्र में आता था, वह ठाकुर साहब के पास जाता था, जबकि चढ़ावे के रूप में प्रसाद, फलमिठाई वगैरह आता था, वह पंडितजी खुद रख लेते थे.

 

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