एक तरफ तो सरकार ने लगभग पूरे देश में पढ़ाई को निजी हाथों में दे कर बेहद महंगा बना दिया और दूसरी तरफ गरीबों की हाय को बंद कराने के नाम पर उन्हें ईडब्लूएस कोटे में 25 फीसदी सीटें दिलवा दीं. निजी स्कूल इन सीटों पर बच्चों को नहीं लेना चाहते क्योंकि एक तो इन बच्चों से फीस नहीं मिलती और दूसरे इन फटेहाल बच्चों से ऊंचे घरों से आए बच्चों की शान घटती है.
क्योंकि ईडब्लूएस कोटा हर स्कूल में है, इसे लागू न करने के बहाने ढूंढ़े जाते हैं और पते को वैरीफाई करना उन में से एक है. मेधावी पर ?ाग्गीझोंपड़ी में रहने वाले बच्चों के पते पक्के नहीं होते. जिस ?ाग्गी में वे रहते हैं, वह कब टूट जाए, कब इलाके का दादा उन्हें निकाल फेंके या कब मां या बाप की नौकरी छूट जाए और उन्हें मकान बदलना पड़े, कहा नहीं जा सकता. सही पता न होना एक बहाना मिल गया है स्कूलों को इन ईडब्लूएस (इकोनौमिकली वीकर सैक्शन) बच्चों को एडमिशन न देने का.
असल में बात यह है कि कोई नेता, कोई अफसर, कोई स्कूल मालिक नहीं चाहता कि नीची जातियों के बच्चे उन के स्कूलों में आएं. वे एक तो उन जातियों से आते हैं जिन्हें अछूत माना जाता रहा है और दूसरे वे बातबात पर स्कूल के प्रोग्रामों के लिए पैसे नहीं दे सकते. संगमरमर के फर्श पर वे सीमेंट का पैच लगते हैं और सब को चुभते हैं. अमीर घरों के बच्चों को इन गरीब बच्चों को परेशान करने के लिए भी लगाया जाता है पर चूंकि दमखम में ये हट्टेकट्टे होते हैं, कई बार उग्र हो उठते हैं और हंगामा खड़ा कर देते हैं, तो पते का बहाना बड़ा मौजूं है.
दिल्ली सरकार ने एक मामले में कोर्ट को कहा कि पते के नाम पर स्कूल एडमिशन देने से इनकार या पहले दिया एडमिशन रद्द नहीं कर सकता पर स्कूल के वकील अड़े हुए हैं कि पता जांचने का हक उन के पास है. यह तो उन इक्केदुक्के मामलों में है जिन में एडमिशन न देने या कैंसिल करने पर गरीब बच्चे के मांबाप कोर्ट चले गए. आमतौर पर तो उन के पास न अक्ल होती है, न पैसे कि अदालत में जाया जा सकता है.इन मांबाप को मालूम है कि अदालत तो फैसला देने में 4-5 साल लगा देती है और इतने में उन का बच्चा स्कूल की राह देखता हुआ जवान हो जाएगा, इसलिए वे चुपचाप सरकारी स्कूल में चले जाते हैं या घर बैठ जाते हैं.
सरकारी स्कूल वह मशीन है जहां गरीबों के बच्चों को उन की सही औकात बताई जाती है. यहां अध्यापक पढ़ाने नहीं, कमाने आते हैं या जाति का जहर घोलने. यहां हर टीचर द्रोणाचार्य होता है जो एकलव्य को हुनर सीखने नहीं देना चाहता या वह पंडित होता है जिस ने शंबूक के वेद पढ़ने पर एतराज जताया था.
पहला मामला महाभारत का है और दूसरा रामायण का. दोनों ग्रंथों में हिंदुओं के तरहतरह के भगवान हैं और सरकारी स्कूलों के टीचर निजी स्कूलों के टीचरों की तरह इन धर्मग्रंथों के हुक्म की तामील ही करते हैं– कुछ भी हो जाए, नीची जाति के लोगों के बच्चों को पढ़ने न दो. वे भगवा ?ांडा उठा लें, कांवड़ उठा लें, हिंदुत्व के नाम पर किसी का भी सिर फोड़ दें, सही है पर पढ़ लें, छीछी घोर कलयुग.
आज का हिंदुत्व असल में मुसलमानों के खिलाफ नहीं दलितों और शूद्रों के खिलाफ है. हिंदुत्ववादी जानते हैं कि मुसलमान तो मदरसों के चक्कर में पढ़लिख नहीं रहे और वे दलितों व शूद्रों को भी पढ़ने नहीं देना चाहते, इसलिए स्कूलों ने पढ़ाने या एडमिशन न देने के रोज नएनए बहाने ढूंढ़ लिए हैं.